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Dec 2, 2025

उदंती.com, दिसम्बर - 2025

वर्ष - 18, अंक - 5

कुछ भी नया करने में संकोच मत करो, ये मत सोचो हार होगी। 

हार तो कभी नहीं होती, या तो जीत मिलेगी या फिर सीख। 

- एपीजे अब्दुल कलाम

 . अनकहीः AI के नए दौर में आज के युवा - डॉ. रत्ना वर्मा

. आलेखः बस्तर में अंतिम साँसे गिनता नक्सलवाद - प्रमोद भार्गव 

. प्रेरकः डगलस बेडर से मिलिए लोग फेल क्यों होते हैं ?

. पर्यावरणः क्या हम समय रहते हिमालय को बचा पाएँगे? - कविता भारद्वाज

. विज्ञानः डीएनए संरचना के सूत्रधार वॉटसन नहीं रहे 

. शौर्य गाथाः श्यामल देव गोस्वामी जिसने मौत को दी दो बार मात  - हरी राम यादव

. श्रद्धा सुमनः पद्मश्री ऐड गुरु पीयूष पांडे - छोड़ गए सबकी जुबान पर...- सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'

. कविताः टूट रही है डोर - कृष्णा वर्मा

. जीवन- दर्शनः न दु:ख शाश्वत है, न सुख, दुःख जाएगा, तभी आएगा सुख - डॉ. महेश परिमल

. आलेखः देश का आभूषण है संस्कृति - शीला मिश्रा

. यादेंः  रेलवे स्टेशन - प्रशान्त

. कविताः एक प्रतिशत - डॉ. शैलजा सक्सेना

. पंजाबी कहानीः सुर्ख शालू - बलदेव सिंह ग्रेवाल, अनुवाद : सुभाष नीरव

. लघुकथाः पेट दर्द  - प्रभुदयाल श्रीवास्तव 

. लघुकथाः खूशबू  - सुदर्शन रत्नाकर

. आँखों देखा हालः भारत और अमेरिका के कुत्ते  - डॉ. हरि जोशी , लॉस एंजेलिस से

. कविताः सरकार - सपन अग्रवाल

. अतीत के पन्ने सेः विस्थापन के दौर की बिखरती यादें - देवी नागरानी

. मनोविज्ञानः बच्चों का हास-परिहास और विकास

. पिछले दिनोंः रायबरेली में- कला, शब्द और चेतना का संगम  - कुसुम लता सिंह

. बाल-चौपाइयाँः 1. मिट्ठू प्यारे, 2. चिंटू का सपना  - सुशीला 'शील' स्वयंसिद्धा

अनकहीः AI के नए दौर में आज के युवा...

-डॉ. रत्ना वर्मा

आज हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ तकनीक, विशेषकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) हमारे काम-काज, शिक्षा, रोजगार और सोच को तेज़ी से बदल रही है। दुनिया ही नहीं, भारत भी इस परिवर्तन के केंद्र में है। इन दिनों इसे लेकर एक बड़ी चिंता देश के सामने उपस्थित है- युवा बेरोज़गारी की।

 निजी क्षेत्रों में, विशेषकर आईटी कंपनियों में पिछले महीनों में बड़ी संख्या में युवाओं की नौकरियाँ प्रभावित हुई हैं। यह स्थिति चिंतनीय भी है और सच्चाई भी। तकनीक के तेज़ बदलाव ने कई ऐसे काम कम कर दिए, जिन्हें मशीनें तेज़ और कम कीमत में कर सकती हैं। जब बड़ी कंपनियाँ मशीनों को इंसानों की जगह लगाने लगती हैं, तो यह एक सामाजिक संकट का भी आरंभ होता है। ऐसे में एक बड़ा सवाल उठता है- जो युवा अभी प्रभावित हो रहे हैं, उनका क्या होगा?

आधुनिकता और तकनीक का समर्थन करने वालों का तर्क यह होता है  कि यह सब विकास का संकेत है, आगे इससे नई नौकरियाँ आएँगी; लेकिन यह भी सच्चाई है कि आज जिन युवाओं की नौकरी छीनी जा रही है, वे इस तरह के तर्क को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।  कोई उनकी वेदना नहीं समझता, आज नौकरी से जो  बाहर हो रहे हैं-  जिनके परिवार उनकी आय पर निर्भर हैं, जिन्होंने घर के लिए, शिक्षा के लिए ऋण लेकर रखा है, जिनपर और न जाने कितनी जिम्मेदारियाँ हैं,  उनको अचानक जब नौकरी के लायक नहीं हो कहकर बाहर कर दिया जाएगा, तब सोचिए- उनपर क्या बीतेगी। यह उनके लिए हताशा, अविश्वास और आर्थिक असुरक्षा का दौर होगा, जो समाज में अपराध और नशे जैसी अनेक प्रकार की विसंगतियों को जन्म देगा।  यह स्थिति आने वाली पीढ़ी के आत्मविश्वास को भी कमजोर करेगी। निजी क्षेत्र को यह समझना होगा कि  मनुष्य की मेहनत देश की आर्थिक उन्नति में बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं। तकनीक की यह रफ्तार समाज की तैयारी से कहीं अधिक तेज चाल से चल रही है, जो चिंतनीय है।

 सवाल यह भी उठता है कि जब इस नई तकनीक से रोजगार की संभावनाएँ और बढ़ेंगी, तो फिर जो पहले से ही आपके पास नौकरी कर रहे हैं, उन्हें निकालने के बजाय आप उन्हें इस नई तकनीक में प्रशिक्षित क्यों नहीं करते? आखिर क्यों किसी कर्मचारी का 8–10 वर्ष का अनुभव तकनीक की एक नई लहर के सामने इतना बेकार हो जाता है? आपने उन्हें अपनी कंपनी में उनकी काबिलीयत को देख- परखकर ही नौकरी पर रखा था ना? फिर अचानक वे नाकाबिल कैसे हो जाते हैं?

मुझे याद है, जब कम्प्यूटर का आगमन  हुआ था, तब हम समाचार- पत्र में काम करने वाले लोग कलम और कागज पर ही काम करने के आदी थे;  परंतु हमें इस नई तकनीक को सीखने का समय दिया गया; बल्कि कहना चाहिए काम करते हुए ही हमें उसकी ट्रेनिंग दी गई और हमने इस नई तकनीक को सीखा। आज देखिए पूरी दक्षता से समाचार- जगत् में नई तकनीक से काम हो रहा है। शुरू में दिक्कतें आईं थीं; पर बाद में सबने स्वीकारा और सीखा। य बात अलग है कि जो लोग इस नई तकनीक को अपना नहीं पाए, वे सब पिछड़ गए। आप यह भी देख ही रहे हैं कि कम्प्यूटर ने किस तरह शिक्षा से लेकर नौकरी, व्यवसाय सब में अपनी जगह बना ली है।  यह तो तय है कि नई तकनीक को सीखना ही होगा; पर बिना सिखाए ही किसी को नौकरी से निकाल देना, उनको बेरोजगार कर देना, तो सही नहीं कहा जा सकता है।

आज सामने आए इस गंभीर रोजगार के संकट को देखते हुए ही संभवतः सरकार ने 2026–27 से कक्षा 3 से ही AI का पाठ्यक्रम शुरू करने की घोषणा की है; ताकि आने वाली पीढ़ी शुरू से ही समय की ज़रूरतों के अनुरूप तैयार हो सके। यह भविष्य की दृष्टि से अच्छा कदम हो सकता है। यह फैसला यह भी दर्शाता है कि अब AI कोई अलग तकनीक नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन का ही हिस्सा बनने जा रही है।

यह तो सर्वविदित है कि इस नई तकनीक को आने से रोका नहीं जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे कंप्यूटर के आगमन पर हुआ था; परंतु AI के सपने दिखाने वालों को यह समझना होगा कि समाज केवल तकनीक से नहीं चलता, भावनाओं, सुरक्षा, सम्मान और स्थिरता से भी चलता है।

जब लोग देख रहे हैं  कि मशीनें उनकी जगह ले रही हैं, कंपनियाँ उन्हें आऊटडेटेड घोषित कर रही हैं और सरकार हर समस्या का समाधान नई तकनीक में ढूँढ रही है, तो असुरक्षा तो बढ़ेगी ही। विकास का रास्ता तकनीक हो सकता है; पर देश के लोग पहले आते हैं। इसलिए ध्यान रखना होगा कि  मशीनें सुविधा तो दें; लेकिन इंसानों का महत्त्व कम न हो। तकनीक विकास की गति तय करे; लेकिन समाज उसकी दिशा तय करे।

एक आधुनिक राष्ट्र अपनी दिशा केवल मशीनों के आधार पर तय नहीं करता। राष्ट्र उस रास्ते को चुनता है, जिसमें मानव सुरक्षा, सामाजिक स्थिरता और आर्थिक तरक्की साथ- साथ चलें।  यदि परिवर्तन को संवेदनशीलता से नहीं सँभाला गया तो, इसका असर सिर्फ रोजगार पर नहीं, पूरी सामाजिक व्यवस्था पर पड़ेगा।  तकनीक को अपनाना समय की ज़रूरत है, पर समाज को अनदेखा करके तरक्की करना कतई उचित नहीं है।

आलेखः बस्तर में अंतिम साँसे गिनता नक्सलवाद

 - प्रमोद भार्गव

  छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश की सीमा पर हुई मुठभेड़ में सुरक्षाबलों ने शीर्ष माओवादी क्रूर हिंसा के प्रतीक बन चुके हिड़मा को मार गिराने के बाद सात अन्य नक्सलियों को मार गिराने के साथ तय है कि अब नक्सली हिंसा अपने अंतिम चरण में है। मार्च 2026 तक इसका समूल नाश हो जाएगा ; क्योंकि अब प्रमुख नक्सली सरगनाओं की गिनती मात्र 3-4 तक सिमट गई है। यदि वे हथियार डालकर समर्पण नहीं करते हैं, तो उनका भी अंत होना तय है। हालाँकि इस मुठभेड़ में मप्र के बालाघाट में पदस्थ निरीक्षक आशीष शर्मा को बलिदान देना पड़ा है। माओवादी अरसे से देश में एक ऐसी जहरीली विचारधारा रही है, जिसे नगरीय बौद्धिकों का समर्थन मिलता रहा है। ये बौद्धिक नक्सली संगठनों को आदिवासी समाज का हितचिंतक मानते रहे हैं, जबकि जो आदिवासी नक्सलियों के विरोध में रहे, उन्हें इनकी हिंसक क्रूरता का शिकार होना पड़ा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के वामपंथी दलों को कभी भी सुरक्षाबलों का नक्सलियों के खिलाफ चलाया जा रहा सफाये का अभियान पसंद नहीं आया। इससे पहले छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगल में सुरक्षा बलों के नक्सल विरोधी अभियान में बड़ी सफलता तब मिली थी, जब डेढ़ करोड़ के इनामी बसव राजू समेत 27 माओवादियों को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। यह कुख्यात दरिंदा होने के साथ गुरिल्ला लड़ाका था। माओवादी पार्टी का इसे पर्याय माना जाता था। इसका नक्सली सफर 1985 से शुरू हुआ था। इसने वारंगल के क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई की थी। 

