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आज जैसे ही
फेसबुक खोला तो देखा मेरी चचेरी बहिन
श्वेता ने नए फोटो अपलोड किए हैं। मैं मन ही मन सोचने लगी कितनी सुन्दर दिखती है श्वेता और उस की नित
नई पोशाक तो सब डिज़ाइनर से डिजाइन
करवाई हुई लगती हैं । तस्वीरों को ज़ूम करते हुए
मैं पहुँच गई बरसों
पीछे, जब हम दोनों कुँवारी थीं।
हर छुट्टी में वह अपने ननिहाल यानी मेरी दादी के घर आती और मैं अपने ददिहाल। हम दोनों साथ-साथ खेलते-कूदते
और खूब शैतानियाँ करते, लेकिन हाँ तब उस का रहन-सहन गाँव की
लड़कियों की तरह देसी होता था। वह तो पूरी छुट्टियाँ बड़े मज़े से बिताती और दूसरी
तरफ मेरी माँ मुझे गर्मी की छुट्टियों में भी कुछ न कुछ पढ़ाई ही करवाती रहती, जो
मुझे मन ही मन एक कैद के समान लगती। इसी तरह हम दोनों जवानी
की दहलीज पर चढ़ गईं थीं।
वह अपने माता-पिता
के साथ छोटे से कस्बे में रहती थी। उसे न तो पढ़ने -लिखने में कोई ख़ास रूचि थी और न ही कोई अन्य खूबी, लेकिन देखने में बड़ी सुन्दर। ऊपर से बस बी.ए.
करके आराम की ज़िन्दगी जी रही थी। सारा दिन सोती और टी.वी. पर
सास-बहू के धारावाहिक देखती। हाँ उन धारावाहिकों के माध्यम से उसे नए फैशन व रहन-सहन
का पूरा ज्ञान हो गया था। उस के विपरीत मैं शहर में रह कर अपनी इंजीयरिंग पूरी
करके नौकरी करने लगी थी।
श्वेता और मेरी
दोनों की ही सगाई की बातें शुरू हो चुकी थीं। मैं मन ही मन सोचती शादी करूँ, तो
किसी इंजीनियर से और बड़े शहर में ताकि मेरी भी नौकरी अच्छी हो जाए। महानगरों में
नौकरी के ज्यादा अवसर मिलते हैं। अपनी मंशा पापा को बताकर
मैं मेरी वर्तमान नौकरी में व्यस्त थी कि एक दिन पापा ने मुम्बई में अच्छा लड़का
देखकर मेरा रिश्ता तय कर दिया। मेरा मन आसमान में खुले
परिंदे समान मुम्बई की चमक-दमक समेटे सड़कों पर सफ़र करने लगा था, दो महीने बीते
फिर चट मंगनी और पट ब्याह। संयुक्त परिवार में विवाह कर के मैं बहुत प्रसन्न थी।
अभी कुछ दिन बीते
और मेरे पति का मुम्बई से तबादला हो गया और हम पहुँच गए गुजरात के एक छोटे शहर में। अपना घर छोड़ते हुए हृदय विदीर्ण हो रहा था। लेकिन क्या करती ?
