मोबाइल पर लगातार घण्टी बज रही थी। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था। कमरे की मालकिन मधु जी बाथरूम में थीं। घण्टी की आवाज सुन एक पल को वह हड़बड़ा गईं। चेहरे पर साबुन लगा हुआ था। उनके हाथ रुक गए। चेहरे पर साबुन का झाग बुलबुलों के रूप में चेहरे पर बिखरा यहाँ-वहाँ आँख-मिचौली कर रहा था। वह सोच में पड़ गईं, इस वक्त किसका फोन हो सकता है।
मधु जी ने चेहरे पर लगे फेसवाश को धोया और भीगी आँखों और चेहरे को तौलिए से पोंछते हुए बाथरूम से बाहर निकल आईं।
“आ रही हूँ, लोगों को जरा भी सब्र नहीं है,” मधु जी ने गीले हाथों को तौलिए से पोंछते हुए कहा।
पर उस कमरे में उनके सिवा था ही कौन… बगल वाले में कमरे से टी वी की तेज़ आवाज़ आ रही थी। अशोक जी मैच देखने में मशगूल थे। डे-नाइट क्रिकेट मैच चल रहे थे। कमेंट्रेटर गला फाड़-फाड़ खिलाड़ियों और दर्शकों का उत्साहवर्धन कर रहा था। तालियों की तेज गड़गड़ाहट से पूरा माहौल बना हुआ था। तभी…
“शिट! क्या जरूरत थी खेलने की। सम्भ- सम्भलकर खेलने का समय था। बताओ अच्छ- खासी सेंचुरी रुक गई। धत तेरे की…”
मधु जी का ध्यान मोबाइल से हट अशोक जी के प्रलाप पर आकर टिक गया। मोबाइल कट चुका था। अशोक जी की आवाज़ में झुँझलाहट थी। उन्होंने गुस्से में टी वी बन्द कर दिया; पर उनकी बड़बड़ाहट की आवाज़ अभी तक आ रही थी। मधु जी ने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया और सोचने लगीं इससे बेहतर तो मैच ही था।
मधु जी की आँखें मेज पर पड़े आज के अखबार पर गईं जो अशोक जी के हाथों से गुजरता हुआ अब उनके हाथों में आया था। पन्ने बेतरतीब से पड़े एक-दूसरे से गुत्थम- गुत्था कर रहे थे। अखबार की यह हालत देख वे असहज हो गई थीं। उन्होंने वक्त के साथ बूढ़ी होती जा रही उँगलियों से एक-एक पन्ने को सहेजा और एक सरसरी निगाह बासी पड़ चुकी ख़बरों पर डाली। दिन भर अशोक जी के हाथों के साथ मशक्कत कर अखबार जगह-जगह से मुड़-तुड़ गया था। मधु जी ने अशोक जी के व्यवहार और उँगलियों का खुरदरापन बेतरतीब पड़े पन्नों में महसूस किया।
शादी के पहले घर में सबसे पहले वे अखबार पढ़ती थीं। एक-एक पन्ने से उठती ताजे अखबार की खुशबू उन्हें बहुत लुभाती थी; पर इन बीते तीस सालों में अशोक जी के साथ बिताए पलों में वह खुशबू गायब हो चुकी थी। सबसे पहले अखबार अशोक जी ही पढ़ते थे। घर की जिम्मेदारियों और अपने आप को एक सफल गृहिणी सिद्ध करने की कोशिश में सारा दिन पंख लगाकर उड़ जाता और अखबार की वह ताजी खुशबू भी समय के साथ उड़ जाती। पन्नों को सहेजते- सहेजते एक खबर पर उनकी निगाह रुक गई- बुढ़ापा शांति से काटने की चाहत में बढ़ रहे हैं, “ ग्रे तलाक”...
