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Feb 1, 2021

लोक संस्कृतिः लोक- चित्रांकन की अद्भूत परंपरा गोदना

-प्रो. अश्विनी केशरवानी

लोक चित्रांकन का अभिप्राय उस चित्रांकन से है जो पर्व, त्योहार, अनुष्ठान और संस्कारों में किया जाता है। जिस प्रकार लोक कथाओं के कथानक में कोई न कोई संदेश छिपा होता है उसी प्रकार लोक चित्रांकन में भी संदेश छिपा होता है। लोक चित्रों में बिंदु, रेखा, त्रिभुज, आयत, त्रिकोण, वृत्त आदि का प्रयोग होता है और उसके संकेतात्मक अर्थ होते हैं। लोक चित्रांकन को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है:

1. आधार भूमि के आधार पर -

भूमिचित्र- भूमि या धरती पर बनाये जाने वाले चित्र।

भित्तिचित्र- भित्ति या दीवार पर बनाये जाने वाले चित्र।

पटचित्र- कागज, कपड़ा या पत्ते आदि पर बनाये जाने वाले चित्र।

देहचित्र- शरीर पर बनाये जाने वाले चित्र, जैसे मेंहदी, महावर और गोदना।

2. विषय के आधार पर -

अनुष्ठानिक- जैसे करवा चौथ का चित्र।

धर्मानुष्ठानिक- जैसे दीवार का सुरातू चित्र।

सामाजिक- जैसे हलछट का चित्र।

आध्यात्मिक- जैसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के चित्र।

3. माध्यम के आधार पर -

गोबर- जैसे नागपंचमी, हरेली पर बनाये जाने वाले चित्र।

खड़िया या गेरू- जैसे दीवारों पर सुरातू चित्र।

रंग- जैसे पिसे चावल, दूधिया पत्थर  के चूर्ण आदि से बनाये जाने वाले चित्र।

प्राकृतिक या कृत्रिम धूलि रंगों से रंगकर नौरता के चित्र।

ब्रुश या कलम से कागज और कपड़ा में बनाये जाने वाले चित्र।


4
. लोक संस्कारों के आधार पर -

जन्म के संस्कार जैसे चरूआ अलंकरण, षष्ठी के चित्र, ज्योति, सांतिया एवं हाते।

विवाह संस्कार के चित्र जैसे कुलदेव का पट चित्र, द्वार पर गणेश, स्वास्तिक और तलवारधारी रक्षक के चित्र।

भारत में उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक प्रायः सभी क्षेत्रों में गोदना विद्यमान है। क्षेत्रीय आधार पर अनेक स्थानों में अपनी विशिष्टता लिए होती है। अनेक जनजातियों में भी अपने विशिष्ट अभिप्रायों को गोदना के रूप में शरीर में गुदवाया जाता है। मध्यप्रदेश के उत्तर पश्चिम में भील जनजामि का निवास है। दक्षिण पूर्वी भाग में गोंड़, बैगा, बिंझवार, कंवर, कमार, मुरिया, भतरा, दंडामी, माड़िया, दोरला और गोंड़ जनजाति और उपजातियां निवास करती हैं।पूर्वी क्षेत्र में ओरांव, कोरबा, पंडो तथा उत्तर में कोल, अगरिया तथा अन्य छोटी छोटी जनजातियाँ निवास करती हैं। इनमें गोदना, गुदना प्रचलित है। यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कृषक और दस्तकार जातियों में भी गोदना का प्रचलन व्यापक रूप से देखने को मिलता है। जनजातियों की भांति यद्यपि इन ग्रामीण जातियों के गोदने अपना पृथक वैशिष्ट्य लिए हुए तो नहीं होते, परन्तु उनके द्वारा अपना अभिप्रायों की व्यापकता भी नृतत्वशास्त्रीय दृष्टि से कम महत्त्व की नहीं कही जा सकती। बुंदेलखंड की पटेल, कोरी, बरई तथा अहीर जाति की स्त्रियों में गोदना का प्रचलन व्यापक रूप से देखने को मिलता है। बघेलखंड में सभी जनजातियों में और अनुसूचित जातियों में गोदना का अंकन शरीर में देखा जा सकता है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की सभी जनजातियों के अलावा तेली, कुरमी, राऊत, ढीमर, बंसोड़, पनका, गांड़ा, अगरिया, देवार, कृषक और दस्तकार जातियों में गोदना गोदवाने का व्यापक प्रचलन है।