  नक्सली हिंसा लंबे समय से देश के अनेक प्रांतों में आंतरिक मुसीबत बनी हुई है। वामपंथी माओवादी उग्रवाद कभी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा माना जाता रहा है। लेकिन चाहे जहाँ रक्तपात की नदियाँ बहाने वाले इस उग्रवाद पर लगभग नियंत्रण किया जा चुका है। नई रणनीति के अंतर्गत अब सरकार की कोशिश है कि सीआरपीएफ की तैनाती उन सब अज्ञात क्षेत्रों में कर दी जाएँ, जहाँ नक्सली अभी भी ठिकाना बनाए हुए हैं। इस नाते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सबसे अधिक नक्सल हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में 4000 से अधिक सैन्यबल तैनात करने जा रहा है। केंद्र सरकार की कोशिश है कि 31 मार्च 2026 तक इस क्षेत्र को पूरी तरह नक्सलवाद से मुक्त कर दिया जाए। इतनी बड़ी संख्या में सैन्यबलों की अज्ञात क्षेत्र में पहुँच का मतलब है कि अब इस उग्रवाद से अंतिम लड़ाई होने वाली है। मजबूत और कठोर कार्य योजना को अमल में लाने का ही नतीजा है कि इस साल सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में 2024 में 153 नक्सली मारे जा चुके हैं। षह का कहना है कि 2004.14 की तुलना में 2014 से 2024 के दौरान देश में नक्सली हिंसा की घटनाओं में 53 प्रतिशत की कमी आई है। 2004 से 2014 के बीच नक्सली हिंसा की 16,274 वारदातें दर्ज की गई थीं, जबकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 10 सालों में इन घटनाओं की संख्या घटकर 7,696 रह गई। इसी अनुपात में देश में माओवादी हिंसा के कारण होने वाली मौतों की संख्या 2004 से 2014 में 6,568 थीं, जो पिछले दस साल में घटकर 1990 रह गई है और अब सरकार ने जो नया संकल्प लिया है, उससे तय है कि जल्द ही इस समस्या को निर्मूल कर दिया जाएगा। जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आतंक और अलगाववाद खत्म करने की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में अनुभव होने लगी है।  

    इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कमजोर हुआ है; लेकिन उसकी शक्ति अभी शेष है। अब तक पुलिस व गुप्तचर एजेंसियाँ इनका सुराग लगाने में नाकाम होती रही थीं, लेकिन नक्सलियों पर शिकंजा कसने के बाद से इनको भी सूचनाएँ मिलने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि सैन्यबल इन्हें निशाना बनाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ज्यादातर नक्सली आदिवासी हैं। इनका कार्यक्षेत्र वह आदिवासी बहुल इलाके हैं, जिनमें ये खुद आकर नक्सली बने हैं। इसलिए इनका सुराग सुरक्षाबलों को लगा पाना मुश्किल होता है ;  लेकिन ये इसी आदिवासी तंत्र से बने मुखबिरों से सूचनाएँ आसानी से हासिल कर लेते हैं। दुर्गम जंगली क्षेत्रों के मार्गों में छिपने के स्थलों और जल स्रोतों से भी ये खूब परिचित हैं; इसलिए ये और इनकी शक्ति लंबे समय से यहीं के खाद-पानी से पोषित होती रही है। हालाँकि अब इनके हमलों में कमी आई है। दरअसल इन वनवासियों में अर्बन माओवादी नक्सलियों ने यह भ्रम फैला दिया था कि सरकार उनके जंगल, जमीन और जल-स्रोत उद्योगपतियों को सौंपकर उन्हें बेदखल करने में लगी है ; इसलिए यह सिलसिला जब तक थमता नहीं है, विरोध की मुहिम जारी रहनी चाहिए। सरकारें इस समस्या के निदान के लिए बातचीत के लिए भी आगे आईं ; लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इन्हें बंदूक के जरिए भी काबू में लेने की कोशिशें हुई हैं ; लेकिन नतीजे पूरी तरह अनुकूल नहीं रहे। एक उपाय यह भी हुआ कि जो नक्सली आदिवासी समर्पण कर मुख्यधारा में आ गए थे, उन्हें बंदूकें देकर नक्सलियों के विरुद्ध खड़ा करने की रणनीति भी अपनाई गई। इस उपाय में खून-खराबा तो बहुत हुआ ; लेकिन समस्या बनी रही। गोया, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने से लेकर विकास योजनाएँ भी इस क्षेत्र को नक्सल मुक्त करने में अब तक सफल नहीं हो पाई हैं।

       इस मुठभेड़ में मारे गए हिड़मा का बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में बोलबाला रहा है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा था, जबकि राज्य एवं केंद्र सरकार के पास मोदी सरकार से पहले रणनीति और दृढ़ इच्छा शक्ति की हमेशा कमी रही थी। तथाकथित शहरी माओवादी बौद्धिकों के दबाव में भी मनमोहन सिंह सरकार रही। इस कारण भी इस समस्या का हल दूर की कौड़ी बना रहा। यही वजह थी कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य या चुनाव प्रक्रिया संपन्न होती थी, तो नक्सली उसमें रोड़ा अटका देते थे। अब हिड़मा के मारे जाने के बाद नक्सली समस्या का हल की गुंजाइश बढ़ गई है। 

  कांग्रेस की पूर्व केंद्र तथा छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार नक्सली समस्या से निपटने के लिए दावा कर करती रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि तत्कालीन छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आँकड़ों पर भरोसा करें ; तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही है, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश विकास की धारा से लग रहा है, क्योंकि इसी दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिले थे। बावजूद कांग्रेस के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे थे। हालाँकि नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के ही कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन नक्सलियों की महेंद्र कर्मा से दुश्मनी ठन गई थी। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे ; लेकिन कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर ली थी, बावजूद नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई थी। 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा फिर सत्ता में आई, उसके बाद से ही नक्सलियों के सफाए का सिलसिला चल रहा है।         

दरअसल, देश में अब तक तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी रहा, जो माओवादी हिंसा को सही ठहराकर संवैधानिक लोकतंत्र को मुखर चुनौती देकर नक्सलियों का हिमायती बना हुआ था। यह न केवल उनको वैचारिक खुराक देकर उन्हें उकसाने का काम करता था ; बल्कि उनके लिए धन और हथियार जुटाने के माध्यम भी खोला था। बावजूद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब ये राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किए गए, तो बौद्धिकों और वकीलों के एक गुट ने देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की थी और गिरफ्तारियों को गलत ठहराया था। माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं ; इसलिए जो भी उनके खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती हैं ; लेकिन अब इस चरमपंथ पर पूर्ण अंकुश लगने जा रहा है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49 ए श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म. प्र.


प्रेरकः डगलस बेडर से मिलिए - लोग फेल क्यों होते हैं ?

सितंबर 1945 में अपने नकली पैर को उठाकर
 विमान में विमान में प्रवेश करते डगलस बेडर
 - निशांत

डगलस रॉयल एयर फ़ोर्स में पायलट था। 1931 में हवा में अपने विमान को गुलाटियाँ खिलाते वक्त वह क्रेश हो गया। उसके दोनों पैर कट गए। एक घुटने के ऊपर, दूसरा घुटने के नीचे।

जब उसकी हालत में सुधार हो रहा था, तब उसे एक लड़की से प्यार हो गया। उसने उससे विवाह कर लिया। 

पूरी तरह से ठीक हो जाने पर उसने नकली पैर लगाकर फ़्लाइंट टेस्ट पास कर दिखाए, लेकिन उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध फ़ोर्स से रिटायर कर दिया गया।

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद उसे फ़ोर्स में दोबारा बतौर पायलट शामिल कर लिया गया। वह इतिहास में पहला पायलट बना जिसने दोनों नकली पैरों के सहारे लड़ाकू विमान उड़ाए। अगले वर्ष उसने विरोधियों के 26 विमान मार गिराए।

1941 में उसे फ़्रांस में मजबूरन उतरना पड़ा और जर्मन सैनिकों ने उसे पकड़ लिया।

वह ठीक से चल-फिर भी नहीं पाता था लेकिन उसने जर्मनों के चंगुल से बच निकल भागने के कई प्रयास किए। अंततः 1945 में युद्ध की समाप्ति पर अमेरिकी फौज ने उसे आजाद कराया।

डगलस ने तब तक विमान उड़ाना जारी रखा, जब तक उसकी सेहत ने इजाज़त दी। उसे डिसेबल्ड समुदाय के प्रति सेवाओं के लिए नाइट की उपाधि से सम्मानित किया गया।

तो यह सवाल उठा है कि 

लोग फेल क्यों होते हैं?

- लोग फेल तब होते हैं जब वे प्रयास करना छोड़ देते हैं।

- जिस आदमी के पैर कट गए थे, उसने विमान उड़ाए; क्योंकि वह प्रयास करता रहा।

- जिस आदमी के पैर कट गए थे, उसने शत्रु की कैद से भाग निकलने की तरकीबें कीं; क्योंकि वह प्रयास करता रहा।

- हम उसकी कहानी को हमेशा याद करते रहेंगे; क्योंकि वह प्रयास करता रहा।

- लोग तब फेल हो जाते हैं जब वे प्रयास करना छोड़ देते हैं।

 ( हिन्दी ज़ेन से)

पर्यावरणः क्या हम समय रहते हिमालय को बचा पाएँगे?

 - कविता भारद्वाज

हिमालय पर्वत शृंखला दुनिया की सबसे नवीन और नाज़ुक पर्वत शृंखलाओं में से एक है लेकिन हम उसके साथ ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कि उसमें असीम लचीलापन और सहिष्णुता है। विकास के नाम पर धमाके कर-करके पहाड़ों को चोटी-दर-चोटी उड़ाया जा रहा है, सुरंगें खोद-खोदकर सड़कें बनाई जा रही हैं, एक के बाद एक पनबिजली परियोजनाओं और पर्यटन स्थलों का निर्माण हो रहा है।

लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि हिमालय केवल हमारी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए धरातल नहीं बल्कि एक जीवित तंत्र है। किसी भी प्रकार का विस्फोट, ढलान को समतल करने का हर प्रयास, हर कटा हुआ पेड़ इन पहाड़ों को कमज़ोर कर रहा है और धीरे-धीरे उन्हें बिखरने की कगार पर ला रहा है।

जो लोग इन पहाड़ों में पले-बढ़े हैं, उनके लिए ये केवल पत्थरों के ढेर नहीं, बल्कि घर और इतिहास है। यही पर्वत अनगिनत पक्षियों, जीवों और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों का आश्रय है। जब हम जंगल काटते हैं या नदियों को बांधते हैं, तो हम केवल संसाधनों को नहीं खोते, बल्कि अपने घर, अपनी सुरक्षा और अपनी भावनाओं का एक हिस्सा भी खो देते हैं।

अव्यवस्था और विनाश-

जब जंगल साफ किए जाते हैं, झीलें या दलदली ज़मीन सुखा दी जाती हैं, और पहाड़ी ढलानों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाता है, तो समूचे पारिस्थितिक तंत्र अपना संतुलन खो देते हैं। इसके बाद आने वाली बाढ़, भूस्खलन और भू-क्षरण इंसानों और जानवरों दोनों को प्रभावित करते हैं।

अगस्त 2025 में उत्तरकाशी के धराली गाँव का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी और मलबे के सैलाब में दब गया। इसी साल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में भी कई ऐसे हादसे हुए जिन्होंने, कुछ समय के लिए ही सही, पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज, महीनों बाद भी वहाँ के लोग अपने घर और ज़िंदगी दोबारा बसाने के लिए जूझ रहे हैं।

ये आपदाएँ हमें तीन परस्पर सम्बंधित बातों का संकेत देती हैं: पहाड़ बहुत नाज़ुक हैं, मौसम का मिज़ाज अब पहले से ज़्यादा उग्र व इन्तहाई हो गया है, और इंसान हालात को बदतर कर रहे हैं।

