मेरे राम का मुकुट भीग
रहा है
विद्यानिवास
मिश्र

अभी दो-तीन रात पहले मेरे एक साथी संगीत
का कार्यक्रम सुनने के लिए नौ बजे रात गए, साथ में जाने के लिए मेरे एक चिरंजीव ने और मेरी एक मेहमान, महानगरीय
वातावरण में पली कन्या ने अनुमति माँगी। शहरों की आजकल की असुरक्षित स्थिति का
ध्यान करके इन दोनों को जाने तो नहीं देना चाहता था, पर लड़कों का मन भी तो रखना होता है, कह दिया, एक-डेढ़ घंटे
सुनकर चले आना।
रात के बारह बजे। लोग नहीं लौटे। गृहिणी
बहुत उद्विग्न हुईं,
झल्लाईं; साथ में गए
मित्र पर नाराज होने के लिए संकल्प बोलने लगीं। इतने में ज़ोर की बारिश आ गई। छत से
बिस्तर समेटकर कमरे में आया। गृहिणी को समझाया, बारिश थमेगी, आ जाएँगे,
संगीत में मन
लग जाता है, तो उठने की
तबीयत नहीं होती,
तुम सोओ, ऐसे बच्चे नहीं
हैं। पत्नी किसी तरह शांत होकर सो गईं, पर मैं अकुला उठा। बारिश निकल गई, ये लोग नहीं
आए। बरामदे में कुर्सी लगाकर राह जोहने लगा। दूर कोई भी आहट होती तो, उदग्र होकर
फाटक की ओर देखने लगता। रह-रहकर बिजली चमक जाती थी और सड़क दिप जाती थी। पर सामने
की सड़क पर कोई रिक्शा नहीं,
कोई चिरई का
पूत नहीं। एकाएक कई दिनों से मन में उमड़ती-घुमड़ती पँक्तिया गूँज गईं :
"मोरे राम के भीजेमुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजैसेनुरवा
त राम घर लौटहिं।"

बचपन में दादी-नानी एक गीत गातीं, मेरे घर से बाहर जाने पर विदेश में रहने पर वे यही गीत
विह्वल होकर गातीं और लौटने पर कहतीं - 'मेरे लाल को कैसा वनवास मिला था।' जब मुझे
दादी-नानी की इस आकुलता पर हँसी भी आती, गीत का स्वर बड़ा मीठा लगता। हाँ, तब उसका दर्द
नहीं छूता। पर इस प्रतीक्षा में एकाएक उसका दर्द उस ढलती रात में उभर आया और सोचने
लगा, आने वाली पीढ़ी
पिछली पीढ़ी की ममता की पीड़ा नहीं समझ पाती और पिछली पीढ़ी अपनी संतान के सम्भावित
संकट की कल्पना मात्र से उद्विग्न हो जाती है। मन में यह प्रतीति ही नहीं होती कि
अब संतान समर्थ है,
बड़ा-से-बड़ा
संकट झेल लेगी। बार-बार मन को समझाने की कोशिश करता, लड़की दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाती है, लड़का संकट-बोध
की कविता लिखता है,
पर लड़की का
ख्याल आते ही दुश्चिता होती,
गली में जाने
कैसे तत्त्व रहते हैं! लौटते समय कहीं कुछ हो न गया हो और अपने भीतर अनायास अपराधी
होने का भाव जाग जाता,
मुझे रोकना था
या कोई व्यवस्था करनी चाहिए थी,
पराई लड़की (और
लड़की तो हर एक पराई होती है,
धोबी की मुटरी
की तरह घाट पर खुले आकाश में कितने दिन फहराएगी, अंत में उसे गृहिणी बनने जाना ही है) घर आई, कहीं कुछ हो न
जाए!
मन फिर घूम गया कौसल्या की ओर, लाखों-करोड़ों
कौसल्याओं की ओर,
और लाखों
करोड़ों कौसल्याओं के द्वारा मुखरित एक अनाम-अरूपकौसल्या की ओर, इन सबके राम वन
में निर्वासित हैं,
पर क्या बात है
कि मुकुट अभी भी उनके माथे पर बँधा है और उसी के भीगने की इतनी चिंता है? क्या बात है कि
आज भी काशी की रामलीला आरम्भ होने के पूर्व एक निश्चित मुहुर्त में मुकुट की ही
पूजा सबसे पहले की जाती है?
क्या बात है कि
तुलसीदास ने 'कानन' को 'सत अवध समाना' कहा और
चित्रकूट में ही पहुँचने पर उन्हें 'कलि की कुटिल कुचाल' दीख पड़ी?