गोदना का प्रचलन कब हुआ, यह बताना मुश्किल है लेकिन प्रागैतिहासिककालीन भित्ति चित्रकला से इसका उद्भव माना जा सकता है। इस काल में पहाड़ों की गुफाओं में रहने वाले आदि मानव अपनी मनोभावों को भित्तिचित्र के माध्यम से दीवारों में उकेर लेते थे जिनके अवशेष आज भी प्रदेश, देश और अन्य देशों में देखे जा सकते हैं। श्री निरंजन महावर अपने अनुभवों के आधार पर मानते हैं कि गोदना अंकन का आरंभ जादू और पराशक्तियों में विश्वास के कारण हुआ होगा ? क्योंकि गोदना अलंकरण इन्हीं जादू अथवा पराशक्तियों के प्रभाव से सुरक्षा प्रदान करने वाले थे। कुछ गोदना टोटकेके लिए गुदवा जाते थे। कुछ गोदना का अभिप्राय प्रजनन से सम्बंधित था। पुरूषों में गोदना शौकिया तौर पर गोदवाया जाता है जिसमें फूल पत्तियाँ, स्वतः के नाम या किसी देवी- देवता की मूर्ति होता है। जबकि स्त्रियों को गोदना के लिए उचित पात्र माना जाता है। क्योंकि स्त्रियाँ मातृत्व की प्रतीक हैं, वह जननी है। अतः गोदना का आरंभ मूल रूप से दो उद्देश्यों के कारण हुआ। प्रथम कारण, गोदना के प्रतिरोधक अभिप्रायों का अलंकरण करके प्रतिकूल अभिचारों और जादू टोने से सुरक्षात्मक कवच का निर्माण करना और दूसरा कारण, प्रजनन शक्ति को जागृत कर मातृत्व को अनुनेय बनाना। अतः इससे स्पष्ट हो जाता है कि गोदना का आरंभ शारीरिक अलंकरण के उद्देश्य से कदापि नहीं हुआ था, जैसा कि अनेक नृतत्वशात्री मानते हैं। कालान्तर में अवश्य ही गोदना अंकन में सौंदर्य परक दृष्टिकोण का समावेश होने लगा और उसका विकास अलंकरण के रूप में स्थापित हो गया।

बस्तर के अबूझमाड़िया जनजाति की स्त्रियाँ अपने चेहरे एवं वक्षस्थल पर आड़ी तिरछी और सीधी रेखा के रूप में गोदना गुदवा लेती है, जिन्हें शारीरिक अलंकरण तो कदापि नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार बैगा जनजाति की स्त्रियाँ अपने माथे पर आड़ी तिरछी रेखाओं के बीचोंबीच चूल्हे का अंकन कराती हैं। मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया- वेरियर एल्विन पृ. 478 के अनुसार मंडला जिले के परधान गोंड़ जनजातियों में एक कथा प्रचलित है जिसमें गोदना की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है।

