खड़ी हूँ मैं युगों से द्वार, ले दीपक दुआओं के
हथेली लाल हैं लेकिन, बदलती रुख़ हवाओं के
ज़रा सी आँच से पिघले, मुझे वो शय नहीं समझो
समेटो शामियाने अब, अँधेरे की रिदाओं के।।
[रिदा= चादर]
-डॉ. ज्योत्स्ना
शर्मा
उदंती.com जुलाई 2016
महिला रचनाकारों पर विशेष
आवरण- संदीप राशिनकर, इन्दौर (म. प्र.)
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