क्या बात है कि
आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा राम बने हुए हैं? कहीं-न-कहीं इन
सबके बीच एक संगति होनी चाहिए।
अभिषेक की बात चली, मन में अभिषेक
हो गया और मन में राम के साथ राम का मुकुट प्रतिष्ठित हो गया। मन में प्रतिष्ठित
हुआ, इसलिए राम ने
राजकीय वेश में उतारा,
राजकीय रथ से
उतरे, राजकीय भोग का
परिहार किया, पर मुकुट तो
लोगों के मन में था,
कौसल्या के
मातृ-स्नेह में था,
वह कैसे उतरता, वह मस्तक पर
विराजमान रहा और राम भीगें तो भीगें, मुकुट न भीगने पाए, इसकी चिंता बनी रही। राजा राम के साथ उनके अंगरक्षक लक्ष्मण
का कमर-बंद दुपट्टा भी (प्रहरी की जागरूकता का उपलक्षण) न भीगने पाए और अखंड
सौभाग्यवती सीता की माँग का सिंदूर न भीगने पाए, सीता भले ही भीग जाएँ। राम तो वन से लौट आए, सीता को
लक्ष्मण फिर निर्वासित कर आए,
पर लोकमानस में
राम की वनयात्रा अभी नहीं रुकी। मुकुट, दुपट्टे और सिंदूर के भीगने की आशंका अभी भी साल रही है।
कितनी अयोध्याएँ बसीं,
उजड़ीं, पर निर्वासित
राम की असली राजधानी,
जंगल का रास्ता
अपने काँटों-कुशों,
कंकड़ों-पत्थरों
की वैसी ही ताजा चुभन लिये हुए बरकरार है, क्योंकि जिनका आसरा साधारण गँवार आदमी भी लगा सकता है, वे राम तो सदा
निर्वासित ही रहेंगे और उनके राजपाट को सम्भालने वाले भरत अयोध्या के समीप रहते
हुए भी उनसे भी अधिक निर्वासित रहेंगे, निर्वासित ही नहीं, बल्कि एक कालकोठरी में बंद जिलावतनी की तरह दिन बिताएँगे।
सोचते-सोचते लगा की इस देश की ही नहीं, पूरे विश्व की
एक कौसल्या है; जो हर बारिश
में विसूर रही है - 'मोरे राम के भीजेमुकुटवा' (मेरे राम का
मुकुट भीग रहा होगा)। मेरी संतान,
ऐश्वर्य की
अधिकारिणी संतान वन में घूम रही है, उसका मुकुट, उसका ऐश्वर्य भीग रहा है, मेरे राम कब घर लौटेंगे; मेरे राम के सेवक का दुपट्टा भीग रहा है, पहरुए का
कमरबंद भीग रहा है,
उसका जागरण भीग
रहा है, मेरे राम की
सहचारिणी सीता का सिंदूर भीग रहा है, उसका अखंड सौभाग्य भीग रहा है, मैं कैसे धीरज
धरूँ? मनुष्य की इस
सनातन नियति से एकदम आतंकित हो उठा ऐश्वर्य और निर्वासन दोनों साथ-साथ चलते हैं।
जिसे , ऐश्वर्य सौंपा
जाने को है, उसको निर्वासन
पहले से बदा है। जिन लोगों के बीच रहता हूँ, वे सभी मंगल नाना के नाती हैं, वे 'मुद मंगल' में ही रहना
चाहते हैं, मेरे जैसे आदमी
को वे निराशावादी समझकर बिरादरी से बाहर ही रखते हैं, डर लगता रहता
है कि कहीं उड़कर उन्हें भी दुख न लग जाए, पर मैं अशेष मंगलाकांक्षाओं के पीछे से झाँकती हुई
दुर्निवार शंकाकुल आँखों में झाँकता हूँ, तो मंगल का सारा उत्साह फीका पड़ जाता है और बंदनवार, बंदनवार न
दिखकर बटोरी हुई रस्सी की शक्ल में कुंडली मारे नागिन दिखती है, मंगल-घट औंधाई
हुई अधफूटी गगरी दिखता है,
उत्सव की रोशनी
का तामझाम धुओं की गाँठों का अम्बार दिखता है और मंगल-वाद्य डेरा उखाड़ने वाले
अंतिम कारबरदार की उसाँस में बजकर एकबारगी बंद हो जाता है।
मानहुँकालराति अँधियारी।
घोर जंतु सम पुरनरनारी,
डरपहिंएकहि एक निहारी।
घर मसान परिजन जनुभूता,
सुत हित मीत मनहुँजमदूता।
वागन्हबिटपबेलिकुम्हिलाहीं,
सरित सरोवर देखि न जाहीं।
कैसे मंगलमय प्रभात की कल्पना थी और
कैसी अँधेरी कालरात्रि आ गई है?