कैलास पर्वत पर महादेव जी ने एक बार सभी देवताओं को भोज पर आमंत्रित किया। उस भोज में एक गोंड़ देवता भी सम्मिलित हुआ। देवगण अपनी अपनी पत्नियों के साथ आये थे। सभी देवियाँ पार्वती के साथ समूह में बैठी बातें कर रही थी। भोज के उपरांत गोंड़ देवता जाने को उद्यत हुए, तो देवियों के समूह में अपनी पत्नी को पहचान नहीं सके और भूलवश पार्वती के कंधे पर हाथ रखकर उनसे चलने के लिए कहा। जिससे पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गयी। महादेव जी वस्तु स्थिति को समझ ग और पार्वती जी को समझाने लगे। लेकिन पार्वती जी का गुस्सा शांत नहीं हुआ और दुबारा ऐसी भूल न हो सोंचकर उन्होंने प्रत्येक जाति के लिए गोदना निर्धारित कर देवियों के अंगों पर गुदवा दिया। तब से गोदना गुदवाने का प्रचलन हुआ।

गोदना से सम्बंधित एक मिथक जो उड़ीसा और उससे जुड़े छत्तीसगढ़ में प्रचलित है। उसके अनुसार पौराणिक काल में जब गोदना का प्रचलन नहीं हुआ था, तब जमदेव (यमराज) को इस बात का पता लगाने में अत्यधिक कठिनाई होती थी कि अमुख व्यक्ति स्त्री है या पुरुष। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए उन्होंने अपनी बहू के शरीर में काजल से कुछ चिह्न अंकित कर उसे सुई चुभाकर गोद दिया। उस चिह्न के गोदे जाने पर उनकी बहू सुन्दर दिखने लगी। तब उन्हें मृत्युलोक भेजते हुए कहा कि तुम गाँव गाँव घूमकर सारंगी बजाकर लोगों को एकत्र करके अपने गोदना दिखाकर स्त्रियों के शरीर पर गोदना गोदने का कार्य करो। जब ऐसा किया जाने लगा , तब से गोदना गुदवाने के लिए स्त्रियाँ तत्पर होने लगी। उस काल में यह बात भी प्रचलित होने लगी कि मरणोपरांत शरीर के साथ गोदना ही जाता है बाकी सभी भौतिक वस्तुएँ यहीं छूट जाती हैं।

शरीर को सजाने की परंपरा मानव में  जन्म से होता है। खासकर स्त्रियों में नखशिख सौंदर्य सज्जा की शास्त्रीय व्याख्या सोलह शृंगार के रूप में भारतीय वाड्गमय में बहुत पहले से होती रही हैं। सोलह शृंगार अलग अलग समय में भिन्न भिन्न रहा है लेकिन अंग राग, महावर, ठुड्डी पर तिल, आँखों में अंजन आदि का वर्णन प्राचीन काव्यों में मिलता है। उत्तर काव्यों में मेंहदी, ओंठों को लाल करना और ठुड्डी में तिल आदि का को सोलह श्रृंगार में शामिल किया गया है। समय के अनुसार नये नये प्रसाधन सोलह शृंगारों में जुड़ते गये और पुराने अनुपयोगी खारिज होते गये। लेकिन सदैव शृंगारों की संख्या सोलह ही रही है। इस सम्बंध में श्री अत्रिदेव विद्यालंकार का तर्क मुझे उचित लगता है। उनके अनुसार-‘‘भगवान की षोडश उपचार हुआ है, संस्कारों की संख्या भी सोलह है। चंद्रकला का स्थान सोलह माना गया है। संभवतः इन्हीं बातों को देखकर शृंगार भी सोलह गिने ग‘‘

संस्कृत कवि बल्लभदास ने अपनी पुस्तक सुभाषितावलीमें निर्णय सागर के उज्जवल नील मणि के अध्याय के राधा प्रकरण में, रीतिकालीन कवि आचार्य केशवदास ने अपनी रचना में, हिन्दी विश्वकोष के प्रणेता नगेन्द्रनाथ बसु ने अपने कोष में सोलह शृंगारों को अपनी अपनी दृष्टि से स्थान भेदों के साथ गिना हैं। आचार्य केशवदास को मेंहदी को सोलह शृंगार में सम्मिलित करने का श्रेय जाता है। निणर्यसागर में जिन सोलह शृंगारों की चर्चा है उसमें शरीर चित्रांकन का भी जिक्र है-

