उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jun 1, 2023

कहानीः जियो और जीने दो

 -   श्यामल बिहारी महतो
‘आखिर
उसने जो कहा, कर ही डाला’ 

मंच पर हमने नेताओं का रूप बदलते, पार्टी बदलते और नीति बदलते भी देखा है। लेकिन यह आदमी तो जरा भी नहीं बदला। लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे -एक पल भी नहीं सोचा। अपने भाव, अपनी विचारों को खुला रूप देते, सार्वजनिक करते हुए उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं हुआ। ज़रा भी सोचा -विचारा नहीं उसने। डंके की चोट पर, एक दम से खुला-खुला! आओ बुढ़वा खेलें होली। अपने रंग हजार। जीवन एक बार ही मिलता है -बार-बार नहीं। जितना हो सके, हँसी -खुशी से जी लो। यह दुनिया एक मुसाफिरखाना है। एक सराय है। रैन बसेरा। जीने के लिए जो साँसें मिली है, उसे पूरा पूरा जी लो। यह जीवन भी एक सराय ही है । यहाँ कोई अपना कोई पराया नहीं। पैसा हैं तो प्यार है, पावर है तो सब हैं, पास-पास ! क्योंकि पैसा है तो प्रेम है । पैसा नहीं तो सब तरफ विरानी, उजाड़ ! मलाल ! ऐसा जीवन से अच्छा है प्रेम से दो पल जी लो -जी उठोगे’ 

यह किसी महान संत का विचार या किसी दार्शनिक की कही बात नहीं थी। बल्कि अपने ही गाँव के शंभू काका का कथन था।

वह एक बुजुर्ग सम्मेलन था। खुला मंच था। हर किसी को अपनी बात रखने की खुली छूट दी गई थी। और कहने वाले भी कहने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे। किसी ने जीवन की तरक्की में आई रुकावटों का रोना रोया, कोई पेंशन लागू न होने पर रुदन विलाप किया तो कोई महँगाई पर भस्म कर देने वाली विचारों से सरकार को श्रद्धांजलि देकर उत्तर गया; लेकिन शंभूवा काका एक दम निराले निकले। उसकी एक एक बात निराली थी। बातों से लगता जैसे कोई युवा किसी वार्षिक सम्मेलन में अपने जीवन के सपनों को सार्वजनिक कर रहा हो ‘सोचता हूँ फिर सांघा बिहा कर लूँ’ कह लोगों को चौंकाया था। उसने कहना जारी रखा ‘काफी दिन हो गए शादी किए। जब हमारी शादी हुई थी, बाराती पैदल और दुल्हा गरूगाड़ी ( बैलगाड़ी) पर होता। तब तिलक-दहेज नहीं होता, दुल्हन ही दहेज है, कहा जाता । पहले वरमाला नहीं होता, दूल्हे का द्वार लगी होता,  शादी के पहले लड़का लड़की को देख नहीं पाता, अब वरमाला के साथ ही लड़के को लड़की सौंप दी जाती है’ देखा- देखी कर लो, संग-संग नाच लो, फोटो सोटो खिंचवा लो ‘यह देख मेरा भी जिया ललचा उठा। और इसी के साथ फिर सांघा करने को, मेरा मन मचलने लगा। पहले बेरोजगार था, एक साइकिल और एक गाय तिलक दहेज के रूप में लड़की के साथ भेज दिया गया था। अब रोज़गार में हूँ । नौकरी है, अच्छी खासी सेलरी है, घर है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, यार दोस्तों के बीच अच्छी पकड़ है, किसी चीज की कोई कमी नहीं है। बस रात को उल्लू की तरह जागता रहता हूँ। पहली वाली तो बेवफा निकली, लोक छोड़ परलोक में जा बसी। उसकी याद में आँसू बहाता रहता हूँ। मुझे रोता देख एक दिन उसने आकर कहा ‘मेरी याद में कब तक आँसू बहाते रहोगे, दूसरी कर ले, तुम्हें तकलीफ़ होती होगी’ मैं मान गया। अब मन फिर बाप बनने को उकसा रहा है । तिलक दहेज नहीं चाहिए, सिर्फ एक जोड़ी कपड़े में लड़की विदा कर दो..!’ वह एक पल को रुका था । सभा स्थल में खुसर- फुसर होने लगी थी ‘किस सनकी पागल को माइक थमा दिया गया है, जो मन में आ रहा है, बके जा रहा है..!’

‘कल और आज का फर्क बता रहा है...!’ कोई बोल उठा।

‘हमें तो लग रहा है, यह सभा को संबोधित नहीं, अपनी दूसरी शादी का प्लान बता रहा है...!’

