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Jul 18, 2016

दो बालकथाएँ

 1. दुनियादारी सीखी गुलाब ने
 - प्रियंका गुप्ता


सुबह की पहली किरण के साथ गुलाब की नन्ही-सी कली ने अपनी आँखें खोल कर धीरे से बाहर झाँका। ओस की बूँ उसकी आँखों में गिर पड़ी तो कली ने गबरा कर अपनी पंखुड़ियाँ फैला दी। अपनी लाल-लाल कोमल पंखुड़ियों पर वह खुद ही मुग्ध हो गई। थोड़ी देर इधर-उधर का नज़ारा देखने के बाद उसे कहीं से बातें करने की आवाज़ सुनाई दी। घूम कर देखा तो जूही और बेला के फूल आपस में बतिया रहे थे। गुलाब ने भी उनसे बातें करनी चाही, बड़े भाइयों, मैं भी आपसे बात करना चाहता हूँ...।
तुम बेटे...अभी बच्चे हो, जूही -बेला के फूलों ने विनोद से झूमते हुए कहा, थोड़ी दुनियादारी सीख लो, तब शामिल होना हमारी मंडली में...।
वे फिर आपस में बातें करने लगे तो गुलाब ने सिर को झटका दिया, हुँ...बच्चा हूँ...। कैसी बोरियत भरी दुनिया है...। क्या मेरा कोई दोस्त नहीं है...? दु:खी होकर उसने सिर झुका लिया।
 दु:खी क्यों होते हो दोस्त, कहीं से बड़ी प्यार-भरी आवाज़ आई, हम तुम्हारे दोस्त हैं न...। तुम्हारे लिए हम पलकें बिछाए हुए हैं। आओ, हमारे दोस्त बन जाओ...।
 गुलाब ने सिर उठाकर चारो तरफ़ देखा। कौन बोला ये? फिर अचानक काँटों को अपनी ओर मुख़ातिब पा उसने मुँह बिचका दिया, दोस्ती और तुमसे...? शक्ल देखी है अपनी...? क्या मुकाबला है मेरा और तुम्हारा? न मेरे जैसा रूप, न कोमलता...और उस पर से मेरे लिए पलकें बिछाए बैठे हो...। न बाबा न, तुम्हारी पलकें तो मेरे नाजुक शरीर को चीर ही डालेंगी।
गुलाब की कड़वी बातों ने काँटों का दिल ही तोड़ दिया। पर उसे बच्चा समझ उन्होंने उसे माफ़ कर दिया और मुस्कराते रहे पर बोले कुछ नहीं।
 पापा, देखो! कितना प्यारा गुलाब है...। तीन वर्षीय बच्चे को अपनी तारीफ़ करते सुन कर गुलाब गर्व से और तन गया।
 ‘ऐसे ही प्यारे लोग मेरी दोस्ती के क़ाबिल हैं,’ गुलाब ने सोचा और काँटों की ओर देख कर व्यंग्य से मुस्करा दिया।
 पापा, मैं तोड़ लूँ इसे? अपनी कॉपी में इसकी पंखुडिय़ाँ रखूँगा। बच्चे की बात सुन गुलाब सहम गया, ओह! कोई तो मुझे तोड़े जाने से बचा लो...। आज ही तो मैंने अपनी आँखें खोली हैं। अभी मैंने देखा ही क्या है? गुलाब ने आर्त्त स्वर में दुहाई दी,मैं क्या बेमौत कष्टकारी मौत मारा जाऊँगा?
नहीं दोस्त! काँटों की गंभीर आवाज़ सुनाई दी, तुम चाहे हमें दोस्त समझो या न समझो, पर हम तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं होने देंगे...।
इससे पहले कि बच्चे का हाथ गुलाब तोड़ पाता, काँटों ने अपनी बाँहें फैला दी। बच्चा चीख मारता हुआ, सहमकर वापस चला गया। गुलाब ने चैन की साँस ली।
  थोड़ी देर बाद बगीचे के फूलों के हँसी-ठहाकों में गुलाब और काँटों की सम्मिलित हँसी सबसे तेज़ थी।
 गुलाब अब दुनियादारी सीख चुका था...।