ग्रे तलाक! मधु जी की कौतूहलता बढ़ती गई। उन्होंने अंदर की ख़बरों को पढ़ना शुरू किया। एक दंपति ने शादी के तैंतीस साल बाद म्युचुअल तलाक लिया। बच्चों की पढ़ाई और शादी हो जाने के लिए वे एक साथ रह रहे थे लेकिन जब उनकी यह जिम्मेदारियाँ पूरी हो गईं तब उन्हें यह एहसास हुआ कि वह एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं हैं। उनका मानना है कि परिवार की खुशी के लिए वे अब तक साथ रहे; पर अब वह बुढ़ापा शांति से काटना चाहते हैं। मधु जी ने एक गहरी साँस ली और अखबार को वहीं छोड़ टी वी ऑन कर दिया।
मधु जी की आँखें टी वी पर चिपक गईं। उनकी पसंदीदा सिने तारिका का गाना आ रहा था। उन्होंने कमरे की लाइट बन्द कर दी और साइड लैंप जला दिया। कमरे में फैले हल्के अँधेरे में मद्धिम रौशनी एक खुशनुमा एहसास के साथ बिखर गई। ए. सी.की ठंडी हवा का झोंका उनके तन को सहला गया। उन्होंने रिमोट से वॉल्यूम का बटन दबाकर आवाज मद्धिम की और गाने का आनन्द लेने लगीं। स्वरलहरियाँ हवा के पंखों पर सवार हो पूरे कमरे में फैल गईं।
सिने तारिका ने सुर्ख लाल रंग की साड़ी तन पर लपेट रखी थी। सर पर ऊँचा जूड़ा,तराशे हुए तीर कमान भवें, रँगे हुए होंठ और साड़ी से मैच करता सुर्ख खिलता हुआ गुलाब जूड़े में टँका शरारती बच्चे की तरह ताका- झाँकी कर रहा था। मधु जी एकटक उस तारिका को देख रहीं थी। उन्हें अपनी फेयरवेल पार्टी याद आ गई थी।
“चल तुझे तेरी पसंदीदा हिरोइन की तरह तैयार करती हूँ। सब देखते रह जाएँगे।”
सच ही तो कहा था बुआ जी ने… सहेलियों ने उसकी जान खा ली थी।
“तुझे पक्का हमारी ही नज़र लग जाएगी,” दूसरी ने छेड़ते हुए कहा था।
“आज तो लड़कों की खैर नहीं।”
वह शायद पहली और आखिरी बार था, जब उन्होंने जूड़ा बनाया था। अशोक जी को उनका जूड़ा बनाना पसन्द नहीं था।
“भगवान ने इतने सुंदर बाल दिए हैं, ये क्या जूड़ा बनाकर खड़ी हो गई हो। चोटी बनाया करो।”
मधु जी का चेहरा उतर गया था। शादी के पहले सजने-सँवरने का उन्हें कितना शौक था। लेटस्ट फैशन के कपड़ों से उनकी अलमारियाँ भरी रहती थीं। अपनी शादी में भी दो-दो अटैचियाँ भरकर एक से बढ़कर एक कपड़े लाई थीं। शोख-चटख रंग के कपड़े, आँखें चौधियाँ जाए।आज भी उन्हें वह दिन याद है। शादी को हफ्ते भर ही हुए थे। दोस्तों ने नव युगल के लिए पार्टी का इंतजाम किया था। मधु जी ने सुबह से ही प्लानिग कर रखी थी। वो लाल कांजीवरम के साथ लम्बा वाला सोने का हार और झुमके पहनूँगी। अशोक जी ऑफिस से अभी तक नहीं आए थे। मधु जी अशोक जी के ऑफिस से आने से पहले ही तैयार होकर बैठ गई थीं। पुरुषों का क्या है, बस वही पेंट-शर्ट पहनकर हर जगह खड़े हो जाएँगे। मुश्किल से दस मिनट लगेंगे; पर उन्हें तो कायदे से तैयार होना था। आखिर पहली बार अशोक जी के दोस्तों से मिल रही थीं। शादी में मिलना भी कोई मिलना होता है। आज सबसे व्यक्तिगत मुलाकात हो जाएगी तो जान-पहचान बढ़ाने में आसानी होगी।
मधु जी में बड़ा उत्साह था। आज मन भर के उन्होंने श्रृंगार किया था। माथे पर नग वाली बिंदी, आई ब्रो पेंसिल से भवों को पैना किया था। गाल गुलाब हो रहे थे और शरारती झुमके बार-बार उन गालों को चूम ले रहे थे। मधु जी न जाने क्या सोच अपने ही रूप को देख शरमा गई थीं। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि अशोक जी उन्हें देखकर सरप्राइज हो जाएँगे।
“सरप्राइज!”
