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Jun 1, 2025

उदंती.com, जून - 2025

 वर्ष - 17, अंक - 11

संबंधों की गहराई का हुनर

पेड़ों से सीखिए,

जड़ों में चोट लगने से

साखें सूख जाती हैं...


इस अंक में 

अनकहीः देश हित में एकजुट होने का समय - डॉ.  रत्ना वर्मा

पर्यावरणः गर्मी में भी घुट रही है दिल्ली की सांसें - पंकज चतुर्वेदी

संस्मरणः मिट्टी का मोह - शशि पाधा

कविताः रणभेरी - डॉ. सुरंगमा यादव

आलेखः परमाणु हथियार- सुरक्षा के लिए पाकिस्तान हुआ शरणागत - प्रमोद भार्गव

पर्यावरणः विरासत को संजोकर रखने वाला अनूठा गाँव पिपलांत्री - सुनील कुमार महला

दो कविताएँः 1. प्यारी लड़की, 2. तेइस के तजुर्बे - स्वाति बरनवाल

प्रदूषणः हमारे पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता नहीं - कुमार सिद्धार्थ

स्मृति शेषः पर्यावरण कार्यकर्ता समाज सुधारक विमला बहुगुणा - भारत डोगरा

कहानीः आशा की दूसरी किरण - ज्योतिर्मयी  पन्त

व्यंग्यः बुरे फसे डींग हाँककर - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कविताः गायब -  राजेश पाठक