‘पर बोल तो अच्छा रहा है...!’ उस पर लोग बोलना शुरू कर दिए  थे।

पर शंभूवा काका का रेडियो बंद नहीं हुआ था। विविध भारती की तरह उसने चालू रखा- बुजुर्गों ने भी फ़रमाया है कि यह दुनिया एक सराय है। एक मुसाफिर खाना है। जब तक जीवन है जिते ही जाना है । यही नहीं, लोगों को बीच- बीच में शादी- बिहा करते रहना चाहिए, जैसे पहले के बुढ़- बुजुर्ग किया करते थे और जैसे आज के नेता लोग बीच- बीच में पार्टी बदलते रहते हैं और लड़कियाँ दोस्त ! फिर हम पीछे क्यों रहें? आखिर उम्र ही क्या हुई है मेरी!  पचपन का हूँ पर दिल तो बचपन का है, अच्छी खासी सेलरी है और क्या चाहिए। आज की लड़कियों को ? पैसे वाला हो तो आज की लड़कियाँ बुढ़ा-सुढा, काला- गोरा और ठिगना भी नहीं देखती और सीधे हाँ कर झपट लेती है- जैसे बाज़ कबूतरों पर झपटता है..!’ 

‘कर लो! कर लो!’  कुछ ने उकसाने वाली आवाज लगाई।

‘तशेड़ी, नशेड़ी, गंजेड़ी, चार पाँच लाख तिलक पा रहा है...! ‘शंभूवा काका कहते रहे’ माना कि वे कुँवारे हैं, अरे, तो हमें भी कुँवारे समझ लो न, घंटा भी फर्क नहीं पड़ेगा। बोलो, कोई मेरा दुबारा बिहा करवा सकते हैं, कोई दूर द्रष्टा ! कोई महानुभाव है! बिहा सिर्फ मेरे साथ होगा, हमारे घर परिवार के साथ नहीं । जीवन भर का साथ मैं दूँगा। हमारे घर परिवार से उसका कोई लेना देना नहीं रहेगा । परिवार का किसी तरह का भार उस पर पड़ने नहीं दूँगा। खाना भी उसे बनाना नहीं पड़ेगा । बर्तन भी माँजने नहीं पड़ेंगे ; लेकिन लड़की किसी जाति की नहीं होनी चाहिए- बस सिर्फ लड़की होनी चाहिए। वह फेसबुक, वाट्सएप, ट्वीटर और इंस्टाग्राम वगैरह में सिर्फ चेटिंग करने का काम करेगी, हमेशा ऑनलाइन रहेगी और ऑनलाइन खाना मँगवाकर मुझे खिलाएगी और खुद भी खाएगी। सप्ताह में एक दिन हम किसी पार्क में घूमने जाएँगे, फोटो शूट करेंगे और फिर किसी दिन किसी नदी में नहाते, किसी झरने के नीचे अपनी कोमल देह को सहलाते- नहलाते वो फोटो शूट करेंगी..! फिर उसे फेसबुक पर अपलोड़ करेंगी । इंस्टाग्राम में चेपेंगी और हर साल हम शादी सालगिरह मनाएँगे, जो अभी तक हमने पहली के साथ नहीं मनाए थे..! 

क्या कहा आपने ? पहली शादी के बारे बताऊँ, और बेटा- बेटी के बारे भी बताऊँ, ठीक है तो सुनिए..

