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Jan 1, 2025

लघुकथाः जिम्मेदारी

 -  अनिता मंडा 
   नेहा को प्रसव-पीड़ा उठी तो मारे दर्द के उसने आँखें भींच ली, पर होंठ मुस्कुरा रहे थे। नौ महीने की अनवरत तपस्या का फल अब देखने को मिलेगा, इस भाव से मन आह्लादित हो उठा। घर-भर को जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। सासू माँ शारदा देवी ने जरूरी सामान जल्दी-जल्दी थैले में भरा और वह कस्बे के सरकारी अस्पताल ले गई।  भर्ती की औपचारिकता पूरी की। नेहा को नर्स भीतर ले गई। सास-ससुर बाहर प्रतीक्षा में बैठ गए। भीतर से कभी नेहा के छटपटाने आवाज़ बाहर आती, तो कभी नर्स की डाँट-डपट भरी गला-फाड़ निकलती आवाज़, बरामदे  में गूँज उठती। 

        कस्बे में अच्छे अस्पताल की कमी ही थी। फिर भी घर में जचकी सुरक्षित नहीं थी। यही सोचकर उन्होंने अस्पताल आने का चुनाव किया था; लेकिन नर्स का लगातार बड़बड़ाना सुनकर शारदा जी का मन कच्चा-पक्का हो रहा था वह भीतर जाकर नेहा को तसल्ली दे रही थी-  "हिम्मत रखो बेटा, बड़ी खुशी के लिए दर्द भी बड़ा सहना पड़ता है।"

नर्स का बोलना एक ट्रैक पर चल रहा था- "अब क्यों चिल्लम-चिल्ली मचा रखी है । उस टाइम तो बड़ा मज़ा आया होगा।" 

असहज करने वाली बातें पसीने से तर नेहा के माथे पर किसी हथौड़े की तरह  पड़ रही थी। 

   गला सूखने पर नेहा ने पानी माँगा, तो फिर नर्स ने आकर बाल खींच दिए और बोली- "तू ही है एक नाजुक कली; पहले तो मज़े उठाते हो और अब फ़रमाइशी गीत गा रही हो।" 

नेहा के माथे पर पड़े बल देखकर, शारदा जी समझ गई कि नेहा से नर्स की जली-कटी नहीं सुनी जा रही।

नर्स फिर चिल्लाई- "बच्चा पैदा कर रही हो, तो दर्द तो होगा ही, पहले नहीं पता था क्या?"  सप्तम स्वर में कही गई बातें, दरवाजे की मर्यादा तोड़ बाहर बरामदे में तैर रही थी। शारदा जी ने बहुत संयत स्वर में कहा- "बहन जी आप तो बहुत अनुभवी लगती हैं। बहुत सारे बच्चे आपकी आँखों के सामने जन्मे होंगे।" 

नर्स को थोड़ा अभिमान हो आया- "और नहीं तो क्या, आधा गाँव मेरे सामने ही पैदा हुआ है।" 

"बहन जी आप तो बहुत बड़ा पुण्य का काम कर रहे हैं, सेवा करना सबके नसीब नहीं मिलता न,"शारदा जी ने नर्स को साधते हुए कहा। 

"सही कह रही हो माता जी; यह नौकरी नहीं होती, तो मेरे बच्चे भूखे मर जाते। आज इंजीनियर हैं बड़ी-बड़ी कंपनियों में,"नर्स का सीना गर्व से फूल गया।

"तब तो आप पक्का ही समझते हो इस समय स्त्रियों को कितना प्यार-दुलार चाहिए। सृष्टि रचयिता ईश्वर ने यह महान जिम्मेदारी स्त्री को दी है। यह गौरव के पल हैं बहन जी!  हौसला बढ़ाओ इस पल। यूँ जली-कटी सुनाने से आपका मन भी तो दुखता होगा।" शारदा जी अपनी बहू नेहा के माथे से पसीना पौंछते हुए नर्स से कहती जा रही थी।" प्यार और सम्मान से बात करना हम सबकी जिम्मेदारी है।"

"माफ कर दो माताजी, इस तरह तो हमें कभी किसी ने समझाया ही नहीं।  हमने तो जैसा होता देखा, वही कर रहे थे।" नर्स के चेहरे पर ग्लानि साफ झलक रही थी। 

"तो आपकी यह जिम्मेदारी है कि आप यह सिखाओ अपने स्टाफ को।" शारदा जी ने नर्स की हथेली दबाते हुए कहा । 

परेशान नेहा के चेहरे पर सुकून की मुस्कान खिल गई। ■

2 comments:

निर्मल said...

एक बड़ी जिम्मेदारी निभाती कहानी। बहुत सुंदर रचना। बहुत बहुत बधाई।

Anonymous said...

संदेश देती सुंदर लघुकथा। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर