- प्रो. विनीत मोहन औदिच्य
शृंगों पर आच्छादित स्वर्णिम परतें हृदय हुआ कुसुमित
उसकी चिट्ठी पर लगे सिंदूर- सा नभ हुआ आलोकित
सभी शब्द आए ओढ़कर व्यर्थ अभिमान की चादर
भूल गया मैं लिखना उत्तर जो नयनों में उभरा आदर।
उतर आया मैं संग पश्चिमी तट पर लिये अनेक सितारे
किंतु लिख नहीं पाया मम प्रेयसी के स्वर भीगे
इशारे
ये मौन शिलाएँ कह रहीं जैसे वो लिये हों सपने हजार
किंतु निशा भी तो गुफाओं में छुपी- सी लिए निद्रा अपार।
स्वर्ण-
मंडित शिखरों से यह प्रश्न करना है अकारण
अंबर का आँचल क्यों है मात्र उनके लिए आवरण
व्यथा की अपेक्षा शीतल पवन समेटे है विस्फोटक चिंगारी
मैं नहीं, यह घना अंधकार ही कहेगा स्वयं की पीड़ाएँ सारी।
चलो, कादंबरी!अलकों को समेटों नभ के गहरे नीलेपन से
मैं चन्द्रापीड तुम्हे क्षितिज तक ले चलूँ दूर अधूरेपन से।
सम्पर्कः सागर, मध्यप्रदेश, nand.nitya250@gmail.com
2 comments:
अत्यंत गहरा भाव लिए यह सॉनेट सार्थक एवं सुन्दर है 🌹🙏आपको बधाई सर 🙏
सादर अभिनंदन सह आभार आपका अनिमा जी
Post a Comment