दो लघुकथाः 1. शुद्ध जात,  2.फाँस - सुदर्शन रत्नाकर

कविताः नशे का अँधेरा भविष्य - डॉ. कविता भट्ट

लघुकथाः परिचय - प्रगति गुप्ता

साहित्य मंथनः साहित्य के सरोकार को बड़ा फलक देती ‘सोंढूर- डायरी’ - विनोद साव

कविताः ग्लोबल वार्मिंग - डॉ. शिप्रा मिश्रा

जीवन दर्शनः टॉम स्मिथ- संस्कार से सफलता - विजय जोशी  

अनकहीः देश हित में एकजुट होने का समय

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

22 अप्रैल को पहलगाम आतंकी हमले के बाद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के ज़रिए सेना ने आतंकी ठिकानों पर सटीक वार करके सफलता हासिल की और यह जता दिया कि वह आतंकवाद के समूल नाश के लिए प्रतिबद्ध है। यह सिर्फ एक सैन्य कार्रवाई नहीं थी; बल्कि एक संदेश था कि भारत अब चुप नहीं बैठेगा। अभी हाल ही में गुजरात दौरे के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को आतंक की बीमारी से मुक्त करने के लिए वहाँ की आवाम और युवाओं को आगे आने के लिए कहा। उन्होंने चेतावनी भी दी कि सुख- चैन की जिंदगी जिओ, रोटी खाओ; वरना मेरी गोली तो है ही। 
 यह जवाब एक बाहरी शत्रु के लिए था; पर ऑपरेशन सिंदूर के बाद से भीतरी लड़ाई भी देश  लड़ रहा है। सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक स्तर ऐसे लोगों के बदसूरत चेहरे सामने आ रहे हैं, जो देश को भीतर से खोखला करने में लगे हुए हैं। भारत की राजनीति, तीखी बयानबाज़ी और आरोप-प्रत्यारोप के दौर में घिर गई है।  ऐसे समय में जब भारत अपनी सीमाओं से परे जाकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहा है, तब अपने ही देश के भीतर राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता का संघर्ष हावी हो रहा है। यह कितने अफसोस की बात है कि जिस वक्त देश को एकजुट होकर अपने भीतर और बाहर के गद्दारों से निपटना चाहिए, उस समय पक्ष और विपक्ष के कुछ नेता अनाप- शनाप बयानबाजी पर उतर आए हैं। कुछ ने ‘पाकिस्तान की भाषा बोलने’ और ‘भारतीय सेना के पराक्रम पर सवाल उठाने’ का आरोप लगाया है। बहुत से भारतीय भी दुश्मनों के लिए जासूसी करके भारत को कलंकित कर रहे हैं। अब जासूसों की शक्ल भी बदल चुकी है। हथियारों की जगह कैमरे, रेडियो की जगह इंस्टाग्राम, और ब्लैकमेल की जगह हनी ट्रैप ने ले ली है।  यह सीधे तौर पर डिजिटल जासूसी है। कहने का तात्पर्य है कि लड़ाई कोई भी आसान नहीं  होती भीतर के दुश्मनों से भी चौक्न्ना रहना है और बाहरी दुश्मनों को तो ठिकाने लगाना ही है। 
 ऑपरेशन सिंदूर के दौरान तुर्किए और पाकिस्तान की दोस्ती तो पूरी दुनिया ने देखी ही है। तुर्किए खुलकर आतंकवाद के समर्थक देश के साथ आकर खड़ा हो गया। यह वही तुर्किए हैं, जहाँ भूकम्प के विनाश के समय मानवीय आधार पर भारत ने सबसे पहले सहायता की। उसका प्रतिदान क्या दिया ? यही कि पाकिस्तान ने जिन ड्रोन्स से भारत पर हमला किया, वो भी तुर्किए ने ही पाक को खैरात में दिए थे। तुर्किए की इस हरकत के बाद भारत ने सख्त रुख अख्तियार कर लिया है; पर तुर्किए है कि अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। यही नहीं पाकिस्तान का साथ देने के बाद अब तुर्किए ने बांग्लादेश में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। पर यह भी सच है कि ऐसे देशों के साथ भारत कोई नरमी नहीं बरतेगा, यह स्पष्ट है।  चाणक्य ने ऐसे दुष्टों के लिए कहा है-
सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात्क्रूरतरः खलः।
मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते॥
सर्प भी क्रूर होता हैं और दुर्जन भी क्रूर होता हैं, किन्तु दुर्जन सर्प से भी अधिक क्रूर होता हैं। सर्प को तो मंत्र और औषधीय- जड़ी बूटियों से नियंत्रित किया जा सकता हैं, परन्तु दुर्जन किससे नियंत्रित हो सकता हैं?
दुर्जन को खत्म किया जाए, बस यही एकमात्र उपाय है। इन दुष्ट देशों पर दया दिखाना या विश्वास करना आत्मघात करने जैसा है।  भारत आतंकवाद के खात्मे के लिए दृढ़संकल्पित है, तभी तो भारत सरकार ने अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाते हुए आतंकवाद के मुद्दे पर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को एकजुट करके वैश्विक मंचों पर भेजा, ताकि भारत की नीति को मजबूत समर्थन मिल सके। इस प्रयास का उद्देश्य था कि दुनिया यह समझे कि आतंकवाद किसी भी देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानवता के खिलाफ एक वैश्विक खतरा है, जिसका मुकाबला एकजुट होकर ही किया जा सकता है। भारत की यह पहल न केवल अपनी सुरक्षा के लिए; बल्कि वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
परंतु विडंबना यह है कि जब कुछ लोग राजनीतिक लाभ के लिए संवेदनशील मुद्दों पर तीखी बयानबाज़ी कर रहे हैं, तो कुछ लोग देश के हितों को ताक पर रखकर जासूसी जैसे कृत्यों में लिप्त पाए जा रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है, जो देश की एकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। 
आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत के सभी राजनीतिक दल और नागरिक एकजुट होकर राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानें। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई केवल सरकार की नहीं, बल्कि पूरे देश की है। यदि हम अंदर से कमजोर होंगे, तो बाहरी शक्तियों को हमें कमजोर करने में देर नहीं लगेगी। सवाल यह है कि क्या भारत की सुरक्षा केवल सत्ताधारी दल की ज़िम्मेदारी है? क्या विपक्ष की भूमिका केवल आलोचना तक सीमित रहनी चाहिए? क्या यह समय नहीं कि भारत की सुरक्षा नीति एक गैर-राजनीतिक सहमति से संचालित हो? 
दुख होता है यह सोचकर कि हमारे वीर जवान  देश की रक्षा करते करते सरहद पर शहीद हो जाते हैं; लेकिन भीतर बैठे लोग अनर्गल बातें करके और जासूसी करके राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाते हैं।  शत्रुबोध से शून्य कुछ लोग इनको बचाने के लिए कानूनी तिकड़मों का आश्रय लेते हैं। अतः हमें अपनी आंतरिक और दलगत राजनीति की खींचतान से ऊपर उठकर देश की सुरक्षा के लिए एकजुट होना होगा।  
आज जब भारत वैश्विक मंच पर आतंकवाद के विरुद्ध नेतृत्व कर रहा है, तब हमें अपनी एकता और संकल्प शक्ति से यह सिद्ध करना होगा कि भारत केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया और समूची मानवता के लिए खड़ा है।  आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई में हर भारतीय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। एकजुटता, संकल्प और देशभक्ति यही भारत की सच्ची शक्ति है। देश का अहित करने वाले प्रेम की भाषा नहीं समझते। उनका एक ही उपचार है- उन्हें जड़ से समाप्त करना। चाणक्य भी यही कहते हैं- शठे शाठ्यम समाचरेत्-दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए।

पर्यावरणः गर्मी में भी घुट रही है दिल्ली की सांसें

  - पंकज चतुर्वेदी

पंजाब के सुदूर गाँव की रहने वाली इस युवती ने  हिन्दी में पी एचडी किया और दिल्ली के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान में काम मिल गया। होली गुजरी ही थी कि उसकी साँस घुटने लगी। फिर शरीर पर एलर्जी उभरने लगी। जब दवा भी माकूल असर नहीं दिखा पाई, तो डॉक्टर ने कह दिया कि  इस मौसम में दिल्ली में न रहो। अजब है दिल्ली, जाड़े में स्मॉग से दम घुटता है और साँस की बीमारी के लोगों को कह दिया जाता है कि दिल्ली छोड़ दो ।

गर्मी आई तो भी साँसों का संकट यथावत। अब बरसात होती ही कितने दिन की है ? बहादुरगढ़ से फरीदाबाद और गुरुग्राम से गाजियाबाद-नोएडा तक फैले दिल्ली एनसीआर में। कोई  पाँच करोड़ की आबादी पर बढ़ते तापमान के साथ  शुद्ध पेय जल के साथ साफ हवा की कमी और गहरा रही हैं ।

