1. सवेरा हुआ है,
उठो सोने वालों! सवेरा हुआ है;
वतन के फकीरों का फेरा हुआ है।
जगो अब निराशा- निशा खो रही है,
सुनहली- सी पूरब दिशा हो रही है;
ऊषा की किरण कालिमा धो रही है,
न अब कौम कोई कहीं सो रही है;
तुम्हे किसलिए मोह घेरा हुआ है।
उठो सोने वालों! सबेरा हुआ है।
जवानों! जगो, कौम की जान जागो,
पड़े किसलिए देश की शान जागो;
गुलामी मिटे देश उत्थान जागो,
शहीदों की सच्ची सुसंतान जागो;
हटा दूर आलस- अँधेरा हुआ है।
उठो सोने वालो ! सवेरा हुआ है।
उठो देवियो ! वक्त खोने न देना,
कहीं फूट के बीज बोने न देना;
जगें जो, उन्हें फिर से सोने न देना,
कभी राष्ट्र अपमान होने न देना;
घड़ी शुभ मुहूरत का डेरा हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
नई रोशनी मुल्क में उग रही है,
युगों बाद फिर हिन्द- माँ जग रही है;
खुमारी बचा प्राण को भग रही है,
दिलों में निराली लगन लग रही है;
मुसीबत से अब तो निबेरा हुआ है।
उठो सोने वालों सवेरा हुआ है।
हवा क्रान्ति की झूमती डाली- डाली,
बदल जाने वाली है शासन- प्रणाली;
जगो देख लो कैसी रौनक- निराली,
सितारे गए, आ गया अंशुमाली;
घरों में, दिलों में उजेरा हुआ है।
उठो सोने वालो! सवेरा हुआ है।
( 1930 ई.)
2 comments:
कीर्तिशेष वंशीधर शुक्ल जी के दोनों ही गीत महत्त्वपूर्ण हैं, प्रायः इन गीतों को सुना जा सकता है किन्तु इनके रचनाकार के विषय में लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं,इन्हे प्रकाशित करने हेतु आपको धन्यवाद
बचपन में ये गीत सुनते भी थे और गुनगुनाते भी थे। फिर समय की गर्त में कहीं खो गए। आज पढ़कर अच्छा लग रहा है। गीत प्सुरक करने के लिए धन्यवाद।दर्शन रत्नाकर
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