‘छपाक’, उसे थोड़ी ऊँचाई से गिराया गया । छोटे से, सुंदर से, पारदर्शी तालाब में जहाँ छोटे-छोटे प्लास्टिक के पेड़ उगे थे । एक कोने में एक प्लास्टिक का गुड्डा पानी के बुलबुले उड़ा रहा था। वह रोना भूल कर आँखें मिचकाते हुए नज़ारा देखने लगी । तभी उसके पास एक सुंदर सी मछली आई।
‘हेलो’, क्या नाम है तुम्हारा? स्वागत ।
‘मैं, मैं गोल्डी, गोल्ड फिश हूँ। ये कहाँ आ गई मैं?’
‘ये एक्वेरियम है। हम दोनों खूब मज़े करेंगे। मैं कारप फिश हूँ। मीनू कहते हैं सब मुझे। हम दोनों ख़ूब मज़े करेंगे । तुम्हें भूख लगी है? लो, खाना खाओ’
‘वाह!’ गोल्डी मज़े से छोटी-छोटी गोलियाँ खाने लगी थी।
यह सब याद करते- करते गोल्डी वर्तमान में आ गई क्योंकि आज भी उसे बड़ी भूख लगी थी। वैसे मीनू ख़ूब ख्याल रखती उसका । मीनू के साथ समय अच्छा बीत रहा था। वह दोनों ढेर सारी बातें करती। सारा दिन उछलते खेलते बीत जाता।
‘इस घर में सब कुछ बनावटी है ना मीनू, हमें छोड़कर। फूल, पौधे, कोने में पड़ा कुत्ता भी।’
‘हाँ गोल्डी। इंसान का बस चले तो खुद का भी पुतला बनाकर घूमे ।’
‘तुम बोर नहीं होती थी मेरे आने से पहले’
‘अरे नहीं, मैं सारा दिन इन लोगों को देखती थी, उनकी बातें सुनती थी, बड़ी मज़ेदार होती है इनकी बातें। पता है हमें हिंदी में मीन कहते हैं तभी मेरा नाम पड़ा मीनू।’
‘वाह, तुम्हें तो बहुत कुछ पता है लेकिन आपस में तो यह लोग बात करते ही नहीं’
‘हाँ आपस में तो ये लोग कम ही बात करते हैं, लेकिन मोबाइल पर दूसरों से बहुत बातें करते हैं। या फिर सारा दिन मोबाइल और टी. वी. में कुछ न कुछ देखते रहते हैं। सारी समझदारी वहीं से सीखी मैंने।’
‘एक हफ्ते से घर कितना सूना है न, सब लोग चले गए। हमारा खाना भी नहीं छोड़ गए। अब हम क्या खाएँगे,’ गोल्डी रुआँसी हो उठी।
‘तुम्हारा तो नहीं पता; लेकिन ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए, यह मैंने इनसे जरूर सीखा है ‘मीनू गोल्डी की आँखों में देखते हुए बोली।
कुछ देर बाद टैंक में केवल एक ही मछली तैर रही थी।
1 comment:
हमारे समाज का कड़वा यथार्थ है यह।
Post a Comment