अचानक आने वाली विशाल बाढ़ें अक्सर बादल फटने (बारिश बम) के कारण होती हैं- जब ऊँचे पहाड़ मानसूनी बादलों को सारा पानी एकसाथ बरसाने पर मजबूर कर देते हैं। चूंकि अब हवा पहले से ज़्यादा गर्म है, इसलिए उसमें नमी धारण करने की क्षमता ज़्यादा है (जो जलवायु विज्ञान का एक अहम सिद्धांत है), जिससे ऐसी बादल फटने की घटनाएँ ज़्यादा मर्तबा होती हैं और पहले से अधिक उग्र हो गई हैं।

इसी के साथ बढ़ती गर्मी हिमनदों को तेज़ी से पिघला रही है, जिससे ग्लेशियर-जनित झीलें अस्थिर होकर फूट जाती हैं और पानी, बर्फ और चट्टानें नीचे की ओर बह निकलते हैं।

इंसानी दखल से यह प्राकृतिक खतरा और भी बढ़ जाता है। जंगलों की कटाई, बिना सोचे-समझे सड़कों और बांधों का निर्माण पहाड़ों की ढलान को कमज़ोर कर देता है, जिससे भारी बारिश एक निश्चित आपदा में बदल जाती है।

जलवायु जोखिम का केंद्र-

जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC) की छठी रिपोर्ट उस बात की पुष्टि करती है जिसकी आशंका पहाड़ी समुदायों को पहले से थी। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण भारी बारिश और बाढ़ की घटनाएँ अब पहले से कहीं अधिक हो रही हैं।

1980 के दशक से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बाढ़ की घटनाएँ चार गुना और उत्तरी मध्य अक्षांश इलाकों में ढाई गुना बढ़ी हैं। अगर तापमान 3–4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो नदियों की बाढ़ों से प्रभावित लोगों की संख्या दुगनी हो सकती है, और कुल नुकसान (1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की तुलना में) चार से पाँच गुना तक बढ़ सकता है। यानी डिग्री का एक-एक अंश भी बहुत मायने रखता है। 

हिमालय के लिए इसका क्या अर्थ है? एयर कंडीशनर, गाड़ियों और जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल के नतीजे में बढ़ता तापमान हिमनदों को तेज़ी से पिघला रहा है, अस्थिर झीलें बन रही हैं, और बादल फटने व अचानक होने वाली तेज़ बरसातों को बढ़ावा मिल रहा है। विश्व मौसमविज्ञान संगठन (WMO) के अनुसार वाहनों से निकलने वाला धुआँ और शहरों की गर्मी हिमालयी कस्बों में स्थानीय तापमान को बढ़ाते हैं, जिससे हिमनदों (ग्लोशियर) के पिघलने की रफ्तार और तेज़ होती है।

इसके साथ ही, विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई ने उन प्राकृतिक सोख्ताओं (‘स्पंज’) को नष्ट कर दिया है जो कभी बारिश का पानी सोखकर मिट्टी को थामे रखते थे। अब जब जंगल, आर्द्रभूमि और उपजाऊ मिट्टी नष्ट हो रही हैं, तो हर मानसूनी लहर पहाड़ों से तेज़ी से नीचे उतरती है और तबाही मचा देती है।

जलवायु परिवर्तन का तनाव बढ़ने के साथ हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र अपना प्राकृतिक सुरक्षा कवच खो रहा है। आज बादल फटने की कोई भी घटना तुरंत विनाशकारी बाढ़ में बदल सकती है; तेज़ बारिश भूस्खलन को जन्म दे सकती है; यहाँ तक कि मामूली तूफान भी अब भारी तबाही ला सकते हैं।

मानव-जनित तबाही इन समस्याओं को और बढ़ा रही है। नाज़ुक ढलानों पर विस्फोट करके सड़कों का निर्माण, बिना जलवायु जोखिम आकलन के पनबिजली परियोजनाओं और अनियंत्रित पर्यटन ने पहाड़ों को बेहद असुरक्षित बना दिया है। हर निर्माण कार्य हिमालय की उस स्वाभाविक मज़बूती को कम करता है जिस पर वह हज़ारों सालों से टिका रहा है।

हिमाचल प्रदेश का बेकर गाँव ऐसे ही एक तूफान में सिर्फ बह नहीं गया था बल्कि एक चेतावनी बन गया: अगर हम खोखले पहाड़ों को और खोखला करते रहेंगे, तो वे हमें बचा नहीं पाएँगे। हमारे पास दो ही विकल्प हैं: या तो हम इन पहाड़ों को विकास के बोझ से ढहा दें, या समझदारी से उनका सम्मान करते हुए पुनर्निर्माण करें।

तीन आवश्यक कदम

हिमालयी इलाकों और वहाँ के लोगों को बचाने के लिए तीन फौरी कदम उठाने की ज़रूरत है। ये केवल सैद्धांतिक नीतिगत सुझाव नहीं हैं। ये वास्तविक अनुभवों पर आधारित अनिवार्यताएँ हैं जो हमने सालों तक इस भूमि पर रहकर और इसके तेज़ी से बिगड़ते हालात को देखकर समझी हैं।

1. ऊँचाई वाले इलाकों में विस्फोट और निर्माण पर सीमा लगाएँ: नाज़ुक पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्य जलवायु जोखिम और पारिस्थितिक मूल्यांकन (ecological assessment) की कसौटी पर खरे उतरने पर ही हाथ में लिए जाएँ। अगर सड़कें, बांध या इमारतें पहाड़ों की स्थिरता को नुकसान पहुँचा रहे हैं, तो उन्हें दोबारा डिज़ाइन किया जाए या किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित किया जाए।

इसके लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों को बिना किसी अपवाद के पर्यावरणीय कानूनों का सख्ती से पालन करना होगा। किसी भी ढलान को समतल करने या उसमें सुरंग बनाने का निर्णय लेते समय इंसानी और पर्यावरणीय सुरक्षा दोनों का ध्यान रखना अनिवार्य होना चाहिए।

2. प्राकृतिक अवरोधों की बहाली: हमें अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को फिर से मज़बूत करना होगा। इसका मतलब है नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में फिर से जंगल लगाना, आर्द्रभूमियों और ऊँचाई वाले घास के मैदानों (alpine meadows) की रक्षा करना, और मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखना। ये प्राकृतिक तंत्र बारिश का पानी सोखते हैं, बाढ़ का प्रभाव कम करते हैं और पहाड़ों की ढलानों को थामते हैं; यह सुरक्षा व्यवस्था किसी भी कॉन्क्रीट की दीवार से ज़्यादा प्रभावी होती है।

हर पेड़ लगाना, हर घास के मैदान को बचाना, हमारे भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक कदम है। इसके लिए स्थानीय समुदायों और सरकार, दोनों को मिलकर काम करना होगा। स्थानीय लोग अपनी भूमि को सबसे अच्छी तरह जानते हैं, और सरकार को इन महत्वपूर्ण प्रयासों को आर्थिक और नीतिगत समर्थन देना चाहिए।

3. पनबिजली और ऊर्जा योजनाएँ जलवायु के अनुरूप बनें: पनबिजली परियोजनाओं का आकलन केवल लाभ के आधार पर नहीं, बल्कि जलवायु सुरक्षा (climate resilience) के दृष्टिकोण से होना चाहिए- जैसे वे हिमनद झील फटने या बादल को कैसे प्रभावित करती हैं।

साथ ही, वाहन प्रदूषण को कम करना, अत्यधिक ऊर्जा खर्च करने वाली ठंडक प्रणालियों को नियंत्रित करना, और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। इससे ग्लेशियरों का पिघलना धीमा होगा और अचानक भारी वर्षा की घटनाएँ कम होंगी।

वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी वैसे तो पूरे विश्व समुदाय की है, लेकिन भारत को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी होगी; खासकर हिमालय जैसे सबसे ऊँचे और नाज़ुक क्षेत्र में हरित ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देकर। 

अगर इन कदमों को न अपनाया गया, तो हिमालयी पर्वत जवानी में ही मर जाएँगे। लेकिन अगर हम आज से ही टिकाऊ बदलाव (sustainable change) को अपनाएँ, तो ये पर्वत, यहाँ का वन्य जीवन और यहाँ के लोग आने वाली कई सदियों तक सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर ऐसा हरित भविष्य बनाएँ, जहाँ हर छोटा कदम और हर महत्त्वाकांक्षा प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित हो। (स्रोत फीचर्स)

विज्ञानः डीएनए संरचना के सूत्रधार वॉटसन नहीं रहे


 मशहूर
वैज्ञानिक जेम्स वॉटसन का निधन 6 नवंबर के दिन 97 साल की उम्र में हो गया। उन्होंने 1953 में फ्रांसिस क्रिक के साथ मिलकर डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए) की दोहरी कुंडली संरचना का खुलासा किया था। इस कार्य के लिए उन्हें 1962 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह खोज जीव विज्ञान के क्षेत्र में निहायत महत्वपूर्ण साबित हुई थी और इसने कई अनुसंधान क्षेत्रों के बढ़ावा दिया था। 

डीएनए की संरचना के खुलासे के बाद वैज्ञानिकों के लिए यह समझने का रास्ता खुल गया कि आनुवंशिकता का आणविक आधार क्या है और कोशिकाओं में प्रोटीन का संश्लेषण कैसे होता है। इसी समझ के दम पर मानव जीनोम की पूरी क्षार शृंखला का अनुक्रमण करने का मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ था। डीएनए संरचना की इस समझ के बगैर शायद कई सारे अनुप्रयोग संभव न हो पाते। दिलचस्प बात है कि जब डीएनए संरचना सम्बंधी वॉटसन और क्रिक का शोध पत्र नेचर में प्रकाशित हुआ था, उस समय वॉटसन मात्र 25 वर्ष के थे।

वैसे वॉटसन और क्रिक द्वारा की गई खोज एक अन्य वैज्ञानिक रोज़लिंड फ्रैंकलिन और मॉरिस विल्किंस के महत्वपूर्ण योगदान को पूरी तरह नकारने के कारण थोड़ा विवादों से भी घिर गई थी। वैसे भी कहते हैं कि वॉटसन बहुत बड़बोले थे और महिलाओं की क्षमताओं के लेकर काफी नकारात्मक विचार रखते थे।  

बहरहाल, अपने इस बुनियादी योगदान के बाद वॉटसन ने कई नस्लभेदवादी वक्तव्य दिए जिनके चलते जीव वैज्ञानिकों के बीच वे काफी बदनाम भी हुए। जैसे, 2001 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) में एक व्याख्यान में उन्होंने त्वचा के रंग और यौनेच्छा का सम्बंध जोड़ा था और कहा था कि दुबले लोग ज़्यादा महत्त्वाकांक्षी होते हैं। इसी तरह 2007 में उन्होंने दावा किया था कि अश्वेत लोग श्वेत लोगों की तुलना में कम बुद्धिमान होते हैं। उन्होंने यहूदी विरोध (एंटी-सेमिटिज़्म) को भी जायज़ ठहराया था। इन विचारों के चलते उन्हें कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लेबोरेटरी के नेतृत्व की भूमिका से हटा दिया गया था। अंतत: 2020 में संस्था ने उनसे पूरी तरह नाता तोड़ लिया था।

विज्ञान जगत इस निहायत निपुण वैज्ञानिक और उसकी विवादास्पद सामाजिक विरासत को समझने की कोशिश करता रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

शौर्य गाथाःश्यामल देव गोस्वामी - जिसने मौत को दी, दो बार मात

 - हरी राम यादव

    दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने काम से ऐसा नाम कर जाते हैं, जो कि एक इतिहास बन जाता है और यह इतिहास आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का काम करता है। सैन्य इतिहास में बहुत- सी ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिन पर वर्तमान समय और परिस्थिति में यकीन करना मुश्किल होता है; क्योंकि युद्ध की परिस्थितियाँ  और उनका आधार बिल्कुल अलग होता है। एक ऐसे ही वीर योद्धा, जिन्होंने युद्ध क्षेत्र में ऐसा प्रदर्शन किया जिससे दुश्मन सेना भौंचक्की रह गई थी। साल था 1962 का और युद्ध का स्थान था चुशूल।

