1. वर्तमान का दंश
"और हीरो! क्या चल रहा है लाइफ में?"कईं सालों बाद मुम्बई से दिल्ली अपने छोटे भाई के घर आए रामनाथ जी ने अपने सत्रह साल के भतीजे से पूछा।
"कुछ खास नहीं ताऊजी,
बस आई.आई.टी की तैयारी कर रहा हूँ।"
"अरे पढ़ाई वढ़ाई तो चलती रहती है। तू तो ये बता तेरी
गर्लफ्रैंड्स कितनी है?"
उन्होंने हँसते हुए पूछा।
"अरे क्या ताऊजी,
आप भी न। मैं नहीं पड़ता इन चक्करों में।"
"हट! ज़िन्दगी खराब है तेरी फिर। अबे जवानी में ये सब नहीं करेगा तो बुढ़ापे में करेगा क्या। पूछ अपने बाप से
स्कूल कॉलेज में कैसे
लड़कियों की लाइन लगती थी मेरे पीछे। साले घर की इज्जत का तो ख्याल रख।"
रामनाथ जी ज़ोर से हँसते हुए बोले।
"मुझे है न ख्याल घर की इज्जत का ताऊजी।"-बाहर से
आती मिताली बोली।
"क्या मतलब?"
"मतलब ये,
मेरे है न खूब सारे बॉय फ्रैंड्स। आप चिंता मत करो। मैं हूँ न
खानदान की परम्परा निभाने को।"-मिताली दाँत दिखाती हुई चहकी।
रामनाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से
तमतमाने लगा।
देर रात हम समंदर किनारे बैठे थे।
देर मतलब.. बहुत देर।
यही कोई रात का डेढ़ बजा होगा। समंदर की लहरें उफान पर थी।
मैं नीली डेनिम शॉर्ट्स और सफेद स्पैगिटी में, अपने घुटने मोड़कर
बैठी, उँगली से रेत पर आड़ी- तिरछी आकृतियाँ बना रही थी।
ब्लैक शॉर्ट्स और ब्लैक सैंडो पहने वो वहीं पास में, रेत पर लेटा, सिर के नीचे दोनों हाथ टिकाए, एकटक आसमान देखता हुआ
बोला, “रात बहुत काली है। है ना!”
मैंने शुतुरमुर्ग की तरह झट से गर्दन उठाकर आसमान की तरफ देखा
और फिर आसपास।
उसके स्लीपर और मेरे सैंडल साथ रखे थे, रेत पर कुछ इस
तरह कि लहर बार-बार आती और उन्हें चूमकर
वापस चली जाती। यही खेल, लहर कभी-कभी हमारी देह के साथ भी
करती थी।
उसकी बात के जवाब में मैंने कहा, “चाँद नजर आ रहा है?”
वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया।
रेत में पड़ी एक टूटी सीप उठाकर मैंने उस पर फेंकते हुए कहा-
“इतना फिल्मी होने की ज़रूरत नहीं है। मुझे नहीं, आसमान में देखो।”
उसको फिल्मी कहने के बाद मैंने खुद भी उँगली का इशारा उसकी तरफ
करते हुए, आसमान के चाँद की तरफ
उँगली घुमाते हुए कहा, “उसको कह रही हूँ। उसकी रोशनी देखते
हो? उसकी चाँदनी से लहरों पर पड़ने वाली झिलमिलाहट को देखो।
तुम कहते हो कि रात काली है। मैं कहती हूँ कि यह अद्भुत रोशनी देखो जो छन- छनकर
नीचे बिखर रही है। कितना कुछ इसमें जगमगा रहा है। अक्सर जिन चीजों के लिए कहा जाता
है कि वह सिर्फ़ दिखाई देती हैं, अगर ध्यान से महसूस करो,
तो वह सुनाई भी देती हैं। तुम इस समय न सिर्फ रोशनी को देख सकते हो;
बल्कि सुन भी सकते हो। कैसे घुँघरू – घुँघरू बजती चाँदनी , लहरों पर
नृत्य कर रही है। और यह जादू सिर्फ रात में होता है दिन में नहीं।”
उसने करवट लेकर मेरी तरफ पलटते हुए कोहनी मोड़कर अपनी हथेली पर
गाल टिकाते हुए कहा, “तुम्हें और क्या-क्या दिख रहा है?”
“मुझे दिख रहा है कि यह बात पुरानी है कि हर रात के बाद सुबह
होती है। बात अब यह है कि रात अपने आप में खूबसूरत होती हैं। दुःख की रोशनी हमारे
भीतर बिल्कुल अलग तरह का उजास भरती है। हमें भीतर से एनरिच, एनलाइट करती है। और
फिर हम तो उदास फितरत के लोग हैं जानेमन । हमें तो इसी की गलबहियाँ में रस आता
है।”
उसने मुस्कुराते हुए पूछा ,
“मेरे साथ चलोगी?”
मैंने हँसते हुए कहा,
“डूब मरने के अलावा मेरे पास और भी बेहतर बिगाड़ हैं ज़िंदगी के।”
फिर घुँघरू- सी चाँदनी में हँसी खनकती रही।
रेत पर कदमों के दो जोड़ी निशान देर तक उभरते मिटते रहे।
इच्छाओं के खोखले बाँस
में पाँच छेद करके बाँसुरी बना ली, हालाँकि सुर अभी साधने नहीं आए;
पर मेरी अंतिम इच्छा यही है कि कभी साधने आएँ भी ना।
चप्पल बड़ी होती जा रही थी,
पैर उतने का उतना ही था। यह बात मुझे हैरान करने लगी। एक रोज़ नदी
किनारे चप्पल उतारकर नदी में पैर डालते हुए मैंने उससे यह बात कही। उसने कुछ देर
चप्पल को देखा, कुछ देर मेरे पैर को और गंभीर होकर
कहा-“तुम्हारा पैर सिकुड़ता जा रहा है, चप्पल नहीं बड़ी हो
रही।”
उसके यह कहने के बाद,
मैंने भी एक बार चप्पल को देखा और फिर बहुत देर अपने पैर को फिर
उसकी तरफ देख कर कहा- “मन अगर पैर की जगह है, तो पैर कहाँ
हैं!”
1 comment:
बहुत सुंदर आम से हट कर सुंदर। हार्दिक बधाई
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