मजबूरी वश मुम्बई छोड़ना पड़ा।
एक छोटे बच्चे के
साथ नयी जगह पर सैटल होने में शुरुआत में बड़ी तकलीफ हुई। अब न तो छोटे शहर में नौकरी थी और न ही बच्चे
को कोई सँभालने वाला, मुम्बई में तो संयुक्त परिवार
था सो घर के बड़े सारी जिम्मेदारियाँ उठा लेते।
यहाँ गुजरात में आ कर बस समझिए कि वक़्त से
समझौता कर लिया और व्यथित मन से सदा के लिए नौकरी के ख्वाब हवा कर दिए। मन में एक
कसक हमेशा के लिए घर कर गई थी
‘क्या सोचा था और क्या पाया’।
उधर इसी बीच श्वेता
की सगाई भी मुम्बई में ही हो गई और उसके पति शो बिजनेस में। लड़का देखने में खूबसूरत और फैशन-परस्त, सो
श्वेता की सुन्दरता और रहन-सहन देखकर यह रिश्ता हुआ । अब तो जैसे श्वेता को पर लग
गए । विवाह पश्चात कुछ ही महीनों में वह मुम्बई के रंग-ढंग में रंग गई।
आये दिन फेसबुक पर
मैं उस की तस्वीरें देखती और मन ही मन
अपनी किस्मत को कोसती और सोचती ‘क्या किस्मत है श्वेता की उस का पति मस्तमौला,आये दिन ये पार्टी वो पार्टी
और उन पार्टियों में दोनों बने-ठने घूमते । शायद ही श्वेता ने कभी अपनी एक ही
ड्रेस दो बार पहनी हो । हर दिन नयी ड्रेस और फिर फेसबुक पर नए फोटो । वैसे तो वह
मुझे बहुत अच्छी लगती थी; किन्तु कहीं मन के दूसरे कौने में
ईर्ष्या भी होती । क्योंकि न पढ़ाई, न लिखाई फिर भी विवाह उपरान्त उसकी मॉडल्स जैसी जिन्दगी । भला
कौन लड़की रश्क न करे ऐसी किस्मत पर।
दूसरी तरफ मैं
पढ़-लिखकर छोटे से शहर में, पति भी इतने पढ़ाकू कि पढाई के अलावा कोई काम ही नहीं। न
तो सोशल सर्किल और न ही कोई शौक। सच पूछो तो एक बार कोई नया सलवार कुर्ता खरीदती
तो छह महीने तक अलमारी में बंद रखा रहता और कभी
भूले-भटके बेचारे को बाहर की हवा लगती, तो फिर अगले छह महीने आलमारी में कैद रहता। पूरा दिन घर में ही बैठी रहती, बस मैं मेरा पति व बच्चा।
ऐसा महसूस होता
जैसे ख़्वाबों का आईना छन्न से टूट गया और आवाज़ भी किसी को सुनाई न दी। माँ कहा करती थी कि पढ़-लिखकर अच्छी
हो जाएगी तो ज़िंदगी पड़ी है मौज-मस्ती करने को, खूब
घूमना-फिरना और तरह-तरह के कपड़े पहनना । लेकिन टूटे आईने की किरचें समेटे न सिमटती सो अपनी किस्मत को खूब कोसती।
कभी-कभी पति पर खीज
भी उठती और गुस्से में कहती ‘इतनी पढ़-लिखकर काम वाली बाइयों की जिन्दगी जी रही हूँ, कहीं बाहर जाऊँ तो अच्छे कपड़े तो पहनूँ । घर
में तो वही घिसे-पिटे ही पहनूँगी न । क्या फ़ायदा इतने-पढ़े लिखे होने का । मुझ से
अच्छी तो श्वेता रही शादी के पहले भी मौज
और शादी के बाद तो ज़िंदगी के मज़े उड़ा रही है’।
एक बार तो मेरे पति
ने कहा ‘तुम क्यों कुढ़-कुढ़कर अपना खून जलाती रहती हो, घर
में अच्छे कपड़े पहना करो न, नौकर-चाकर रखो और ठाठ से रहो, हमें कोई आर्थिक परेशानी तो है नहीं’।
मुझे उन की बात