कैसी विडंबना है कि जो पेड़ पर्यावरण सुधारने के इरादे से सड़क किनारे और सार्वजनिक स्थानों में लगाए गए वे ही लोगों के दम घुटने का कारक बन रहे हैं। सिरस, गुलमोहर, सफेदा,  शिरीष, आम, नीम, मोलसरी जैसे कई ऐसे पेड़ दिल्ली में छाए हैं, जिनके परागण से साँस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं।

ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते हैं, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और धनत्व का पता लगाने की कोई तकनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है: लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है:  तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है। यह एलर्जी इंसान को साँस की गंभीर बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजेन लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है, ऐसे में परागण के शिकार लोगों के फेंफड़े  ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं। 

इस मौसम में  दिल्ली के लोगों को साँस लेने के लिए साफ हवा का दूसरा अदृश्य सबसे बड़ा दुश्मन हैं वाहनों की बढ़ती संख्या। हर वाहन के चलने से टायर घिसते ही हैं और इससे टायर की रबर, उसको बनाने में लगे  गोंदयुक्त रसायन आदि के 2.5 पी एम के कण निकलते हैं। सड़क गरम होती है, तो घिसाई अधिक होती है और ऐसे में हवा न चलने पर ये कण मानव के आवासीय ऊँचाई तक ही सीमित रह जाते हैं ।

इसमें तड़का लगता है वाहन के लिए अनिवार्य एलईएडी बेतरी से निकलने वाले  रासायनिक जहरीले धुएँ का। भले ही यह वायु प्रदूषण ठंड  के दिनों की तरह  प्रत्यक्ष दिख नही रहे हों:  लेकिन मानव शरीर  पर इसकी घातकता उतनी ही हैं। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुएँ से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि।

इस बार गरम हवाएँ  या लू जल्दी चल रही हैं और ऐसी हवा एक से डेढ़ किलोमीटर तेज गति से बहती है: इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई  रेत लोगों को साँस लेने में बाधक बनती है। अरावली को नुकसान पहुँचने से  सीमा पार से आने वाली रेत अब दिल्ली की हवा और आसमान को धुंधला बनाती है।

जितनी गर्मी होती है, दिल्ली महानगर में उससे जूझने के लिए वाहन, घर दफ्तरों में एसी का प्रयोग बढ़ जाता है।  एसी चलते हैं हाइड्रो क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैस से जो कि पृथ्वी की ओज़ोन परत के लिए घातक है। यही नहीं,  इतने सारे वातानुकूलन संयत्र चलाने के लिए लगने वाली  बिजली उत्पादन से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं। जलवायु परिवर्तन ओजोन परत को भी प्रभावित कर सकता है।

समझना होगा कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आँकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुएँ में बड़ी मात्रा में हाइड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिलकर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण फेंफड़े बेहद कमजोर  हो जाते हैं ।

आखिर इससे निबटा कैसे जाए ? एक तो अब दिल्ली की सजावट के लिए जहाँ भी  हरियाली लगाई जाए , उसके लिए पेड़ों की प्रजातियाँ चुनते समय जलवायु परिवर्तन- गर्मी और  परागण की समस्या को ध्यान रखा जाए।  फिर सड़कों पर कम वाहन  निकलें, जाम न हो, इसकी योजना बने और कड़ाई से लागू हो। पानी का छिड़काव  एक ऐसा तरीका है जिससे काफी कुछ गर्मी और और उससे उपज रहे साँसों के संकट से जूझा जा सकता है। लाखों की संख्या  में चल रहे एसी और  करोड़ों की संख्या के  पानी के आर ओ  से निकलने वाले जिस पानी को हम बेकार समझ कर नाली में बहा  देते हैं, उसके जल संचयन और छिड़काव में इस्तेमाल से इस महा समस्या को कम किया जा सकता हैं ।( indiaclimatechange से साभार)

संस्मरणः मिट्टी का मोह

 - शशि पाधा 

वर्ष 1965 का भारत- पाकिस्तान के घमासान युद्ध के साथ अनेक सामरिक तथ्य और कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। यह वो महत्वपूर्ण युद्ध है जब भारत की शूरवीर सेना ने पाकिस्तान के बहुत से इलाके जीत कर भारत की विजयभूमि के साथ जोड़ दिए थे। पाठकों के लिए इस युद्ध के पहले के इतिहास को जानना आवश्यक है।

भारत के उत्तर में स्थित जम्मू-कश्मीर राज्य सदैव ही पाकिस्तान के लिए आँख की किरकिरी सा चुभता रहता है। वर्ष 1947 जब जम्मू -कश्मीर राज्य का विशाल भारत के साथ विलय हुआ था, तब से ही पाकिस्तान की कुदृष्टि इस राज्य पर रही है। वहाँ के नेता एवं सेनाध्यक्ष येन केन प्रकारेण इस राज्य में अशांति फैलाने की योजनाएँ बनाते रहते हैं और इतिहास गवाह है कि हर बार असफलता उनका मुँह तोड़ जबाब देती रहती है। ऐसी ही एक योजना के अनुसार पाकिस्तान ने वर्ष 1965 में  ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ (Opretion Jibraltar)  आरम्भ किया था, जो पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर में अशांति फैलाने की रणनीति का सांकेतिक नाम था (Code word)। 