“ये क्या हाल बना रखा है। तुम शायद भूल रही हो कि तुम अशोक गुप्ता की पत्नी हो। ये लाल- पीले रंग की साड़ी, क्या किसी शादी में जा रही हो।”
“हमारी अभी-अभी शादी हुई है। नई दुल्हन पर यही सब रंग अच्छे लगते हैं,” मधु जी ने रुआँसे होते हुए कहा था।
“नई शादी! तो क्या ढोल पीट-पीटकर सबको बताओगी। वैसे भी बताना किसे है, सबको पता है।”
एक हफ्ते पुराने दूल्हे के मुँह से ऐसी बात सुन मधु जी हतप्रभ रह गईं।
“मेरे पास तो ऐसे ही कपड़े हैं।”
“हमारी तरफ से जो कपड़े चढ़ाए गए थे, वो कहाँ गए?” अशोक जी का स्वर तल्ख हो गया था।
“अभी ब्लाउज-पेटीकोट नहीं बने हैं। वैसे भी इतने फीके रंग कौन दुल्हन पहनती है?”
“सबसे पहले तो तुम अपने दिमाग से यह नई दुल्हन होने का भूत उतार दो और वह फीके रंग नहीं क्लास है। ध्यान रखो मैं एक अच्छे क्लास से बिलॉन्ग करता हूँ। बड़े-बड़े लोगों के साथ उठना-बैठना है मेरा… अपना नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का तो ख्याल करो। अपने मायके में जो चाहे करती होगी; पर मेरे साथ रहना है तो क्लास मेंटेन करना होगा।”
मधु के सामने अटैची में पड़ी वह खूबसूरत कांजीवरम और बनारसी साड़ियाँ घूम गईं। एक-एक साड़ी चुन-चुनकर ली थी। सारे भारतीय रंग गहरे, शोख और चटख…
“नई दुल्हन पर यही सब रंग तो फबते हैं,” बुआ जी ने यही कहा था।
अशोक जी को पेस्टल रंग पसंद थे। हल्के फीके से सिंपल रंग… माँ ने एक बार टोका भी था।
“इस उम्र में यह सब रंग पहनेगी तो बुढ़ापे में क्या पहनेगी। तू तो उम्र से पहले बूढ़ी होती जा रही है।”
जिन रंगों को पहन वह खुशियाँ महसूस करती थी, वह खुशियाँ कहीं गुम हो चुकी थीं। उन्हें आज भी वह दिन याद था। पंडित जी ने कुंडली मिलाई थी छत्तीस में बत्तीस गुण मिले थे। माँ कितनी खुश थी! उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।
“जोड़ी बड़ी अच्छी रहेगी,” मधु जी ने हँसते हुए कहा था।
“क्या माँ! आप भी किस दुनिया में जीती हैं! आपका बस चलता तो छत्तीस के छत्तीस गुण मिला देतीं। सीता जी के तो छत्तीस के छत्तीस गुण मिले थे, कौन सा सुख मिला, थोड़े कम ही सही।”
“चुप कर! कुछ भी बोलती है। थोड़े कम ही मिले तो अच्छे, लोगों की नजर लग जाती है,” माँ रिश्तेदारों को बताते हुए फिर रही थी।
“बिटिया की कुंडली बहुत अच्छी मिली है। मधु तो राज करेगी राज…”
सच ही कहा था उन्होंने वह राज ही कर रही थी। समाज की नजर में सुख के जो पैमाने होते हैं, सब कुछ था इस घर में। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी; पर क्या वाकई में उसके जीवन में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। मधु जी अशोक जी के जीवन में घुल सी गई थीं। उनके खुद के शौक, पसन्द, सपने, चाहत क्या थे, वे भूल गई थीं; पर कब तक…
मधु जी को अचानक याद आया, जब वह बाथरूम में थीं तब किसी का फोन आया था। सुम्मी! मोबाइल पर सुम्मी का मिस्ड कॉल चमक रहा था।
“सुम्मी! इस वक्त? अरे हाँ आज उससे सुबह बात कहाँ हुई थी,” उन्होंने अपने आप से कहा।
“ये लड़की भी न! दिनभर में एक बार बात न कर ले तो इसे चैन नहीं मिलता।”
मधु जी ने नम्बर मिला दिया। शायद फोन उसके हाथ में ही था। एक घण्टी बजते ही उसने फोन उठा लिया।
“क्या मम्मी! कहाँ रहती हैं। मुझे वक्त नहीं मिला तो आपने भी फोन नहीं किया।”
सुम्मी बोलती चली गई, मधु जी मुस्कुराकर रह गईं। ये लड़की आज भी सुपरफास्ट मेल है।
“कपड़ों को धूप लगा रही थी। आज पौधे और गमले लेने गई थी। बस उन्हें लाने-लगाने में समय कब बीत गया, पता ही नहीं चला।”
“अरे वाह! ये शौक कबसे पाल लिया। आपको तो कभी पेड़-पौधे लगाते नहीं देखा। नानी के घर जरूर लगे थे; पर यहाँ तो एक भी पौधा नहीं था,” सुम्मी बोलती चली गई।
“तेरे पापा को यह सब फालतू की चीज़ें लगती थीं। कौन रोज-रोज पानी डाले और देखभाल करे; इसलिए कभी लगाया नहीं। शादी से पहले मैं ही लॉन मेंटेन करती थी,” मधु जी ने बुझे स्वर में कहा।
“पापा ने आपको कुछ कहा नहीं?”
