पर्यावरण के बढ़ते संकट के लिए जिम्मेदार कारकों में से एक एकल उपयोगी प्लास्टिक के उत्पादन व खरीद-बिक्री पर विश्वभर में पिछले 1 जुलाई से प्रतिबंध लग गया है। आयात और निर्यात पर भी रोक लगा दी गई है। एकल उपयोगी अर्थात सिंगल यूज प्लास्टिक ऐसी प्लास्टिक हैं, जिससे बनी चीजें केवल एक बार उपयोग में लाई जाती है और फिर फेंक दी जाती हैं। यहीं पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रही है। नतीजतन इस तरह के 19 नगों पर रोक लगा दी गई है। यदि कोई भी निर्माता इन उत्पादों का निर्माण करता है, तो उसे सात साल की सजा और एक लाख रुपये तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है। हालाँकि इस कानून की धारा 15 में चिप्स और गुटखे की थैली को लेकर कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। एक व्यक्ति हर साल 18 ग्राम एकल उपयोगी प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। ये खतरनाक इसलिए है, क्योंकि ये न तो पूरी तरह नष्ट होते हैं और न ही इन्हें जलाकर नष्ट किया जा सकता है। इनके टुकड़े पर्यावरण में जहरीले रसायन छोड़ते हैं, जो इंसानों और जानवरों के लिए खतरनाक होते हैं। साथ ही इनका कचरा बारिश के पानी को जमीन के नीचे जाने से रोकता है, जिससे जल का स्तर नहीं बढ़ पाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश में प्रतिदिन 26 हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है।
मानव जीवन-शैली का अनिवार्य हिस्सा बन गया प्लास्टिक पर्यावरणीय संकट के साथ मनुष्य के जीवन के लिए भी बड़ा खतरा बनकर उभरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्लास्टिक कचरे से मुक्ति का अभियान छेड़ने का शंखनाद किया था, जिसपर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है। इनमें खासतौर से पेयजल और शीतल पेय के अलावा दैनिक उपयोग में लाई जाने वाली वे प्लास्टिक की थैलियाँ हैं, जिनके आसान विकल्प उपलब्ध हैं। इसके अलावा कान साफ करने की सलाई भोजन करने की थाली, ग्लास, चाकू, काँटे व चम्मच, झंडे गुब्बारे व आइसक्रीम की छड़ी और रैपर पर्यावरण ही नहीं मनुष्य और पशुधन के जीवन के लिए भी यह बड़ा संकट बनकर पेश आई है, क्योंकि येन-केन-प्रकारेण प्लास्टिक खान-पान की चीजों के साथ पेट में पहुँच रही है। इससे जहाँ मनुष्य आबादी बीमारी की गिरफ्त में आ रही है, वहीं गाय जैसे मवेशी बड़ी संख्या में प्लास्टिक खाकर जान गँवा रहे है। जाहिर है, जरूरत से ज्यादा प्लास्टिक का इस्तेमाल पर्यावरण के साथ-साथ जीव-जगत के लिए भी संकट बन गया है।
हिमालय से लेकर धरती का हर एक जलस्रोत इसके प्रभाव से प्रदूषित है। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक दावा है कि अंतरिक्ष में कबाड़ के रूप में जो 17 करोड़ टुकड़े इधर-उधर भटक रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या प्लास्टिक के कल-पुर्जों की है। एक और नए ताजा शोध से ज्ञात हुआ है कि दुनियाभर के समुद्रों में 50 प्रतिशत कचरा केवल उन कॉटन बड्स का है, जिनका उपयोग कान की सफाई के लिए किया जाता है। इन अध्ययनों से पता चला है कि 2050 आते-आते समुद्रों में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक कहीं ज्यादा होगा। भारत के समुद्रीय क्षेत्रों में तो प्लास्टिक का इतना अधिक मलबा एकत्र हो गया है कि समुद्री जीव-जंतुओं को जीवन-यापन करना संकट साबित होने लगा है। ध्यान रहे कि एक बड़ी आबादी समुद्री मछलियों को आहार बनाती है।एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष 31.1 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। यही वजह है कि समूचा ब्रह्माण्ड प्लास्टिक कचरे की चपेट में है। जब भी हम प्लास्टिक के खतरनाक पहलुओं के बारे में सोचते हैं, तो एक बार अपनी उन गायों की ओर जरूर देखते हैं, जो कचरे में मुँह मारकर पेट भरती दिखाई देती हैं। पेट में पॉलिथिन जमा हो जाने के कारण मरने वाले पशुधन की मौत की खबरें भी आए दिन आती रहती हैं। यह समस्या भारत की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है। यह बात भिन्न है कि हमारे यहाँ ज्यादा और खुलेआम दिखाई देती है। एक तो इसलिए कि स्वच्छता अभियान कई रूपों में चलाए जाने के बावजूद प्लास्टिक की थैलियों में भरा कचरा शहर, कस्बा और गाँव की बस्तियों के नुक्कड़ों पर जमा मिल जाता है। यही बचा-खुचा कचरा नालियों से होता हुआ नदी, नालों, तालाबों से बहकर समुद्र में पहुँच जाता है। एडवांसेज नामक शोध-पत्रिका में छपे अध्ययन में बताया है कि आर्कटिक समुद्र के बढ़ते जल में इस समय 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। वैसे जेआर जाम बैंक का दावा है कि समुद्र की तलहटी में 5 खरब प्लास्टिक के टुकड़े जमा हैं। यही वजह है कि समुद्री जल में ही नहीं मछलियों के उदर में भी ये टुकड़े पाए जाने लगे हैं। सबसे ज्यादा प्लास्टिक ग्रीनलैंड के पास स्थित समुद्र में मौजूद हैं। यही टुकड़े मांसाहार और पेयजल के जरिए मनुष्य के पेट में चले जाते हैं।
प्लास्टिक की समुद्र में भयावह उपलब्धि की चौंकाने वाली रिपोर्ट ‘यूके नेशनल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल’ ने भी जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक वर्ष दुनिया भर के सागरों में 14 लाख टन प्लास्टिक विलय हो रहा है। सिर्फ इंगलैंड के ही समुद्रों में 50 लाख करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं। प्लास्टिक के ये बारीक कण (पार्टिकल) कपास-सलाई (कॉटन-बड्स) जैसे निजी सुरक्षा उत्पादों की देन हैं। ये समुद्री सतह को वजनी बनाकर इसका तापमान बढ़ा रहे हैं। समुद्र में मौजूद इस प्रदूषण के समाधान की दिशा में पहल करते हुए इंग्लैंड की संसद ने पूरे देश में पर्सनल केयर प्रोडक्ट के प्रयोग पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पारित किया है। इसमें खासतौर से उस कपास-सलाई का जिक्र है, जो कान की सफाई में इस्तेमाल होती है। प्लास्टिक की इस सलाई में दोनों और रूई के फाहे लगे होते हैं। इस्तेमाल के बाद फेंक दी गई यह सलाई सीवेज के जरिए समुद्र में पहुँच जाती हैं। गोया, दुनिया के समुद्रों में कुल कचरे का 50 फीसदी इन्हीं कपास- सलाइयों का है। इंग्लैंड के अलावा न्यूजीलैंड और इटली में भी कपास-सलाई को प्रतिबंधित करने की तैयारी शुरू हो गई है। दुनिया के 38 देशों के 93 स्वयंसेवी संगठन समुद्र और अन्य जल- स्रोतों में घुल रही प्लास्टिक से छुटकारे के लिए प्रयत्नशील हैं। इनके द्वारा लाई गई जागरूकता का ही प्रतिफल है कि दुनिया की 119 कंपनियों ने 448 प्रकार के व्यक्तिगत सुरक्षा उत्पादों में प्लास्टिक का प्रयोग पूरी तरह बंद कर दिया है। अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आठ यूरोपीय देशों में जॉनसन एँड जॉनसन भी कपास-सलाई की बिक्री बंद करने जा रही है।प्रदूषण से जुड़े अध्ययन यह तो आगाह कर रहे हैं कि प्लास्टिक कबाड़ समुद्र द्वारा पैदा किया हुआ नहीं है। यह हमने पैदा किया है, जो विभिन्न जल- धाराओं में बहता हुआ समुद्र और नदियों में पहुँचा है। इसलिए अगर इनमें प्लास्टिक कम करना है, तो हमें धरती पर इसका इस्तेमाल कम करना होगा। पानी में प्रदूषण दरअसल हमारी धरती के ही प्रदूषण का विस्तार है, किंतु यह हमारे जीवन के लिए धरती के प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। माइक्रो प्लास्टिक को लेकर आई रिपोर्ट की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि अगर कोई इंसान सिर्फ बोतलबंद पानी पीता है, तो भी एक साल में उसके शरीर में 90,000 प्लास्टिक के टुकड़े पहुँच सकते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 130 माइक्रोमीटर से छोटे प्लास्टिक के कणों में यह क्षमता है कि वह मानव ऊतकों को विस्थापित करके शरीर के उस हिस्से की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर देता है। इसी तरह यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंगालिया में इकोलॉजी के प्रोफेसर एलेस्टयर ग्रांड ने बताया है कि साँस के जरिए शरीर में जाने वाली प्लास्टिक का बहुत छोटा कण ही फेफड़ों में पहुँच पाता है। जो साँस की तकलीफ पैदा कर सकता है।
प्लास्टिक के इन टुकड़ों के मनुष्य पर प्रभाव से बचने का प्रमुख उपाय यही है कि उपयोग में लाने के बाद प्लास्टिक के हरेक टुकड़े को इकट्ठा कर उसे पुनश्चक्रित किया जाए। विश्व आर्थिक संगठन के अनुसार दुनियाभर में हर साल 311 टन प्लास्टिक बनाया जा रहा है। इसमें से केवल 14 प्रतिशत प्लास्टिक को पुनश्चक्रित करना संभव हुआ है। भारत के केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय महानगरों में प्लास्टिक कचरे का पुनश्चक्रित कर बिजली और ईंधन बनाने में लगा है। साथ ही प्लास्टिक के चूर्ण से शहरों और ग्रामों में सड़कें बनाने में सफलता मिल रही है। आधुनिक युग में मानव की तरक्की में प्लास्टिक ने अमूल्य योगदान दिया है। इसलिए कबाड़ के रूप में जो प्लास्टिक अपशिष्ट बचता है, उसका पुनश्चक्रण करना जरूरी है; क्योंकि प्लास्टिक के यौगिकों की यह खासियत है कि ये करीब 400 साल तक नष्ट नहीं होते हैं। इनमें भी प्लास्टिक की ‘पॉली एथलीन टेराप्थलेट’ ऐसी किस्म है, जो इससे भी ज्यादा लंबे समय तक जैविक प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद नष्ट नहीं होती है। इसलिए प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर इससे नए उत्पाद बनाने और इसके बाद भी बचे रह जाने वाले अवशेषों को जीवाणुओं के जरिए नष्ट करने की जरूरत है।यदि भारत में कचरा प्रबंधन सुनियोजित और कचरे का पुनश्चक्रण उद्योगों की शृंखला खड़ी करके शुरू हो जाए, तो इस समस्या का निदान तो संभव होगा ही रोजगार के नए रास्ते भी खुलेंगे। भारत में जो प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, उसमें से 40 प्रतिशत का आज भी पुनर्चक्रण नहीं हो पा रहा है। यही नालियों सीवरों और नदी-नालों से होता हुआ समुद्र में पहुँच जाता है। प्लास्टिक की विलक्षण्ता यह भी है कि इसे तकनीक के मार्फत पाँच बार से भी अधिक मर्तबा पुनर्चक्रित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान इससे वैक्टो ऑयल भी सह उत्पाद के रूप में निकलता है, इसे डीजल वाहनों में ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान समेत अनेक देश इस कचरे से ईंधन प्राप्त कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलियाई पायलेट रॉसेल ने तो 16 हजार 898 कि.मी. का सफर इसी ईंधन को विमान में डालकर विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है। गोया, प्लास्टिक वस्तुओं के बेवजह उपयोग पर प्रतिबंध तो लगे ही, इसे पुनर्चक्रित करके इसके सह-उत्पाद भी बनाए जाएँ। बहरहाल, प्रधानमंत्री की मुहिम इस दिशा में जरूर रंग लाएगी। ■
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