इस अभियान की योजना के अनुसार  वर्ष 1965 के अगस्त के महीने में  पाकिस्तान ने अपनी नियमित सेना के सैनिकों के साथ लगभग 1500  घुसपैठियों को  मिलाकर कश्मीर घाटी में प्रवेश किया था। पाकिस्तान को यह भ्रम था कि यह लड़ाई केवल युद्ध विराम रेखा के अंदर ही रहेगी और भारत कभी भी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा पर युद्ध नहीं छेड़ेगा। इसके सफल होने पर, पाकिस्तान को कश्मीर पर नियंत्रण हासिल करने की उम्मीद थी; लेकिन इस अभियान में उसे बड़ी विफलता का सामना करना पड़ा। (मैं अपने पाठकों को अवगत करा दूँ कि जम्मू-कश्मीर से सटी पाकिस्तान के सीमा क्षेत्र को ‘युद्ध विराम रेखा’ के नाम से जाना जाता है और पंजाब के बाद के सीमा क्षेत्र को ‘अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा’ के नाम से पहचाना जाता है।)

 जैसे ही भारत के राजनेताओं को ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ का पता चला, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने बिना समय गँवाए अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा पर पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध के मोर्चे खोल दिए। विभाजन के बाद दो पड़ोसी देशों के बीच यह सब से पहला युद्ध था।  लगभग पाँच महीने तक चलने वाले इस युद्ध में दोनों देशों की बहुत हानि हुई, बहुत से वीरों को अपनी जान गँवानी पड़ी और सैंकड़ों घर, गाँव तबाही की चपेट में आ गए। इस युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के बाद ही हुआ।

इस भयानक युद्ध के दो महत्त्वपूर्ण मोर्चों पर दो नगर बसे हुए थे... भारत की सीमा से सटा अमृतसर, और पाकिस्तान की सीमा से सटा हुआ लाहौर। सामरिक महत्त्व के इन दोनों नगरों के बीच बड़ी शान्ति से बहती थी ‘इच्छोगिल नहर’।

  इच्छोगिल नहर के उस पार का भू भाग था पाकिस्तान और इस पार की धरती थी भारत। इसी नहर के किनारे पर बसा हुआ ‘बर्की गाँव’ लाहौर से लगभग 13/14 किलोमीटर दूर था। युद्ध के समय भारतीय सेना वहाँ तक पहुँच गई थी। अब यह क्षेत्र और इसके आस पास के क्षेत्र भारतीय सेना के अधीन थे। उस समय मेरे पति अपनी यूनिट के साथ इसी क्षेत्र में तैनात थे। जब युद्ध अपने पूरी तेज़ी पर था तो बर्की गाँव के निवासी अपनी सुरक्षा के लिए गाँव छोड़कर किन्हीं सुरक्षित स्थानों की ओर चले गए थे; किन्तु कुछ बूढ़े, बीमार और असहाय लोग अपना गाँव छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। 

 23 सितम्बर को युद्ध विराम की घोषणा भी हो गई थी। अब बरकी गाँव के बचे-खुचे निवासी भारतीय सेना के मेहमान थे। भारतीय सैनिक उनकी सेवा करते, उन्हें दवा-दारू देते और हर परिस्थिति में उनकी सहायता करते। रोज़-रोज़ मिलने के कारण भारतीय सैनिकों का पाकिस्तान के गाँवों में बसे उन लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ गया था। आखिर मनुष्य तो मनुष्य का शत्रु नहीं होता है। युद्ध तो कराते हैं राजनेता, जिन्हें अपनी पदवी की स्थिरता के डाँवाडोल होने का सदैव भय ही रहता है।

   इसी गाँव में रहने वाले एक वृद्ध दम्पती किसी भी हालत में अपना गाँव छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। वृद्ध पुरुष का नाम था चिरागदीन। उनकी पत्नी काफी अस्वस्थ थीं और वो कहीं जाने में असमर्थ थीं। उन्हें शायद शान्ति की आशा भी थी। उनकी कमज़ोर और असहाय परिस्थिति को देखकर हमारे सैनिक नियमित रूप से उनके लिए भोजन ले जाते थे। उनके साथ समय बिताकर कई पुरानी कहानियों का आदान- प्रदान होता था। वे विभाजन से पहले की बहुत सी यादें हमारे सैनिकों के साथ बाँटते और भावुक हो जाते थे।

एक दिन मेरे पति इस दम्पती से मिलने इनके घर गए, तो बातचीत के दौरान चिरागदीन ने इन्हें बताया कि उसका जन्म पंजाब के जालन्धर जिले के किसी गाँव में हुआ था और उसे अपने जन्मस्थान की, अपने बचपन के घर की बहुत याद सताती रहती थी। यह बात कहते हुए मेरे पति ने देखा कि उस वृद्ध की आँखें अश्रुपूर्ण थी। उस दिन की मुलाक़ात के बाद मेरे पति ने जब चिरागदीन से पूछा कि क्या उन्हें किसी चीज़ की ज़रुरत है, तो उसने हाथ जोड़कर कहा, “ साहब जी! इस उम्र में अब किसी चीज़ की क्या ज़रुरत है। वैसे भी आपके सैनिक हमारी हर प्रकार से सहायता कर ही रहे है।” 

उनसे विदा लेते हुए मेरे पति को ऐसा आभास हो रहा था कि वे इससे अधिक और भी कुछ कहना चाहते हैं और कहने में सकुचा रहे हैं। इन्होंने बड़े आदर से चिरागदीन से कहा, “ बाबा! कुछ है मन में तो बताइए, झिझकिए मत।”