     19 अक्टूबर की रात में चीनी सेना ने फॉरवर्ड  पोस्टों पर अपने हमलों की शुरूआत की, यह छुटपुट रूप से 27 अक्टूबर तक चली। 27 अक्टूबर और 18 नवंबर के बीच लड़ाई में एक विराम था। इस अवधि का उपयोग दोनों देश की सेनाओं  ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए किया। सेकंड लेफ्टिनेंट श्यामल देव गोस्वामी की यूनिट 13वीं फील्ड रेजिमेंट को 114 ब्रिगेड के अंतर्गत  लद्दाख में चूशुल की रक्षा के लिए भेजा गया। जिस समय इनकी यूनिट को युद्ध में भेजा गया उस समय इनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था और यह  अस्पताल में भर्ती थे।  जब इनको पता चला की इनकी यूनिट को युद्ध में जाने का आदेश मिला है, तो यह  सैनिक अस्पताल से  व्यक्तिगत रूप से डिस्चार्ज लेकर अपनी यूनिट में पहुँचे । इन्हें  गुरुंग हिल पर ऑब्जर्वेशन पोस्ट अधिकारी के रूप में तैनात किया गया। वहाँ  पर इनकी जिम्मेदारी  1/8 गोरखा राइफल्स को कवरिंग फायर प्रदान करना था । 18 नवंबर को सुबह 5:30 बजे चीनी सेना ने गुरुंग हिल के साथ-साथ स्पांगुर गैप और मगर हिल में स्थित भारतीय चौकियों पर भारी बमबारी शुरू कर दी। 1/8 गोरखा राइफल्स की दो कंपनियाँ गुरुंग हिल के विशाल क्षेत्र की रक्षा कर रही थीं। सैनिकों ने पहाड़ी पर बंकर बना रखे थे और उनको कंटीले तारों और  एंटी-पर्सनल माइंस से सुरक्षित कर रखा था। 


हमारे सैनिकों को  ब्लैक हिल की दिशा से हमला होने की पूरी उम्मीद थी। चीनी सेना ने  सुबह 6:30 बजे गुरुंग पहाड़ी की उत्तरी कंपनी पर हमला किया। यहाँ चीनी सेना को आश्चर्य हुआ कि वह छोटे हथियारों की पहुँच से बाहर हैं, फिर भी उनके ऊपर गोलाबारी हो रही है। यह गोलाबारी 13वीं फील्ड रेजिमेंट की तोपों से की जा रही थी जिसका नेतृत्व कर रहे थे सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी। चीनी सैनिकों पर प्रभावी और भीषण फायरिंग के कारण चीनी सैनिकों का आगे बढ़ना रुक गया। सटीक फायरिंग के कारण चीनी सेना के बहुत से सैनिक मारे गए। दुश्मन सेना ने देखा कि पहाड़ी पर  स्थित ऑब्जर्वेशन पोस्ट एक बाधा का काम कर रही है, तब चीनी सेना ने  तोपखाने और मोर्टार से भीषण हमला बोल दिया। इस हमले में  सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी की टुकड़ी के चारों सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए  और सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी गंभीर रूप से घायल हो गए। घायल होने के बावजूद वह फायर आर्डर देते रहे और आर्डर देते देते वह बेहोश हो गए। जब चीनी सैनिकों ने देखा कि ऑब्जरवेशन पोस्ट से कोई प्रतिरोध नहीं हो रहा है, तो वह पहाड़ी के ऊपर आए और  उन्होंने यकीन  किया कि ऑब्जरवेशन पोस्ट के सभी सैनिक मारे गए हैं। उन्होंने सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी को उसे मृत समझकर वहीं छोड़ दिया।

एक दिन बाद जब  सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी होश में आए और किसी तरह अपनी  पोस्ट से नीचे बेस कैंप में पहुँचे,  तो उन्हें दो गोरखा सैनिकों ने देखा और चिकित्सा सहायता के लिए ले गए।  शुरुआत में उन्हें मृत घोषित कर दिया गया था; लेकिन उनके शरीर में अचानक हुई हलचल ने कुछ और ही संकेत दिया। उन्हें शीघ्र दिल्ली के सैन्य अस्पताल में भर्ती कराया गया । बर्फ में काफी समय तक पड़े  रहने के करण उनके दोनों पैरों और दाहिने हाथ पर गंभीर शीतदंश का प्रभाव हो गया था, जिसके कारण  उनके दोनों पैरों को घुटनों के नीचे से और दाहिने हाथ की अँगुलियों को काटना पड़ा। रोटेरियन क्लब ने अच्छे  इलाज के लिए उन्हें जर्मनी भेजा। बाद में सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी को पदोन्नत कर मेजर बनाया गया  और  चिकित्सीय आधार पर सेवानिवृत्त कर दिया गया । युद्धभूमि में प्रदर्शित वीरता के लिए उन्हें युद्धकाल के दूसरे सबसे बड़े सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। यह भारतीय तोपखाना  के पहले अधिकारी हैं जिन्हें यह वीरता सम्मान मिला है। मौत को मात देने वाले इस बहादुर यौद्धा का निधन जून 1992 में हो गया।

श्यामल देव गोस्वामी (दाएं से दूसरे)
 अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ।

सेकंड लेफ्टिनेंट श्यामल देव गोस्वामी का जन्म 06 नवंबर 1938 को मेरठ के एक बंगाली परिवार में प्रोफेसर प्रिया कुमार गोस्वामी और श्रीमती अमोला सान्याल गोस्वामी के यहाँ हुआ था। उन्होंने मेरठ के एक ईसाई मिशनरी स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की और उच्च शिक्षा के लिए  ग्वालियर के माधव इंजीनियरिंग कॉलेज में मैकेनिकल इंजीनियरिंग में एडमीशन लिया। इसी बीच उनका चयन राष्ट्रीय रक्षा अकादमी  के लिए हो गया। उन्होंने अपना सैन्य  प्रशिक्षण भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून से पूरा किया और 11 जून 1961 को भारतीय सेना की तोपखाना रेजिमेंट में सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशन मिला। सेकंड लेफ्टिनेंट गोस्वामी के माता पिता का निधन हो चुका है, इनके परिवार में इनकी तीन बहनें लेफ्टिनेंट कर्नल अशोका (सेवानिवृत्त), श्रीमती दीपाश्री मोहन, श्रीमती मधु और एक भाई जयंत गोस्वामी हैं जो कि एक बिजनेस मैन हैं और हांगकांग में रहते हैं।

सेकंड लेफ्टिनेंट श्यामल देव गोस्वामी एक बहादुर और उच्च हौसले वाले अधिकारी थे। उनकी वीरता और कर्तव्यपरायणता की याद में जिला सैनिक कल्याण कार्यालय मेरठ में  एक प्रतिमा लगाई गई है और मेरठ में इनके नाम पर एक पार्क का नामकरण किया गया है ।  

सम्पर्कः सूबेदार मेजर (आनरेरी), hariram1511@gmail.com, मो. 7087815074


श्रद्धा सुमनः पद्मश्री ऐड गुरु पीयूष पांडे - छोड़ गए सबकी जुबान पर अपनी लिखी पंक्तियाँ

 - सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'

भारतीय विज्ञापन जगत के दिग्गज ऐड गुरु या कहे विज्ञापन जगत के पितृपुरुष पीयूष पांडे के निधन का समाचार उस अटूट फेविकोल के जोड़ के टूटने का अहसास करा रहा है, जिसे उन्होंने अपनी रचनात्मक लेखन शैली से चार दशकों तक रचा और हम आम जनमानस की जुबान पर लाकर, स्मृति पटल पर सदैव के लिए सँजो दिया। पीयूष पांडे का इस जगत् से जाना केवल एक विज्ञापन हस्ती का जाना नहीं, बल्कि उस युग का अवसान है। वे वह शख्सियत थे, जिन्होंने पहली बार विज्ञापनों में भारत की मिट्टी की खुशबू, यहाँ की मिठास और आम आदमी की भावनाओं को मुखर किया। उन्होंने विज्ञापन के गोरे और फिरंगी चेहरे को बदलकर उसे ठेठ देसी और सच्चा बनाया। उनका एक साक्षात्कार में कहना था- विज्ञापन वही बोले जो भारत बोले और वे आजीवन इसी मनोविज्ञान के साथ आगे बढ़े। उनके विज्ञापन भारत दर्शन की झलक थे। 

पीयूष पांडे का जन्म 1955 में जयपुर में हुआ था। उनकी शिक्षा सेंट ज़ेवियर्स स्कूल, जयपुर से हुई और वे दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। विज्ञापन- जगत् में आने से पहले उन्होंने कुछ समय तक क्रिकेट खेला और चाय, चखने का काम भी किया। उन्होंने ऐड गुरु के रूप में अपने करियर का प्रारंभ 1982 में विज्ञापन कंपनी ओगिल्वी से किया। उन्होंने हिंदी में विज्ञापन लिखकर और आम आदमी के जीवन से जुड़ी कहानियों के इस्तेमाल से भारतीय विज्ञापन उद्योग को बदल दिया।

 उनके लिखे विज्ञापन पंक्तियों में राजस्थान के लोकगीतों की आत्मा, महाराष्ट्र के हास्य रस की भरमार, उत्तरभारत की सादगी और मध्यप्रदेश का हृदय तो पूरे देश की सुंदरता की इंद्रधनुषी आभा थी। वे सिर्फ उत्पाद नहीं बेचते थे; बल्कि मन मस्तिष्क में बस जाने वाली कहानी बेचते थे। वे सिर्फ टैगलाइन नहीं लिखते थे; अपितु राष्ट्रीय भावना का निर्माण करते थे।

उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उनकी रचनात्मकता सरकारी अभियानों से लेकर निजी ब्रांडों तक, हर जगह अपनी छाप छोड़ गई। चल मेरी लूना... ने एक घर-घर दो पहिया वाहन को पाना सपना बना दिया तो दो बूँद ज़िंदगी की... जैसे सिर्फ चार शब्दों ने देश को पोलियो के खिलाफ एकजुट कर दिया और यह स्लोगन राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान बन गया। वहीं, मिले सुर मेरा तुम्हारा...को उन्होंने एक विज्ञापन गीत से उठाकर राष्ट्रीय एकता का अप्रतिम प्रतीक बनवा दिया। ब्रैंडिंग की दुनिया में उन्होंने क्रांति ला दी थी। फेविकोल जैसे साधारण ग्लू को उन्होंने एक दार्शनिक ऊँचाई दी। आप और हम कभी नहीं भूल सकते, जब ट्रक पर बैठे लोग टूटी सड़क पर भी नहीं हिलते, तो विज्ञापन पंक्ति गूँजती है- फेविकोल का जोड़ है, टूटेगा नहीं... यह केवल चिपकने वाला पदार्थ नहीं, बल्कि रिश्तों, विश्वास और दृढ़ता का प्रतीक बन गया।

उन्होंने चॉकलेट मतलब कैडबरी को बनवा दिया। उन्होंने चॉकलेट के लिए लिखा- कुछ खास है जिंदगी में! यह टैगलाइन चॉकलेट की मिठास से आगे बढ़कर हर छोटे जश्न, हर अप्रत्याशित खुशी का गीत बन गई। क्रिकेट के मैदान पर पुरुष-प्रधान दर्शक दीर्घा में एक महिला का छक्का लगने पर खुशी से थिरकना, भारतीय समाज की बदलती तस्वीर को दिखाने वाला एक मास्टरस्ट्रोक था।