एक-दूसरे को
देखने से डर लगता है। घर मसान हो गया है, अपने ही लोग भूत-प्रेत बन गए हैं, पेड़ सूख गए हैं, लताएँ कुम्हला
गई हैं। नदियों और सरोवरों को देखना भी दुस्सह हो गया है। केवल इसलिए कि जिसका
ऐश्वर्य से अभिषेक हो रहा था,
वह निर्वासित
हो गया। उत्कर्ष की ओर उन्मुख समष्टि का चैतन्य अपने ही घर से बाहर कर दिया गया, उत्कर्ष की, मनुष्य की
ऊर्ध्वोन्मुख चेतना की यही कीमत सनातन काल से अदा की जाती रही है। इसीलिए जब कीमत
अदा कर ही दी गई,
तो उत्कर्ष
कम-से-कम सुरक्षित रहे,
यह चिंता
स्वाभाविक हो जाती है। राम भीगें तो भीगें, राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश
में हर दुर्दिन में सुरक्षित रहे। नर के रूप में लीला करने वाले नारायण निर्वासन
की व्यवस्था झेलें,
पर नर रूप में
उनकी ईश्वरता का बोध दमकता रहे,
पानी की बूँदों
की झालर में उसकी दीप्ति छिपने न पाए। उस नारायण की सुख-सेज बने अनंत के अवतार
लक्ष्मण भले ही भीगते रहें,
उनका दुपट्टा, उनका
अहर्निशिजागर न भीजे,
शेषी नारायण के
ऐश्वर्य का गौरव अनंत शेष के जागर-संकल्प से ही सुरक्षित हो सकेगा और इन दोनों का
गौरव जगज्जननीआद्याशक्ति के अखंड सौभाग्य, सीमंत,
सिंदूर से
रक्षित हो सकेगा,
उस शक्ति का
एकनिष्ठ प्रेमपाकर राम का मुकुट है, क्योंकि राम का निर्वासन वस्तुत: सीता का दुहरा निर्वासन
है। राम तो लौटकर राजा होते हैं,
पर रानी होते
ही सीता राजा राम द्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं। राम के साथ लक्ष्मण हैं, सीता हैं, सीता वन्य
पशुओं से घिरी हुई विजन में सोचती हैं - प्रसव की पीड़ा हो रही है, कौन इस वेला
में सहारा देगा, कौन प्रसव के
समय प्रकाश दिखलाएगा,
कौन मुझे
सँभालेगा, कौन जन्म के
गीत गाएगा?
कोई गीत नहीं गाता। सीता जंगल की सूखी
लकड़ी बीनती हैं, जलाकर अँजोर
करती हैं और जुड़वाँ बच्चों का मुँह निहारती हैं। दूध की तरह अपमान की ज्वाला में
चित्त कूद पड़ने के लिए उफनता है और बच्चों की प्यारी और मासूम सूरत देखते ही उस पर
पानी के छीटे पड़ जाते हैं,
उफान दब जाता
है। पर इस निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखण्डित है, वह राम के
मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है,
मुकुटधारी राम
को निर्वासन से भी बड़ी व्यथा देता है और एक बार और अयोध्या जंगल बन जाती है, स्नेह की रसधार
रेत बन जाती है, सब कुछ उलट-पलट
जाता है, भवभूति के
शब्दों में पहचान की बस एक निशानी बच रहती है, दूर उँचे खड़े तटस्थ पहाड़, राजमुकुट में जड़ें हीरों की चमक के सैकड़ों शिखर, एकदम कठोर, तीखे और निर्मम
-
पुरायत्र स्रोत: पुलिनमधुनातत्रसरितां
विपर्यासंयातोघनविरलभाव: क्षितिरुहामू।
बहो: कालाद्दृष्टंह्यपरमिवमन्येवनमिंद
निवेश: शैलानांतदिदमितिबुद्धिंद्रढयति।
राम का मुकुट इतना भारी हो उठता है कि
राम उस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना के चीत्कार में सीता के माथे का सिंदूर
और दमक उठता है, सीता का
वर्चस्व और प्रखर हो उठता है।
कुर्सी पर पड़े-पड़े यह सब सोचते-सोचते
चार बजने को आए, इतने में
दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक पड़ी,