इनके सांत्वना और आत्मीयता से भीगे शब्द सुनकर चिरागदीन की आँखों में एक चमक- सी आ गई। उन्होंने बड़ी आशा के साथ इनसे कहा, “ साहब जी! आप मुझे एक बार मेरे गाँव में ले जाइए। मैं मरने से पहले अपना जन्म स्थान देखना  चाहता हूँ ।” और वह बड़ी आस भरी दृष्टि से इनकी ओर देखता रहा।

 उसकी इच्छा पूरी करने में कुछ कठिनाइयाँ तो थी; किन्तु मेरे सहृदय पति ने एक दिन उसे एक फौजी जेकेट पहनाई, गाड़ी में बिठाया और ले गए उसे उसके गाँव जो पंजाब के जालन्धर नगर के आस-पास कहीं पर था। अपने गाँव को देखकर चिरागदीन बहुत भावुक हो गया। वह गाड़ी से नीचे उतर कर कितनी देर तक गाँव की गलियों में घूमता रहा। उस समय उसकी चाल में बच्चों जैसी उत्सुकता थी। बहुत से पुराने लोगों से वह अपने घर का पता पूछता रहा। उसकी पीढ़ी का शायद कोई नहीं बचा था उस गाँव में। उसे अपना घर तो नहीं मिला; लेकिन घर के आस-पास के पुराने वृक्षों में वह अपना बचपन ढूँढता रहा। 

मेरे पति ने परिहास में उससे कहा, “ बाबा! आराम से खेलिए इन गलियों में। यहाँ से कोई आपको बंदी बनाके नहीं ले जा सकता। आपने जितना समय यहाँ बिताना है, बिताइए।”

वहाँ कितना समय बीता, यह तो उस गाँव की गलियाँ और पुराने पेड़ ही बता सकते हैं। इस भावुक दृश्य के या तो वही गवाह थे और या थे मेरे पति। जैसे ही वापिस आने का समय हुआ, चिरागदीन ने अपने पैतृक गाँव की मिट्टी अपने दोनों हाथों में भर ली. उस मिट्टी को आँखों से लगाते हुए चिरागदीन ने भीगे हुए स्वरों में कहा, “ साहब जी! अगर देश का बँटवारा नहीं होता, तो आज मैं इसी धरती पर खड़ा होता और अंत समय पर इसी मिट्टी में ही समा जाता।” 

यह कहते हुए उसने उस मिट्टी को अपनी चादर के कोने में बाँध लिया। उस समय उसकी मानसिक परिस्थिति को मैं शब्द नहीं दे सकती। आप केवल उसे महसूस कर सकते हैं। वापिसी के सारे रास्ते पर चिरागदीन अपनी चादर के कोने में सुरक्षित बँधी मिट्टी को बार- बार छूता रहा। मानो अपने आपको भरोसा दे रहा हो कि उसकी सब से अमूल्य निधि उसके पास है। वापिस आकर जब मेरे पति ने उससे विदा ली, तो उसने दोनों हाथ आसमान की ओर उठाकर इन्हें दीर्घायु  होने का आशीर्वाद दिया और बड़ी आशा से इनसे पूछा, “ साहब जी!, क्या कभी ऐसा हो सकता है कि दोनों देश फिर से एक हो जाएँ?”

इस प्रश्न का उत्तर मेरे पति के पास भी नहीं था। इन्होने भी बस आकाश की ओर हाथ उठाकर विश्व शान्ति के लिए प्रार्थना ही की।

 लगभग छह महीनों के बाद ताशकंद समझौते के बाद भारतीय सेना को यह क्षेत्र पाकिस्तान को वापिस लौटाना था। मेरे पति इस वृद्ध दम्पती से मिलने गए। उन्होंने बड़े स्नेह से इन्हें गले लगाया, तस्वीर लेने को कहा और साथ में भेंट किया एक मिटटी का कटोरा और कुरान शरीफ की एक प्रति। विदा के समय दोनों की आँखें नम थीं। बँटवारा फिर से हो रहा था। सीमा रेखाएँ एक बार पुन: नक्शों पर खींची जा रहीं थी; किन्तु उस समय बर्की के उस छोटे से गाँव में केवल आपसी स्नेह, सद्भावना और मानवता की शीतल मंद हवा झूम रही थी। 

यह दोनों उपहार कितने वर्षों तक हमारे घर सामान के साथ बँधे घूमते रहे। अपने 40 वर्ष के सैनिक जीवन में हमने कितने घर बदले, कितन नगर घूमे, इसकी कोई गिनती नहीं कर सकती। कुछ चीज़ें कहाँ खो गईं, पता ही नहीं चला। किन्तु कुछ तस्वीरों में हमारा कल अभी भी सुरक्षित है और उसी पिटारी से आज कुछ तस्वीरें आपके साथ साझा करते हुए मैं स्वयं भावुक हो रही हूँ।

 अब आप ही बताएँ कि इस युद्ध में किसकी हार हुई और किसकी जीत ?????

