- प्रियंका गुप्ता
सुबह के साढ़े छह बज गए थे और मोबाइल में बजती बाँसुरी की मधुर
धुन से मेरी नींद पूरी तौर से खुल चुकी थी। जो थोड़ा-बहुत आलस बचा था, वह भी खिड़की से आती
सुबह की मुलायम रोशनी ने भगा दिया। बिस्तर से उतरकर मैंने एक भरपूर अँगड़ाई ली,
बालों को क्लचर के हवाले करते हुए स्लीपर पहनी और बाथरूम जाने से
पहले रोज़ की तरह इलेक्ट्रिक केतली का प्लग ऑन कर दिया।
जब तक बाहर आई,
गर्मागर्म भाप उगलती मेरी ब्लैक टी तैयार थी। म्यूज़िक सिस्टम पर
धीमी आवाज़ में अपने पसन्दीदा गानों की सीडी चलाकर मैंने चाय का कप और अख़बार उठाया
और खिड़की के पास आकर बैठ गई। ये मेरी फ़ेवरेट जगह थी। अख़बार की ख़बरों में डूबने से
पहले ब्लैक टी पीते हुए बाहर ताकना मुझे बेहद पसन्द था। चीनी -दूध वाली चाय मैं तब
पीती थी, जब किसी बात को सेलिब्रेट करने का दिल करता था ।
दूर आसमान में आवारागर्दी करते बादलों के सफ़ेद टुकड़ों से
आकृतियाँ बनाने में मैं इतना मशगूल थी कि मोबाइल की घण्टी ने भी मुझे चौंका दिया।
जाने क्यों पहला ख़याल एकदम से यही आया कि ये तुम्हारा फोन होगा...हैप्पी एनीवर्सरी
कहने को...तेरह फ़रवरी जो थी...। आज ही के दिन तो हम मिले थे न...। पर शाम्भवी का
फोन देखकर एक ठण्डी साँस निकल गई...। अब काहे की हैप्पी एनीवर्सरी...पन्द्रह दिन
तो बीत चुके हैं सब ख़त्म हुए...।
पाँच सालों तक हम दोनों के बीच मीलों की ये दूरी उतनी कभी नहीं
खली, जितना आज अखर रही थी।
तुम पास होते, तो शायद कुछ बातें तय करने की गुंजाइश भी होती,
पर तुम तो हर तरह से दूर हो चुके थे...। तन से तो हमेशा थे ही,
अब तो मन भी मेरे पास नहीं रहा था ।
कोई और दिन होता,
तो अपनी बचपन की सहेली शाम्भवी से पटर-पटर मैं कितनी लम्बी बातें कर
लेती...जैसे तुमसे करती थी, पर आज दिल नहीं किया। उसने पूछा
भी, पर तबियत ख़राब होने का बहाना करते हुए मैंने नकली मस्ती
दिखाई और फिर जितना जल्दी फोन रख सकती थी, रख दिया...। न
चाहते हुए भी मेरी आँख से दो बूँद गर्म आँसू निकलकर गालों पर बहते हुए कहीं खो
गए...।
रॉकिंग चेयर पर आँख मूँदकर धीमे-धीमे झूलते हुए मुझे ये भी याद
नहीं रहा कि अनछुई चाय बिल्कुल ठण्डी हो चुकी है, ठीक मेरी उम्मीदों की तरह...।
तुम जितनी तेज़ी से आए थे मेरी ज़िन्दगी में, उतने ही आहिस्ता से
चले भी गए...। शाम्भवी ने जब हमारा परिचय कराया था, तब उस
मुस्कराते चेहरे वाले लड़के से हाथ मिलाते वक़्त ये कहाँ सोचा था कि इन हाथों को
ज़िन्दगी भर के लिए थामना चाहूँगी...। शाम्भवी तो जैसे ऑब्सेस्ड थी तुमसे...। समीर
ये...समीर वो...सुनते-सुनते तुमसे ज़्यादा मिले बिना ही तुमको मानो बहुत जान गई।
तुमसे जुड़ी हर बात सुनते हुए मेरे सामने हमेशा तुम्हारा वही मुस्कराता चेहरा आ
जाता था...। जिस पार्टी में हम मिले थे, उसमें देखकर ही कोई
भी ये बता सकता था कि तुम कितने पॉपुलर हो...। तुम्हारे साधारण से साँवले चेहरे पर
भी एक अजब-सी कशिश थी...। सबसे तुम्हारा वह गर्मजोशी से मिलना, शालीनता भरी वह कम बोलने की आदत के बावजूद कितना कुछ कहती वे मुस्कराती
आँखें...। अगर तुम्हें अच्छे से जानने वाली शाम्भवी तुम्हारी फ़ैन थी, तो क्या ग़लत था, तुम्हारे सम्मोहन से पहली ही
मुलाक़ात में मैं भी कहाँ बची थी।
तुम तो नहीं पीते,
पर उस पार्टी में कुछ अधिक पी चुके दो लड़कों से मैं बेहद असहज हो गई
थी। एक लापरवाही से तुम टहलते हुए आए और बड़े अधिकार से मुझे अपने लिए कोल्ड-ड्रिंक
लाने को बोल दिया था। सच कहूँ, उस पल को जब भी आँख बन्द करके
देखती हूँ, आज भी उतना ही अच्छा लगता है।
एक बात बताऊँ ?
