हाल ही में हुए अध्ययन के आधार पर ज्यूरिख
विश्वविद्यालय में वैकासिक जीवविज्ञान और पर्यावरण अध्ययन विभाग में कार्यरत
जोर्डी बसकोम्प्टे बताते हैं कि जब भी कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ उसके
विचारों की अभिव्यक्ति चली जाती है, वास्तविकता को
देखने का, प्रकृति के साथ जुड़ने का, जानवरों
और पौधों के वर्णन करने का और उन्हें नाम देने का एक तरीका गुम हो जाता है।
एथ्नोलॉग परियोजना के अनुसार, दुनिया की मौजूदा 7,000 से अधिक भाषाओं में से लगभग 42 प्रतिशत पर
विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। भाषा अनुसंधान की गैर-मुनाफा संस्था एसआईएल
इंटरनेशनल के अनुसार, सन 1500 में पुर्तगालियों के ब्राज़ील
आने के पहले ब्राज़ील में बोली जाने वाली 1000 देशज भाषाओं में से अब सिर्फ 160 ही
जीवित बची हैं।
वर्तमान में बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर दवाएँ -
एस्पिरिन से लेकर से लेकर मॉर्फिन तक - औषधीय पौधों से प्राप्त की जाती हैं।
एस्पिरिन व्हाइट विलो (सेलिक्स अल्बा) नामक पौधे से प्राप्त की जाती है और मॉर्फिन
खसखस (पेपावर सोम्निफेरम) से निकाला जाता है।
शोधकर्ता बताते हैं कि स्थानिक या देशज समुदायों
में पारंपरिक ज्ञान का अगली पीढ़ी में हस्तांतरण मौखिक रूप से किया जाता है, इसलिए इन भाषाओं के विलुप्त होने के साथ औषधीय पौधों के बारे में पारंपरिक
ज्ञान और जानकारियों का यह भंडार भी लुप्त हो जाएगा। जिससे भविष्य में औषधियों की
खोज की संभावना कम हो सकती है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 12,495 औषधीय उपयोगों
वाली 3,597 वनस्पति प्रजातियों का विश्लेषण किया और पाया कि औषधीय पौधों के औषधीय
उपयोग या गुणों की 75 प्रतिशत जानकारी सिर्फ एक ही एक भाषा में है। और अद्वितीय
ज्ञान वाली ये भाषाएँ और साथ में उस भाषा से जुड़ा ज्ञान भी विलुप्त होने की कगार
पर हैं।
यह दोहरी समस्या विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी
अमेज़ॉन में दिखी है। 645 पौधों और 37 भाषाओं में इन पौधों के मौखिक तौर पर बताए
जाने वाले औषधीय उपयोग के मूल्यांकन में पाया गया कि इनके औषधीय उपयोग का 91
प्रतिशत ज्ञान सिर्फ एक ही एक भाषा में मौजूद है।
इसके अलावा, इन औषधीय
प्रजातियों की विलुप्ति के जोखिम का अध्ययन करने पर पाया गया कि अंतर्राष्ट्रीय
प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने उत्तरी अमेरिका और उत्तर-पश्चिमी अमेज़ॉन में
लुप्तप्राय भाषाओं से जुड़े क्रमश: 64 प्रतिशत और 69 प्रतिशत पौधों की संकटग्रस्त
स्थिति का मूल्यांकन ही नहीं किया है। मूल्यांकन न होने के कारण क्रमश: चार
प्रतिशत और एक प्रतिशत से कम प्रजातियां ही वर्तमान में संकटग्रस्त घोषित हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि पौधों की इन प्रजातियों का आईयूसीएन आकलन तत्काल आवश्यक
है।
अध्ययन यह भी बताता है कि जैव विविधता के ह्रास
की तुलना में भाषाओं के विलुप्त होने का औषधीय ज्ञान खत्म होने पर अधिक प्रभाव
पड़ेगा। सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पौधों को
बचाना। हम प्रकृति और संस्कृति के बीच के सम्बंध को अनदेखा नहीं कर सकते, सिर्फ पौधों के बारे में या सिर्फ संस्कृति के बारे में नहीं सोच सकते।
एक उदाहरण औपनिवेशिक काल के बाद ब्राज़ील में
देखने को मिलता है। ब्राज़ील में अभिभावक अपने बच्चों की सामाजिक सफलता के लिए
स्थानिक भाषाएँ बोलना छोड़ औपनिवेशिक काल से प्रभावी रहीं पुर्तगाली और स्पेनिश
भाषा को अपनाने लगे। भाषाविद् किसी भाषा को विलुप्ति के जोखिम में तब मानते हैं जब
अभिभावक अपने बच्चों के साथ अपनी मातृभाषा में बात करना बंद कर देते हैं।
ब्राज़ील में जब हम संरक्षण की बात करते हैं तो
इसमें स्थानीय स्कूल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते दिखते हैं। गाँवों में स्थित
स्थानीय स्कूलों में बच्चे पुर्तगाली और समुदाय की अपनी भाषा दोनों में सीखते हैं।
कारितियाना समुदाय की संस्कृति को संरक्षित करने की एक शुरुआत ब्राज़ील में हुई।
इस परियोजना की शुरुआत कारितियाना भाषा में संरक्षित पौधों और जानवरों की सूची बनाने
और जानकारी दर्ज करने के साथ हुई। दस्तावेज़ीकरण की इस प्रक्रिया में समुदाय के
बुज़ुर्ग,
मुखिया, संग्रहकर्ता और शिक्षक शामिल थे
जिन्होंने अमेज़ॉन की जैव विविधता का पारंपरिक ज्ञान दर्ज किया।
इसी तरह, बाहिया और
उत्तरी मिनस गेरैस में शोधकर्ताओं के एक समूह ने पेटाक्सो भाषा का अध्ययन कर
पुनर्जीवित किया जिसे वर्षों से लुप्त माना जा रहा था। पेटाक्सो युवाओं और
शिक्षकों के साथ मिलकर शोधकर्ताओं ने दस्तावेज़ों का अध्ययन किया और साथ में
फील्डवर्क भी किया। पेटाक्सो भाषा अब कई गाँवों में पढ़ाई जा रही है।
दुनिया भर में देशज या स्थानिक समुदायों की
भाषाओं को संरक्षित करने, पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने
के लिए यूनेस्को ने 2022-2032 को देशज भाषा कार्रवाई दशक घोषित किया है।
बेसकोम्प्टे कहते हैं कि अंग्रेज़ी के बाहर भी जीवन है। जिन भाषाओं को हम भूल जाते
हैं या ध्यान नहीं देते वे भाषाएँ उन गरीब या अनजान लोगों की हैं जो राष्ट्रीय
स्तर पर किसी भूमिका में नहीं दिखते हैं। सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता
बढ़ाने के प्रयास ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स) ●
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