ईमेल:  shashipadha@gmail.com

कविताः रणभेरी

  -  डॉ. सुरंगमा यादव


पल में क्या से क्या हो गया, समझ नहीं ये कुछ आया

खुशी रुदन में बदल गई थी, खूनी मंजर था छाया।

 


अभी सजा सिंदूर माँग में, मेंहदी का रंग गहराया

खुशियाँ सारी ढेर कर गया क्षण में आतंकी साया।

कायरता भी शर्मसार है, ऐसा कत्लेआम किया

सिंदूरी सपनों को पल में, अरथी पर है सुला दिया।

 

माँ का सूना आँचल कहता, लाल कहाँ तुम चले गए

वापस आए नहीं दुबारा किस पापी से छले गए ।

नाम धर्म का लेकर अपने धर्म को भी वे  लजाते हैं ।

खाने के लाले  हैं घर में, खैरात माँग इतराते हैं।

 

धर्म नहीं है उनको प्यारा, नफ़रत, हिंसा प्यारी हैं।

अपनी कौमों के माथे पर लिखते वे गद्दारी हैं ।

दहशतगर्दी फैलाना ही, धर्म जिन्होंने माना है

इंसानी जानों की कीमत, उनको क्या समझाना है।

 

शृगालों ने खुद ही आकर शेरों को ललकारा है।

उनका दण्डित करना ही अब पहला धर्म हमारा है।

प्रेम- अहिंसा धर्म हमारा, तब तक हमें सुहाता है

शत्रु हमारी ओर न जब तक  अपनी आँख उठाता है ।

 

दुष्ट- दलन के लिए कृष्ण को चक्र चलाना पड़ता है

मर्यादा पुरुषोत्तम को भी धनुष उठाना पड़ता है।

जिसको प्रेम- शांति की भाषा, अब तक  कभी नहीं भाई

उसे शस्त्र की भाषा  में  समझाने की अब बेला आई ।

 

जिसे ‘सीजफायर’ में भी बस ‘फायर’ याद ही रहता है

उसके इरादे ‘सीज़’ करें हम, बच्चा-  बच्चा कहता है।

धोखे का ही रक्त रगों में जिसकी बहता रहता है

उसकी क्रूर कुचालों की इतिहास सच्चाई कहता है।

 

सेना की रणभेरी ने अब ऐसा राग सुनाया है

दहशत फैलाने वाला ही, खुद दहशत में आया है ।

केवल ये ‘सिंदूर’ नहीं है, शिव का ताण्डव नर्तन है

वे भी बचा नहीं पाएँगे, जिनका मिला समर्थन है ।


दो कविताएँ

- स्वाति बरनवाल 

प्यारी लड़की

प्यारी लड़की!

आकाश में उड़ो

धरती पे उछलो

सपनों में रंग भरो।

 

प्यारी लड़की!

फूलों- सी महको

हवा- सी इतराओ

तितली की मानिंद 

मस्त रहो!

 

किताबों पर विश्वास और

खुद में हौसला रखो।

 

प्यारी लड़की।

थोड़ी- सी जिद्दी,

थोड़ी- सी अड़ियल

थोड़ी- सी दुराग्रही

और थोड़ी- सी मतांध बनो।

 

प्यारी लड़की!

इस मतलबी दुनिया में

तुमको ढेर सारे स्वार्थी,

चापलूस और खुदगर्ज लोग मिलेंगे

तुम्हारा उनसे भी सामना होगा।

 

प्यारी लड़की!

इस दुनिया में तुम 

किसी विशेष उद्देश्य से आई हो।

इससे पहले कि यह दुनिया तुम्हें 

अपने उसूलों के साथ जीना सिखा दे..

तुम दुनिया पलट दो।

2. तेईस के तजुर्बे

गिरी तो रोई, उठी तो लड़खड़ाई

चलने लगी तो फिर

ठोकर खाई

गिरी, उठी, सँभली

फिर चलने लगी।

 

वक्त- बेवक्त चंचलता जाती रही

और गंभीरता आती रही

यूँ कि थोड़ी देर रुक जाने से

जीने में आ जाती कोताही

और माथे मढ़ देती लापरवाही

का तमगा।

 

यूँ कि

उसके पहले ही

अपने ऊपर चढ़ा लिया जाए

कोई ठोस आवरण

और बचा जा सके

उम्र की हर सर्दी,

गर्मी और बरसात से

जिससे कभी होती थी

पैरों में थिरकन

बढ़ जाती थी दिल की धड़कन

और देह में सिहरन!

 

अब जब भी

गिरने को होती हूँ

तजुर्बा हाथ थाम

गिरने से बचा लेता है

बार बार, हर बार।

आलेखः परमाणु हथियार - सुरक्षा के लिए पाकिस्तान हुआ शरणागत

 - प्रमोद भार्गव

आपरेशन सिंदूर के दौरान जब पाकिस्तान के परमाणु संस्थान और आयुध भारतीय मिसाइलों की मार के दायरे में आ गए तो पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए और अमेरिका, चीन व इस्लामिक देशों की मदद से संघर्ष विराम कराने में सफल हो गया। इस हेतु अमेरिका और चीन ने कूटनीतिक चालें चलीं और उन्होंने अपेक्षित मंशा पूरी कर ली। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो इतने बड़े बोल, बोल गए कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि मैंने दोनों देशों को धौंस देकर युद्ध विराम कराया है। यदि परमाणु युद्ध हो जाता, तो लाखों लोग बेमौत मारे जाते। यह मानवता के लिए बड़ा संकट होता। यानी ट्रंप ने दादागिरी जताते हुए धमकी भी दे दी और दो देशों के लोगों को बड़ी मानव त्रासदी से बचाने का कथित श्रेय भी ले लिया। हालाँकि अगले दिन ही प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए वैश्विक शक्तियों को जता दिया कि भारत ने अपनी सैन्य सामर्थ्य दिखा दी और युद्ध के नियमों का पालन करते हुए पर्याप्त संयम भी बरता। साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली कि भारत किसी भी स्तर पर न्यूक्लियर ब्लैकमेलिंग अर्थात् परमाणु भयादोहन नहीं सहेगा। साफ है, यदि अब पाकिस्तान ने किसी भी प्रकार की आतंकी घटना को अंजाम दिया, तो पाकिस्तान को परमाणु भंडार समेत मिट्टी में मिला दिया जाएगा।