            आदो मंजन चीर हार तिलक नेत्रांजन कुंडले,

            नासा मौक्तिक केश पाश रचना सत्कंचुक नुपूरो।

            सौगंधय कर कंकणा चरणायोरागोरणान्मेला,

            ताम्बूल करदर्पण चतुरमा शृंगारकाः षोडश।।

अर्थात् नाक में मोती, नीवि बन्धयुक्ता, वेणी बंधन, कर्णावतस, अंगों को चर्चित करना, पुष्पमाला धारण करना, हाथों में कमल, बालों में फूल खोंसना, ताम्बूल खाना, चिबुक को कस्तुरी से चित्रित करना, काजल मकरी पत्रादि से शरीर को चित्रित कना, महावर, तिलक लगाना, शृंगार के प्रसाधन है।

कालिदास की रचनाओं के प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिकानाथ ने मेघदूत की टीका करते हुये चार प्रकार के कचधार्य, देहधार्य परिधेय और विलेपन सौंदर्य प्रसाधनों का विस्तार से वर्णन किया है। शरीर सज्जा यानी देहधार्य के अंतर्गत उन्होंने स्तनों और बीहुओं पर सजावट कि जाने का उल्लेख किया है। कानों में जौ के बाल (अंकुर), शिरीष के पुष्प, केतकी के फूल, माथे और कपाल पर तमाल पत्र के रंगों से शरीर को सजाया जाता है। स्त्रियाँ यह सजावट स्तनों और बाहुओं पर भी करती थीं।

श्री बसंत निरगुणे ने अपने लेख गोदना में महाभारत काल के श्रृंगार कला का वर्णन किया है। महाभारत काल में शृंगार कला में निपुण स्त्री को सैरन्ध्रीकहा गया है। इसीलि विराट भवन में द्रौपदी सैरन्ध्री के रूप में अपना परिचय देती है। विराटनगर की महारानी की सेवा में उसे सोलह शृंगार के लिये रख लिया जाता है। द्रौपदी बालों की रचना वेणी बाँधने में निपुण थी। द्रौपदी सैरन्ध्री की व्याख्या करते हुए कहती है-इस जगत में बहुत सी स्त्रियां हैं जिनका दूसरों के घरों में पालन होता है और जो शिल्पकर्म के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती है, वे सदाचार से स्वतः सुरक्षित रहती हैं। ऐसी स्त्रियों को सैरन्ध्रीकहते हैं। विराटपर्व और अमरकोष में भी सैरन्ध्री शिल्पकारिका की चर्चा है।

रसेल और हीरालाल के अनुसार शरीर के विभिन्न अंगों में देवी-देवताओं के चिन्ह गुदवाने का रिवाज है, उनके स्थान भी निश्चित होते हैं:

पदमसेन देव - पाँव के देवता।

गजकरन देवी (हाथी देवता) - पैर के देवता।

कोड़ा देव (घोड़ा देवता) - सामने की ओर से पैरों के उपरी भाग के देवता।

हनुमान (शक्ति के देवता) - भुजाओं के देवता।

भीमसेन (रसोई के देवता) - पीठ पर।

झूलन देवी एवं कंटेश्वर माता (प्रतीकों के रूप में) - सीने पर।

विभन्न प्रकार के गोदना और उनका महत्त्व:- जनजातियों में विश्वासों और परम्पराओं के जीवंत प्रमाण का प्रतीक है गोदना। श्री निरंजन महावर के अनुसार, ‘गोदना शरीर के अलंकरण्र के साथ प्रजनन हेतु, मंगल एवं बुरी आत्माओं के कोप से सुरक्षार्थ गुदवाये जाते हैं। अधिकांश गोदना युवतियों के मासिक धर्म आरंभ होने के बाद और विवाह के पूर्व गुदवा जाते हैं। स्त्रियों के लि सौभाग्य और मातृत्व के प्रतीकों के रूप में इन गोदनों का धार्मिक अनुष्ठानों जैसा महत्व है।