मधु जी ने सुम्मी के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया।
“मम्मी आपने अपनी डी पी बदली है?”
“हाँ बहुत सालों से एक ही लगा रखी थी,” मधु जी ने लापरवाही से कहा।
“पापा के साथ बड़ी प्यारी फोटो थी। आप दोनों एक-दूसरे के साथ कितने अच्छे दिखते हैं। मेड फ़ॉर इच अदर..”
मधु जी ने सुम्मी की बात का कोई जवाब नहीं दिया।
“मम्मी!आप डी पी में कितनी अलग लग रही हैं।”
“ कैसी लग रही हूँ,अच्छी या बुरी…?”
मधु जी ने सवाल दागा। सुम्मी इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी।
“अsss…अच्छी, बहुत अच्छी। आपको इस तरह कभी देखा नहीं था न… इसलिए थोड़ा अजीब लगा; पर आप अच्छी लग रही हैं। एक बात कहूँ, ” सुम्मी की आवाज़ संजीदा हो गई।
“बोलो न…”
“आपको हमेशा पेस्टल रंग के सूती, खादी या लेनिन कपड़े पहनते ही देखा।”
“तेरे पापा को ऐसे ही रंग और कपड़े पसन्द थे।”
“गहरे रंग के कपड़ों में आप बड़ी यंग दिख रही हैं। ये साड़ी कब ली?”
“बहुत पुरानी है, मेरी शादी के समय की। बगल वाली शर्मा जी की बेटी की कल गोद भराई थी। वहीं पहनी थी।”
“आपको हमेशा चोटी में देखा है, जूड़े में पहली बार देख रही हूँ।”
“हम्म…”
सुम्मी कुछ-कुछ समझ रही थी। माँ के जीवन में कुछ बदल रहा था; पर क्या… मम्मी गहरे रंग के कपड़े पहनने लगी थीं, जूड़ा बनाने लगी थीं। कल की ही तो बात है, लंच में उन्होंने कढ़ी बनाई थी; पर पापा को तो कढ़ी बिल्कुल पसन्द नहीं थी। फिर…पिछले संडे अपनी सहेली मुक्ता मौसी के साथ फ़िल्म देखने गई थी और लौटते वक्त चौराहे वाले रेस्टोरेंट में खाना खाकर आई थीं।
मम्मी में आया यह परिवर्तन सुखद तो था; पर पापा?पापा तो चुप रहने वालों में से नहीं थे। घर में क्या बनेगा, रिश्तेदारों को क्यानाना जी सरकारी नौकरी में थे। नौकरी के समय उन्होंने न जाने कितने शहर देखे थे; पर शादी के बाद वह अपने शहर से नानी के घर के अलावा कहीं नहीं जा पाई थीं।
मम्मी ने इसका कभी विरोध भी नहीं किया। वह पापा के रंग में रँगती चली गईं। शायद प्रतिरोध करने का फायदा भी नहीं था। पापा काफी गुस्सैल स्वभाव के थे। घर की शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए मम्मी चुप रह जाती और उनकी यह चुप रहने की आदत उनकी आदत में शुमार हो गई; पर सुम्मी की शादी होते ही इन छः महीनों में मधु जी के जीवन में काफी परिवर्तन आया था। सुम्मी इसको शिद्दत से महसूस कर रही थी; पर सों वीडियो कॉल करते समय मम्मी उसके कमरे में ही सोने जा रही थीं।
“मम्मी पापा कहाँ हैं?”
