‘लघुकथा: चिंतन एवं सृजन’ (लघुकथा- संग्रह): सम्पादक-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, पृष्ठ: 120, मूल्य: 300 रुपये, ISBN: 978-93-6423-599-0, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे–19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली–110059
लघुकथा एक ऐसी विधा है जो अपने आकार में लघु होने के बावजूद अपने अस्तित्व में विराट है और अपनी लघुता में वृहद् विचारों, संवेदनाओं और जीवन- जगत के विविध अनुभवों को शब्दबद्ध करने की अद्भुत क्षमता रखती है, जहाँ शब्दों की संक्षिप्तता में गहन अर्थ समाहित होते हैं।
पुस्तक के पुरोवाक् में सम्पादक ‘हिमांशु’ लघुकथा की सृजन- प्रक्रिया पर महत्त्वपूर्ण चिंतन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि लघुकथा एक ऐसी यात्रा है, जिसमें शब्दों के मितव्ययी उपयोग से गहन भावनाओं और विचारों को व्यक्त करते हुए लेखकीय गंतव्य तक पहुँचा जा सकता है। शीर्षक और कथा की आत्मा को जोड़ती लघुकथा वाच्यार्थ से परे जाकर व्यंग्यार्थ के माध्यम से गहरे अर्थ प्रदान करती है, सपाटबयानी वाली रचना नहीं।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ अपने अनुशीलन ‘लघुकथा लेखन और रचनात्मकता’ में लेखन और रचनात्मकता के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए लेखन हेतु लेखकीय परिपक्वता पर जोर देते हुए कहते हैं कि लेखन विचारों को शब्दों में पिरोना नहीं है, उसमें रचनात्मकता होनी चाहिए। और रचनात्मकता तभी आती है, जब लेखक विषयवस्तु को आत्मसात् कर उसे नवीन दृष्टिकोण और शिल्प से प्रस्तुत करता है।
‘हिन्दी लघुकथा में प्रतिबिंबित पारिवारिक जीवन’ लेख के अंतर्गत लघुकथा में पारिवारिक सम्बन्धों, मूल्यों और बदलावों पर पड़ी डॉ. शिवजी श्रीवास्तव की चिंतन दृष्टि है, जिसे लघुकथाकारों ने अपना विषय बनाकर हिन्दी लघुकथा में अभिव्यक्त किया है। पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को समझने और हिन्दी लघुकथा के सामाजिक संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता बताता यह लेख न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक संरचना के अध्ययन में भी महत्त्वपूर्ण है।
डॉ. कुँवर दिनेश सिंह के लेख ‘हिन्दी लघुकथा: शिल्प एवं सम्प्रेषण-कला’ में लघुकथा की संरचना, शिल्प और उसकी सम्प्रेषणीयता पर उनका गहन चिंतन है। इस लेख से हमें ज्ञात होता है कि कैसे लघुकथा में भाषा, प्रतीक और व्यंजना का सटीक और कुशल प्रयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप यह पाठकों के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालती है और किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भ इसे प्रभावशाली बनाते हैं। यह लेख इंगित करता है कि लघुकथा में न केवल कथानक की गहराई होनी चाहिए, बल्कि उसमें पाठकों के साथ भावनात्मक और बौद्धिक स्तर पर जुड़ने की क्षमता भी होनी चाहिए। लघुकथा के शिल्प और सम्प्रेषण- कला को जानने के लिए यह लेख एक सहायक- सामग्री है।
‘बंद दरवाज़ा’ (मुंशी प्रेमचंद) में प्रतीकात्मकता के माध्यम से परिवार और समाज में व्यक्ति के अवसरों और संभावनाओं के मार्ग की ओर संकेत है। ‘पानी की जाति’ (विष्णु प्रभाकर) जाति, धर्म और मानवता में अग्रणी कौन है, इसे व्यक्त करते हुए संकेत करती है कि जीवन में अवरोध पैदा करती समाज की धार्मिक और जातीय विभाजन रेखा से पहले मानवता को रखा जाना चाहिए।
लघुकथा ‘अश्लील पुस्तकें’ (हरिशंकर परसाई) मानवीय व्यवहार पर व्यंग्य करती है और दिखाती है कि मनुष्य की कथनी और करनी में कितना बड़ा अंतर है।
‘पाठ’ (सुकेश साहनी) किशोर- प्रेम की एक संवेदनापरक लघुकथा है। पात्र पाखी के अपने प्रति बढ़ते आकर्षण को महसूस कर शिक्षक को अपने साथी शिक्षकों के किस्से याद आते हैं लेकिन जब पाखी अपने प्यार का इज़हार करती है- “इस जन्म में मुझे डैडी का प्यार नहीं मिला” तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाता है, “अब आईना मुझे देखे जा रहा था” में शिक्षक को किशोर मनोविज्ञान का पाठ पढ़ने का संदेश है।