     मोघिया जनजाति में स्त्रियों और पुरुषों में गोदना गुदवाने के अलग अलग उद्देश्य होते हैं। पुरूष शारीरिक स्वास्थ्य, भूत प्रेतों से सुरक्षा और जंगलों के हिंसक जंगली जानवरों से बचने के लिये गोदना गुदवाते हैं। जबकि स्त्रियाँ शारीरिक सौंदर्य और सुहाग चिह्न के रूप में गोदना गुदवाती हैं। गोदना की आकृति और उसका महत्त्व इस प्रकार है -

श्रीकृष्ण, शंकर जी, हनुमान जी एवं अन्य देवताओं की आकृति - ये व्यक्तियों को शक्ति प्रदान करते हैं। देवी विपत्तियों में रक्षा करती है तथा भाग्योदय में सहयोग देते हैं। हनुमान जी की आकृति शनि के प्रकोप से रक्षा करता है।

परी, स्त्री व अन्य देवियाँ - जंगलों में भूतप्रतों, चुड़ैलों, डायन आदि से रक्षा करती है। ऐसी मान्यता है कि जिस व्यक्ति के सीने में परी की आकृति होती है उसके निकट कोई चुड़ैल नहीं आ सकती।

साँप व बिच्छू - ये व्यक्तियों को जहरीले कीड़ों से रक्षा करते हैं। मान्यता है कि जिसके शरीर में साँप या बिच्छू का गोदना होता है उसे साँप और बिच्छू नहीं काटते। यदि काट भी ले तो उसका विष नहीं चढ़ता।

शेर, चीता और तेंदुआ - ये मोघिया देवी के उपासक हैं और ये तीनों देवी के वाहन हैं। अतः इन्हें पवित्र समझकर गुदवाते हैं। इससे उनकी रक्षा होती है और ये आस्था के प्रतीक भी होते हैं।

तोता, मैना, मोर पक्षी - ये शरीरिक सौंदर्य को बढ़ाता है।

फूल, पत्ती तथा विभिन्न प्रकार के बेल पौंधे - ये भी शारीरिक सौंदर्य को बढ़ाने के लिए गुदवाये जाते हैं। इसे जड़ी बुटियों का प्रतीक भी माना जाता है।

मछली - भगवान का अवतार और बाढ़ से रक्षा करता है।

बूंदा और त्रिशूल - चेहरे की सुंदरता के लिये गुदवा जाते हैं।

नाम - हाथों में अपना और सगे संबंधियों के नाम प्यार और सम्मान प्रदर्शित करने के लिये गुदवाये जाते हैं।

कलश - ये स्त्रियों के लिये आवश्यक सुहाग चिह्न है। मोघियों में विवाहित स्त्रियों की पहचान इसी गोदने से की जाती है।