सिर्फ वाणिज्यिक जगत् ही नहीं, उन्होंने देश की राजनीतिक चेतना को भी प्रभावित किया। 2014 के चुनावी समर में उनकी लिखी टैगलाइन- ‘अबकी बार मोदी सरकार’ एक राष्ट्रीय नारा बन गई, जो सिर्फ 50 दिनों में गढ़ी गई थी।

पीयूष पांडे ने कभी खुद को क्रिकेट के मैदान से दूर नहीं किया। वे रणजी ट्रॉफी में राजस्थान का प्रतिनिधित्व कर चुके थे। शायद यही कारण था कि उनके विज्ञापनों में एक खिलाड़ी का सा जुनून, सहजता और जीत की भावना हमेशा मौजूद रहते थे। हमारा बजाज... की टैगलाइन मध्यवर्गीय परिवार की पहचान और उनकी महत्त्वाकांक्षाओं का प्रतिबिंब थी। उनके कुछ यादगार विज्ञापन कैंपेन में एशियन पेंट्स हर खुशी में रंग लाए और हच के पग वाले विज्ञापन भी शामिल हैं।

उनके इतनी विशिष्ट सोच के चलते ही उन्हें पद्मश्री (2016) और एल आई ए लीजेंड अवॉर्ड (2024) से सम्मानित किया गया था। पीयूष पांडे बहुत दूरदर्शी थे, जिन्होंने हमें सिखाया कि विज्ञापन का मतलब सिर्फ बिक्री नहीं, बल्कि लोगों के दिलों तक पहुँचना है। आज जब हम उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं, तो उनकी बनाई हर टैगलाइन एक बार फिर हमारे कानों में गूँज रही है। वह गए नहीं हैं, वह फेविकोल का जोड़ है... की तरह हर भारतीय के दिल में हमेशा के लिए बस गए हैं। 

उनका 70 वर्ष की आयु में हमारे बीच से जाना, विज्ञापन- जगत से अनुभव के मौन होने जैसा है। भारतीय विज्ञापन जगत का यह सूर्य अस्त हुआ है; लेकिन उनकी रचनात्मकता की रोशनी सदियों तक राह दिखाती रहेगी।

विनम्र श्रद्धासुमन अर्पित।

कविताः टूट रही है डोर

 - कृष्णा वर्मा

कई बार बाँधने का प्रयास किया

मन के आवारा पैरों को

लेकिन दिल है कि टिकने ही नहीं देता

सतत भटकाता है दिशा-दिशा

मासूम मन बड़ी ताबेदारी से सिर झुकाकर

मान लेता है उसकी बात

दिमाग परेशान रहता है सोच-सोचकर

क्यों मचा है हर ओर पैसे-पैसे का शोर

रिश्ते-नातों रस्मों-रिवाज़ों की

क्यों टूट रही है डोर

संबंधों को नाम तो दे देते हैं

पर निभाने की रस्म क्यों हो गई है ग़ायब

प्रेम प्यार नफ़रत की दुनिया में

नफ़रत हो गई है ठेकेदार और

दूरियाँ हो गई हैं वफ़ादार

प्यार जताते हैं पर दूरियाँ मिटाने से

करते हैं परहेज़  

मिट्टी कि दुनिया में जब

सबका अंत है मिट्टी

तो फिर क्यों औकात की

नुमाइश करने से बाज़ नहीं आते लोग।  

जीवन- दर्शनः न दु:ख शाश्वत है, न सुख, दुःख जाएगा, तभी आएगा सुख

 - डॉ. महेश परिमल

यह सच है कि दुःख बहुत सताता है, पर सच मानो, जीने का सच्चा अर्थ समझाता भी यही है। हम लगातार न तो अंधेरे में रह सकते हैं और न ही उजाले में। जीवन का यह सत्य तो दूसरी जगह पर भी लागू होता है। सुख है, तो दुःख भी आएगा और दुःख है, तो सुख भी आएगा ही। दुःख की घड़ियाँ इंतजार की तरह होती है, काफी लम्बी लगती हैं, पर सुख के पल यानी सुबह की नींद। एक पल में एक घंटा बीत जाता है।  मानव जीवन में सदैव सुख की खोज में ही लगा रहता है। दुःख को वह अपने करीब लाना ही नहीं चाहता। लोग आशीर्वाद स्वरूप सुखी होने की ही कामना करते हैं। सुखी जीवन की तलाश पूरे समय चलती रहती है, उसके बाद भी सुख की प्रतिछाया भी दिखाई नहीं देती। मानव का दुःख से बचना यही दर्शाता है कि वह चुनौतियों को स्वीकार नहीं करना चाहता। चुनौतियों से पलायन एक ऐसी मानसिक दशा है, जिसका कोई सार नहीं है। विपत्तियाँ इंसान को तराशने का काम करती हैं, यह हमें नहीं भूलना चाहिए।

जीवन में सुख और दुःख का आपस में गहरा संबंध है। अधिकांश लोग जीवन में सुख चाहते हैं और दुख से बचना चाहते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि सुख और दुख दोनों ही जीवन के अभिन्न अंग हैं। दुःख के बिना सुख का मूल्य नहीं समझा जा सकता और सुख के बिना दुख असह्य हो जाता है। ये दोनों अनुभव हमें जीवन में सीख देते हैं और हमें मजबूत बनाते हैं। यही इनकी विशेषता है और यही हमें जीवन की गहराई को समझने में मदद करता है। जबकि आत्मिक सत्य की प्राप्ति हमें शाश्वत आनंद का मार्ग दिखाती है। आत्मा से आत्मिक सत्य की प्राप्ति का अर्थ है सुख- दुःख के द्वंद्व से परे ऐसी आंतरिक अवस्था पाना, जहाँ शाश्वत शांति और आनंद का अनुभव हो। यह आनंद बाहरी कारणों पर नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता, तत्व की शुद्धता और आत्मिक स्थिरता पर आधारित होता है।

सुख और दुःख भी आंतरिक द्वंद्व हैं – ये मानव जीवन के दो मूलभूत अनुभव हैं, जैसे सिक्के के दो पहलू। हमारे आत्मिक सत्य की गहराई को समझने और जानने के लिए सुख-दुख के अनुभवों को समझना आवश्यक है; क्योंकि ये तीनों आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। जीवन में सुख वह अवस्था है जिसमें मन संतोष, आनंद और शांति का अनुभव करता है। यह किसी भौतिक वस्तु की प्राप्ति, इच्छा की पूर्ति या किसी सकारात्मक घटना के कारण उत्पन्न होता है। लेकिन ऐसा सुख प्रायः क्षणिक होता है; क्योंकि यह बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसी प्रकार दुख वह अवस्था है जिसमें मन पीड़ा, शोक, असंतोष या निराशा का अनुभव करता है। यह किसी वस्तु के खो जाने, इच्छा अधूरी रह जाने या किसी नकारात्मक घटना के कारण उत्पन्न होता है। दुःख भी सुख की तरह क्षणिक होता है और बाहरी कारणों पर आधारित होता है।

देखा जाए, तो सुख- दुःख दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। तेज चिलचिलाती धूप के बाद किसी ठंडे स्थान पर आने के बाद ही हमें पता चलता है कि गर्मी के बाद मिली ठंडक कितना सुकून देती है। इसी तरह सघन अंधेरी लम्बी रात गुजारने के बाद जब सुबह की आहत होती है, तो बेचैन मन को कितनी तसल्ली मिलती है, यह भुक्तभोगी ही जान सकता है। हानि की गहन निराशा के बीच लाभ की एक छोटी-सी किरण भी किसी निष्प्राण व्यक्ति के भीतर प्राणों का संचार कर सकती है, इसे भला कौन समझ सकता है। लम्बे समय तक दुःख सहने के बाद प्राप्त होने वाले सुख का आनंद ही कुछ और है।

इसलिए दुःख है, तो यह न समझें कि सुख आएगा ही नहीं। यदि सुखमय जीवन जी रहे हैं, तो दु:खमय जीवन की भी कल्पना कर लेना चाहिए। क्योंकि यह जीवन के दो पहलू हैं। एक के बाद एक का आना लगा ही रहता है। मानव का स्वभाव ही आनंदस्वरूप, सत्यस्वरूप और परमात्मस्वरूप है। इस प्रकार आनंद और आत्मिक सत्य मानव के आंतरिक स्वभाव और उसकी पहचान से जुड़ा हुआ है। आत्मिक सत्य शाश्वत आनंद का शाश्वत मार्ग है। जब इसे भीतर से जाना और अनुभव किया जाता है, तभी जीवन सत्य धर्म और शुद्ध धर्म का अनुसरण करता है, जहाँ आत्मा का हर्षोल्लास शाश्वत रूप से बना रहता है।

आत्मिक सत्य को पहचानने का अर्थ है अपनी सच्ची पहचान को अपने भीतर आत्मसात कर लेना। हमारा शरीर, मन या भावनाएँ नहीं हैं, बल्कि एक शाश्वत, अपरिवर्तनशील आत्मा हैं। और आत्मा परमात्मा का ही अंश है,जो पूरी तरह से आनंदस्वरूप है। सत् का अर्थ ही है अस्तित्व और चित् का अर्थ है चेतना। आनंद का अर्थ है आत्मा का हर्षोल्लास। यही है आत्मिक सत्य की अनुभूति- सत्- चित्-आनंद। ये सब हमें प्राप्त हो सकता है आंतरिक साधना से। इसके लिए बाहरी साधना की कतई आवश्यकता नहीं होती।

मानव लगातार न सुखी रह सकता है, न ही दुःखी । जितना दुःखी प्राणी होगा, उतना ही सुख का भागी भी होगा। पर दुःख उसे इतना अधिक निराश कर देता है कि वह सुख की कल्पना ही नहीं कर पाता। इसी तरह जब वह सुखी होता है, तो जरा-भी नहीं सोचता कि इसके बाद दुखों का दौर भी आना है। वह सुख को स्थायी समझता है, जो अनुचित है। दोनों ही स्थितियों को सहजता से स्वीकार करना ही जीवन का मूल उद्देश्य है। भटकाव तब आता है, जब हम केवल सुख की ही कल्पना करते हैं। आखिर में केवल एक बात...क्या आप लगातार अँधेरे में रह सकते हैं या फिर क्या आप लगातार रोशनी के बीच रह सकते हैं। अँधेरे के बाद रोशनी की आवश्यकता पड़ेगी ही और रोशनी के बाद अँधेरे की आवश्यकता पड़ेगी। जब जीवन में दोनों का होना ही आवश्यक है, तो फिर केवल सुख की कल्पना करना कहाँ तक उचित है? एक बात तय है कि दुःख बहुत सताता है, पर जीने का सच्चा अर्थ यही समझाता भी है।

सम्पर्कः T3-204 Sagar Lake View, Vrindavan Nagar, Ayodhya By pass, BHOPAL- 462022, Mo. 09977276257


आलेखः देश का आभूषण है संस्कृति

- शीला मिश्रा

    हम जिस देश में रहते हैं उसकी सबसे छोटी व सशक्त इकाई है परिवार। इस इकाई में रचे- बसे-पुष्पित-पल्लवित संस्कार ही समाज की संरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और जिस देश का सामाजिक ढाँचा मजबूत होता है वह देश स्वयमेव मजबूत व सशक्त हो जाता है। मार्क ट्वेन ने कहा था कि "भारत केवल जमीन का एक टुकड़ा नहीं है ; अपितु यह वह देश है जहाँ सभ्यता व परंपरा सबसे पहले जन्मी और पनपीं । यही वह देश है जिसने पूरे विश्व को सभ्यता व संस्कृति का पाठ पढ़ाया।" यह कैसी विडंबना है कि पूरे विश्व को सभ्यता व संस्कृति की सीख देने वाले हम अपने देश में इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि हमारे बच्चे संस्कारविहीन क्यों होते जा रहे हैं?

