- मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’
साँझ अब ढलने लगी है,
पीर सी पलने लगी है ।
हो उदय अब सूर्य कोई,
आस फिर जगने लगी है ।।
कितने भी झंझावात आएँ,
ना उसे फिर वो डिगायें
।
प्रेमसिक्त वाणी लिये,
हों वेद की जैसे ऋचाएँ
।।
उठ खड़ा जैसे हिमालय,
निज धरा शृंगार करता ।
मान मर्दन बैरि का कर,
युद्ध में हुंकार भरता ।।
कोई जो हो बनके भास्कर,
शक्ति का संचार कर दे ।
जनमानस के हृदय में,
दिव्यता की ज्योति भर दे ।।
हो गए हैं लुप्त प्रायः,
भाव जो कोमल हृदय के ।
चेतना को वे जगाकर,
सचेतन सा रूप कर दे ।।
हृदय की धड़कनों में,
है अभी तक दया जिंदा।
ले रही है सांस अब भी,
करुणा की तुम करो ना निंदा ।।
दान कर दधीचि ने जब,
लोकहित साधा था तप से।
आज भी संसार उनको,
पूजता युग बीते जब से ।।
है अभी भी समय चेतो,
भाव ना खो जाएँ सारे ।
बन करके मशीनी मानव,
स्वयं का सत्य रूप हारे ।।
लेखिका के बारे में- ज्योतिष शास्त्र विशेषज्ञ गद्य एवं पद्य
दोनों ही विधाओं में लगभग 15 वर्षों से लेखन, कृति- ‘नवग्रह पचासा’। सम्पर्कः
फ्लैट नं. 405, गणपति आशियाना, सिकंदरा,
आगरा, उत्तर प्रदेश, 282007,
meenakshishiv8@gmail.com
9 comments:
अत्यंत सुन्दर सृजन आदरणीया 🌹🙏सत्य को प्रकट करती प्रत्येक पंक्ति विचारमुखी है। धन्यवाद 🌹🙏😊
बहुत ही सुंदर।
बहुत बहुत आभार आदरणीया 🌹🙏
बहुत बहुत आभार आदरणीय 🌹🙏
बहुत सुन्दर 🙏
जी आभार आदरणीय 🙏
सुंदर रचना Meenakshi ji 😊👌🏻
जी बहुत आभार 🙏
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