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Dec 6, 2020

आलेख- छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की साझी संस्कृति- महानदी


-प्रो. अश्विनी केशरवानी

 महानदी, छत्तीसगढ़ प्रदेश एवं उड़ीसा की अधिकांश भूमि़ को सिंचित ही नहीं करती, वरन् दोनों प्रदेशों की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ती भी है। आज भी छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परम्पराएँ सिहावा से लेकर महानदी के तट पर बसे ऐतिहासिक और पौराणिक नगर सोनपुर, उड़ीसा तक मिलती है। यह भी सही है कि उड़ीसा और पूर्वी छत्तीसगढ़ का सीमांकन महानदी करती है और इसके तट पर बसे ग्रामों में सांस्कृतिक साम्य दिखाई देता है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में उड़िया संस्कृति की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। चाहे मेला- मड़ई हो या रथयात्रा, उसमें उड़ीसा का उखरा प्रमुख रूप से मिलता है। इसी प्रकार जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा उड़ीसा का एक प्रमुख पर्व है जिसे छत्तीसगढ़ के अन्यान्य ग्रामों-सारंगढ़, रायगढ़, चंद्रपुर, सक्ती, रायपुर, राजिम, शिवरीनारायण, बिलासपुर और बस्तर में बड़े धूमधाम से आज भी मनाया जाता है। महानदी के तट पर बसे सांस्कृतिक केंद्रों क्रमशः सिहावा, सिरपुर, राजिम, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर, पुजारीपाली, संबलपुर और सोनपुर के अलावा आरंग, सरायपाली, बसना, सारंगढ़, रायगढ़, बालपुर और हसुवा आदि नगरों में एक साम्य है। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्परा को प्रदर्शित करने वाले भित्ति चित्र महानदी के तटीय अथवा पास में स्थित ग्रामों में आज भी देखने को मिलते हैं।

इतिहास साक्षी है कि उड़ीसा का संबलपुर सन् 1905 तक छत्तीसगढ़ के अंतर्गत था। अक्टूबर सन् 1905 में सम्बलपुर, बंगाल प्रान्त में स्थानान्तरित किया गया। आगे जब उड़ीसा प्रांत बना तब सम्बलपुर उसमें सम्मिलित किया गया। इसी समय चन्द्रपुर-पदमपुर और मालखरौदा स्टैट तथा नौ गौंटियाई खालसा गाँव छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिलान्तर्गत जांजगीर तहसील में स्थानान्तरित की गयी। जब जिलों का पुनर्गठन किया गया तब सरसींवा खालसा और भटगाँव, बिलाईगढ़-कटगी, लवन, सोनाखान जमींदारी को रायपुर जिला में स्थानान्तरित कर दिया गया।

 छत्तीसगढ़़ का नाम सुनते ही सोचा जाता है कि इस क्षेत्र में 36 गढ़ या किले होंगे। वास्तव में गढ़शब्द का अर्थ होता है-प्रशासनिक भवन या किला। प्रसिद्ध संक्षेाभ के ताम्रपत्र के  अष्टादश अटवी राज्यसे ऐसा संकेत मिलता है कि अट्ठारह राज्यों के समूह की परम्परा छठी शताब्दी से चली आ रही है। रतनपुर और रायपुर के 18-18 गढ़ों के संयुक्त रूप के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ बना है। लाला प्रदुम्न सिंह लिखते हैं कि प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ विभाग में छत्तीस राजा राज्य करते थे, इसमें 36 राजधानियाँ थी। प्रत्येक राजधानी में एक-एक गढ़ था। 36 गढ़ होने के कारण इस भूभाग का नाम छत्तीसगढ़ पड़ा (लाला प्रदुम्न सिंह, नागवंश, पृ0 2)  चीजम साहब बहादुर ने 36 गढ़ों की सूची दी है और हेविट साहब बहादुर ने तो अपनी सेटलमेंट रिपोर्ट में उन गढ़ों के नाम, ग्रामों की संख्या के साथ दिए हैं, जो शिवनाथ नदी के उत्तर में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत और दक्षिण में रायपुर राजधानी के अंतर्गत थे ( सी. यू. बिल्स: जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी पृ. 199, 210 )। छत्तीसगढ़ शब्द की उत्पत्ति के विषय में एक संदेह और होता है कि कहीं इस शब्द का सम्बंध इस प्रान्त में रहने वाली छत्तीस कुरियों से तो नहीं ? रतनपुर निवासी श्री गोपालचंद्र मिश्र कृत खूबतमाशा और श्री रेवाराम कृत विक्रमविलासमें मिलता है-बसे छत्तीस कुरी सब दिन के बसवासी सब सबके। कवि रेवाराम ने विक्रमविलास में लिखा है-