चालीस साल पहले बिना तिलक दहेज की मेरी शादी हुई थी। तब मेरी उम्र यही कोई बारह साल की होगी, और हाई स्कूल में वर्ग आठ में पढ़ता था। मूँछ दाढ़ी अभी निकली नहीं थी और हाथ में मोबाइल नहीं, कॉपी किताबें होती थीं। आज तो पैदा होते ही बच्चों के हाथ में मोबाइल आ जाता है और कितने तो मोबाइल के साथ ही पेट से निकल आते हैं, जैसे महाभारत का कर्ण कवच कुंडल पहने पैदा हुआ था । हमारे भी तीन बेटे पैदा हुए। जैसे किसी युग में तीन भगवान पैदा हुए थे, ब्रह्मा, विष्णु और महेश ! तब से कइयों युग गुजर गए;  लेकिन अब धरती पर भगवानों ने पैदा होना बंद कर दिया। अब वे सिर्फ स्वर्ग और नरक का काम देखते हैं । हालाँकि हमारे तीनों बेटे बड़ी सरलता से पैदा हुए। किसी ने हस्पताल का मुँह नहीं देखा और न आज के बच्चों की तरह किसी हस्पताल का नाम उनके नामों के साथ जुड़ा! पर सभी के साथ कुसराइन (गाँव में बच्चा पैदा कराने वाली) नाम जरूर जुड़ा हुआ था। अपने लालन पालन में भी उन तीनों ने कोई मुश्किल पैदा होने नहीं दी और तीनों जर्मन शेफर्ड की तरह पले -बढ़े ! बड़े हुए तो, एक-एक कर हमने तीनों की शादी कर दी, तब भी वो नहीं बदले, तब भी वो तीनों जर्मन शेफर्ड की तरह आज्ञाकारी बने रहे। लेकिन मेरे नहीं - अपनी-अपनी पत्नियों के ! तभी से उनकी सोच बदली थीं - हमारे प्रति। अपने बाप के प्रति। बाप के जीवन और ज़िन्दगी के प्रति। साल भर पहले की बात है। छह माह पहले पत्नी मर चुकी थी। बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही थी । मैं अपने कमरे में कंबल ओढ़े गठरी बने बैठा हुआ था। तभी सुबह आँगन में आग के अलाव को घेरे तीनों जर्मन शेफर्ड बेटों के बीच गुफ्तगू हो रही थी। शुरुआत बड़े ने की। कह रहा था ‘रिटायर होने के पहले अगर बाप किसी कारणवश मर जाता है, तो बाजार चौक की वो दस डिसमिल वाली जमीन मैं लूँगा। उसपर मैं एक शानदार  ‘शंभू मार्केट’ प्लेस बनाऊँगा और सभी किराए पर लगा दूँगा। यही मेरा रोजी रोजगार होगा ..।"

‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होगा...।‘ मांझिल ने एतराज जताया ‘उसमें मेरा भी हिस्सा होगा। बाप के मरने के बाद मिलने वाले सारे पैसे हम दोनों बाँट लेंगे ..।’

‘आप दोनों तो बड़े मतलबी निकले। जमीन में दोनों का हिस्सा, रुपये भी दोनों बांट लेंगे और मैं क्या बाबा का घंटा बजाऊँगा। मैं क्या पेड़ की खोंढर से पैदा हुआ हूँ!’ छोटका छटाँक भर उछल पड़ा था ।

‘अरे छोटे, नाराज़ काहे होते हो । तुम्हारे लिए नौकरी तो हम दोनों छोड़ ही रहे हैं। तुम मज़े से नौकरी करना...।’

‘नहीं, नहीं, भले पैसे मत देना, लेकिन मार्केट में दो कमरा मुझे भी चाहिए...!’

‘ठीक है, मंजूर...।’ बड़ा बोला।

‘ठीक है ..।‘ मंझिला भी सहमत।

‘तो फिर ठीक है, तब मुझे एतराज नहीं।’

तीनों ने मेरा उसी दिन तेरहवीं पार कर दिया ।

‘आज के श्रवण!’ भीड़ से किसी ने कहा।

‘तभी मैंने निश्चय कर लिया, जर्मन शेफर्ड बेटों की सोच और उनके हसीन सपने पर सुतली बम लगाने का...!’ शंभूवा काका कहते चले गए …मैंने अपना और बेटों के प्लान के बारे अपने कुछ खाल दोस्तों को बताए। कुछ ने मजाक में लिया और कुछ ने बेहद गंभीरता से।

‘गजब की कुंठित चाहत, बाप अभी मरा नहीं और घर में जलाने के समान आ गए ..!’ एक साथी ने कहा 

‘आज कोई अपना नहीं, सबका सपना मनी-मनी!’ दूसरा बोला ।

‘शंभू दा, जिंदगी तो वही है, जो अपनी मर्ज़ी से जिया जाए, कौन क्या कहता है, क्या सोचता है, कान देने की जरूरत नहीं...!’ तीसरे ने जीवन की लॉजिक बताया।

उस दिन के बाद से ही मैंने रातों को सोना कम कर दिया और जागना शुरू कर दिया। कहीं ऐसा न हो जिस छत के नीचे की कड़ी से,  जिसे बेटों के लिए कभी झूले लगा दिए थे, वही बेटे बकरे की भांति मुझे टांग दें ..!" शंभूवा काका की बातों ने एक समा सा ही बाँध दिया था। कहिए तो कुछ -कुछ सहमा सा दिया था । जो लोग शुरू में उनकी बातों से उकता कर जाने को उठे थे, पुनः अपनी जगह पर दिल थाम कर बैठ गए थे । शाम होनी अभी बाकी थी। उनका भी और उस सभा का भी।

जीवन की ढलान पर शंभूवा काका के अंदर एक तूफान सा उठा था। समाज की गोष्ठी- बैठकों में जाते रहता था। कह रहा था ‘एक दिन समाज की मीटिंग से शाम को रामगढ़ से घर लौट रहा था। गोला चौक में दो स्त्री– पुरुष, बग़ल में एक लड़की गाड़ी के इंतजार में खड़े थे। पता चला पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य वृद्धि के विरोध में सवारी गाड़ियाँ दिन भर रोड पर नहीं चली। और शाम हो चली थी। पर गाड़ियों का अब भी पता नहीं था। तीनों परेशान दिखे। मैंने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया। पूछा- ‘क्या बात है..?’

‘हमें बहादुरपुर जाना है और कोई गाड़ी मिल नहीं रही है...।’ लड़की ने बताया।

‘मैं उधर ही जा रहा हूँ, फुसरो, चाहो तो मेरे साथ आप लोग चल सकते हैं।’

‘डेढ़ दो घंटा से खड़े हैं, एक भी गाड़ी नहीं आई...!’ स्त्री ने आदमी की ओर देखा।

‘और रुकना ठीक नहीं है...!’ आदमी का मुँह धीरे से खुला।

‘माँ, आओ, इन्हीं के साथ चलते हैं...!’ लड़की बोली और गाड़ी के बग़ल में आकर खड़ी हो गई। मैंने गेट खोल दिए। वह आगे मेरे बगल की सीट पर आकर बैठ गई। माँ बाप दोनों पीछे की सीट पर समा गये। मैंने गाड़ी आगे बढ़ा दी। पहली बार मैंने लड़की का अवलोकन किया। गौर से देखा। अंदर से महसूस किया। मासूम लगी। वह आगे देख रही थी। सूनी माँग! पर आँखों में सपनों की उड़ान बाकी!

लड़की विधवा थी और पेट से भी थी। कुदरत की करिश्मा कहिए या जीवन का संयोग। घंटा भर पहले मीटिंग में विधवा विवाह पर मेरे जोरदार भाषण को लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया था । मैं कह रहा था ‘हर विधवा स्त्री को, एक और ज़िन्दगी जीने का अवसर मिलना चाहिए। एक ही जिन्दगी में उसका सब कुछ खत्म नहीं हो जाता..!’ अपनी ही कही बातें याद आ रही थीं मुझे।

‘आप क्या करते हैं...?’ अचानक से वह पूछ बैठी।

‘नौकरी...!’ 

‘घर कहाँ हुआ...?’ 

‘मुंगो गाँव...!’

‘पत्नी क्या करती है?’ 

‘वह चल बसी, इस दुनिया में नहीं है...!’ 

वह चुप हो गई। एक बार उसने मुझे देखा और कुछ पल मूड़ी गड़ाए बैठी रही । शायद कुछ सोचने लगी थी । मेरे बारे, अपने बारे या फिर समय की विडंबना पर। 

बहादुरपुर आ गया था । सामने था विशाल शिव मंदिर। बूढ़ा बाबा का एक और घर ! मैंने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया। पूर्णिमा का चाँद आसमान पर उग आया था । इक्का- दुक्का लोग आ जा रहे थे । जैसे शाम को लोग टहल को निकले हों। सब की अपनी धून, अपनी चाल! 

‘बाहर आ जाओ.,!’ मैंने लड़की से कहा। वह बेधड़क गाड़ी से नीचे उतर आई। आगे बढ़कर मैंने उसका हाथ थाम लिया। वह सहजता के साथ मेरे सामने खड़ी हो गई । निरखने-सा भाव-मुद्रा! ऊपर-नीचे ताकने लगी। 

उसकी कोमल हथेलियों को सहलाते हुए मैंने कहा- ‘मेरे साथ, हमारे घर चलोगी? मैं भी जीवन में अकेला हूँ, अब तुम भी अकेली हो गई हो। शायद इसीलिए जीवन के मोड़ पर किस्मत ने हम दोनों को मिलाया है । उम्र में भले बड़ा हूँ पर बूढ़ा नहीं हूँ। आखिरी साँस तक साथ दूँगा। कभी किसी चीज की कमी होने नहीं दूँगा...!’ 

‘मैं... मेरे पेट में बच्चा पल रहा है...!’ वह हकलाई थी।

‘सब कुछ देख, समझकर ही मैंने यह प्रस्ताव रखा है, बच्चा, तुम्हारे नयनों का तारा होगा और मैं तुम दोनों का माली- शंभू माली... शंभू नाम है मेरा!’