परमाणु भयादोहन का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय फलक पर क्यों उठा? और वैश्विक ताकतों की चूलें क्यों हिल गईं, इसे भारतीय सेना के पराक्रम से समझ लेते हैं। दरअसल हमारी सेना द्वारा दागी गईं  मिसाइलों की अचूक मारक क्षमता के दायरे में पाकिस्तान के परमाणु भंडार और संयंत्र आ गए थे। इससे न केवल पाक के पसीने छूट गए; बल्कि अमेरिका, चीन और तुर्किये भी बेचैन हो गए। चीन और तुर्किये के हथियारों की साख पर भी सवाल उठ खड़े हुए कि वे कितने उपयोगी हैं ? पाकिस्तानी सेना का मुख्यालय रावलपिंडी में है। इसी के निकट चकलाता में नूर खान एयरबेस के पास परमाणु कमान केंद्र है। पाक के पंजाब में सरगोधा हवाई पट्टी के पास परमाणु आदान-प्रदान केंद्र है। भारतीय वायुसेना ने ब्रह्मोस मिसाइलें सटीक निशाने पर दाग कर नूर खान और सरगोधा की हवाई पट्टियाँ पूरी तरह ध्वस्त कर दी थीं। हमारी मिसाइलें मछली की आँख पर अर्जुन के तीर की तरह लक्षित निशाने पर सटीक बैठीं। वस्तुतः नूर खान एवं सरगोधा हवाई अड्डों को भारी तबाही झेलनी पड़ी। 

 इन अचूक हमलों से पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष जनरल असीम मुनीर और उनके अधीन सेना को दिन में तारे दिखाई देने लगे। सेना समेत पाक के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। जिस परमाणु शक्ति के बूते पाक के जिन बुजदिल नायकों को अपनी परमाणु शक्ति पर गर्व था और इसी ताकत के बूते ये भारत पर परमाणु हमला कर देने की धमकियाँ दिया करते थे, उन्हें अहसास हो गया कि उनके परमाणु हथियार भारतीय मिसाइलों के निशाने पर हैं। मसलन पाक ने समझ लिया कि भारत ने हमले नहीं रोके, तो उसके परमाणु हथियार एक-दो दिन के भीतर नेस्तनाबूद कर दिए जाएँगे। इस आशंका से भयभीत पाकिस्तान के लाचारी में आए आका अमेरिका के आगे नतमस्तक हुए और गिड़गिड़ाकर गुहार लगाई कि हर हाल में भारत के हमलों को रुकवाएँ। दरअसल, चौतरफा मात खाया पाकिस्तान चाहता था कि तत्काल संघर्ष विराम हो ? 

 कुल मिलकर युद्ध विराम से तत्काल तो अमेरिका, चीन और पाकिस्तान के मंसूबे सध गए, लेकिन भारत के मंसूबे पाक घोषित आतंक को पूरा सबक सिखाने से अधूरे रह गए।

  बावजूद आपरेशन सिंदूर प्रधानमंत्री मोदी और उनके सहयोगियों के नेतृत्व व हमारी तीनों सेनाओं के पराक्रम से जिस सीमा तक पहुँच गया था, उससे एक तो पाकिस्तान का यह मिथक टूट गया कि वह परमाणु हमला करने में सक्षम है ? दूसरे चीन और तुर्किये के हथियारों की औकात दुनिया के सामने आ गई कि वे कितने थोथे और अविश्वसनीय हैं। अतएव कालांतर में भारत की फौज से कोई भी प्रत्यक्ष युद्ध की स्थिति में सामना करने से कतरएगा; क्योंकि इस लड़ाई में चीन के जेट विमानों और वायु सुरक्षा प्रणाली की पोल खुल गई है। अब तक पाकिस्तानी संसद में भारत को यह कहते हुए धमकाया जाता रहा है कि हमारे परमाणु बम नुमाइश के लिए नहीं हैं। इसी धमकी को जम्मू- कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी दोहराती रही हैं कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार दिखावे के लिए नहीं रखे हुए हैं। कुछ कांग्रेसी नेता भी इस भय को जताकर आतंकवाद का पोषण और मुस्लिम तुष्टीकरण करने में लगे रहे हैं। आपरेशन सिंदूर के तहत हमारी तीनों सेनाओं के संयुक्त अभियान ने पाक की कथित शक्ति को तिनकों की तरह बिखेर कर, इस झूठ का ही पर्दाफाश कर दिया कि पाक के पास भारत से प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने का न तो कोई मनोबल है और न ही दृष्टि है।

