विचार मनुष्य के मनुष्य होने और बने रहने का प्रमाण हैं। विचार
ही आचरण को प्रेरित करते हैं। भारतीय जीवन सनातन युग से विचार-वृत्ति का जीवन रहा
है। प्राचीन ऋषियों के चिंतन-मनन से लेकर आधुनिक ऋषि विवेकानंद तक यह विचारशीलता
गतिशील रही है। मार्क्स ने अमीर और गरीब के बीच विभाजित दुनिया के उत्पीड़न को
सामने रखकर संवेदना उत्पन्न की,
लेकिन वास्तव में यह करुणा भारत से ही फैली है। वाल्मीकि से लेकर
महावीर, बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस और फिर
विवेकानंद एवं गांधी तक इसी करुणा का विस्तार है। चूंकि कोई भी विचार स्थानीय या
स्वदेशी नहीं होता, वह यदि आम आदमी की विचार प्रक्रिया को
आंदोलित करता है तो सार्वभौमिक होता जाता है। अतएव भारतीय ऋषियों के विचारों को
पहले आम भारतीय ने स्वीकार किया और फिर वहीं विचार दुनिया में फैले। इसका उदाहरण
स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो में दिया वह उद्बोधन है, जो
दुनिया में आध्यात्मिक विज्ञान-सम्मत चेतना का आधार बना। यह चेतना आज भी भारत समेत
दुनिया को आंदोलित कर रही है।
आध्यात्मिक चेतना जगाने का काम भारत में सनातन परंपरा रही है।
जिसे कुण्डलिनी और शक्तिपात के माध्यम से जागृत किया जाता है। स्वामी विवेकानंद
आजीवन आध्यात्मिक चेतना और वेदांत के सत्य को जानने में लगे रहे। हालांकि आरंभ में
वे अनिश्वरवादी थे और सार्थक गुरु की तलाश में भटक रहे थे। विवेकानंद में ऊर्जा के
इस पुंज को स्थानांतरित करके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने कहा था, ‘आज अपना सर्वस्व
तुझे देकर में रिक्त हो गया। अब भारत का हित और सम्मान तुम्हारा दायित्व है।‘ इस
ऊर्जा के आरोहण में छह दिन का समय लगा था। यहीं से उनका आध्यात्मिक चेतना का स्तर
शिखर पर पहुँचा। धर्म और विश्व-बंधुत्व के इस पाठ से विवेकानंद धर्मांतरण की
स्पर्धा में लगे समुदायों को भी ललकारते रहे थे। अपनी अंतस्चेतना के बूते ही
उन्होंने शिकागो की धर्मसभा में भारतीयता का उद्घोष किया था। इस्लाम और ईसाई
धर्मावलंबियों से पराजित भारत में जो धर्म के विरुद्ध अनैतिक विषवमन हो रहा था,
उस पर नियंत्रण का यह पहला वैश्विक जयघोष था।
अस्तित्व की शक्ति कहें या परमात्मा अथवा ब्रह्माण्ड की ऊर्जा
सब कुल एक ही माया है। जो व्यक्ति इस महाचेतना का स्वाद चख चुका होता है, वह अहंकार से शून्य
हो जाता है। विवेकानंद जब अमेरिका के शिकागो की धर्मसभा में बोल रहे थे, तब वे अहंकार से तो शून्य थे, लेकिन भारतीय गरिमा के
स्वाभिमान से अभिप्रेरित होकर ही बोल रहे थे। सनातन धर्म के महत्व का यही प्रस्थान
बिंदु रहा है। दरअसल प्रत्येक व्यक्ति में आत्मशक्ति के रूप में पराशक्ति सुषुप्त
अवस्था में विद्यमान रहती है। किंतु जब सक्षम गुरु द्वारा दीक्षा व संस्कार मिल
जाते हैं तो मोहमाया के बंधन टूट जाते है और शिष्य को अंतर्निहित दिव्य-शक्ति का
अनुभव होने लगता है। विवेकानंद के साथ भी यही हो रहा था। वे जब 1900 में भारत लौटे
तो बेलूर मठ में बस गए। यहाँ समाधिस्थ रहते हुए उनकी दिव्य-चेतना का विस्तार इतना
होने लग गया था कि सांसारिक देह में समाना असंभव हो गया। नतीजतन चार जुलाई 1902 को
समाधि की अवस्था में ही स्वामी जी ने देह त्याग दी। उनकी चेतना का जो अदृश्य
विस्तार है, वह आज भी भारतीय जनमानस में असर छोड़ने का काम कर
रहा है। विज्ञान जगत में भी इस चेतना का असर देखा जा रहा है।
अपनी चेतना के तेज को दूसरे व्यक्ति में स्थानांतरित या
स्थापित करने की प्रक्रिया को सनातन विश्वास में कुण्डलिनी जागरण या शक्तिपात कहते
हैं। इस साधना के बड़े साधक शिवपुरी के डॉ. रघुबीर सिंह गौर भी हैं। वे लैपटॉप पर
