मुझमें मेरा कितना है? ऐसा लगता है पूरा अस्तित्व काँच की एक गेंद सा है यदि पटककर देखूँ,
तो असंख्य किरचों में फूटकर छितर जाएगा। ये किरचें जन्म से लेकर
मृत्यु तक कब कहाँ कैसे जुड़ती जाती हैं, पता ही नहीं लगता।
आप में 'अपना' भी एक छोटी सी किरच जितना ही होता है, शेष सब
पास-परिवेश से मिला होता है। ऐसे में आप अपने ही अस्तित्व की पूरी गेंद पर अपना
अधिकार जताते हुए 'मैं
वाद' नहीं लागू कर
सकते। जिसके हिस्से का जितना आप में वह आपको उसे देना ही होगा। और वह स्वतः निकल
भी जाएगा आप में से। इस 'दिए जाने' पर
आप अभिमान भी नहीं कर सकते कि आपने फलाँ को ये दिया, जो दिया
वह आपका था ही नहीं। जब आपका था ही नहीं, तो काहे की
दानवीरता? इसलिए जो आपसे जा रहा है, उसे
जाने में सहृदयता से सहयोग कीजिए। बाधाएँ मत बनाइए। कुछ जाएगा, तभी कुछ आएगा। और जो आगत है उसका भी सहृदयता से स्वागत कीजिए, क्योंकि जो आ रहा है, वह आपके अस्तित्व संवर्धन के
लिए ही आ रहा है।
इस
प्रक्रिया में मन का उजास कभी मद्धम पड़ जाता है, कभी
बुझ भी जाता है तो कभी-कभी एकदम दीप्त होकर अंतस् से बाह्य तक प्रकाशित कर देता
है। यह सब अनुभूतियाँ क्रम मे घटित होने वाली घटनाएँ मात्र हैं। इन घटनाओं से आप
कितना प्रभावित होते हैं? कैसे निपटते हैं? और कैसे नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ते हैं? वही आपके सच्चे सामर्थ्य को प्रदर्शित करता है और वही आपका वास्तविक 'मैं' होता है।
अपने आप में खुद को तलाशने और तराशने के कार्य
में मन कभी विकृत हो जाता है, तो कभी सुकृत। ये दोनों ही
मनोकृति के प्रकार हैं। एक दमित कुंठाओं का परिणाम होती हैं और दूजी सुपोषित
भावनाओं का सृजन। उम्र तो एक पड़ाव मात्र है, इस पड़ाव के
किसी भी मोड़ पर ये बलबलाकर बाहर निकल पड़ती हैं या फिर भीतर ही घुटकर दम तोड़ देती
हैं। कहने का तात्पर्य मन के नकारात्मक भावों या मनोविकारों से घृणा न करें,
मूल को समझने का प्रयास करें, और उन्हें बह
जाने का मार्ग प्रशस्त करें, नहीं पता ये कौन- सा घातक
विस्फोटक बन सर्वनाश का कौन- सा रूप दिखा जाएँ। साथ ही मन के सकारात्मक भावों या
मनोसुकृति को भी बहने का मार्ग दें। इनका बहाव सकारात्मक ऊर्जा का विस्फोट करता है,
जो एक स्वस्थ सोच का निर्माण कर समाज का कल्याण करता है।
जीवन क्या है? क्या नहीं है? इस पर चर्चा तो चलती ही रहती है; परन्तु इन चर्चाओं
के निष्कर्ष से निकले बिन्दुओं को व्यवहार में कितना उड़ेल पाता है कोई वही असली
जीवटता होती है। स्वीकारोक्ति सबसे बड़ी माँग है। हालात को स्वीकारना...वे चाहे
जैसे भी हों। जब आप स्वीकारते हुए आगे बढ़ रहे होते हैं,यकीन
मानिए आप तब अपने 'मैं' को गढ़ रहे
होते हैं। और इस 'मैं' को कभी-कभी सबके सामने स्वीकारने
में आनंद की अनुभूति होती है।
सम्पर्कः फ़रीदाबाद, हरियाणा, 9810700060
1 comment:
अति सुन्दर आत्म मंथन लिली जी 🌹बधाई आपको
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