नाक और कनपटी के बूंदा - नवजात शिशु के दीर्घायु होने के लिये गुदवाया जाता है।

छत्तीसगढ़ की अनेक जनजातियों में गोदना गुदवाकर शरीर में अनेक प्रकार की आकृतियाँ बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। डॉ. सरिता साहू और डॉ. किशोर अग्रवाल अपने आलेख में लिखते हैं-गोदना, मानव शरीर के वाह्य आवरण पर उकेरी गई आकृति होती है। गोदना गोदने के लिये पहले प्राकृतिक रूप से मिलने वाली लकड़ी जिसे स्थानीय भाषा में कीजा-कठवाकहा जाता है, के राख का लेप लगाकर शरीर में आकृतियाँ बनाई जाती हैं फिर सुई या काँटों की सहायता से इसके घोल को शरीर के चमड़ी के भीतर पहुँचाया जाता है। कुछ दिनों के बाद ये रंग स्थायी रूप से उभर जाता है तब ये गहरे नीले हरे रंग का दिखने लगता है जिससे शरीर की सुदरता बढ़ जाती है। प्रायः देवार, ओझा, बादी जनजाति की महिलाएँ गोदना गोदने का कार्य करती हैं। इन्हें गोदहारिनेंकही जाती है। ये महिलाएँ गाँव गाँव में घूमकर गोदना गोदा ले ....।करके आवाज देती हुई घूमती हैं। गोदना गोदते समय सुई की चुभन से होने वाले दर्द को कम करने वाली मधुर गीत भी गाती जाती हैं:

            भुजा माँ भुजबल गोदौं, हाथे माँ मूँदी गा।

            सुरता ला राखे रहिबे, झनी जाबे भूली गा।।

            गेदना गोदा ले रीठा लेले रे .....।

एक अन्य देवार गीत देखि:

            ये गोदना निसेनी सरग के, सुफल होय जिनगानी।

            गेदना गोदा ले मोर रानी ......।

            छदा देय पइरी चूरा, जीयत भर आय।

दाई देय कारी गोदना, उही माटी संग जाय।।

            कहावत है कि विवाह के समय ददा (पिता जी) के द्वारा दिया जाने वाला पैरी, चूरा और अन्य गहने जीयत भर शरीर की शोभा बनती है, मरने के बाद उसे शरीर से निकाल दिया जाता है जबकि शरीर का गोदना मरने के बाद भी शरीर के जाता है। एम दूसरे कहावत में स्वर्ग में अपनी माँ से भेंट करने के लिए बेटियाँ अपने शरीर (खासकर छाती) में गोदना गुदवाती हैं। देखि देवार गीत की एक बानगी -

                        लेत देत रेहेस दाई, चल देय परदेस।

                        छाती के गोदना दाई, संग होय भेंट।।

विजय चिन्ह गोदना - झारखंड राज्यके छोटा नागपुर की पहाड़ियों से लेकर छत्तीसगढ़ में सरगुजा और जशपुर के वनांचल में रहने वाले उराँव जाति की महिलाएँ अपने कपाल पर तीन खड़ी लकीर (111) गुदवाती हैं। यह गोदना उराँव महिलाओं की पहचान है। उरांव जनजाति रोहतासगढ़ के समीप निवास करती थी। इनके प्रमुख त्योहार सरहुलके अवसर पर जब सभी मदिरा पीकर उन्मत थे, उसी समय म्लेच्छों ने रोहतासगढ़ किले को हथियाने के लिए आक्रमण कर दिया। पुरूषगण तो मदिरा पीकर मस्त थे तब इस आक्रमण से निपटने के लिए महिलाएँ पुरुषों का वस्त्र धारणकर म्लेच्छों से युद्ध किया और विजय पा। इस विजय के प्रतीक स्वरूप उराँव महिलाओं ने अपने ललाट और कनपटी पर खड़ी तीन लकीर गुदवाई और इसे विजय परंपरा के रूप में स्वीकार किया। जशपुर की डॉ. उषारानी मिंज और अम्बिकापुर के डॉ. सुजय मिश्र से प्राप्त जानकारी के अनुसार उराँव जनजाति आज भी इसे जनी शिकार उत्सवके रूप में मनाते हैं। कहा जाता है कि म्लेच्छों ने 12 बार रोहतासगढ़ में हमला किया और उराँव महिलाओं ने उन्हों हराया। डॉ. उषारानी मिंज की पुस्तक हियाखोल राखेमें इसका उल्लेख है -

               
        