काफी हद तक ठीक लगी; लेकिन मुँह बनाते हुए मैंने कहा ‘और सारा काम नौकर ही करें , तो
मैं क्या करूँ घर में खाली बैठकर, तुम्हें तो मेरे लिए समय नहीं कि दो पल भी बैठकर
बात कर सको, घर के काम का ही सहारा है कि समय व्यतीत हो जाता है’।
शायद उन्होंने मेरी
बात का प्रत्युत्तर देना ठीक न समझा इस लिए कमरे से बाहर चले गए।
जब-जब मैं श्वेता की तस्वीरें फेसबुक पर देखती अपने पति को ज़रूर दिखाती और
कहती देखिए कितनी अच्छी
ड्रेस पहनी है, सारे रंग फबते हैं उस पर । वे भी उस की तस्वीरें देख कर बस
मुस्कुरा देते; लेकिन एक बात ज़रूर मुझे समझाते हुए कहते ‘सब की अपनी-अपनी ज़िंदगी होती है, हम भला दूसरों से अपनी
तुलना क्यों करें’।
ऐसा चलते कुछ पाँच
वर्ष बीत गए और आज जब मैंने फिर से उस की तस्वीरें फेसबुक पर देखी, तो मेरे मन में वही तुलनात्मक भाव उमड़ने
लगे । मन के किसी कोने में उसके प्रति चिढ़ घर करने लगी थी। कई बार सोचती कि उसकी
तस्वीरें न देखा करूँ। खामखाँ मेरा मन अशांत हो जाता है । लेकिन मन था कि देखे
बिना भी न मानता कई बार चिढ़ के मारे मैं उस की तस्वीर पर कोई कमेन्ट ही न करती ।
कभी तो ऐसे भी सोचती कि उसे अन्फ्रेंड ही कर दूँ।
बस यूँ ही ज़िंदगी
की रेल छुक-छुक चल रही थी कि मुम्बई से मेरे पति के चचेरे भाई के विवाह का निमंत्रण आया, सो मुझे उस में जाना
था। जैसे ही मैंने श्वेता को बताया कि हम मुम्बई आ रहे हैं । तो उसने मुझे बहुत
जोर देकर कहा ‘दीदी दो दिन मेरे घर के लिए
एक्स्ट्रा लेकर आना, यहीं साथ में रहेंगे तो बड़ा अच्छा लगेगा’। मैंने पहले तो ना- नुकर की; किन्तु जब
उसने ज्यादा जोर दिया तो मैंने भी दो दिन उस के घर रहने का प्लान बना लिया।
शादी से निपट कर मैं श्वेता के घर चली गई । वह मुझे देख कर बहुत खुश हुई और मेरे
स्वागत में उसने कोई कमी न छोड़ी। उसका घर व रहन-सहन देख कर मेरी तो आँखें जैसे चुंधिया ही गयीं । घर का हर सामान अच्छे ब्रांड का था, साफ़-सफाई के लिए दोनों समय आने वाली मेड एवं
खाना बनाने के लिए कुक ताकि उसके पति के क्लाइंट आएँ तो घर भी चमाचम और श्वेता भी
। मैं मन ही मन सोचने लगी ‘वाह, क्या ठाठ
हैं श्वेता के, कहाँ ये कहाँ मैं’ ? सब किस्मत
का ही तो खेल है । इतनी पढ़-लिख कर भी मैं सारे दिन काम वाली बाई की तरह रहती हूँ और यह परियों की तरह ।
मैंने उस से पूछा ‘तुम्हारे पति दिखाई नहीं दिए, क्या वे इस
वक़्त मुम्बई में नहीं’ ?
‘यहीं हैं मुम्बई में ही, लेकिन
कल रात वे किसी पार्टी में गए थे, आते ही होंगे’ उसने रूखा सा जवाब दिया।
नाश्ता-खाना सब
निपटाकर वह बोली ‘दीदी शाम को एक म्यूजिकल शो है, उस में
चलोगी’? मैं तो अक्सर ऐसे कार्यक्रमों
में जाती ही रहती हूँ पर शायद आपको शो में बहुत आनंद आयेगा । आप कहें तो मैं मेरे
पति से कह पास मगवा लूँ’?