वैसे मुझे पता है, तुम पहले से ही ये बात
जानते हो, पर आज तुमसे कन्फ़ेस कर रही...। तुम्हारे क़रीब आने
के बाद मैं कुछ ज़्यादा ही पजेसिव हो गई थी। तभी तो बाद में कभी शाम्भवी जब
तुम्हारे बारे में बातें करती, मैं अन्दर से जल-सी जाती।
उससे ईर्ष्या होती, वह जब चाहे तुमसे मिल सकती थी...और
मैं...? मुझे तो अक्सर कई महीनों का इंतज़ार करना पड़ता,
तब कहीं जाकर एक-दो दिनों के लिए हम मिल पाते...। कभी कभी गिल्ट भी
होता था, इतना पजेसिव होना भी अच्छा नहीं न...।
याद है, एक बार मैने मज़ाक-सा करते हुए तुम्हें अपनी इस फ़ीलिंग के बारे में बताया
था। सब स्वीकारते हुए अन्दर से एक डर भी था...इतना जलनखोर देखकर तुमने मुझे ग़लत
समझ लिया तो...? या फिर इरीटेट हो गए तो...? पर तुमने बेपरवाही से मेरी बात को हँसी में उड़ा दिया था ,"अच्छा है न तुम जेलेस होती हो...प्यार में ऐसा होना बहुत नॉर्मल
है...।"
तुम्हारे लिए मेरे इस पज़ेसिवनेस के ज़िम्मेदार तो तुम खुद थे
न...। अपने छोटे-बड़े, जाने कितने अधिकार तुमने मुझे दे दिए थे। मैं इस मामले में थोड़ा भी नखरा
दिखाती और सामने तुम्हारा रेडीमेड जवाब होता... मुझे क्या, मेरा
कुछ नुकसान हुआ, तो तुम जानना...। ठीक न...? अब इस लहरियादार क्वेश्चन मार्क वाले पॉज़ के बाद कौन होता, जो झक न मार लेता...? शाम की ऑफिशियल पार्टी में
क्या पहनना है से लेकर सुबह के ब्रेकफास्ट में क्या खाओगे, सब
तय करना मेरे जिम्मे था । ये तो ये, पर अक्सर की तुम्हारी वो
ज़िदें...तौबा...! फलाँ-फलाँ काम तुम नहीं करोगी, तो मैं तो
किसी हालत में नहीं करूँगा...। पता नहीं, अपनी बात मनवाने के
लिए तुम इतने सख़्त कैसे हो जाते थे...।
तुमसे मिलने तक मैं
खुद को लेकर कितना कन्फ़्यूज़्ड थी। हर बात का गिल्ट लेना...मानो दुनिया में सुनामी
और भूकम्प भी मेरी वजह से ही आते हों...। बात-बात पर आँसू निकल आना...। तुम्हारे
सामने स्काइप पर ही पहली बार रोई थी,
तो तुमको यूँ गम्भीर देखकर मैं थोड़ा सहम गई थी...। शायद बाकी मर्दों
की तरह तुम भी इरीटेट हो गए हो...और मेरे शान्त होते ही तुमने पूछा था...आज नहाने
का इन्तज़ाम हो गया न...? मेरी ट्यूबलाइट जलने तक तुम वैसे ही
धीर-गम्भीर चेहरा लिये मुझे ताकते रहे थे, बस तुम्हारी आँखें
हँस रही थीं...और मैं किसी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोचते हुए लॉगआउट हो गई
थी...।
दुनिया के सामने एक मैच्योर इन्सान तुम्हारे सामने पता नहीं
कैसे किसी भी बात पर हँसने-रोने-रूठने वाली बच्ची बन जाती थी। तुम हमेशा मुझे
सँभाल जो लेते थे...। गज़ब के मैच्योर थे तुम...अपनी धुन के पक्के...अपने काम में
