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Jan 1, 2025

कविताः ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

  - रामधारीसिंह दिनकर






ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये व्यवहार नहीं

धरा ठिठुरती है सर्दी से


आकाश में कोहरा गहरा है

बाग़ बाज़ारों की सरहद पर

सर्द हवा का पहरा है

सूना है प्रकृति का आँगन

कुछ रंग नहीं, उमंग नहीं


हर कोई है घर में दुबका हुआ

नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं

चंद मास अभी इंतज़ार करो

निज मन में तनिक विचार करो

नए साल नया कुछ हो तो सही


क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही

उल्लास मंद है जन -मन का

आई  है अभी बहार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं


ये धुंध कुहासा छँटने दो

रातों का राज्य सिमटने दो

प्रकृति का रूप निखरने दो

फागुन का रंग बिखरने दो


प्रकृति दुल्हन का रूप धार

जब स्नेह – सुधा बरसाएगी

शस्य – श्यामला धरती माता

घर -घर खुशहाली लाएगी


तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि

नव वर्ष मनाया जाएगा

आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर

जय गान सुनाया जाए


युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध

नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध

आर्यों की कीर्ति सदा -सदा

नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा


अनमोल विरासत के धनिकों को

चाहिए कोई उधार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं

1 comment:

rajkumardhardwivedi said...

बेहतरीन कविता।