‘ऊँचाई’ (रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’) में जीवन में परिवार की महत्ता और पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने का प्रभावी चित्रण है, मुख्य पात्र के भीतरी संघर्ष और पत्नी की तमतमाहट से उपजा एक मानसिक तनाव है, जिसे पिता की चिंता जड़ से मिटा देती है। लघुकथाकार ने उस क्षण की संवेदना को इतनी बारीकी से पकड़ा है कि पाठक खुद को उसमें बँधा हुआ महसूस करता है।
‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ (डॉ. सुषमा गुप्ता) मानव मन पर आधुनिक तकनीक का प्रभाव दर्शाते हुए डिजिटल युग में रिश्तों की स्थिति का असल आकलन करती है। मुख्य पात्र पिता की बीमारी और मृत्यु का समाचार फेसबुक पर अपडेट कर पिता के प्रति अपना भावनात्मक जुड़ाव दर्शाता है और दवाइयों की प्रतीक्षा करती माँ को नज़रअंदाज कर यह दिखाता है कि कैसे आभासी पटल पर व्यक्त भावनाओं ने मन में जगह ले ली है और असली रिश्ते जीवन से गायब हो गए
‘सिसकी’ (डॉ. कविता भट्ट) स्त्री की मातृत्व की आकांक्षा और समाज के दबाव को दर्शाती है। कमला और उसकी सास का संवाद दर्शाता है कि समाज किस प्रकार एक महिला के अस्तित्व को उसकी प्रजनन क्षमता से जोड़ता है। सोशल मीडिया पर ‘बेटी बचाओ’ का नारा देने वाला कमला का अपने वास्तविक कर्त्तव्यों से विमुख शान्ति, स्त्री का व्यक्तिगत संघर्ष, व्यापक सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ एक मौन विद्रोह और अंततः यह सोचकर कि काश उसके ऐसी बच्ची होती, अपनी सिसकी से बेटी का महत्त्व रेखांकित करती है।
‘भविष्य’ (डॉ. उपमा शर्मा) में आज की चिकित्सा शिक्षा प्रणाली का नैतिक पतन है कि कैसे संस्थाएँ नैतिकता को तिलांजलि देकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। संस्थागत नियम- व्यवहार के विपरीत शिक्षा और स्वास्थ्य का व्यवसायीकरण हो रहा है।
‘भूकम्प’ (प्रियंका गुप्ता) में गहन मानवीय संवेदना और नैतिक द्वंद्व का बखान है। पति की आत्मकेंद्रितता, पत्नी की चिंता और आपदा के भय के बीच अपने पिता की देखभाल करके थक चुके व्यक्ति की भावना है। अपनी स्वार्थी भावनाओं के प्रति झुके बेटे को उसकी पत्नी बताती है कि उसका बच्चा घर के भीतर है। अंततः बच्चे को गोद में लेकर व्हीलचेयर पर बाहर आते पिता को देखकर वह उनकी ओर लौटता है और जीवन- मूल्य और पारिवारिक दायित्वों का बोध करता है। ‘चकोर’ (रचना श्रीवास्तव) सच्चे मानवीय सम्बन्धों और प्रेम के चरम की एक सशक्त कथा है। “अब कभी यहाँ नहीं आना है” के बाद लड़के का फिर से लड़की को देखने के लिए आना सिद्ध करता है कि प्रेम दैहिक आकर्षण से नहीं, आत्मीय जुड़ाव से होता है।
‘कुछ नहीं खरीदा’ (सुदर्शन रत्नाकर) उपभोक्तावाद और मानवीय विचार का अंतर्विरोध दर्शाती है। समुद्र तट पर अपने बेटे के साथ बैठी महिला वहाँ के मूल निवासियों की स्थिति को देखकर विचार करती है और महिला के बेटे की बात -“आपने भी तो कुछ नहीं खरीदा” आत्ममंथन द्वारा विचार की क्रियान्विति पर बल देती है।
सुभाष नीरव की लघुकथा ‘धूप’ अपने उच्च पद के कारण जीवन के सरल आनंद से वंचित एक अधिकारी के माध्यम से वैयक्तिक मानसिकता और सामाजिक मानदंडों की पड़ताल करती है। इस ‘धूप’ में हम देखते हैं कि सामाजिक मानदंडों के चलते हम कितनी बार अपने वास्तविक आनंद को भुला देते हैं और उसे पाने में हिचकिचाते हैं।
‘गैप’ (कृष्णा वर्मा) में स्त्री के प्रति परिवार, समाज का पारंपरिक दृष्टिकोण है, जो उसकी अपनी पसंद का जीवन जीने की इच्छा को दबाता है।
‘प्राइमरी स्कूल’ (मीनू खरे) में एक सरकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक का अपने विद्यालय का स्तर सुधारने और उसे पब्लिक स्कूलों के समकक्ष लाने का प्रयास है जो व्यवस्था तंत्र, राजनीतिक और सामाजिक दबाव के कारण विफल हो जाता है।
यह पुस्तक न केवल लघुकथा के स्वरूप, बल्कि महत्त्वपूर्ण लेखों, संदर्भित सशक्त लघुकथाओं के आधार पर लघुकथा विधा की प्रक्रिया का व्यापक विश्लेषण और उसके प्रभावी पहलुओं का समग्र चिंतन है। ■
2 comments:
'लघुकथा चिंतन एवं सृजन 'आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु ' जी की महत्वपूर्ण कृति है, रश्मि विभा त्रिपाठी जी ने इस कृति की गंभीर विवेचना प्रस्तुत की है। कृतिकार और समीक्षक दोनों को ही बधाई
‘लघुकथा चिंतन एवं सृजन’ का बहुत सुंदर विश्लेषण।लेखक एवं समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर ।
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