बारो बछारे जनी शिकार, जनी का मुड़ी राजा पागरी बांधय।

                        हाथे तलवार गोड़े घुघुर, जनी का मुड़ी राजा पागरी बांधय।

            आज भी उरांव जनजाति के विवाह संस्कार में पुत्री को विदा करते समय पिता धनुष और तीर देता है जिससे वह जनी शिकार उत्सवमना सके और आवश्यकता पड़ने पर अपनी रक्षा भी कर सके।

            रियासत काल में सुंदर स्त्रियाँ अपनी सतीत्व की रक्षा के लिए माथे और शरीर में गोदना गोदवाकर कुरूप बन जाया करती थीं। इस सम्बंध में गेगाधर की एक चौकड़िया की बानगी देखिए-

                        गुदना लागत गाल पे प्यारी, हमखों रजऊ तुम्हारौं,

                        गोरे बदन गाल के उपर, बन बैठो रखवारौ।

                        देखन देव नजर भी हमखों, घूंघट पट न डारौ,

                        गंगाधर की तरफ हेर के, दे दौ तनक इशारौ।।

            गोदना गुदवाने में बहुत दर्द होता है। गुदवाने वाली बालाएँ बहुत रोती हैं, तब बड़ी -बुजुर्ग महिलाएँ उन्हें पकड़ लेती हैं और कहती हैं कि जब तुम गोदना गुदवाने का दर्द सहन नहीं कर सकती, तो जीवन के अनेक दर्द को सहन कैसे करोगी? कुछ स्त्रियाँ गोदना गुदवाने की ललक में गुदवाते समय होने वाले दर्द को भूल जाती हैं। देखिये एक गीत -

                        बड़े कठिन के गुदना बाई गुदवाये नै उदनारी,

                        भींज गई अंसुवन सारी।

                        मैंने भौतई करे बहाने, मोर माता पिता खिसयाने,

                        पूरी ललक भई गुदनन की बहियां दीपन लगीं प्यारी।

                        बड़े कठिन के ....।

            गुदनापरक गीतों में अभी तक गारियाँ और फागें मिली हैं। ईसुरी ने भी गोदना पर फाग लिखी हैं:-

                        गुदना गुदवाये तन गोरें, खुले दरस रये तोरें।

                        डाड़ी पै बूंदा है सुन्दर, मुख चंदा के दोरें।

                        कोंचन कोंचन गुदे पपीरा, लिखी बाँह में मोरें।

                        ईसुरपांव पछेला देखे, पुतरी दो कर तोरें।।

            ठोड़ी पर बूंदा, कोंचों पर पपिहरा, बांहों पर मोरें और पैरों के पीछे पिंडलियों पर पुतरिया लिखना पारम्परिक रूपाकार हैं। गोदना गुदवाने में क्या दशा होती है, इसका एक चित्रण एक फाग में देखें -

                        गुदना गुदवाये रो दओ तो, तनक दरद न सहो तो।

                        अंसुआ चुर गिरे गालन पै, रनबन काजर बओ तो।

                        आँखें मींच ननद बारी खाँ, दोउ हांतन भर लओ तो।

                        ईसुरप्रान छनक गये मोरे, बिधना आड़ौ भओ तो।।

            गोदना गुदवाने में दर्द तो बहुत होता है लेकिन भक्ति भावना की निष्ठा सुदृढ़ हो तो दर्द सहा जा सकता है। देखिये एक फाग गीत -

