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रश्मि विभा त्रिपाठी
मेरे आगे
तनकर खड़ा था
क्या करती
पाँव छूने को चली
दुख मुझसे बड़ा था
अचानक
उसकी आँखों में
उतर आई खीज बड़ी
पल में टूटी अकड़
भीतर तक जल-भुन गया
और लौटना पड़ा
उसे
मुँह की खाए
अपनी हार से चिड़चिड़ाए
आदमी की तरह
करते हुए बड़-बड़,
बड़-बड़
सुनो
उसने देख लिया
कि
तुमने जो रोपा था
द्वार पर
दुआ का पौधा
उसने अब कसकर
पकड़ ली है जड़।
1 comment:
वाहह! छायादृश्य अत्यंत सुन्दर है इस कविता में। बधाई आपको रश्मि जी 🌹🙏😊
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