 बसत नगर सीमा की खानी, चारी बरन निज धर्म निदान

 और कुरी छत्तिस है तहाँ, रूप राशि गुन  पूरन महाँ ।             

छत्तीसगढ़ के नरेशों ने त्रिकलिंगाधिपतिऔर त्रिपुरीशआदि संख्या विरुद्ध शब्दों को सदबहुमान धारण किया था और इनका संकेत उनके ताम्र शासनों में भी मिलता है। इस आधार पर पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने यह तात्पर्य निकाला कि मध्ययुग में किसी राज्य की समर विजित शक्ति और महत्ता बतलाने के लिए उनका मान गढ़ों की संख्या से लगाया जाता था। जैसे बावनगढ़ मंडला, छत्तीसगढ़ रतनपुर आदि। उनका कथन है कि इस प्रान्त को छत्तीसगढ़-रतनपुर  कहते थे। कालान्तर में रतनपुर शब्द का लोप हो गया और पूर्व विशेषण छत्तीसगढ़ राजा तथैव राज्य का अभिधान बन गया (हीरालाल: छत्तीसगढ़ी ग्रामर, प्रस्तावना पृ. 4)। संख्या-विरूद शब्दों का प्रयोग मध्यकाल में स्थान अथवा राज्य के महत्त्व को सूचित करने के लिए प्रचलित था। उदाहरणार्थ देखिये-

दुर्ग अठारह अमित छवि सम्बलपुर परसिद्ध।

गढ़ सत्रह कोउ ना आए नमक छोड़ी अकबर के भ।।

इसके अतिरिक्त देवार जाति के गा जाने वाले गोपल्ला गीत में ऐसे और भी अभिधान हमें देखने को मिलते हैं-  अनलेख गढ़ चांदा, अस्सीगढ़ दुर्ग-धमधा, बावनगढ़ गढ़ा, बावनगढ़ मंडला, अठारहगढ़ रतनपुर, अठारहगढ़ रइपुर, सोरागढ़ नागपुर, सोरागढ़ बलौदा, सातगढ़ संजारी, सातगढ़ कोरिया, बयालिसगांव भटगाँव, बारागाँव पौंसरा, बाइस डंड उड़ियान, सोरा डंड सिरगुजा। (प्रहलाद दुबे कृत जयचन्द्रिका, हस्तलिखित)।

छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में रियासतें ब्रिटिश शासन, जागीर, पिंरस पैलेट्री आदि का प्रशासनिक स्तर पर उल्लेख मिलता है। विभिन्न जाति, वर्ग और देशी रियासतें छत्तीसगढ़ में भी थी, जैसे सोमवंशी, हैहयवंशी, वैष्णवपंथी महंत आदि। हैहयवंशी़ राजाओं का राज्य जबलपुर से संबलपुर तक था। इनकी पहली राजधानी जबलपुर के पास त्रिपुरी में थी, लेकिन आसफअली के अनुसार सन् 1756 में हुए युद्ध में यह वंश समाप्त हो गया। इसके पूर्व आठवीं शताब्दी में इस वंश की एक शाखा रतनपुर आ गयी थी। इसके पूर्व यहाँ सोमवंशी राजाओं का शासन था, तब इस क्षेत्र को दक्षिण कोसलकहा जाता था। सोमवंशी राजाओं की राजधानी उड़ीसा के सोनपुर में थी। छत्तीसगढ़ को परिभाषित करते हुए रतनपुर के कवि श्री गोपाल मिश्र ने सन् 1689 में लिखा है-

