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स्त्री चौके में
सिर्फ रोटियाँ ही नहीं बेलती
बेलती
है अपनी थकान
पचाती
है दुख
सेकती
है सपने
और
परोसती है मुट्ठी भर आसमान
स्त्री
चौके में .....
रात को बेलती है पति का बिस्तर
घोलती है उनकी थकान
भरती है श्वासों में उजास
और
ऊर्जान्वित करती है अल सुबह
गढ़
चुंबन सूरज को
स्त्री
चौके में .....
वह बुहारती है आसमान
लीपती
है धरती
सिलती है लंगोट आसमान का
और चोली
धरती की
सँवारती
है केश नदी- सी नववधू के
स्त्री
चौके में......
पीसती
है अपनी इच्छाएँ
फेंटती
है समस्त ब्रह्मांड
तलती है पकौड़े भाँति-भाँति के
जीवित रखती है अन्नपूर्णा को
स्त्री चौके में.......
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