जुनून की हद तक डूब जाने वाले...। जब कभी मेरा फोन कटने के साथ मैसेज आता...आय एम
बिज़ी...विल कॉल यू लेटर...मैं अपने मोबाइल पर तुम्हारी फोटो पर अपने फोटोशॉप के
सारे हुनर इस्तेमाल कर लेती...। लेकिन तुम भी बड़े ढीठ हुआ करते...। न चिढ़ना, न लड़ना...बस एक
स्माइली से काम चल जाता था तुम्हारा...। पर जब तुम सामने होते, तो तुम्हारी
ये क्यूट सी स्माइल भी कुछ न कर पाती और अपनी चिकोटियों से मैं तुम्हें तंग कर ही
लेती। उसके बाद की पिलो-फ़ाइट में तुमसे हारकर जीतने की उस बाजीगरी खुशी को तुम
क्या जानो समीर बाबू...। तुम्हारा ऐसा बचपना भी शायद सिर्फ मैंने ही देखा है न...?
तुम्हारे साथ के इन पाँच सालों में ऐसी छोटी-छोटी खुशियाँ तो
मैंने बहुत इकट्ठा की हैं...। अब उन ढेर सारी तस्वीरों की बात ही देख लो...।
तुम्हारी तो आदत थी न शुरू से...एक छोटा- सा रुमाल भी खरीदते, तो उसकी फोटो खींचकर
मेरी मेल पर भेज देते...। मेरे लैपटॉप के एक फोल्डर में ऐसी हज़ारों तस्वीरें
इकठ्ठा होती गईं...। तुम्हारा अधखाया बर्गर, तुम्हारा टूटा
हुआ चश्मा...तुम्हारी फेंके जाने वाली चप्पल से लेकर तुम्हारे नए जूतों तक को उस
एक फोल्डर ने अपने अन्दर छुपा रखा है...। पर जाने कब और कैसे उस फोल्डर में
तस्वीरें जुड़ने की संख्या कम होती गई...। तुम्हारे साथ शेयर की हुई ऐसी अनगिनत
बातें भी मेरे दिल के एक फ़ोल्डर में जमा होती थीं। इतनी दूर होने पर भी हम कब,
कहाँ और किसके साथ हैं, कब खाना खाया और कब
लंच का गोला मार दिया...सब पता रहती थीं। कभी साथ न रहने की कमी खली ही नहीं...।
पर सब दिन एक-से नहीं होते न...। अब जब मैं तुमसे तुम्हारी नई
पिक्चर माँगती, तुमको
वो बेहद बचकानी-सी ख़्वाहिश लगती...। तुम्हें टाइम-बेटाइम फोन करने पर मैसेज़ तो उसी
तरह आते, पर स्माइली बनाना तुम भूलने लगे थे। उल्टे स्टॉप
बिहेविंग लाइक अ चाइल्ड सुनकर मैं जाने कितनी बार फोन ही स्विच ऑफ़ करके रखने लगी।
तुम शायद कभी नहीं जान पाओगे कि अक्सर दिन में कई बार मैं मोबाइल उठाकर देखती और
फिर पहले से भी ज़्यादा बुझे मन से वापस भी रख देती...। काम की मसरूफ़ियत तुम्हारी
याददाश्त पर भी असर डालने लगी थी, तभी तो लंदन से रानो दी के
लाए स्वेटर और पापा के नए फ्लैट बुक कराने के बारे में तो तुम बताना ही भूल गए
थे...। उस दिन पूरा फोल्डर हार्ड डिस्क में ट्रांसफर करने से पहले पता नहीं क्यों
मैंने हरेक तस्वीर को गौर से देखा था...।
हम दोनों ही परिवार के साथ रहते थे, पर एक अर्से बाद पता नहीं तुम अपने घर के ज़्यादा आदर्श बेटे बन गए या मैं ही अधिक नालायक बेटी थी...। तभी तो अक्सर तुम मुझे समझाना शुरू कर देते... अरे यार...ये क्या बात हुई कि मुझसे बात करते हुए ही तुमको अच्छी नींद आ सकती है...। ज़रूरी नहीं है कि रोज़ रात को हम इतनी देर तक बात करें ही...। अच्छी किताबें पढ़ो...मूवी देखो...गाने सुनो...। खुद ही सो जाओगी...।