“अपने कमरे में…”
“और आप?”
मधु जी चुप थीं। सुम्मी चुपचाप उनके जवाब का इंतज़ार कर रही थी। उसके सब्र का बाँध टूटने लगा था। तभी…
“मैं तेरे कमरे में हूँ।”
“कबसे…?”
मधु जी ने सुम्मी के सवाल को नजरअंदाज कर दिया।
“पापा मैच देख रहे हैं।”
“और आप? आप भी तो पापा के साथ मैच देखते थे। आपको भी तो मैच देखना पसंद था।”
“मुझे मैच देखना कभी पसंद नहीं था; पर तेरे पापा का तो तू जानती ही है- उनके हाथ से कोई रिमोट नहीं ले सकता। फिर वह जो देखते थे मैं भी वही देख लेती थी।”
“मम्मी सब ठीक है ना, इधर मैं कई दिनों से नोटिस कर रही हूँ आप कुछ बदली-बदली सी नजर आ रही हैं!”
“सुम्मी ये बदलाव अच्छा है या बुरा…?”
सुम्मी मधु जी के सवाल का जवाब नहीं दे पाई। शायद घर के बच्चे वर्षों से अपनी माँ की बँधी-बँधाई छवि में आए परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाते।
“आप मुक्ता मौसी के साथ फिल्म देखने गई थीं। फिर रात में खाना भी बाहर ही खाकर आई थीं।”
“तुमसे किसने कहा?”
“पापा ने बताया था, थोड़ा नाराज़ लग रहे थे।”
मधु जी चुपचाप सुनती रहीं।
“तुम्हारे पापा क्या कह रहे थे?”
“कुछ खास नहीं, बोले— आजकल तुम्हारी मम्मी अपने मन की हो गई हैं। जो चाहती हैं, वह करती हैं।”
“क्या यह गलत है? क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है?” मधु जी की ज़बान पर काँटे उग आए थे।
“नहीं मम्मी, मुझे बेहद खुशी और आश्चर्य हुआ था। आपका यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। बागवानी के लिए पौधे और आज डीपी पर आपकी फोटो देखकर बेहद आश्चर्य हुआ। आपको कभी इस तरीके से न देखा था और ना ही सोचा था।”
सुम्मी ने महसूस किया- उन दोनों भाई-बहनों के घर बसते ही मम्मी की गृहस्थी उजड़ गई थी। शायद यह गृहस्थी बहुत पहले ही उजड़ गई थी पर उसका स्वरूप अब दिखना शुरू हुआ था। वक्त के साथ घर में ही नहीं उनके रिश्तों के बीच की दरारें गहरी हो गई थीं।
“सुम्मी तुम इतनी बड़ी तो हो ही गई हो कि अपनी मम्मी, एक औरत की बात को समझ सको। बस अब और नहीं, मैं अपने आप को प्रूफ करते- करते थक चुकी हूँ। मेरी माँ ने हथेलियों में दिखती लकीरों को तो देखा था; पर माथे में उभरी चिंता मेरे भाग्य में खींची गई लकीरों को वे कहाँ पढ़ पाई थीं। मैं अपना बुढ़ापा शांति से बिताना चाहती हूँ।”
“क्या आप पापा से अलग हो जाना चाहती हैं?”
मधु जी ने कोई जवाब नहीं दिया।
“पर मम्मी इस उम्र में आप दोनों का अलग हो जाना क्या यह सही डिसीजन है। आपने एक बार भी सोचा है हमारे ससुराल वाले क्या सोचेंगे? भैया-भाभी, उनके बच्चे, सब हँसेंगे आप; पर … इस उम्र में कोई तलाक देता है। आपने सोचा है सोसाइटी क्या कहेगी?” सुम्मी ने खीझकर कहा।
“सोचा! कभी समाज, कभी परिवार तो कभी बच्चे, इनके बारे में सोचते-सोचते एक उम्र निकाल दी। क्या हमें अपने बारे में सोचने का कोई हक नहीं, क्या उम्र के इस पढ़ाव पर भी हम अपने बारे में सोच नहीं सकते?”
“पर मम्मी?”
शब्द सुम्मी के गले में अटककर रह गए।
“अपने हिस्से का आसमान बुनने का हक तो कभी न कभी सभी को मिलना चाहिए। सुम्मी इश्क का रंग हमेशा लाल नहीं होता। कभी-कभी ग्रे भी होता है।”
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