छत्तीसगढ़ गाढ़े जहाँ बड़े गढ़ोई जानि

सेवा स्वामिन को रहैं सकें ऐंड़ को मानि।

150 वर्ष बाद रतनपुर के बाबू रेवाराम कायस्थ ने अपने विक्रम विलासमें छत्तीसगढ़शब्द का प्रयोग किया है-

तिनमें दक्षिण कोसल देसा, हँ हरि ओतु केसरी बेसा।

तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन, पुण्यभूमि सुर मुनि मन भावन।

रत्नपुरी तिनमें है नायक, कासी सम सब विधि सुख दायक।

छत्तीसगढ़ की चौदह देशी रियासतें अंग्रेजी और भोंसला राजाओं से संधि के फलस्वरूप एक निश्चित राशि बतौर नजराने ब्रिटिश कम्पनी को देती थी। इन देशी रियासतों में बस्तर, कांकेर, सारंगढ़, रायगढ़, सक्ती, उदयपुर, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, चांगभखार, खैरागढ़, छुईखदान, राजनांदगाँव, कवर्धा, प्रमुख थे। इन देशी रियासतों में बंगाल के छोटा नागपुर क्षेत्र से पाँच रियासत क्रमशः सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया और चांगभखार को जहाँ छत्तीसगढ़ में मिलाया गया, वहाँ छत्तीसगढ़ की पाँच रियासतें क्रमशः कालाहाँडी, संबलपुर, पटना, बालांगीर और खरियार उड़ीसा में मिला दी गयीं।

इतिहास: ईसा पूर्व से

छत्तीसगढ़ के साहित्यकार और पुरातत्वविद् पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय श्री विष्णु यज्ञ स्मारक ग्रंथमें लिखते हैं- प्राचीन साहित्य के द्वारा कोसल देश पर जो प्रकाश पड़ता है उसके अनुसार उसका इतिहास 700 ईसा पूर्व का है।  महावैयाकरण पाणिनी ने अपने व्याकरण में कलिंग और कोसल सम्बंधी सूत्र लिखे हैं। अनेक भाष्यकारों का मत है कि कोसलशब्द का प्रयोग यहाँ पर दक्षिण कोसलके लिए किया गया है। ईसा पूर्व 300 की ब्राह्मी लिपि में लिखित दो ताम्र मुद्राएँ लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में संगृहीत हैं। इस  पर कोसल चेदि की राजधानी त्रिपुरीनाम अंकित है। साथ ही स्वस्ति सहित सरित और शैल के तीन चिह्न बने हैं, मानो यह तीन राज्य कोसल, मैकल और चेदि के द्योतक हैं।

ह्वेनसांग की यात्रा

प्रयाग (इलाहाबाद) के किले  में स्थित स्तम्भ में जो उत्कीर्ण लेख है उसमें कोसल का उल्लेख है। उसमें यह भी बताया गया है कि कोसल दक्षिणपथ के राज्यों में से एक है। प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हे ह्वेनसांग ने सन् 619 में दक्षिण कोसल की यात्रा की थी। उसने इसकी सीमाओं के बारे में जो बातें लिखीं हैं, वे यथार्थ के बहुत करीब जान पड़ती हैं। उसके अनुसार दक्षिण का विस्तार लगभग दो हजार मील के वृत्त में था। इसके मध्य में रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ और सम्बलपुर जिले का अधिेकांश भाग आता था। उत्तर में इसकी सीमा अमरकंटक को पार कर गई थी। अमरकंटक जो नर्मदा नदी का उद्गम स्थान है, मैकल पहाड़ की श्रेणियों के अंतर्गत आता है। रायपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिलों की ईशान कोण में फैली हुई ये श्रेणियाँ उसकी सीमा बनाती है। पश्चिम भाग में इसकी सीमा दुर्ग और रायपुर जिलों के शेष भाग को समेटती हुई सिहावा तक चली जाती है और बैनगंगा को पार कर बराबर की सीमा को छूने लगती है। दक्षिण में इसका विस्तार बस्तर तक था, जबकि यह पूर्व में महानदी की उपरी घाटियों को समावेशित करती हुई सोनपुर तक चली गयी थी, जिससे पटना, बामड़ा, कालाहाँडी आदि भी इसके अंतर्गत आ जाते थे जहाँ से सोमवंशी राजाओं की प्रशस्तियाँ प्राप्त हुई हैं। पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय के अनुसार दक्षिण कोसल की सीमा इस प्रकार थी-उत्तर में गंगा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में उज्जैन और पूर्व में समुद्र के तट पर स्थित पाली (उड़ीसा)। उज्जैन को दक्षिण कोसल के पश्चिम में बताने वाला महाभारत के वन पर्व का श्लोक इस प्रकार है-

