कौन नहीं जानता कि
वही विष, जो प्राणों का नाश कर सकता है, प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है। अवसर और अवस्था का भेद है। मनुष्य को
गंदगी से, दुर्गन्ध से, जघन्य वस्तुओं
से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसलिए कि गंदगी और
दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है। जिन प्राणियों में घृणा
का भाव विकसित नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें
दबकने, दम साथ लेने या छिप जाने की शक्ति डाल दी है। मनुष्य
विकास-क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुँच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं
से आप ही आप घृणा हो जाती है। घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक।
ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्रा का अंतर
है।
तो घृणा स्वाभाविक
मनोवृति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गयी है। या यों कहो कि वह
आत्म-रक्षा का ही एक रूप है। अगर हम उससे वंचित हो जाएँ, तो हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे। जिस
वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है, उसे शिथिल होने देना,
अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना है। हममें अगर भय न हो तो साहस का
उदय कहाँ से हो। बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी
तरह भय का प्रचंड रूप ही साहस है। जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग
करके उसे विवेक बना दें। इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके
बुरे आचरण से घृणा करें। धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसलिए
कि उसमें धूर्तता है। अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो
हमारी घृणा भी जाती रहेगी।
पाखंड, धूर्त्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृत्तियों
के प्रति हमारे अंदर जितनी ही प्रचंड घृणा हो, उतनी ही
कल्याणकारी होगी। घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में
पड़ जाते हैं और स्वयं वैसा ही घृणित व्यवहार करने लगते हैं। जिसमें प्रचंड घृणा
है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी
जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा। महात्मा गाँधी इसलिए
अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं कि उन्हें अछूतपन से
प्रचण्ड घृणा है।
जीवन में जब घृणा
का इतना महत्त्व है, तो
साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही
प्रतिबिंब है? मानव-हृदय आदि से ही सु और कु का रंगस्थल रहा
है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो ‘सु’ या सुंदर है और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति
मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और ‘कु’
या असुंदर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा। साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य
है। ‘कु’ और ‘’सु
का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है। प्राचीन साहित्य धर्म और ईश्वर द्रोहियों के
प्रति घृणा और उनके अनुयायियों के प्रति श्रद्धा और भक्ति के भावों की सृष्टि करता
रहा। (‘जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान’ से)
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