‘ मैं फूलमती, फूलमती महतो.!’  उसने मेरी आँखों में झाँका। जहाँ उसे एक पूरा जीवन मंडल विराजमान नजर आया । तब उसने माँ बाप की ओर देखा, हमें गाड़ी से उतरे देख वे दोनों भी उतर गए थे और अचंभित भावपूर्ण नजरों से हम दोनों को देख रहे थे.. 

‘फिर क्या हुआ...?’ भीड़ ने पूछा ।

‘क्या आप लड़की को साथ लेते आए...?’

‘लड़की के माता पिता ने क्या कहा...?’ 

‘तभी उसकी माँ आगे बढ़ी थी...!’ सवालों के जवाब समेटते हुए शंभूवा काका ने कहा-  पहले तो उसने बेटी के सर पे हाथ रखा और मंदिर के अंदर चली गई। लौटी, तो उसके हाथ में कागज से लिपटी सिन्दूर की पुड़िया थी। पुड़िया उसने मेरे हाथ पर रख दी और बेटी से कहा –‘यह सिन्दूर माँग में भर लो बेटी! भगवान घर का है, सदा जगमगाती रहेगी..!’ 

‘शादी के छह माह बाद ही तुम्हारी किस्मत में छेद हो गया। अब उसी किस्मत ने तुम्हें एक मौका फिर दिया है, जाओ बेटी, इस फ़रिश्ते के साथ सदा खुश रहना!’ बाप ने फूलमती के सर पर हाथ रख  दिया था..! 

‘घर में स्वागत हुआ या आफ़त आई...!’ किसी ने बीच में फिर पूछ बैठा।

‘धमाका हुआ! जर्मन शेफर्ड बेटों के सपनों पर सुतली बम फट गया..!’ शंभूवा काका ने जैसे जीत की डफ़ली बजाते कहा था ‘बहादुरपुर से छूटे, तो हम सीधे बोकारो मॉल में जा घुसे। फूलमती की वेशभूषा भी तो बदलनी थी । नये परिधानों में वह सचमुच की फूलकुमारी लग रही थी। खुद का नया रूप देख खुद से शर्मा गई और देर तक मुझसे लिपटी रही । रास्ते में हमने एक होटल में खाना खाया। घर पहुँचे तो रात काफी हो चुकी थी और सभी अपने- अपने कमरे में गहरी नींद सो रहे थे। हमने किसी को जगाया नहीं और हमेशा की तरह किसी ने उठकर हमसे पूछा नहीं कि ‘खाकर आ रहे हो, या खाना भी है..!’ हमेशा की तरह हमने अपने पास की चाबी का इस्तेमाल किया। पहले गाड़ी अंदर की फिर फूलमती को बाहों में लिए अंदर अपने कमरे में समा गए। लगा बहुत बड़ी जंग जीतकर लौटा हूँ। सोए, तो दोनों यही दुआ कर रहे थे कि इस रात की फिर सुबह न हो। लेकिन फिर सूरज उगा, फिर सुबह हुई, और ऐसी सुबह हुई कि बहुतों के सालों- साल की नींद उड़ा दी। कौवे छत की मुँडेर से उड़ गए और मैना ने डाल बदलने से मना कर दिया। 

सुबह सबसे पहले फूलमती ही उठी। शौचालय से निवृत्त होकर मुझे उठाया। आँगन में जर्मन शेफर्ड पुत्रों को अपनी पत्नियों के संग खड़े पाया। बड़ा पुत्र दहकते अंगारो-सी आँख किए आगे बढ़ आया- " पापा, यह आपने क्या कहर बरपाया? बुढ़ापे में दूसरी शादी कर ली..!" 

बड़े की शह पाकर मांझिल भी बढ़ आया -

‘लोग क्या कहेंगे, ज़रा भी न सोचा, खुद को जवान समझा, क्या है यह लोचा...?’

तभी छोटा फुसफुसाया- ‘खाने को बप्पा को कोई नहीं पूछता था। आज बप्पा ने हम सबके खाने में जहर मिलाया..!’ 

‘कल तक बप्पा को कोई पूछ नहीं रहा था। आज बप्पा का किसी का साथ पाना बहुत अखर रहा है। जाओ तीनों मिल बना लो शंभू मार्केट। लगा दो किराए पर, हम चले अपनी राह...!’ कह साबुन तौलिया लिये मैं बॉथरूम में जा घुसा और फूलमती मुर्झाए सूरजमुखी के पौधों को पानी देने लगी...। 

सम्पर्कः बोकारो, झारखंड, फ़ोन नं 6204131994

1 comment:

Anita Manda said...

सुंदर कहानी