चिरंजीवी निचली
मंजिल से ऊपर नहीं चढ़े,
सहमी हुई
कृष्णा (मेरी मेहमान लड़की) बोली - दरवाजा खोलिए। आँखों में इतनी कातरता कि कुछ
कहते नहीं बना, सिर्फ इतना कहा
कि तुम लोगों को इसका क्या अंदाज होगा कि हम कितने परेशान रहे हैं। भोजन-दूध धरा
रह गया, किसी ने भी छुआ
नहीं, मुँह ढाँपकर
सोने का बहाना शुरू हुआ,
मैं भी स्वस्ति
की साँस लेकर बिस्तर पर पड़ा,
पर अर्धचेतन
अवस्था में फिर जहाँ खोया हुआ था,
वहीं लौट गया।
अपने लड़के घर लौट आए,
बारिश से नहीं
संगीत से भीगकर, मेरी दादी-नानी
के गीतों के राम,
लखन और सीता
अभी भी वन-वन भीग रहे हैं। तेज बारिश में पेड़ की छाया और दुखद हो जाती है, पेड़ की हर
पत्ती से टप-टप बूँदें पड़ने लगती हैं, तने पर टिकें, तो उसकी हर नस-नस से आप्लावित होकर बारिश पीठ गलाने लगती
है। जाने कब से मेरे राम भीग रहे हैं और बादल हैं कि मूसलाधार ढरकाए चले जा रहे
हैं, इतने में मन
में एक चोर धीरे-से फुसफुसाता है,
है, राम तुम्हारे
कब से हुए, तुम, जिसकी बुनाहट
पहचान में नहीं आती,
जिसके
व्यक्तित्व के ताने-बाने तार-तार होकर अलग हो गए हैं, तुम्हारे कहे
जानेवाले कोई भी हो सकते हैं कि वह तुम कह रहे हो, मेरे राम! और चोर की बात सच लगती है, मन कितना बँटा
हुआ है, मनचाही और
अनचाही दोनों तरह की हज़ार चीजों में। दूसरे कुछ पतियाएँ भी, पर अपने ही
भीतर प्रतीति नहीं होती कि मैं किसी का हूँ या कोई मेरा है। पर दूसरी ओर यह भी
सोचता हूँ कि क्या बार-बार विचित्र-से अनमनेपन में अकारण चिंता किसी के लिए होती
है, वह चिंता क्या
पराए के लिए होती है,
वह क्या कुछ भी
अपना नहीं है? फिर इस अनमनेपन
में ही क्या राम अपनाने के लिए हाथ नहीं बढ़ाते आए हैं, क्या न-कुछ
होना और न-कुछ बनाना ही अपनाने की उनकी बढ़ी हुई शर्त नहीं है?
तार टूट जाता है, मेरे राम का
मुकुट भीग रहा है,
यह भीतर से कहा
पाऊँ? अपनी उदासी से
ऐसा चिपकाव अपने सँकरे-से-दर्द से ऐसा रिश्ता, राम को अपना कहने के लिए केवल उनके लिए भरा हुआ हृदय कहाँ
पाऊँ? मैं शब्दों के
घने जंगलों में हिरा गया हूँ। जानता हूँ, इन्हीं जंगलों के आसपास किसी टेकड़ी पर राम की पर्णकुटी है, पर इन
उलझानेवाले शब्दों के अलावा मेरे पास कोई राह नहीं। शायद सामने उपस्थित अपने ही
मनोराज्य के युवराज,
अपने बचे-खुचे
स्नेह के पात्र, अपने भविष्यत्
के संकट की चिंता में राम के निर्वासन का जो ध्यान आ जाता है, उनसे भी अधिक
एक बिजली से जगमगाते शहर में एक पढ़ी-लिखी चंद दिनों की मेहमान लड़की के एक रात कुछ
देर से लौटने पर अकारण चिंता हो जाती है, उसमें सीता का ख्याल आ जाता है, वह राम के
मुकुट या सीता के सिंदूर के भीगने की आशंका से जोड़े न जोड़े, आज की दरिद्र
अर्थहीन, उदासी को कुछ
ऐसा अर्थ नहीं दे देता,
जिससे जिंदगी
ऊब से कुछ उबर सके?

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एक बेहतरीन आलेख! इतने दिनों से इसे ढूँढ रही थी, इसे प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद! कृपया मिश्र जी के अन्य आलेख भी प्रकाशित करें।
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