गोसहस्र फलं विंद्यात् कुलंचैव समुद्धरेत्।

कोसलां तुसमासाद्य कालतीर्थमुप स्पृशेत्।। ( अध्याय 84, वन पर्व )

जहाँ हीरे मिलते थे

श्री प्यारेलाल गुप्त द्वारा लिखित प्राचीन छत्तीसगढ़के अनुसार गिल्बन नामक एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि संबलपुर के निकट हीराकूट नामक एक छोटा- सा द्वीप है जहाँ हीरा मिलता है। इन हीरों की रोम में बड़ी खपत थी। उनके लेख से सिद्ध होता है कि कोसल का व्यापार रोम से था और रोम के सिक्के जो महानदी की रेत में पा हैं, इसके प्रमाण हैं। ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि मध्यप्रदेश से हीरा लेकर लोग कलिंग में बेचा करते थे। यह महानदी के तट पर स्थित कोसल देशान्तर्गत संबक या संबलपुर छोड़ दूसरा नगर नहीं है।

सांस्कृतिक परम्परा के द्योतक भित्ति चित्र

महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में घरों की दीवारों में छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की साक्षी लोक परम्परा के भित्ति चित्र मिलते हैं। सन 1985 में महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर में सर्वप्रथम पत्रकार श्री सतीश जायसवाल ने लोक चित्रांकन की  इस शैली की पहचान की। उन्होंने बताया कि इस भित्ति चित्र में श्रीकृष्ण चरित्र, जगन्नाथ चरित्र, और रामायण के प्रसंग प्रमुख रूप से होते हैं। इनमें गणेश, लक्ष्मी, राधाकृष्ण, राम लक्ष्मण जानकी और हनुमान, राम का वनगमन, स्वर्ण मृग, शेर, धनुर्धर शिकारी के अलावा मछली, मोर का जोड़ा आदि मिलता है। इनके रंग संयोजन भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के रंगों से मिलते हैं, इनका रंग हल्का होता है क्योंकि इसमें प्रयुक्त होने वाले नैसर्गिक रंग वृक्षों की छाल, वनस्पति, कोयला और पत्थर के चूर्ण आदि से तैयार किये जाते हैं। इन भित्ति चित्रों को बनाने वाले लोक कलाकार निषाद-केंवट, धीवर, मछुवारे अथवा शबर जाति के भाट होते हैं। इन्हें बिरतिया भी कहा जाता है।