   आज समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में जिस तरह से नैतिक और सामाजिक मूल्यों का विघटन हो रहा है वह निश्चित ही चिंता का विषय है। चूँकि बच्चे की प्रथम शिक्षक माँ होती है तो यह उसका दायित्व है कि वह बच्चे को संस्कारित करें किंतु दुख इस बात का है कि बच्चा आया या नौकर के भरोसे पल रहा है और मोबाइल या टीवी में कार्टून देखते हुए भोजन ग्रहण कर रहा है। बचपन से ही बच्चे को माँ अपना समय नहीं दे पा रही है तो वह नैतिक और सामाजिक मूल्यों को किस प्रकार सीखेगा? यह नैतिक मूल्य कोई रटंत विद्या नहीं है यह मूल्य तो अपने व्यवहार के द्वारा बच्चों के मन में रोपित किए जाते हैं। जब बच्चा यह देखता है कि माँ सुबह उठकर अपने घर के बुजुर्गों के चरण स्पर्श करती है< फिर स्नान करके स्वच्छता से भोजन तैयार करती है, ईश्वर की आराधना करती है और बड़े-बुजुर्गों को आग्रहपूर्वक खाना खिलाती है तो उसके मन में बड़ों के प्रति सम्मान की भावना जागृत होती है और इस तरह के संस्कार उसके मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं। जब कोई मेहमान घर पर आता है तो वह देखता है कि किस प्रकार से उनका अभिवादन किया जाता है, स्वागत सत्कार किया जाता है, सामर्थ्य के अनुसार जलपान कराया जाता है तो वह बड़ों का मान करना सीखता है, मिल - बाँटकर खाना सीखता है।

   जब त्योहार में बच्चा अपने दादा-दादी के घर जाता है तो वह देखता है कि कैसे पूरा परिवार एक साथ मिलकर त्योहार की तैयारी करते हैं, घर-द्वार सजाते हैं, ईश्वर की आराधना करते हैं, तरह-तरह के पकवान व मिष्ठान्न बनाते हैं और खिलाते हैं, निर्धनों को भोजन व वस्त्र देकर उनको भी खुश रखते हैं। इस प्रकार वह न केवल हमारी संस्कृति से परिचित होता है अपितु सामाजिक समरसता को सीखता है, समर्पण का महत्त्व समझता है, कला व संगीत को सीखता है, धर्म को जानता है और आपसी स्नेह, सहयोग व प्रेम की संवेदना से पूरित होता है।

   आँगन में माँ के साथ  बैठकर जब बच्चा कलरव कर रहे पक्षियों को देखता है, थोड़े से पानी में पक्षियों के एक समूह को मिलकर चोंच डुबोकर पानी पीते हुए देखता है, कबूतर को दाना चुगते और आकाश में उड़ते पक्षियों को देखता है, पेड़-पौधों को पानी देता है तब वह वास्तव में प्रकृति के नजदीक जाकर उसे देखता है, समझता है तथा उससे प्रेम करना सीखता है लेकिन यह तभी संभव है कि जब एक बालक के माता-पिता या घर के बुजुर्ग कुछ समय उसके साथ व्यतीत करें।

   वर्तमान समय में  बच्चा भौतिकतापूर्ण जीवन शैली के प्रति आकर्षित हो रहा है। इसके पीछे मूल कारण यही है कि अपनी भागम-  भाग वाली जीवन शैली में मगन माता -पिता उसे टी वी के समक्ष बिठाकर अपने कार्य में गुणवत्ता तो ले आते हैं; परन्तु वह अबोध बच्चा टी. वी. में दिखाए जा रहे जीवन को ही वास्तविक दुनिया मानकर उसके प्रति आकर्षित होने लगता है। वह टी वी के विज्ञापनों को देखकर महँगे सामानों की फरमाइश करता है, जिन्हें  पाकर अपने कमरे में कैद हो जाता है। छुट्टियों में दादा-दादी के घर जाने के बजाय मनोरंजनक टूर पर जाना पसंद करता है। इसीलिए अपने दादा-दादी, नाना नानी, चचेरे भाई बहनों व माता-पिता से उसकी संवादहीनता बढ़ती चली जाती है और रिश्तों में एक तरह की शुष्कता आती जा रही है। जहाँ पहले हमारे आपसी संबंधों में प्रेम व स्नेह का सोता कल-कल कर बहता रहता था, आज वह सोता सूखता जा रहा है, अध्यात्म का भाव लुप्त होता जा रहा है, बड़ों के प्रति सम्मान की भावना कम होती जा रही है और यह बातें इस बात की ओर संकेत करती हैं कि कैसे पश्चिमी सभ्यता हमारी नौनिहालों को अपनी तरफ आकर्षित कर रही है। समय से सचेत हो जाना ही इस समस्या का समाधान है। दंपति कितने ही व्यस्त क्यों न हों, माह में एक बार किसी नजदीकी गाँव में बच्चे के साथ जाकर उसे प्राकृतिक जीवन के बारे में बताएँ। प्रकृति का महत्त्व बतलाएँ। ग्रामीण जीवन में सहयोग व समर्पण की भावना ही उन्हें जोड़कर रखती है। यह छोटी -छोटी बातें बालमन को बड़ी सीख दे जाती हैं; इसलिए माता -पिता का दायित्व है कि वे आर्थिक संपन्नता की और आकर्षित न होकर बच्चों को नैतिक मूल्यों से संपन्न बनाएँ , तभी हम सांस्कृतिक मूल्यों से समृद्ध परिवार, समाज व राष्ट्र की स्थापना कर पाएँगें।

सम्पर्क: बी-4, सेक्टर -2, रॉयल रेसीडेंसी, शाहपुरा थाने के पास, बावड़ियाँ कलां, भोपाल- 462039, मो. 9977655565

यादेंः रेलवे स्टेशन

 - प्रशान्त

जब मैं अपने यादों के पन्नों को पलटता हूँ तो पाता हूँ, वो बरवीं के दिन और पाता हूँ यादों से पटा रेलवे स्टेशन। वो रेलवे स्टेशन जिस पर मैं रोज जाता था अकेले नहीं; बल्कि अपने एक दोस्त के साथ। ऐसा स्टेशन जिसने मैं रोज जाता था पर कहीं नहीं जाता था। जब दिन भर की भागा – दौड़ के बाद आठ बजे क्लास खत्म होती, तो मानो वो स्टेशन हमें अपनी ओर खींचता और हम उसके जादू के कारण उसकी ओर चल देते। कभी ऐसे ही चल देते तो कभी स्टेशन के सामने वाले भइया की दुकान से लाई-चना ले कर चल देते। लाई-चना खाना उद्देश्य नहीं होता; क्योंकि हम ज्यादातर बिना लाई-चना के ही घुस जाते। मेरे और मेरे मित्र के बीच में अनगिनत बातें, छोटी-से-छोटी फालतू बात से बड़े-से-बड़े वैश्विक मुद्दों पर बातें। जैसे क्या हुआ अमेरिका के चुनाव में, क्या हुआ रूस-यूक्रेन वार में और क्या हुआ एक फालतू से सोशल मीडिया के पोस्ट में। 

उस समय मेरे पास फोन नहीं था, था भी तो टूटी स्क्रीन का की-पैड, जो ज्यादातर मैं अपने कमरे पर रखे रहता था। हालाँकि की मेरे मित्र के पास टच स्क्रीन फोन था, जो कभी-कभी ले आता था। मेरे साथ प्रयागराज (इलाहाबाद) में मेरे बड़े भइया भी रहते थे, उनकी छबी काफी हद तक प्रेमचंद जी के बड़े भाई साहब से मिलती थी। अगर मैं देर कमरे में पहुँचा, तो प्रायः यही बहाना बना देता की क्लास देर तक चली, जबकि असली कारण वह स्टेशन था। जब कभी क्लास जल्दी छूट जाती, तो लाई-चना लेना निश्चित रहता था और स्टेशन में बैठना भी। उस स्टेशन से इतना लगाव था या फिर इतनी बातें की हम ट्रेन के इंजन से आगे उस छोर निकलते ताकि कुछ और समय मिल सके। दिन भर की बातें जैसे क्लास की चुगली, अध्यापक की बुराइयाँ और अनेकों डायरेक्टर की गलतियाँ। अपने-अपने स्कूल की बातें, अपने गाँव की बातें, ऐसी-ऐसी बातें जो कभी खत्म नहीं हुई।

 कभी-कभी इतवार को हमारी कोचिंग की क्लासेस सुबह हो जाया करती, तो स्टेशन के सामने एक शहर की प्रसिद्ध चाय की दुकान पर, क्लास खत्म होने पर, चाय या फिर कभी समोसे खाते-खाते अनगिनत बातें। हमारी बातों में बातों में दिलचस्प बात यह आई की मेरे मित्र को एक कन्या पसंद आ गई, वे दोनों कभी-कभी सोशल मीडिया पर बात भी कर लिया करते थे, तो वे मुझे अपने अफ़साने सुनाता, जो काफी ज्यादा तरंगमय होते उसके लिए, हाँ मेरे लिए भी होते पर उतने नहीं; क्योंकि मैं उसकी बातों अपने से नहीं जोड़ पाता था। इसका कारण यह भी था की अभी तक मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं था। 

कभी बात चलती की ये वन्दे भारत हमारे स्टेशन पर क्यों नहीं रुकती और ये पसेन्जर प्रत्येक स्टेशन पर क्यूँ रुकती है। वहाँ से दर्जनों गाड़ियाँ गुजरती कुछ रुकती, तो कुछ अपनी अकड़ दिखती निकाल जाती, पर हम कहीं नहीं जाते। ऐसा प्रतीत होता की प्रत्येक गाड़ी इस समय की यादों को भरे ले जा रही है, जो कभी लौटकर फिर मिलेगी। रेलवे के लगे पंखे पर रोज तंज कसा जाता और साथ ही साथ रेलवे पर भी। वह पंखा भी बड़ी ढींठ प्रवत्ति का था, कभी नहीं सुधरा, या फिर वो भी चाहता रहा होगा कि मुझ पर रोज टिप्पणी की जाए कि – “इतना धीरे चलता है कि हमें क्या हवा देगा, खुद नहीं ले पाता है|” 

समय के बारे में उतनी समझ नहीं थी पर हाँ इतना पता था की समय बदलता है और समय सच में बदल गया, गिरगिट की तरह तो नहीं बदला पर बदल गया। बारहवीं की परीक्षा पास आने लगी तो कोचिंग का आखरी दिन भी उनके साथ आ गया। मुझे इतना याद है की उस दिन की क्लास सुबह थी, जिसके कारण मेरे पास अधिक समय था स्टेशन पर रुकने के लिए अधिक देर उस पंखे पर टिप्पणी करने के लिए। उस दिन भी दर्जनों ट्रेन गुजरी होंगी पता नहीं। फिर कुछ समय बाद एक ट्रेन आई, वह भी चली गई पिछली ट्रेनों की तरह मगर इस बार हम वहीं नहीं खड़े थे। मैं अपने दोस्त को, उस स्टेशन को छोड़कर किसी दूसरे स्टेशन की तलाश में उस ट्रेन पर चढ़ गया था। वो ट्रेनें मुझे दूसरे शहर में कभी-कभी मिल जाती हैं पर ज्यादातर रेल लाइन के बाहर मेरे कमरे पर ही मिलती हैं। मैं अब जब भी कभी इलाहाबाद जाता हूँ, तो यह कोशिश हमेशा रहती है की उस दोस्त से मिलूँ या फिर यों कहे कि उस स्टेशन की हवा से मिलूँ जो जीवन के एक अंश की यादों को अपने में घोले हैं।

सम्पर्कः पटना, बिहार , मो. 7321065687






कविताः एक प्रतिशत

  - डॉ. शैलजा सक्सेना

हर नया दिन लेकर आता है 

एक चुनौती!