मैंने खुश हो कर
हामी भर दी । किन्तु अगले ही पल सोचने लगी ‘क्या मेरे पास इसकी बराबरी के कपड़े होंगे शो में पहनने के लिए’ ? सो मैं ने उसे
साफ़ शब्दों में कह दिया ‘श्वेता लेकिन
मेरे पास शो में पहनने केलिए वह साड़ी ही है जो मैं शादी में पहनने के लिए लाई थी’।
वह कहने लगी ‘तो क्या हुआ दीदी हम तो शो देखने जा रहे हैं कपड़ों से क्या
फर्क पड़ता है और शादी में पहनने के लिए लाई हैं तो अच्छी ही होगी साड़ी’ इतना कह वह
मुस्कुरा दी। शाम होते ही हम तैयार हो गए
और उसके पति ने ड्रायवर के साथ गाड़ी भेज दी। हम दोनों शान-शौकत के
साथ शो में पहुँचे।
शो के लिए ऑडिटोरियम में पहुँचते ही जबमेरी नज़र उस के पति पर
पड़ी जो उससे भी ज्यादा खूबसूरत था और पूरी सज-धज के साथ अपने इर्द-गिर्द लड़कियों
से घिरा हुआ था । मैं ने पूछा ‘श्वेता ये
लड़किया कौन हैं’ ? वह कहने लगी ‘इनके साथ की मॉडल्स हैं, चलिए दीदी हम दूसरी तरफ चलते हैं’। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वह नहीं चाहती थी कि मैं उसके पति
के बारे में और कुछ देखूँ और जान सकूँ। लेकिन मुझे देखकर बहुत बुरा लगा कि जहाँ शो
में सबसे आगे की कतार में श्वेता और हम
बैठे थे वहीं दूसरी जगह उस का पति किसी मॉडल के साथ बैठा था । कई लोग उस मॉडल को
ही श्वेता समझ नमस्ते या हेल्लो, हाय कह रहे थे और उस मॉडल को भी कोई झिझक नहीं,
बड़े आराम से उसके पति के साथ इस तरह बैठी थी कि जैसे उसकी पत्नी हो।
खैर हम लोग गाड़ी से
घर को रवाना हो गए। मुझसे रहा न गया सो मैंने श्वेता को रास्ते में पूछा ‘तुम्हें बुरा नहीं लगता श्वेता तुम्हारे पति के साथ गैर
लड़कियाँ इतनी घुलती-मिलती हैं’? एक बार तो
वह चुप हो गयी लेकिन थोड़ी ही देर में गहरी साँस भरकर बोली ‘क्या बुरा मानना दीदी ये तो इस बिजनस के लोगों में बहुत आम
सी बात है’।
शुरू में तो बहुत
बुरा लगता था और हर वक़्त अपने पति के साथ ऑफिस जाने की जिद भी करती थी । ताकि जहाँ
मेरी जगह है वहाँ सिर्फ मेरा ही हक़ हो लेकिन कब तक ? चौबीस घंटे तो मैं साथ नहीं
रह सकती और फिर ये सब पुरुष पर निर्भर करता है कि वह किसे साथ रखे और किसे नहीं ।
अपनी आँखों के सामने इन लड़कियों को अपने पति से नज़दीक आते देखती तो दिल जलकर राख हो जाता था सो अब साथ
में आना बंद कर दिया। वैसे भी अब तो एक बेटा भी है सो उसके स्कूल के मुताबिक़ अपना
रूटीन रखना पड़ता है। इसलिए हर वक़्त पति के साथ रहना संभव नहीं न। हाँ कभी कोई ख़ास
बिजनस मीटिंग हो और मेरे पति कहें तो साथ चली जाती हूँ। इतना कहते हुए उसकी आँखें
नम हो आयीं थीं जिन्हें उसने दूसरी तरफ मुँह करके रूमाल से पोंछने की कोशिश की।
मैं उस के मन में
छिपे दर्द को उस के चेहरे के भावों में आसानी से पढ़ रही थी सो मैंने उसकी बात
काटते हुए कहा ‘तो फेस बुक पर तुम्हारी इतनी
मुस्कुराती तस्वीरें अपने पति के साथ वो’ ?
तो वो हँसकर कहने
लगी ‘वो क्या, मैंने अपने पति को छोड़
थोड़ी दिया और न ही तलाक लिया, आज भी पत्नी
का दर्जा तो है मेरा। जब कभी साथ होती हूँ खूब फोटो खिंचते हैं मेरे उनके साथ,तो
फेसबुक पर क्यूँ न लगाऊँ’?
