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Feb 1, 2021

अनकहीः धरती छूती अम्बर

 - डॉ. रत्ना वर्मा

कौन विश्वास करेगा कि घर- घर जाकर झाड़ू- पोंछा का काम करने वाली या मजदूरी करने वाली किसी महिला को पद्मश्री का सम्मान मिल सकता है... लेकिन हमारे देश के गणतंत्र में यह सम्भव है और आपको यह विश्वास करना होगा ; क्योंकि हमारे देश में अच्छे कामों की कद्र होती है। कला कहीं भी कभी भी जन्म ले सकती है , इसके लिए ऊँची शिक्षा, कोई डिग्री या ऊँचा ओहदा जरूरी नहीं है। इसे साबित किया है देश की दो कलाकार महिलाओं ने।  

26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रति वर्ष विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य करने वाले विशिष्ट मनीषियों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। अनेक नामी गिरामी लोग पद्मविभूषण, पद्मभूषण और पद्मश्री से विभूषित किए जाते हैं। इन्हीं में से इस वर्ष एक नाम है मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए बिहार के मधुबनी ज़िले के रांटी गाँव की 53 वर्षीय दुलारी देवी। विभिन्न प्रकार के लगभग आठ हजार से भी अधिक चित्र बना चुकी मछुआरा जाति में जन्मीं दुलारी देवी का यहाँ तक का सफर आसान नहीं रहा है  वे कभी स्कूल नहीं जा पाईं। बचपन में शादी हो गई, कम उम्र में एक बच्ची की माँ बन गईं, जिसकी कुछ समय पश्चात् मृत्यु हो गई पति के ताने सहते हुए जब बर्दाश्त नहीं हुआ, तो पति से अलग हो गईं और फिर शुरू हु जीवन को चलाए रखने की जद्दोजहद। लाख मुसीबत आईं; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी माँ के घर की आर्थिक हालत भी अच्छी नहीं थी। अतः दुलारी भी अपनी  माँ के साथ पड़ोस में रहने वाली मिथिला पेंटिंग की मशहूर आर्टिस्ट महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के घर झाड़ू-पोंछा का काम करने लगीं। उन दोनों को चित्रकारी करते देख दुलारी का कलाकार मन भी कुछ बनाने के लिए मचलने लगा, जिसे पूरा करने के लिए वह अपने  ही घर-आँगन की दीवारों पर मिट्टी से चित्र बनाने लगीं धीरे-धीरे उनके बनाए चित्रों को भी सराहना मिलने लगी। कर्पूरी देवी की संगत और प्रोत्साहन ने उन्हें हिम्मत दी और आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया। फिर एक समय ऐसा आया कि मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में उनकी अपनी अलग पहचान बन गई। आज परिणाम आप सबके सामने है- वे देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से विभूषित की गईँ हैं।

इसी तरह मध्यप्रदेश की भीली शैली चित्रकला के लिए चर्चित कलाकार भूरी बाई को भी पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई है। झाबुआ जिले के पिटोल गाँव में भील समुदाय में जन्मी भूरी बाई का जीवन भी दुलारी देवी की तरह ही संघर्ष से भरा रहा है।  वह भील जनजाति की ऐसी पहली महिला हैं, जिन्होंने काग़ज़ और कैनवास पर चित्र उकेरे हैं। भूरी बाई भोपाल स्थित भारत भवन में कला सीखने नहीं , बल्कि मजदूरी करने आई थीं मजदूरी करते- करते कब वे चित्रकारी करने लग गईं, वे खुद भी नहीं जानती। भारत भवन में आई, तो वे मजदूर बनकर थी; पर वहाँ से निकली तो चित्रकारी का हूनर सीख कर... अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश स्वामीनाथन जब भोपाल स्थित भारत भवन के निदेशक थे, तब उन्होंने भूरी बाई को चित्रकारी करते देखा, तो उन्होंने उसकी चित्रकला को दिशा प्रदान की और चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया था। तभी तो भूरी बाई आज भी स्वामीनाथन जी को याद करते हुए कहती हैं, ‘ऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बाँट रहे हैं, वे मेरे गुरु तो थे ही, पर मैं उन्हें देव के रूप में मानती हूँ।

