इन दिनों कविताएँ
लिखती है मुझे
मैं तो बस बिखेर
देती हूँ
पन्नों पर कुछ
अव्यक्त ,
खुरदुरे व कोमल- से शब्द
जो लेते हैं जन्म
पन्नों पर
कभी फूल बन
तो कभी बरगद की
छाँव बन
कभी बहती -नदी सी
कभी मरुस्थल की धूल
-सा
कभी शब्द ढूंढ लेते
हैं
घरौंदों का ठिकाना
तो कभी रह जाते हैं
सफर में
बन अनाथ का बहाना
कुछ शब्द आँखों में
सागर ला देते हैं
कुछ शब्द कभी - कभी
मुझे भी पुकार लेते
हैं
कुछ बह जाते हैं
ताप्ती की धार संग
कुछ चल पड़ते हैं
ढूँढने जीवन के रंग
सच की लिखती नहीं
मैं कविताएँ
कविताएँ ढूंढती हैं
मुझमें भावनाएँ
रातों के अँधेरे
में
पुकारती है मुझे
कभी ओढ़ती है मुझे
कभी संग सुलाती है
मुझे।
जगती है मुझे बन
नए - नए शब्द ।
हाँ , मैं लिखती नहीं कविताएँ
कविता लिखती है मुझे।
2 comments:
सुंदर।
बहुत सुंदर। मैं लिखती नहीं कविताएँ, कविता लिखती है मुझे
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