मैंने हमेशा की तरह बिना बहस किए तुम्हारी बात मान ली थी और कई
रातों तक करवटें बदलते हुए रात काट ली...।
मुझे अगर तुमसे बातें किए बिना नींद नहीं आती थी, तो मेरे जगाए बिना
तुम्हारी आँखें नहीं खुलती थीं। रात में मुझे सोते हुए चाहे जितनी देर हो जाती,
तुम्हारे बताए टाइम पर मैं हमेशा पूरी सजगता से जाग जाती। जिन दिनों
हमने रात की बातें बन्द की, उस समय भी तुम्हारे मैसेज से
मुझे अगले दिन के अलार्म का पता चल जाता। सुबह जब तक तुम फोन उठाकर मुझे आश्वस्त न
कर देते, मैं लगातार तुमको फोन मिलाए जाती...। आखिरकार मेरे
इस इम्पल्सिवनेस से भी तुम इरीटेट हो गए थे, "क्या
यार...! इतना जीना भी हराम न करो...। एक बार रिंग मार दी, काम
ख़तम...। वैसे अब मैं भी अपना अलार्म लगाने लगा हूँ, तो फ़ालतू
में मेरी वजह से अपनी नींद न खराब किया करो...। खुद जागने लगा हूँ अब...।"
मैं बिना बात पड़ी इस
डाँट से हमेशा की तरह रुआँसी हो गई तो तुम नर्म पड़ गए थे, पर इस बार काँटा कहीं
गहरे धँसा था। सुबह तुमसे पहले जागने के बावजूद मैं तुम्हें जगाने से कतराने लगी
थी। उन दिनों मन अजीब-सा उचाट रहने लगा था। मेरा कितना कुछ अनकहा सुना करते थे
तुम...। फिर क्यों तुम भी नहीं जान पाए कि सुबह की वह कुछ पलों की गुड मॉर्निंग
कॉल मेरे लिए दिन भर किसी टॉनिक का काम करती थी? रात की
बेचैनी भरी नींद भी उस कॉल के बाद तरोताज़ा हो जाती थी।
जैसे जैसे वक़्त बीत रहा था,
मेरी ज़िन्दगी मानो पीछे भाग रही थी...हम दोनों दिन-ब-दिन अजनबी होते
जा रहे थे । अक्सर मुझे यह भी नहीं पता होता कि मेरी कौन सी बात तुमको ख़ुशी देगी
और किस बात से तुम नाराज़ होगे...।
तुम्हारे ऊपर तुम्हारे कैरियर का प्रेशर था, तो मेरे घरवालों
की ओर से मेरी शादी की बेचैनियाँ थी...।
तुमको जब ये बात बताई थी मैंने, तुम कुछ देर बिल्कुल खामोश हो गए। मैं तो अब
तुम्हारी ख़ामोशी को तुम्हारी आवाज़ से ज़्यादा पहचानने लगी थी...। मुझे पता था,
तुम अपने सामने बस ऐंवेही किसी चीज
को ताकते हुए अपने में गुम हो गए होगे। एक हाथ से कान पर मोबाइल चिपकाए
दूसरे हाथ की उँगलियों से कुछ आड़ा-तिरछा खींच रहे होगे...और जब मैं तुम्हारा नाम
लूँगी, तुम जैसे किसी ध्यान से जागकर यूँ दिखाओगे जैसे उस
दौरान कही गई हर बात तुमने सुनी हो...।
तुम मुझे कितना भी बहला लो; पर सच तो यही था कि तुम अक्सर
मेरी पूरी बात सुनते ही नहीं थे। हाँ-हूँ करने के बावजूद तुम्हारा ध्यान जाने कहाँ