कला के क्षेत्र में जमीन से जुड़ी इन दोनों महिलाओं को मिले देश के सर्वोच्च सम्मान का उल्लेख करने का तात्पर्य यहाँ इस बात को रेखांकित करना है कि वास्तव में असली गणतंत्र यही है। अन्यथा आजकल तो पुरस्कार और सम्मान खरीदे जाने लगे हैं, जो सिफारिशों के आधार पर आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। लेकिन जब दुलारी देवी और भूरी बाई जैसे नामों की घोषणा होती है, तो हर देशवासी का सर सम्मान से ऊँचा हो जाता है। तब यह कहना ही पड़ता है कि देश का तंत्र अभी मरा नहीं है।

दुलारी देवी और भूरी बाई के सम्मानित होने से मात्र वे उनका प्रदेश और उनकी कला ही सम्मानित नहीं हुई है;  बल्कि वे देश भर में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली उन हजारों- हजार महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनी हैं। जाहिर है इन दोनों को सम्मानित होते हुए देखकर वे सब भी अपने काम के प्रति ज्यादा उत्साह से काम करेंगी तथा उनके मन में यह विश्वास पैदा होगा कि एक दिन उनके काम की भी कद्र होगी। इन दोनों ने देश की उन तमाम महिलाओं को, जो जमीन से जुड़ी हुई चुपचाप अपना काम किए जा रहीं हैं, मुसीबतों से सामना करने की हिम्मत दी है।

यह प्रसन्नता की बात है कि हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से ऐसे व्यक्तियों को सम्मानित करने की परम्परा का शुभारंभ हुआ है,जो न नाम चाहते न शोहरत न पैसा। अतः जरूरी है कि दूर-दराज गाँव में रहते हुए चुपचाप देश के लिए काम करने वाले उन मनीषियों को ढूँढकर लाना होगा। राजनीति की उठापटक के चलते अक्सर अच्छा काम करने वाले को हाशिए पर केल दिया जाता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्हें न केवल सम्मानित करें, बल्कि उनके काम को बढ़ावा देने के लिए उनका सहयोग करें, उन्हें आर्थिक रूप से सबल बनाएँ;  ताकि वे अपना काम और अधिक अच्छे से कर पाएँ।

यह भी देखा गया है -सम्मान पाने वाले बहुत से प्रबुद्ध व्यक्ति बाद के वर्षों में गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं, मेडल और शॉल श्रीफल देकर कई बार सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। विश्वास है हमारे गणतांत्रिक देश में इस पर भी विचार किया जाएगा और जिन गणों की बदौलत उनका तंत्र टिका है उनकी पूछ-परख की जाएगी। जो ज़मीन से जुड़े हैं , वे इसी तरह आकाश छूते रहेंगे। इससे हमारा गणतंत्र और सशक्त होगा

3 comments:

Ramesh Kumar Soni said...

आज इन महिलाओं को पुरस्कृत कर स्वयं पुरस्कार ही पुरस्कृत हुआ।
नमन

विजय जोशी said...

अद्भुत आलेख. देर आयद दुरुस्त आयद. शुक्र है कि इस सरकार में मौलिक कलाकारों के भाग जगे. वरना तो इन प्रायोजित पुरस्कारों में फिल्मी व डाक्टर ही अधिक हुआ करते थे. आशा करें यह लड़ी अब कभी न टूटे.
- जब कोई अपने हाथ में लेकर चला कुदाल
- दुनिया को करना पड़ा उसका इस्तकबाल
आपने सामयिक विषय चुना सो साधुवाद.

Sudershan Ratnakar said...

दूरदराज़ गाँवों में रहने वाले कलाकार किसी तरह विदेश में तो पहुँच जाते थे लेकिन अपने ही देश में गुमनाम जीवन जीते हैं सरकार उन्हें पुरस्कार सम्मानित कर लोगों तक उनकी पहचान बना रही है। आपके आलेख में विस्तृत जानकारी से उनकी पहचान हम पाठकों तक भी पहुँची है। सुंदर और सामयिक आलेख के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ।