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Oct 14, 2019

फाँस

 फाँस
-वीरेन्द्र कुमार मेहता

अब्बाजान की दिल से ये आरजू थी कि ख़ुदा का बुलावा आने से पहले एक बार वे अपने पुरखों की सरजमींहिन्दुस्तान पर सिर टिकाकर वहाँ की मिट्टी अपने माथे पर लगा सके। मगर ठीक इसके उलट मैं उस गाँव का नाम भी अपनी जुबाँ पर नहीं लाना चाहता था जहाँ 'पार्टिशन' के ग़दर में मुझे अपनी अजीज अम्मीजान और छोटे भाई आमिर को खोना पड़ा था। जहाँ एक तरफ अब्बाजान की ख्वाहिश, उम्र के आखिरी मुक़ाम पर आकर बेसब्री में बदलती जा रही थी, वही मैं 'इंडो-पाक' राजनिति के बीच एक अहम किरदार निभाने के चलते उन ख्वाहिशों पर अपनी नफ़रत की राख डालउनकी बेसब्री को मायूसी का जामा पहनाता आ रहा था।
अब पता नही ये अब्बाजान के मायूस चेहरे की दरकार थी या पुरखों की मिट्टी की कशिश, कि मेरे बेटे जफर के दिल में भी एक बार हिन्दुस्तान जाने की ख्वाहिश जोर मारने लगी थी। लिहाजा वह भी अपने लेवल पर इन कोशिशों में लग गया था, ये जानते हुए भी कि मेरी खिलाफत करना घर में तूफ़ान लाने जैसा था। मुझे यह सब उसी दिन पता लगा जब उसने मुझे इस ना-मुमकिन सी बात के लिए राजी कर लिया। ये कमाल था अब्बाहुजूर के नब्बे बरस के हो जाने की तारीख का। जब मेरे बेटे ने मुझसे उनके लिए, बतौर तोहफ़ा उन्हें हिंदुस्तान ले जाने की इजाजत मांग ली। तमाम दुश्वारियों के बीच आखिर उसकी और अब्बाजान की ख़्वाहिश जीत गई  और मैं बेमन से ही सही, अपने पैदायशी गाँव जाने के लिये तैयार हो गया था।
   आखिर वह खुशनसीब दिन भी आ गया जब हम, दिल्ली-लाहौर के बीच चलने वाली बस के पैसेंजर बनकर हिंदुस्तान के लिए रवाना हो पड़े। हम यानी मैं, अब्बाहुजूर और मेरा बेटा जफर। लाहौर से अमृतसर होते हुए  पुरखों के 'शाहजानाबाद' यानि दिल्ली तक सफर कब शुरू हुआ और कब ख़्वाबों की तरह खत्म, पता ही नही लगा। दिल्ली की पुरानी इमारतों से होते हुए  हम आ पहुँचें थे अपने पुश्तैनी गाँव की दहलीज पर। अब्बाजान के होठों की हँसी बता रही थी कि गाँव की मिटटी की खुशबू उन्हें अपनी जवानी के दिन याद दिला रही है। पूरे रास्ते ज्यादातर मैं चुप ही रहा लेकिन बचपन में देखे गए गाँव के पुराने रास्तों से गुजरते-गुजरते कब मेरी आँखें भी बोलने लगी, मुझे पता ही नहीं लगा। और मेरे बेटे के लिये तो पुरखों का गाँव एक ख्वाब ही था जिसे वह आँखे खोले बस एक टक देखे जा रहा था।
 जहाँ कच्ची सड़कों पर कभी 'तांगे' चला करते थे, आज वहाँ पक्की सड़कें बनी हुयी थी जिन पर 'गैस के टेम्पों' की भीड़ नजर आ रही थी।

"भाई, तलहटा गाँव के कब्रिस्तान चलोगे।" मैनें एक टेम्पों वाले को चलने के लिये तैयार किया।
"चलेंगे भाई जान। पुराने कब्रिस्तान की बात कर रहे हो न।"
"हाँ भाई, वही जिसके पास चाँद हवेली हुआ करती थी।" अब्बाजान ने बरसों पुराने अपने आशियाने को याद किया।
"मियाँ अब चाँद हवेली का तो पता नहीं, लेकिन हम आपको कब्रिस्तान जरूर छोड़ देंगे। वहींपास ही एक हवेली भी है, शायद वही हो आप की चाँद हवेली।" मुस्कराते हुए टेम्पों ड्राइवर ने बैठने का इशारा किया।
                टेम्पों ने गाँव का रास्ता पकड़ लिया और हम लोग फिर से वक़्त के बदलाव को देखने लगे। पुराने वक़्त के मद्देनजर गाँव बहुत बदल चुका था, मगर आसपास की पुरानी इमारतें और चंद हवेलियाँ अभी तक खण्डहर बनी अपने इतिहास की यादें दिला रही थी।
"अब्बाजान हम यहाँ आ तो गए लेकिन हम तो ये भी नही जानते कि हमारी पहचान का कोई शख्स गाँव में अब ज़िंदा भी है या नही।" मेरे शब्दों में अभी भी हमारे बिना किसी खोज-खबरकिये, यहाँ हजारों मील दूर चले आने से जुड़ी तल्ख मिजाजी का अहसास हो रहा था लेकिन अब्बाजान हमेशा की तरह शांत थे।
"अनवर, कोई नहीं भी मिलेगा तो क्या हुआ? अरे भई, रात किसी सराय में काट लेंगे और एकआधदिन घूम कर लौट चलेंगे वापिस। बस एक बार उस मिट्टी पर सिर तो झुका लूँ जहाँ सदियों से हमारे पुरखे दफन है बेटा।" कहते हुए  उनकी आँखों में नमी झलक आई।
"देखो भाई, हमें ध्यान से पुराने कब्रिस्तान पर उतार देना। कई सालों बाद आए है लौटकर, सही से जगह का अंदाजा भी नहीं होगा।" मैंने टेम्पों वाले को चेताया।
"आप फ़िक्र मत कीजिये साहब, सही जगह छोड़ देंगे। रास्ता तो दस मिनट का ही है, ये तो ट्रैफ़िक और भीड़ की वजह से टाइम लग रहा है।"
"...हर-हर महादेव...। ....जय श्री राम...।" टेम्पों वाले की बात पूरी ही हुयी थी कि रास्ते की भीड़ में से एक सामूहिक आवाज से आसमान गूँज उठा।
इस गूँज से जहाँ मेरे और जफर के चेहरे पर पशोपश के भाव उभर आये, वहीं अब्बाजान कुछ मुस्करा कर टेम्पों वाले से मुख़ातिब हो बोल उठे। "बेटा, 'दशहरा' तो अभी दूर हैं न। फिर ये 'राम-लल्ला' का जुलूस...!
'बड़े मियाँ!" ये 'राम-लल्ला' का जुलूस नहीँ हैं।" ड्राईवर ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी। "ये तो सदियों की अच्छी भली कौमी एकता को पलीता लगाने की हरकतें हैं जनाब जो जाने कब दंगों की आग में बदल जाती है और किसी को पता भी नहीं चलता।"
उम्मीद के उलट आये जवाब; उसके कहे गए शब्द और उसका लहजा, सब कुछ काफी थे हमारे चेहरे पर पसीना लाने के लिये। हमारा आगे का बाकी रास्ता, एक दूसरे के चेहरों पर उभरी लकीरों को पढ़ने की कोशिश में ही गुजर गया। अब्बाजान बदलते समय की सोच पर ग़मज़दाहो रहे थे तो मैं जफर के कहने में आकर चले आने के अपने फ़ैसले पर लानत भेज रहा था। बरहाल अब तो आ ही गए थे, लिहाजा मैं सही-सलामत वतन पहुँचने की दुआएँ अल्लाह-ताला से माँगने में लग गया था।
"आइयें जनाब आ गया पुराना कब्रिस्तान।" कहते हुए ड्राइवर ने टेम्पों कब्रिस्तान के पास, साइड में लगा दिया।
मैं उसको किराया देने में लग गया, जफर की नजरें आसपास की इमारतों का मुयायना करने लगी थी और अब्बाजान की नजरें कुछ ही दूर बने कब्रिस्तान पर जा टिकी थी। कब्रिस्तान के ठीक पीछे बनी मस्जिद की तरफ नजरें जाते ही मेरे जहन में कई पुरानी बातें एक साथ किसी फिल्म की तरह गुजर गईं। कुछ और सोच पाता, इससे पहले ही मेरा ध्यान जफर की आवाज पर चला गया।
"अब्बू, कब्रिस्तान की तरफ क्या देख रहे हैं बाबाजान...।"
"कुछ नहीं बेटा, कई भूले-बिसरे पुरखों को याद कर रहें हैं शायद जो गहरी नींद सोए पड़े है यहाँ।"
"चलिए अब्बाजान, हवेली की तरफ चलें।" मैंने उनका हाथ थामते हुए हवेली की तरफ इशारा किया। जफर ने भी आगे बढ़कर उनका हाथ पकड़ लिया।
"ठहरो अनवर कुछ देर, चलते हैं अभी!" अब्बू चलने को तैयार नहीं हुए।
मैं समझ रहा था कि अब्बाजान के दिल में क्या चल रहा है? उनके दिल में ही क्या, मेरे दिल में भी सारी बातें एक मंजर बनकर सामने आ खड़ी हुई थीं।
..."आप बताओगे हमें दोस्ती के मायने!" अब्बू को कहे गए पंडित हरी नारायण के शब्द आज बरसों बाद भी हू--हू मेरे सामने गर्दिश करने लगे थे। "अरे ज़ाकिर मियाँ, हमारी तो रग-रग में कान्हा जी बसे हैं जो सुदामा के लिए सिंहासन छोड़ नंगे पैर दौड़ पड़े थे। झाँकना हैं तो अपने गिरेबाँ में झाँकों, जिसने छटाँक भर जमीन के लिए बालपन की दोस्ती को ठोकर मार दी।"
"पंडित! दोस्ती को बीच में मत लाओ, ये हमारी कौम का मसला हैं, मस्जिद के लिए जमीं, उन्होंने कीमत देकर खरीदी है। यूँ ही बेदखल नहीं किया उन लोगों को हमने।" अब्बू की आवाज भी तेज हो गई  थी।
"हाँ मियाँ है तो ये कौम का ही मसला... लेकिन एक बात जान लो तुम भी।तुम्हारे मंसूबे तो पूरे नहीं होने देंगे हम! मस्जिद के नाम पर मोहल्ले को मियाँ मोहल्ला बनाना चाहते हो। राम कसम एक नुमाइंदा नहीं छोड़ेंगें कौम का...।"
पंडित हरी नारायण के लबों पर आई वोतंज भरी हँसी और कटार से चुभते लफ़्ज मेरे दिल पर ऐसे लगे थे कि आज तक फाँस बनकर गले में अटके हुए हैं। मस्जिद तो बननी थी और बनी भी, मगर उस हादसे ने एक दीवार खींच दी उनके और अब्बाजान के बीच में। अब्बाजान बहुत दुखी थे कि उनके बचपन के दोस्त ने उन्हें गलत समझा, वे एक बार अपनी बात कहकर इस दीवार को गिराना चाहते थे; लेकिन  फिर दोबारा ऐसा मौका ही नहीं आया कि कोई सवाल-जवाब हो सके। ‘पार्टिशन’ हुआ और हम अपना जो कुछ बचा सकते थे, बचाकर निकल गये इस जमीं से। पीछे रह गई  दिल में बस एक कसक।...
     कुछ ही देर बाद हम कब्रिस्तान की दीवार के साथ-साथ होते हुए जा पहुँचे अपनी हवेली, जो अब किसी और की मिल्कियत हो गई  थी। अब वह हरे रंग से रंगी ‘चाँद’ हवेली नाहो कर केसरिया रंग में रंगी ‘केसर’ हवेली बन चुकी थी।हवेली के बड़े से दरवाजे से (जो इतेफ़ाक से शायद हमारे लिए ही खुला हुआ था) अंदर बने दालान के बीच हम थके हुए क़दमों से जा खड़े हुएऔर अंदर के बदलाव का जायजा लेने लगे।
"बाबाजान, आप ऊपर खुले आसमान में क्या देख रहें हैं?" अब्बू को आसमान की तरफ ताकते हुए देख जफर को कुछ हैरत सी हुयी।
"ज़फ़र, तेरे बाबा को खुले आसमान में उड़ते परिन्दों को बुला कर 'दाना' देने का बहुत शौक था।"मैं भी थोड़ाजज़्बाती हो गया। "शायद उनकी नजरें अभी भी उन्हीं परिंदों को ढूंढ रही हैं बेटा.... मगर वो बेचारे परिंदे तो न जाने अब कहाँ होंगे?"
"नमस्कार जनाब, मैंने आपको पहचाना नही...।" हवेली के ही किसी कमरे से, मुझसे कुछ ही छोटी उम्र का शख्स आ कर हम लोगों से मुख़ातिब हो कह रहा था।
 "हम पाकिस्तान से आए हैं।" मैं उसके सलाम का जवाब देते हुए  कहने लगा। "ये मेरा बेटा और ये उम्रदराज शख्स मेरे अब्बा हुजूर है। बरसों पहले मेरा मतलब 'पार्टीशन' से पहले, इस बड़ी हवेली के मालिक हम ही थे।" न जाने क्यों कहते हुए मेरी बात में एक तंजका लहजा आ गया था।
"आप!... कहीं आप, अनवर अली और ये बुजर्गवार जाकिर मियाँ तो नही है?" वह शख्स यकायक अब्बाजान की तरफ इशारा करते हुए  लगभग कुछ तेज आवाज में बोल पड़ा।