होता । मेरे कहे गए कुछ आखिरी शब्दों की चाभी से तुम पूरी बात का ताला खोल लेना
चाहते थे...। खूब समझती थी मैं तुम्हारी चालाकी...।
सब कुछ समझने के बावजूद कभी ये नहीं समझ पाई कि दुनिया की हर
चीज की एक एक्सपायरी डेट होती है...हमारा रिश्ता भी एक्सपायर हो रहा था । उस दिन
तुमको ऐसे हिचकिचाते हुए मैंने पहली बार देखा था...। सबसे पहले तो आश्चर्य इस बात
से हुआ था कि तुमने अपने आप मुझे स्काइप पर आने को कहा, वरना ये तो मैं थी जो
हमेशा विडियो चैट के लिए तुम्हारी मिन्नतें करती । अजीब सी खुशी हुई...साथ ही पता
नहीं क्यों एक अनजाना डर भी लगा । शायद इसी को `सिक्स्थ
सेंस’ कहते हैं ।
तुम्हें सामने देखकर हमेशा की तरह मैं चहक रही थी, पर तुम सपाट थे ।
मेरे टोकने पर तुम मुस्कराए तो, पर उस पल वो मुस्कान सिर्फ
तुम्हारे होंठों पर ही टिकी रही...आँखों तक गई ही नहीं । मुझे तभी शक़ हुआ था...ठीक
हो न तुम...? जवाब में तुमने सिर्फ `हूँ’
किया था, गर्दन की हल्की जुम्बिश के साथ...।
मैं एकदम चुप होकर टुकुर टुकुर तुम्हारा मुँह ताक रही थी, उधर तुम फिर नज़रें
चुराए मेज़ पर जाने कौन सी कलाकारी कर रहे थे । अबकी बार मैं इरिटेट हो गई...चलो
यार, बाद में बात करते हैं...। जैसे कुछ याद आया हो, कुछ इस तरह तुमने एक साँस में ही विदेश में लगी अपनी नई नौकरी और उसे
ज्वाइन करने के अपने निर्णय, दोनों के बारे में बता डाला ।
मैं हैरान भी थी और हर्ट भी...। किसी की याददाश्त क्या इतनी
खराब हो सकती है कि वह इतनी बड़ी बात बताना भी भूल जाए...? कब तुमने अप्लाई किया,
कब तुमको नौकरी मिली और कब तुमने सारी फोर्मलिटी पूरी कर डाली,
ये सब बताना तुम्हारे लिए ग़ैर-ज़रूरी हो गया ?
उस एक पल में ही मुझे लगा,
मैं तुम्हें पहचानती ही नहीं...जानना तो बहुत दूर की बात है...।
तुम्हारी शायद अपनी मजबूरियाँ रही हों, पर किसी अजनबी के साथ
आगे के सफ़र की उम्मीद करना मेरी मजबूरी नहीं थी ।
मुझे तुम्हारी सफाई
सुनने में कोई इंटरेस्ट नहीं था । सच कहूँ तो तुम्हारी किसी बात में मेरा कोई
इंटरेस्ट नहीं बचा था । इसलिए ये भी नहीं
जानती कि किसी समझदार, मैच्योर इंसान की तरह अलविदा कहने के साथ मुझे लॉगआउट होते देख तुमको कैसा
लगा होगा...।
डोरबेल बजी तो मैं अपने ख़्यालों से बाहर आ गई...इस समय तो मेड
ही होगी । ब्लैक टी का कप सिंक पर रख मैं दरवाज़ा खोलने बढ़ गई...। आज इसी को बोल
देती हूँ, एक कप बढ़िया दूध और
शक्कर वाली चाय बना के पिला दे...।
सम्पर्कः एम.आई.जी- 292,
कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या- एक,
कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (उ.प्र),
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