ललकारता है सुबह का सूरज…

कि दिन की सड़क पर 

आज कितने कदम चलोगे 

अपने सपने की दिशा में?

सच बात तो यह है

कि 90% दिन तो मुँह, पेट और 

हाथों के नाम ही हो जाता है,

दिमाग और सपनों का नम्बर कब आता है?


बचे 10% में से 8% 

जाता है घर और परिवार के नाम,

बचे दो प्रतिशत में से एक प्रतिशत

मैं अपनी थकावट को सहलाते,

शरीर और मन के दर्द की गुफ़ाओं में घूमते

निकाल देती हूँ

तब बचे 1 प्रतिशत को दे पाती हूँ

अपने सपनों को….!


रात गए,

समय के साहूकार को 

उस दिन की उपलब्धि बताती हूँ;

चाँद के बिस्तर पर

तारों का बिछौना ओढ़,

इसी में संतुष्टि का उत्सव मनाती हूँ

कि मैं एक प्रतिशत ही सही, 

अपने सपनों की तरफ़ तो आती हूँ,

मैं एक प्रतिशत ही सही,

रोज़ अपने सपनों की तरफ़ तो आती हूँ!!

सम्प्रतिः Co- Founding Director- Hindi  Writers Guild, Canada.


पंजाबी कहानीः सुर्ख शालू

 - बलदेव सिंह ग्रेवाल, अनुवाद : सुभाष नीरव

बात बहुत पुरानी है। तब की शायद जब बाबा आदम ने वर्जित फल चख लिया था। और वह बात आज तक चली आ रही है।

इस बार भारत आया था तो यह बात, मेरे साथ ही एक हसरत बनकर आ गई थी।

... तब मैं पागलों की तरह शोर मचाता खेत में इधर-उधर भागता फिर रहा था। हाथ में पकड़ा कनस्तर डंडे से पीटे जा रहा था। आस पास के सभी खेतों में लोग मेरी तरह ही हो-हल्ला मचाते घूम रहे थे। टिड्डियाँ ही टिड्डियाँ चारों तरफ… पिछली सदी के पचासवें दशक में टिड्डियाँ… कुछ सालों बाद टिड्‌डी दल अक्सर ही हमला बोलता था। पूरा आसमान टिड्डियों से भरा हुआ। लगता था, काली आँधी आई हो। मैं शोर मचाता कतस्तर पीटता मक्की की फसल में से टिड्डियों को उड़ा रहा था। वे जहाँ कहीं भी बैठ जातीं, फसल चट कर जाती थीं। मक्की की फसल अभी बालिश्त भर ही हुई थी। मैं अकेला ही करीब छह कनाल के खेत में टिड्डियों को नीचे उतरने से रोक रहा था। तब पंजाब में चकबंदी नहीं हुई थी। कोई खेत कहीं था और कोई कहीं। सारा परिवार अलग-अलग खेतों में टिड्डी उड़ाने गया हुआ था। इस पश्चिम दिशा वाले खेत में मुझे भेजा गया था।

पूरा प्रयास रहता था कि टिड्डियों को एक जगह बैठने न दिया जाए, पर वे तो असंख्य होती थीं। उनको अपनी मरजी करने से रोकना असंभव-सा ही लगता था। मैं तब नौंवी कक्षा में पढ़ता था। मुझे मेरे माता पिता ने जैसे कहा था, हुक्म बजा रहा था। दौड़ दौड़कर खेत के कोने-कोने में जाता और अपनी फसल को बचाने की जी- तोड़ कोशिश करता। 

अचानक कानों में किसी की चीखें सुनाई दीं। मैंने देखा साथ वाले खेत में एक लड़की डर के मारे चीख रही थी। हाथ में पकड़ा हुआ उसका टीन भी नीचे गिर गया था। उसकी दर्दनाक चीख सुनकर मैं उस तरफ दौड़ा। लड़की के पूरे शरीर पर टिड्डियाँ बैठी हुई थी और वह नीचे गिरी पड़ी थी। मैंने अपना साफा मार-मार कर टिड्डियाँ हटा दीं। फिर भी कोई न कोई टिड्डी जब उसके शरीर को छू जाती तो वह सहम जाती। चीखने लगती। 

उस घड़ी पता नहीं क्यों, मेरे लिए फ़सल को नहीं, लड़की को बचाना जरूरी हो गया था। वह हमारे गाँव की लड़की थी - सीतो। मेरे से एक जमात पीछे पढ़ती थी। टिड्डियों से डरती वह मेरी ओर यूँ देख रही थी, मानो मैं कोई परोपकारी होऊँ।... चारों तरफ टिड्डी दल आँधी की भाँति साँय-साँय कर रहा था। वह टिड्डी को अपने करीब आते देख घबरा उठती थी। उस पल मेरा धर्म बन गया था कि एक भी टिड्डी सीतों के शरीर को न छूने पाए। पर मेरा वश नहीं चल रहा था। तभी मैंने उसको अपनी बाहों में उठा लिया। वह भयभीत- सी मेरी बाहों में सिमट गई।

मैं उसको लेकर साथ वाले ईंख के खेत में घुस गया। ऊँची खड़ी ईंख में टिड्डी दल का नीचे धरती तक पहुँचना कठिन था। हम दोनों नीचे सिमटकर बैठ गए। काफी देर बैठे रहे। टिड्डी दल हमारे सिर के ऊपर से गुज़रता रहा, कई घंटों तक। हम आपस में कुछ नहीं बोल रहे थे, सटकर बैठे थे। शरीरों का स्पर्श था, एक-दूजे को निहारना था।

उस घड़ी टिड्डी दल हमारे सिरों पर शामियाना बन गया और हमारे इर्द-गिर्द खड़ी ऊँची ईंख - कनातें। ठीक इन्हीं पलों में वही बात हो गई, जो बाबा आदम के वर्जित फल खाने के वक्त हुई थी। 

अँधेरा होने पर हम अपने अपने घर लौट गए। टिड्डी दल जा चुका था। कुछ दिनों बाद गाँव में शोर मचा कि टिड्डियों ने गाँव के चौए (नमी वाला क्षेत्र) में अंडे दिए हैं। उन अंडों के टिड्डी बनने से पहले-पहले धरती में से खोदकर निकालने का सरकारी हुक्म आ गया था। स्कूल के बच्चों को भी इन अंडों को निकालने के लिए जाना पड़ा। हमें अंडों के वजन के हिसाब से पैसे दिए जाने थे। हम अपने झोले उठाए खुरपियों से खोद कर अंडे निकालने चले गए। वे अंडे परस्पर जुड़े हुए उँगली जैसे प्रतीत होते थे। शाम तक मैंने अपना झोला अंडों से लगभग भर लिया। पैसों का लालच जो था! मैंने देखा, मिस्त्रियों की सीतो अंडे खोदती-खोदती मेरे पास आ गई थी। वह थोड़ा मायूस लगती थी। उसे ज्यादा अंडे नहीं मिले थे। उसका झोला मुश्किल से अभी आधा ही भरा था। जब लौटने का समय हुआ, मैंने अपने झोले में से बहुत सारे अंडे उसके झोले में डाल दिए। उस पल सीतो ने अहसान और खुशी के मिले-जुले भाव के साथ मेरी तरफ देखा था। 

और फिर हमारे बीच एक मूक दास्तान चल पड़ी थी।

जब कभी राह में, गली में हमारी नजरें मिलतीं, महीन मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता। वह देखती और नजरें झुका लेती… दिल के अंदर तरंगें उठने लगतीं।

…कभी दीवाली पर गुरद्वारे में दिये जलाते हुए उसका चेहरा रोशनी में दिपदिपाता नज़र आ जाता। कभी राह में सिर पर बापू के लिए रोटी उठाए जाती हुई मिल जाती। आँखें मिलतीं तो उसका रंग सिंदूरी हो जाता। कभी दिन-त्योहार पर हमारे बोल भी साझे हो जाते, बस।

उन दिनों गाँवों में ऐसे रिश्ते वर्जित ही होते थे। कभी जी भरकर मुलाकात हुई ही नहीं। टिड्डी दल रोज-रोज कब आते हैं। वो तो कभी- कभार बरसों बाद ही आते हैं।

मैं अभी कालेज में पढ़ता था, जब उसका विवाह हो गया। हम बारात के लिए चाँदनियाँ लगा रहे थे। वह शादीवाला सुर्ख शालू ओढ़े जब मेरे पास से गुजरी, तो उसने मेरी तरफ देखा। आँखें मानो आँसुओं को छिपा रही हों… अधरों पर हया का ताला।

उस पल एक टीस-सी मेरे अंदर उभरी। और वह ससुराल चली गई। फिर कभी नहीं मिली।

मैं पढ़ाई पूरी करके नौकरी पर लग गया। शादी हो गई। बच्चों वाला परिवार हो गया। हर खुशी नसीब हुई। मेरी पत्नी ने मेरा जीवन स्वर्ग बना दिया। जिन्दगी से कभी कोई शिकवा नहीं हुआ। दौलत का भी कभी अभाव नहीं रहा। जीवन में हर वांछित सुख प्राप्त हुआ। शहर में ही कोठी बना ली। माँ-बाप के परलोक सिधारने के बाद गाँव से रिश्ता ही टूट गया। बेटे अमरीका पढ़ने चले गए, वहीं सैट हो गए। मैं रिटायर हुआ, तो बेटों ने हमको अमरीका बुला लिया। इतने वर्षों के सफ़र में सब कुछ होते हुए भी सीतो हमेशा मेरे ज़हन में मौजूद रही। उसका वो निहारना, उसकी वह मुस्कान सदैव पीछा करती रही। किसी शिकवे की तरह नहीं, एक सुखद अहसास की तरह…।

जिन्दगी में उसकी एक झलक पाने की कामना हमेशा दिल में रेंगती रही है।

पिछले साल जीवन-संगिनी का साथ छूट गया। वह दिल के दौरे से चल बसी। एक झटके से बहार ख़िजाँ में बदल गई। बेटों, पोते-पोतियों के होते हुए भी अकेला हो गया। पत्नी के साथ बिताया एक-एक पल याद आता, दुखी हो जाता। इस दुख में भी सीतो का चेहरा उभरकर सामने आ जाता - टिड्डियों से डरी-सहमी… मेरे साथ सिमटकर बैठी सीतो… करीब से सुर्ख शालू ओढ़े गुजरती सीतो, होंठों पर हलकी मुस्कान… और आँसुओं को छिपाती पलकें।

मैंने इंडिया का एक चक्कर लगाने का मन बना लिया। बेटे भी सोचते कि शायद इससे मेरा दिल बहल जाएगा। मेरे दिल में सीतो को एक झलक देखने की कामना जवान हो गई थी। यह हसरत मेरे साथ ही इंडिया आ गई।

मुझे याद था, वह मेरी बुआ के गाँव में ही ब्याही थी। बुआ तो गुज़र गई थी, मैं उसके पुत्र को मिलने के बहाने उस गाँव में गया। बातों बातों में मैंने उससे पूछ लिया, “हमारे गाँव के मिस्त्रियों की लड़की तुम्हारे गाँव में ब्याही थी।”

उसके जवाब ने सीतो के सुर्ख शालू को सफ़ेद कफ़न में बदल दिया। उसने बताया, “वह तो कई साल पहले चल बसी थी”