"हाँ!...जी हाँ, मैं ही जाकिर मियाँ हूँ। आप जानते हो हमें!" अब्बू ने तेजी से आगे बढ़कर उस शख्स को कंधों से पकड़ लिया।
"जी मैं...जी मैं, पंडित हरी नारायणजी का बेटामणि हूँ,..केसरमणि चचा जान।“
उसकी आवाज कुछ कँपकँपाने लगी थी। "विश्वास नहीं हो रहा आप लोगों को देखकर...पिताजी हमेशा आपकी ही बातें किया करते थे।“ वह कहे जा रहे था और मेरा दिल अनचाहे ही एक जकड़न में जकड़ता जा रहा था। जिस पंडित हरी नारायण की फाँस आज तक मेरे दिल से नहीं निकली थी आज उसी का खून हमारी ही जमीं पर खड़ा, हवेली का मालिक बना बैठा है।
"चचाजान आप चलिए मेरे साथ।मैं...मैं... आप लोगों को कुछ दिखाना चाहता हूँ।" मेरे जज़्बात से अनजान वह शख्स बड़ी तेजी से अब्बू का हाथ थामें, हवेली के खामोश गलियारों से होता हुआ एक तरफ चल दिया। उसी के पीछे लगभग भागते हुए मैं और जफर भी लग गए। हमारी ये छोटी-सी दौड़ एक कमरे के सामने जा कर खत्म हुई।
"अब्बाजान, ये तो हमारी इबादतगाहहै न!" अपनी बचपन की याददाश्त पर जोर डालते हुए  मैं बोल उठा।
"हाँ, अनवर तुम एकदम दुरुस्त हो। यही वह जगह थी जहाँ बरसों तक, मैंने और तुम्हारी अम्मी जान ने न जाने कितनी बार परवरदिगारको सजदा किया था।" अपनी बात कहते हुए अब्बाजान की आवाज काँपने लगी थी।
चचाजान आइए आप, अंदर चलिए मेरे साथ।" मणि ने अब्बू को अपने साथ अंदर की तरफ ले जाना चाहा।
"नहीं बेटा नहीं, मैं अंदर नही जा पाऊँगा।"- कहते हुए  उन्होंने अपने पैर पीछे हटा लिए।
"मणि...! बाहर कौन आया है बेटा, किससे बात कर रहा है?" एकाएक अंदर से एक जनाना आवाज उभरी।
"अम्मा, अपने ही लोग है, मैं अंदर लेकर आ रहा हूँ।" कहते हुए वह अब्बाजान का हाथ अपने हाथ में थामें, लगभग उन्हें खींचते हुए  अंदर ले गया।
मैं जफर के साथ असमंजस की हालत में बाहर ही खड़ा रह गया। दो-चार लम्हें भी नहीं बीते थे कि अब्बाजान की तेज आवाज ने हमें हैरान कर दिया।
"अनवर...! इधर आओ बेटा।" और अगले ही पल मैं और जफर परदा हटाते हुए कमरे के भीतर पहुँच चुके थे।
सुनहरे बालों वाली एक बुजुर्गवार औरत अब्बाजान के कंधो पर सिर टिकाए, अश्कों से तरबतर रो रही थी। जब तक ज़फ़र ख़ुदा के इस करिश्में को समझ पाता। मैं भी दर्द भरी आवाज में 'अम्मीजान...'कहता हुआ अपनी प्यारी अम्मीजान से जा लिपटा था।
"कहाँ खो गएथे आप लोग? कितना तलाश किया पंडितजी ने आपको....!" अम्मीजान अश्कों की बरसात के बीच कहे जा रही थी। "अपनी आख़िरी घड़ियों तक रो-रो कर तलाश करते रहे पंडित जी। अरे! इतना ख्याल तो मेरा अपना भाई भी नहीं रख पाता, जितना उन्होंने रखा अपनी आख़िरी साँसों तक....इतना ही नहीं 'आमिर' को खोने के बाद तो उन्होंने मणि को भी ये कहकर मेरी गोद में डाल दिया था कि भाभी जी आज के बाद यही तुम्हारा आमिर हैं।..."
अम्मी जान अश्कों से तर-ब-तर चेहरे से मुझसे लिपटे जा रही थी और रो-रोकर अपनी दास्तान कहे जा रही थी। इधर मेरे अश्क मुझे बाहर से अंदर तक गीला किए जा रहे थे। बरसों से जिन्दगी में फाँस बनकर अटकी हुयी बातें और'इंडो-पाक' सरहद की दीवारें आज खुद-ब-खुद आँखों से बहते पानी में मिट्टी की तरह घुलती जा रही थी।
....एकाएक न जाने मेरे दिल को क्या हुआ कि मैं उठ खड़ा हुआ और पलट कर मणि को अपने गले से लगा लिया, आखिर बरसों बाद मिला था मेरा भाई ‘आमिर’।
F-62, FLAT NO. 8, STREET NO. 7, 
NEAR MANGAL BAZAR, VIKAS MARG, EAST DELHI – 110092. 

+91 81 30 60 72 08   , +91 98 18 67 52 07

1 comment:

Unknown said...

बहुत ही सुन्दर