वैस भी फेसबुक पर कोई अपनी ज़िंदगी की हकीकत दिखाता है क्या दीदी? वह तो सिर्फ दिखावा ही होता है जैसे घर का ड्राइंग रूम। घर के अन्दर भले ही किचन फैला हो लेकिन ड्राइंग रूम तो हम साफ़ ही रखते हैं ताकि कोई मेहमान अचानक से आ भी जाएँ तो घर देखने में बुरा न लगे। बस मैं अपनी फेसबुक वाल भी ऐसे ही मेनटेन करती हूँ। मन के अन्दर भले ही कुछ भी हो मेरी फेसबुक वाल हमेशा सजी रहे ।कोई घर का झगड़ा तो फेसबुक पर नहीं डालेगा न।
उसकी बातें
सुन और चेहरे पर दुःख की लकीरें देख मेरी
आँखें पनीली सी होने लगी थीं। तभी वह बोली ‘कहाँ दीदी मैं आपको ये सब बताकर दुखी कर रही हूँ,जाने
दीजिये अपनी-अपनी किस्मत और आप बताइए जीजू कैसे हैं
?
मैं ने कहा ‘बहुत पढ़ाकू किस्म के हैं, न जाने उन्हें इस एक ही जिन्दगी
में क्या-क्या करना है? हर दिन कुछ नया
सीखना है, न तो तुम्हारी तरह कोई मौज-मस्ती और न ही सैर सपाटा’।
मेरी बात सुनकर वह
बोली ‘दीदी सैर-सपाटे रोज-रोज मन को
नहीं भाते, पति-पत्नी का रिश्ता नीरस सा होने लगता है, घर तो घर जैसा ही होना चाहिए न कि होटल की तरह’। जीजू बिलकुल सही एवं मेहनती इंसान हैं,
सब आप की मेहनत का ही नतीजा है , तभी आप को ऐसे जीजू मिले बड़ी किस्मत वाली है आप’।
मैं ने कहा ‘लेकिनमैं तो समझती हूँ कि तुम बड़ी किस्मत वाली हो’
। वह बोली दीदी दिखावे की ज़िंदगी कोई कितने दिन जी सकता है भला? ड्राइंग रूम का शो
पीस बनकर रहने से अच्छा सही मायने में प्यार-वफ़ा की ज़िंदगी हो। जहाँ रियलिटी हो,
एक दूसरे के लिए एहसास हो । जहाँ एक दूसरे की बातें सुनने में अच्छी लगे । हर बात
ऐसी न लगे कि सोचना पड़े ‘ये बनावटी है
या हकीकत’ ? मैं उसकी बातें सुनकर हतप्रभ
सी रह गयी थी और आज फेसबुक वॉल पर लगी उस की तस्वीरों का दूसरा रुख दिखाई दे रहा
था। मुझे समझ न आया कि मैं उसे क्या कहूँ
और मैं वापिस अपने घर आने के लिए अपना सूटकेस पैक करने लगी। लेकिन मन के उस कोने
में जहाँ श्वेता के लिए चिढ़ और जलन थी अब प्यार उमड़ आया था।
मैं मन ही मन सोच
रही थी कि मैं कितनी बेवकूफ थी, बेवजह अपनी बहिन के लिए तुलनात्मक भाव लेकर मन में
चिढ़ जमा किए जा रही थी और अपनी अच्छी खासी ज़िंदगी को परेशानी में डाल रही थी।
जबकि हकीकत तो कुछ और ही निकली। मन कुछ भारी सा हो गया था, उसके घर से रवाना होते
हुए मुँह से सिर्फ इतना ही निकला ‘इस छुट्टी
हमारे घर आ जाना श्वेता बड़ा अच्छा लगेगा तुम्हारे साथ रहकर और जब चाहो फोन पर बात
भी ज़रूर करना’। उसके चेहरे पर ढाई इंच की
खिली हुई मुस्कान देख मेरे मन को बहुत सुकून मिल रहा था।
1 comment:
अच्छी कहानी।
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