 मैंने इन भित्ति चित्रों को अपने पैत्रिक गाँव हसुवा में देखा। हसुवा ग्राम पहले जगन्नाथ मंदिर पुरी में चढ़ा ग्राम था जिसे हमारे पूर्वज श्री धीरसाय साव ने अपने पुत्रों मयाराम, मनसाराम और सरधाराम के नाम से खरीदा था। यहाँ इन भित्ति चित्रों को देखकर मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने यहाँ के पूर्व सरपंच श्री गोरेलाल केशरवानी से इसकी जानकारी चाही थी। उन्होंने मुझे बताया कि इन भित्ति चित्रों को बनाने वाले भाट उड़ीसा प्रांत से आते हैं। ये लोग प्रतिवर्ष कार्तिक और जेठ मास के बीच आते हैं, घरों की दीवारों में चित्र बनाते हैं और उड़िया में कोई गीत गाते हैं। बदले में चावल लेते हैं। आजकल पैसे भी लेते हैं। ये चित्र साल भर दीवारों में बने होते हैं। इन लोक चित्रकार में निषाद यजमान मुख्य रूप से महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में रहते हैं। इसलिए भित्ति चित्रांकन की यह लोक परम्परा महानदी के तटवर्ती ग्रामों में अधिक दिखती है। लेकिन मध्य उड़ीसा के कृषि प्रधान गाँवों में यह लोक चित्रांकन की परम्परा अनुष्ठानिक हो जाती है। यहाँ की गृहस्थ और अविवाहित युवतियाँ दशहरा के दिन से अपने अपने घरों में भित्ति चित्र बनाती हैं। भित्ति चित्रांकन की यह परम्परा कृषि आधारित समृद्धि ग्रामीण समाज में एक शुद्ध लोककला के रूप में पोषित हुई दिखती है। महानदी से सिंचित कृषि ग्रामों में इनके भित्ति चित्रों की बहुलता होती है। लेकिन जैसे जैसे महानदी के तट से दूर होते हैं या सूखाग्रस्त इलाके की ओर बढ़ते हैं, ये भित्ति चित्र कम होने लगते हैं। इसी प्रकार सड़क के भीतर की ओर बसे हुए गाँवों में तो ये भित्ति चित्र खूब देखने को मिलते हैं, लेकिन जैसे -जैसे सड़क की ओर आते हैं ये कम होते जाते हैं। भित्ति चित्रांकन की महानदी घाटी की यह लोक परम्परा कितनी पुरानी है तथा इसके विकास का क्रम क्या रहा है, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। वनों और पहाड़ों के बीच बसा एक छोटा-सा गाँव ओंगना प्रागैतिहासिक शैलचित्रों के कारण आज पुरावेत्ताओं की दुनिया में महत्त्व और ख्याति पा गया है। पहाड़ी चट्टानों पर गैरिक रेखाओं से बने इन शैलचित्रों को देखने के लिए देशी और विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं। पर इनमें से बहुत कम लोग शैलचित्रों और अर्थो को समझतें हैं। पर्यटकों को कोई बताता भी नहीं कि इस ओंगना ग्राम में समसामयिक जन जीवन भी विद्यमान है, इनकी लोक परम्पराएँ जीवित है। यहाँ उड़िया मूल के कोलताकृषक रहते हैं। इन कोलता कृषकों को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया गया है।

उड़ीसा राज्य के गठन के पूर्व उदयपुर की आदिवासी रियासत तत्कालीन मध्य प्रांत बरार के अंतर्गत संबलपुर थी। धरमजयगढ़ उसका मुख्यालय था। उड़ीसा राज्य के बनते ही संबलपुर तो मध्य प्रांत-बरार से अलग होकर इस नये प्रांत में सम्मिलित हो गया। लेकिन यह आदिवासी रियासत तत्कालीन मध्य प्रदेश में सम्मिलित कर ली गयी। इसके साथ ही ओंगना ग्राम भी तत्कालीन मध्य प्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़ में आ गया।

छत्तीसगढ़ की पूर्वी सीमा पर उड़ीसा से लगा एक प्रमुख गढ़ तथा वर्तमान में रायगढ़ जिले का एक प्रमुख तहसील मुख्यालय सारंगढ़ है। यहाँ छत्तीसगढ़ी और उड़िया संस्कृति का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। चाहे रथ यात्रा पर्व हो या दशहरा, दोनों की साझी सांस्कृतिक परम्परा का समन्वय पर्व होता है। बालपुर का पाण्डेय परिवार साहित्यिक गतिविधियों से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है। पुरातत्वविद् और सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय कई भाषाओं के साथ उड़िया भाषा के भी ज्ञाता थे। उन्होंने इन भाषाओं में कई पुस्तकें लिखी हैं। अतः बालपुर को भी उड़िया भाषी और हिन्दी भाषी लोगों का संधिस्थल कहा जा सकता है; क्योंकि उनके काव्यों में उड़िया और छत्तीसगढ़ी संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता हैं पूर्वी छत्तीसगढ़ और पश्चिमी उड़ीसा के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं में व्याप्त एकरूपता इनका प्रमुख आधार है। पंडित मुकुटधर पांण्डेय ने भी लिखा है:-

किंशुक कानन आवेष्ठित वह महानदी तट-देश।

सरस इक्षु के दंड, धान की नवमंजरी विशेष।।

सम्पर्कःराघव’, डागा कालोनी, चाम्पा-495671 (छ.ग.)


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