                        गोदो गुदनन की  गुदनारी, सबरी देह हमारी।

                        माथे पै मकसूदन गोदौ, मांग में लिखै मुरारी।

                        बंईयन पै बनमाली भर देव, कर में कुंजबिहारी।

                        ईसुरकरा धरौ कन्हैया, मु, में तो मनहारी।।

छत्तीसगढ़ के गोदनाधारी रमरमिहा:- महानदी के तटवर्ती ग्रामों में रमरमिहा लोग निवास करते है। छत्तीसगढ़ के पाँच सीमावर्ती जिलों रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा, महासमुंद और रायगढ़ के सारंगढ़, घरघोड़ा, जांजगीर, चांपा, मालखरौदा, चंद्रपुर, पामगढ़, कसडोल, बलौदाबाजार और बिलाईगढ़ क्षेत्र के लगभग 300 गाँवों में पाँच लाख रमरमिहा निवास करते हैं। रामनामी पंथ अनुसूचित जाति की एक शाखा है जो संत कवि रैदास को अपने पंथ का मूल पुरुष मानते हैं। इन्हें रमरमिहा अथवा रामनमिहा कहा जाता है। रामनाम में सदा तन्मय रहने वाले ये लोग अहिंसक और शाकाहारी होते हैं। मदिरा से वे बहुत दूर होते हैं। शायद ही कोई ऐसा होगा जो श्रीराम के सगुण रूप को नकारता हो? लेकिन महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में बसे रमरमिहा लोग श्रीराम के सगुण रूप को नकार कर उसके निर्गुण रूप के उपासक हैं। हिन्दुस्तान में शायद ही कोई दूसरा पंथ होगा जो रामनाम में इतना रमा होगा जो अपने पूरे शरीर में रामनाम गुदवा ले। लेकिन रमरमिहा लोग पूरे शरीर में राम नाम गुदवाते हैं, हाँ तक पहनने-ओढ़ने के कपड़े और तम्बू के कपड़ों में भी राम नाम लिखा होता है। श्रीराम चरित मानस में भी कहा गया हैः- जय राम रूप अनूप निर्गुण प्रेरक सही अर्थात् हे राम! आपकी जय हो। आपके रूप अनुपम है। आप निर्गुण हैं और सत्य ही गुणों के प्रेरक हैं।

रामरमिहा के गुरू और गोसाई लोग रंगीन मोर पंखों वाले बांस के मुकुट धारण करने वाले होते हैं। इस पर भी रामनाम की काली पट्टी लगी रहती है। सौंदर्य वृद्धि के लिये आदिवासी संस्कृति में अंग लेखन और चित्रांकन की परंपरा गोदना अनेक आस्थाओं से जुड़ा है। गोदना आदिवासी महिलाओं का शृंगार ही नहीं बल्कि ऐसा परिधान है जो आजीवन तन से जुड़ा रहता है। गोदना को लोग चिन्हारीके रूप में गुदवाते हैं। ऐसे में गोदना अगर रामनाम का हो तो सोने में सुहागा ही होगा। अगर किसी रामरमिहा को ध्यान से देखें तो आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है क्योंकि हाथ, पैर यहां तक कि आंखों की पलकों में रामनाम खुदा रहता है। बचपन में रामनाम माथे पर गोदा जाता है। गोदना गोदते समय भजन कीर्तन होता है जिससे मन रामनाम में लीन हो जाये और पीड़ा का आभास तक न हो ? उम्र के हिसाब से शरीर के दूसरे भाग में गोदने का काम किया जाता है। पहले स्याही से रामनाम लिखा जाता है फिर सुई चुभोई जाती है। गोदना गोदने में दो सुई काम में लाई जाती है और काले रंग को अधिक गहरा तथा पक्का बनाने के लिये उस पर उपर से मिट्टी के तेल से निकला धुंआ लगा लेते हैं। गोदना गोदते समय गीत भी गाये जाते हैं: धूम कुसंगति कालिख होई। लिखिय पुराण मंजु मति होई।।

आज गोदना गुदवाने की परंपरा एक टोटमके रूप में प्रचलित है। देश विदेश के साथ हमारे देश में भी आज सभी जाति और धर्मो के अनुयायी अपने शरीर में गोदना गुदवाते हैं जो उनके शरीर को सुदर बनाते हैं। मेला ठेला और भीड़ भाड़ वाली जगहों पर ऐसे टोटम बनाने वाले मिल जायेंगे।

सम्पर्कः डागा कालोनी, चांपा

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