मेरी आह निकल गई…

“वह तड़के जंगल-पानी को ईंख के खेत में गई थी। वहाँ मधुमक्खी का छत्ता लगा हुआ था। मधुमक्खियाँ उसके पीछे लग गई। वे उसके पूरे शरीर से चिपट गईं, उसका पूरा बदन ढक लिया। वह चीखती रही, चिल्लाती रही। गाँव की ओर भागी, पर मधुमक्खियों से डरता कोई उसके नजदीक न हुआ। बहुत देर बाद एक बंदा धुआँ करता उसके करीब गया और जब उसे हस्पताल ले जाया जा रहा था, वह राह में ही…।”

मैं अंदर ही अंदर तीखे दर्द से कराह उठा। सीतो का अफसोस करने लगा। बुआ का पुत्र बता रहा था, “जब मधुमक्खियों ने उसको घेर रखा था, वह किसी बब्बी का नाम ले लेकर पुकार रही थी।”

मैं उस पल बुआ के पुत्र के पास बैठा होने के बावजूद मानो उसके पास नहीं बैठा था… मैं तो खेतों में टिड्डियाँ उड़ाने जा लगा था।

बचपन में मुझे ही ‘बब्बी’ कहकर बुलाया जाता था।


लघुकथाः पेट दर्द

   - प्रभुदयाल श्रीवास्तव 

   दो मरीज अस्पताल में एक साथ दाखिल हुए। डाक्टर हड़बड़ाया हुआ पहले मरीज को देखकर कमरे से बाहर आया। लोगों ने पूछा क्या बात है डॉक्टर, क्यों हड़बड़ी में हैं।

"भीतर मंत्रीजी हैं, उनके पेट में बहुत दर्द है।" डाक्टर बोला।

अब डाक्टर दूसरे मरीज को देखने दूसरे कमरे में गया। वहाँ से भी कुछ हताश- सा वापस आया। इतने उदास !"क्या हुआ डाक्टर?"लोगों ने पूछा।

‘‘इस मरीज़ को भी पेट में भयानक पीड़ा है।"

‘‘तो क्या दोनों को एक सी बीमारी है?"

  "नहीं भाई एक ने चार दिन का खाना इकट्ठा खा लिया है।"

"और दूसरे को?"

"उसने चार दिन से कुछ नहीं खाया।"

सम्पर्कः 12 शिवम् सुन्दरम नगर छिंदवाड़ा , म. प्र. 480001, मो. 9131442512

लघुकथाः ख़ुशबू

  - सुदर्शन रत्नाकर

टिकट लेने के लिए जैसे ही मैंने अपने हैंडबैग में हाथ ड़ाला मेरा पैसों वाला पर्स उसमें से ग़ायब था । सारा बैग अच्छी तरह से देख लिया; लेकिन वहाँ था ही नहीं तो मिलता कहाँ से। घर से चलते हुए इसमें रखा ही नहीं था या फिर बस में चढ़ते समय किसी ने निकाल लिया होगा । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । एक तो सीट पर गाँव का कोई आदमी बैठा था, उसके मोटे कपड़ों से पसीने की गंध मेरे नथुनों में घुस कर सिर को चकरा रही थी, उस पर यह मुसीबत । स्वयं पर कोफ्त हो रही थी । लम्बा सफ़र और उस पर पैसे नहीं  । सोचा बस रुकवा कर उतर जाना ही मुनासिब होगा । एक बार फिर बैग में हाथ डाला । कुछ सिक्के खनकने लगे । उसमें झाँककर देखा काग़ज़ों के साथ एक- दो नोट भी नज़र आए । थोड़ी- सी आशा बंधी ।  तभी देखा सहयात्री मेरी हर हरकत पर नज़र रख रहा है । मैंने उसकी ओर क्रोध से देखा तो वह अटपटा गया और खिड़की से बाहर देखने लगा ।

मैंने बैग में से नोट और सिक्के निकाल कर देखे, उनतालिस रुपये थे । संयोग था कि मेरी टिकिट भी इतने की थी मैं इतमीनान से कंडक्डर का इंतज़ार करने लगी । सोचा बस से उतर कर रिक्शा कर लूँगी और किराया घर जाकर दे दूँगी । सुबह ही पता चला था कि माँ ठीक नहीं है । जल्दी- जल्दी चलने के कारण सब कुछ गड़बड़ा गया था । इधर यात्री के पसीने की गंध मुझे और परेशान कर रही थी एक हथेली में पैसे रख कर दूसरे हाथ से अपना रुमाल नाक पर रख लिया था कितने  जाहिल हैं ये लोग ।  न अच्छी तरह नहाते- धोते  हैं, न कपड़े बदलते हैं । सफ़र में दूसरे यात्री का ध्यान तो रख लेना चाहिए । मैं महीने कुनमुना रही रही थी । कंडक्डर पीछे से टिकट देकर मेरी सीट तक आ पहुँचा था मैंने उनतालीस रुपये देकर टकिट माँगा । "कहाँ का टिकट चाहिए मैडम । "

" उनतालीस रुपये तो पानीपत तक के लगते हैं । वहीं का दीजिए न । " मैंने तल्ख़ी से कहा

" मैडम सात रुपये और दें । "

" सात रुपये और कैसे! उनतालीस ही तो लगते हैं । पिछली बार इतने ही दिए थे । "

" वह पिछली बार की बात है मैडम । अब छियालीस लगेंगे । किराया बढ़ गया है। " कडंक्कर ने कहा । मेरी आवाज़ सुन कर सभी यात्री मेरी ओर देखने लगे । "पर मेरे पास तो इतने ही पैसे हैं । " मैंने रुआँसी - सी होकर कहा

" तो ऐसा कीजिए मैडम उनतालीस रुपये की टिकट दे देता हूँ । वहाँ तक चली जाएँ, बाक़ी रास्ता पैदल चली जाएँ।"

सभी यात्री हँसने लगे पर कोई सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा था । मैं शर्मिंदगी से ज़मीन में धँसी जा रही थी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ । तभी मेरे साथ बैठे यात्री ने अपनी जेब से दस रुपये का नोट निकाल कर कडंक्कर को देते हुए कहा,"ईब चुप भी हो जा , ले बाक़ी के पीसे और मैडम को टिकट काट कर दे दे । "

मैं उसे मना करने ही जा रही थी कि उसने हाथ के इशारे से रोकते हुए कहा, "कोनो बात नहीं बैन जी मानस ही तो एक दूसरे के काम आवे है।’’

कडंक्कर ने टिकिट और तीन रुपये मेरे हाथ में थमा दिए । मैं कृतज्ञता से सहयात्री  को देख रही थी ।

मुझे अब उसके कपड़ों से पसीने की बदबू नहीं  ख़ुशबू आ रही थी ।

सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001, मोबाइल 9811251135

आँखों देखा हालः भारत और अमेरिका के कुत्ते

 - डॉ. हरि जोशी , लॉस एंजेलिस से

जब भारत में कोई व्यक्ति इधर की बात उधर करता है, तो कहावत की चपेट में आ जाता है , ‘कूकर- सा सूँघत फिरे इते उते की बात।’ यह कहावत यद्यपि भारतीय परिवेश पर ही लागू हो सकती है,अमेरिकी परिवेश पर नहीं।

 मैं इन दिनों अमेरिका में  देख रहा हूँ ,यहाँ सुअर तो देखने को भी नहीं मिलते; क्योंकि अधिकतर तो स्थानीय नागरिकों के उदरस्थ हो जाते हैं। अमेरिका में घर- घर कुत्ते होते हैं, किन्तु सड़क पर एक भी उद्दंड नहीं मिलेगा । यहाँ एक भी कुत्ता अकेले और आवारा घूमते हुए नहीं पाया जाता।

सारी अमेरिकी महिलाएँ ,पालतू को पदोन्नत कर उसे बेटा ही बुलाती हैं- ‘माय सन’। उनका आग्रह होता है उसे कुत्ता कदापि न कहें, उसे या तो नाम से बुलाएँ, अथवा बेटा कहें। कुत्ता कहकर कदापि अपमानित न करें।

अब जरा यहाँ की हरियाली पर आ जाएँ। अमेरिका में प्रत्येक घर के सामने भरपूर हरियाली रहती है। मुझे आश्चर्य होता है यह हरियाली कहाँ से आती है ? उस हरियाली का श्रेय मैं उन पेट्स को देता हूँ, जो ड्रिप इरीगेशन (बूँद- बूँद सिंचाई) करते रहते हैं। यह विशेष गुण इस प्राणी में देखा जाता है- शरीर का सारा का सारा जल, एक ही पौधे पर खर्च नहीं करता, बचा- बचाकर अनेक पौधों की सिचाई करता चलता है। अमेरिका में जो इतनी हरियाली और स्वच्छता दिखाई देती है वह इन ‘कुत्तों’, सॉरी बेटों के कारण ही रहती है।

प्रत्येक पेट को, दिन में दो, या तीन बार भी घुमाने ले जाया जाता है। पेट्स में वह विशेष गुण है, जिसके कारण एक पेट अनेक पौधों की सिंचाई करता है। प्रत्येक यात्रा में अनेक पौधों पर जलाभिषेक करता चलता है। सारा जल एक ही पौधे या वृक्ष पर नहीं डालता। शासन द्वारा इस प्रकार जल- विसर्जन की तो अनुमति है; क्योंकि उससे हरियाली बढ़ती है; किन्तु पेट के मल विसर्जन की नहीं। यदि एक बार भी पेट ने मल विसर्जन खुले में किया और उसे नहीं उठाया गया, तो कुत्ते का मालिक तो पकड़ में आ ही जाएगा, तब कूकर स्वामी को 75 डॉलर का दंड भुगतना होगा । एक दो बार लापरवाही बरती कि मालिक को 500 डॉलर तक जुर्माना भरना होगा। जिस प्रकार घर में छोटे बेटे की पॉटी का ध्यान रखा जाता है, ठीक उसी प्रकार बाहर चहलकदमी करते हुए पेट, की पॉटी का। यहाँ यदि कोई अपरिचित कुत्ता भी आमने सामने आ जाए, तो उनका परस्पर मिलन भौंककर नहीं होता, प्रेमालाप के साथ होता है।

कुत्तों का पग प्रक्षालन

“इन आँखों का यही विशेष, वह भी देखा यह भी देख।”

मैंने अपनी ग्रामीण संस्कृति में संतों के पग प्रक्षालन होते देखे हैं। जब कोई साधु संत गाँव में आ जाते थे, तो भावुक भक्त उनके पग प्रक्षालन करते थे, यानी पाँव पर स्वच्छ जल डालते और अपने हाथों से परात में मल- मलकर उनके चरण धोते थे।

जब बारात आती थी, तब भी वधू पक्ष के वरिष्ठ लोगों द्वारा, वर पक्ष के बड़े बूढ़ों के पग प्रक्षालन करने की परंपरा थी । सन 1949 से पहले हम भी अपने गाँव में सुबह- सुबह लोटा लेकर गाँव के बाहर निवृत्त होने जाते थे; क्योंकि नंगे पाँव जाते थे; इसलिए लोटे को तथा हाथ – पाँव को भी मिट्टी या राख से रगड़कर  धोते थे।

भारतीयों को यह जानकारी नहीं, कल्पना भी नहीं, अमेरिका में कुत्तों का भी दिन में दो बार पग प्रक्षालन होता है।

भारत हो या अमेरिका, कुत्तों को दो बार यानी सुबह और शाम, साथ ले जाकर घुमाना आवश्यक रहता है, हाँ घर में घुसते ही पग प्रक्षालन करना पड़ता है। कई बार मनुष्य तो बस एक बार सुबह या शाम पेट साफ़ करता है, अमेरिका में श्वान की शान यह है कि दो बार उसे शौच के बहाने घुमाने ले जाना अत्यावश्यक होता है। कुत्ते रखने वालों को मजबूरी में दो बार पदयात्रा करनी ही पड़ती है। निस्संदेह इससे मनुष्यों का स्वास्थ्य भी बेहतर होता है।