     2. गोलू की सूझ



कुछ समय पहले की बात है, एक बेहद पिछड़े गाँव में अपने माता-पिता के साथ गोपाल आसरे नाम का एक लड़का रहा करता था। उसके पिता गाँव के कुछ गिने-चुने सम्पन्न लोगों में से एक थे। माता-पिता का कलौता पुत्र होने के कारण उसे सभी सुख-सुविधाएँ हासिल थी, लेकिन वह फिर भी दु:खी रहा करता था। कारण कि उसे पढ़ने का बहुत शौक था, किन्तु गाँव में कोई बड़ा स्कूल न होने की वजह से वह अपनी इच्छानुसार आगे नहीं पढ़ पा रहा था। उसने कई बार अपना यह दु:ख अपने माता-पिता से व्यक्त किया और उनसे शहर जाकर आगे पढ़ने की अपनी इच्छा बताई, परन्तु उसके माँ-बाप इस भय से कि कहीं वह शहर की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपना गाँव ही न भूल जाए, उस की यह इच्छा पूरी करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे।
माता-पिता के इस इंकार से वह इतना दु:खी रहने लगा कि धीरे-धीरे उसका खाना-पीना, हँसना-बोलना सब कम हो गया था। उसे इतना निराश और परेशान देख कर आखिरकार उन्होंने अपने दिल पर पत्थर रखकर अपना फैसला बदल ही दिया। एक दिन सुबह गोपाल को पास के शहर ले जाकर उसके पिता ने एक अच्छे स्कूल में उसे दाखिला दिलाया और फिर उसे वहीं हॉस्टल में डाल वे वापस आ कर अपनी खेती-बाड़ी में जुट गए।
 इधर गाँव वालों ने कई दिन तक उसे न देख कर जब उनसे पूछा तो उन्होंने बड़े दु:खी होकर उन सब को सारी बात बताई। गोपाल की उच्च-शिक्षा पाने की इच्छा सुन कर खुश होना तो दूर की बात, उल्टे गाँव वाले दु:खी होकर एक-दूसरे से कहने लगे, बेचारा गोलू! उसके भाग्य में शहर की धूल ही लिखी थी। पता नहीं क्यों वह गाँव का सुख छोड़ कर आँख फोडऩे शहर चला गया...।
 उस एक दिन में गोपाल का नाम बदलकर बेचारा गोलूहो गया। गोपाल ने छुट्टी में गाँव आने पर सब किस्सा सुना तो हँसते-हँसते दोहरा हो गया, पर उसने किसी से कुछ कहा नहीं। पर दो-चार दिनों की छुट्टी भी गाँव में बिताना उसके लिए भारी हो गया। वह जहाँ से भी निकलता, सभी उसे दयनीय नजऱ से देख कर कहते, बेचारा गोलू! शहर में रह कर कैसा कमज़ोर हो गया है।
 अरे, इसकी तो मति मारी गई है...।
 जितने मुँह, उतनी बातें। हर बार का यही हाल होता। इन बातों से परेशान होकर धीरे-धीरे उसने गाँव आना कम कर दिया। उसने सोचा कि जब वह खूब पढ़-लिख कर एक क़ाबिल आदमी बन जाएगा और अपने गाँव के लोगों की सेवा करेगा, तब यह लोग पढ़ाई का महत्त्व समझेंगे और उसकी प्रशंसा करेंगे। तब वह भी आसानी से उन्हें शिक्षा का महत्त्व बताएगा, ताकि ये लोग भी अपने बच्चों को आगे पढ़ाएँ।
गोपाल पढऩे में कुछ इस कदर व्यस्त हुआ कि समय कब फुर्र से आगे निकल गया, वह जान ही नहीं पाया और जब जाना तो पाया कि छात्रवृत्ति पाते हुए उसने बी.ए फर्स्ट क्लास में पास कर लिया है।
 इस बार गोपाल की बड़ी इच्छा हुई गाँव में सबके साथ अपनी सफलता बाँटने की। अत: छुट्टी होने पर वह खुशी-खुशी गाँव पहुँचा। सूटेड-बूटेड गोपाल यह सोच रहा था कि घर वालों के साथ-साथ गाँव वाले भी उसे देख कर फूले नहीं समाएँगे, पर यह क्या? जब वह गाँव पहुँचा ,तो उसे वहाँ बड़ी अजनबीयत महसूस हुई। सब उसे बड़े ही आश्चर्य से देख रहे थे। गोपाल को उनका व्यवहार अजीब तो लगा, पर फिर भी उसने उन्हें अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर शिक्षा का महत्त्व समझाने की कोशिश की। उसने बड़े गर्व से उन्हें गिन-गिनकर बताया कि वह फर्स्ट क्लास में बी.ए पास करने के बाद अब एम.ए करने जा रहा है।
 गोपाल की बात सुन कर उसके मुँह पर तो किसी ने कुछ नहीं कहा, परन्तु जैसे ही वह आगे बढ़ा, खुसर-पुसर शुरू हो गई, बेचारा गोलू, इत्ते बरस शहर की खाक छानी, पर बेचारे की किस्मत तो देखो, अभी तक बी.ए-एम.ए के ही फेर में ही है...मैट्रिक भी नहीं कर पाया।
 गोपाल ने सुना तो गाँव वालों की अज्ञानता से दु:खी होकर सोचने लगा, ये लोग किसी भी तरह मेरी बात समझने की कोशिश ही नहीं करते और मुझे बेचारा कहते हैं...। जब कि इन्हें नहीं मालूम कि असली बेचारे तो ये हैं ,जो जानबूझकर विद्या से दूर रहकर एक अबूझी-सी सज़ा भुगत रहे हैं...अपनी गऱीबी और पिछड़ेपन के रूप में। काश! ये जान पाते कि इस विद्या-विहीन गाँव में असली बेचारा कौन है।
 गाँव वालों की इस अशिक्षा और अज्ञानता को दूर करने के लिए गोपाल ने उसी क्षण वापस शहर जाने का विचार त्याग दिया और गाँव में ही रह कर गाँव वालों को शिक्षित करने की कसम खाई।
सम्पर्क: एम.आई.जी- 292, कैलास विहार, आवास विकास योजना संख्या-एक,  कल्याणपुर, कानपुर- 208017  

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