ऑनलाइन होकर देश- विदेश के हजारों लोगों को शक्तिपात देकर आध्यात्मिक शांति संचरित
करते हैं। ‘ऊँ‘ के उच्चारण के साथ वे इस विधि का आरंभ करते हैं और फिर ध्यानस्थ
अवस्था में अँगूठे एवं अँगुलियों के संकेतों से हजारों किलोमीटर दूर बैठे लोग
गुरुजी की चेतना के नियंत्रण में आते चलते हैं। आधा घंटा यह क्रिया चलती है और
समाप्ति पर लोग गहन मानसिक शांति का अनुभव करते हैं। ऊर्जा का यह हस्तांतरण वही
गुरु कर सकता है, जो अपनी कुण्डलिनी साधना से जागृत कर चुका हो। यही ऊर्जा परमहंस ने
विवेकानंद में स्थापित की थी। अब विज्ञान ऐसा मान रहा है, ब्रह्माण्ड
में जो तत्व विद्यमान हैं, वही सब मनुष्य के मस्तिष्क में
हैं। इसलिए वह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को एक सीमित मात्रा में अपने शरीर में केंद्रित
कर सकता है। अतएव पराग्रहियों के अस्तित्व के बारे में अब वैज्ञानिक कह रहे हैं कि
वे चेतना की सूक्ष्म तरंगों के रूप में ब्रह्माण्ड में विचरण करने में सक्षम हैं।
क्योंकि किसी यान द्वारा पृथ्वी तक की दूरी तय करना संभव ही नहीं है। इस धारणा की
पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि अंतरिक्ष में हवा नहीं होती है। गोया, ध्वनि अथवा आवाज एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं जाती, लेकिन तरंगे आ-जा सकती हैं। फलतः सौरमंडल से जो रेडियो संकेत मिल रहे हैं,
उन्हें एलियन द्वारा भेजे संकेत माना जा रहा है।
पाश्चात्य विज्ञान पदार्थ की बात तो करता है, लेकिन पदार्थ में
चेतना विकसित करने की बात नहीं करता। क्योंकि वर्तमान भौतिकी पदार्थ को ‘जड़’ मानती
है, किंतु सनातन विज्ञान ऐसा नहीं मानता, वह पदार्थ को भी चैतन्य मानता है। परिणामतः ब्रह्माण्ड का अणुओं से
निर्मित ऊपर से जड़ दिखने वाला प्रत्येक तत्व परिवर्तनशील है। पुष्पक विमान के बारे
में कहा जाता है कि उसमें यात्रियों के लिए एक पीठिका हमेशा रिक्त रहती थी। दरअसल
यह विमान वायु के घनत्व के अनुसार स्वमेव अपना आकार छोटा या बड़ा कर लेता था। यदि
पदार्थ में चेतना जागृत करने का सूत्र मिल जाए तो पदार्थ में भी संवेदना सृजित
होने लगेगी। भाववादी सिद्धांत का सूत्र इसी वैज्ञानिक चेतना का द्योतक है।
लोगों के मन में प्रश्न उठता है कि शक्पिात की विधि जो कोई
संत-साधना से प्राप्त करता है,
उसकी अदृश्य क्रिया को हम देख क्यों नहीं पाते हैं ? अपने अध्ययन और अनुभव से इस प्रश्न का जो उत्तर मेरी बुद्धि में आता है,
वह है प्रकृति की अंदरुनी दुनिया में वास करने वाली कई चीजों को हम
केवल आभास कर सकते हैं, प्रत्यक्ष देख नहीं सकते। जैसे,
संगीत की लय को हम नहीं देख पाते, लेकिन उसे
सुनने के लिए हमारे पास कान हैं। वह आवाज भी हम कहाँ देख पाते हैं, जो लय को प्रतिध्वनित करती है। हम गंध और दुर्गंध को भी नहीं देख पाते,
लेकिन उसे महसूस करने के लिए हमारे पास नाक है। हम संवेदना को भी
नहीं देख पाते, लेकिन उसे स्पर्श से जान जाते हैं। तमाम
गैसों के रूप और कंप्युटर व मोबाइल तकनीक जो आज सर्पव्यापी है, लेकिन हम सॉफ्टवेयर की बुद्धि को कहाँ देख पाते हैं ? तत्पश्चात भी इन सभी का अस्तित्व है, जब इनका
अस्तित्व है तो कुण्डलिनी और शक्तिपात जैसी क्रियाओं का भी अस्तित्व है, यही चेतना का विज्ञान है। इसीलिए जब परमहंस ने विवेकानंद में अपनी समस्त
ऊर्जा का आरोहण किया, तब वह प्रकट रूप में दिखाई नहीं दी थी, लेकिन विवेकानंद के प्रवचनों के माध्यम से जिन बोलों का उच्चारण हुआ,
उनसे भारतीय समाज आज भी प्रेरित-अभिप्रेरित हो रहा है। - प्रमोद
भार्गव
No comments:
Post a Comment