  यहाँ भी समझने की जरूरत है कि परमाणु हमला कोई बंदूक का ट्रिगर नहीं है कि दबाया और गोली छूट गई। परमाणु हमले के लिए इसकी अलग-अलग स्थलों पर रखी इकाइयों को एक जगह लाकर जोड़ना होता है। इस प्रक्रिया में कम से कम आठ-दस घंटे लगते हैं। शत्रु देश यदि इस प्रक्रिया को अंजाम तक पहुँचाने के प्रयास में आता है, तो यह गतिविधि तुरंत अंतरिक्ष में स्थापित हमारे युद्ध संबंधी उपग्रहों की पकड़ में आ जाएँगे और सेना कमांड स्टेशनों को इस हरकत की खबर लग जाएगी। हम अपनी मिसाइलों की निशानदेही इस युद्ध में देख चुके हैं। इसके मायने हैं कि यदि पाक परमाणु हमले का प्रयास करता है तो उसके कथित मंसूबे पर अविलंब पानी फेर दिया जाएगा। इस समय हमारे पास थल, जल और वायु से मार करने वाली कई प्रकार की मिसाइलें उपलब्ध हैं। अतएव यह जानना भी जरूरी है कि परमाणु बम बनाना एक बार आसान है, लेकिन उसे चलाना उतना ही कठिन है। वरना अब तक रूस यूक्रेन पर और इजरायल फिलिस्तीन पर परमाणु हमले कर चुके होते ? हालांकि इजरायल को आमतौर पर परमाणु शक्ति संपन्न देश तो माना जाता है, परंतु इजराइल इस सच्चाई को न तो स्वीकारता है और न ही नकारता है। इजराइल की यह रणनीतिक अस्पष्टता उसकी ताकत को पुख्ता किए हुए है।

    भारत ने पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया था। इस समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं और देश आपातकाल के दौर से गुजर रहा था। इसके बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में 1998 में दूसरा परमाणु परीक्षण हुआ था। इसे आपरेशन ‘शक्ति’ नाम दिया था, जबकि पहले परीक्षण को ‘बुद्ध मुस्कराए’ (स्माइलिंग बुद्धा) नाम दिया गया था। इन प्रतीकार्थों के अर्थ हैं, शक्ति से ही मानवता मुस्कुरा सकती है। ये दोनों ही परीक्षण राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में किए गए थे। दूसरे परीक्षण के बाद दुनिया ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश मान लिया था। भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद ही पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने परमाणु बम बनाने का निश्चय करते हुए कहा था, ‘हम घास खा लेंगे, भूखे रह लेंगे, परंतु परमाणु बम अवश्य बनाएँगे।’ भुट्टो ने इसे मुसलमानों के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में प्रस्तुत किया। और फिर भौतिक एवं धातु विज्ञानी अब्दुल कादिर खान की मदद से परमाणु शक्ति संपन्न देश बना। कालांतर में 28 मई 1998 को बलूचिस्तान के चगाई जिले की रसकोह पहाड़ी पर चगाई-1 भूमिगत परमाणु परीक्षण किया। इसमें चीन ने भी मदद की थी। लेकिन आतंकवाद के पोशक पाकिस्तान को यह परमाणु क्षमता अपनी बौद्धिक कौशल दक्षता से कहीं ज्यादा यूरेनियम की चोरी से प्राप्त हुई थी। बहरहाल पाकिस्तान के पास इस वक्त 170 परमाणु हथियार होने के अनुमान हैं। इसी के समतुल्य भारत के पास 172 परमाणु हथियार बताए जाते हैं। यानी पाक  अपनी अनैतिकता की आदत से कभी बाज नहीं आया; इसीलिए एक बार फिर मोदी ने साफ किया है कि हमने ऑपरेशन सिंदूर रोका नहीं है, केवल स्थगित किया है। साफ है, पाक ने अब दोगली हरकत की तो पाक के परमाणु ठिकानों पर ही भारत की अचूक मिसाइलें गरजकर गिरेंगी।  उसके कथित परमाणु मुखौटे का मिथक भी उजागर हो गया है।

पर्यावरणः विरासत को संजोकर रखने वाला अनूठा गाँव पिपलांत्री !

  - सुनील कुमार महला

पेड़ हमारे पर्यावरण, हमारे पारिस्थितिकी तंत्र, मानव व धरती के समस्त प्राणियों, वनस्पतियों को बनाए रखने के लिए बहुत आवश्यक है। कहना ग़लत नहीं होगा कि पेड़ जीवन का मुख्य आधार हैं। यही कारण भी है कि हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में पेड़ों को युगों -युगों से बहुत ही अहम् और महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ तक कि हमारे यहाँ तो पेड़ों की पूजा करने तक का प्रावधान रहा है। हिंदू धर्म में तो पीपल, बरगद, केला, और नीम जैसे पेड़ों को अत्यंत पवित्र माना गया है।

 हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में तो यहाँ तक माना जाता है कि पेड़ों में मनुष्यों के समान चेतना होती है। सच तो यह है कि भारतीय संस्कृति में पेड़ों को अपने पुत्रों से बढ़कर माना गया है। पाठकों को बताता चलूँ कि भारतीय संस्कृति को अरण्य अर्थात वृक्ष की संस्कृति भी कहा जाता है। बहरहाल, आज जंगल कम हो रहे हैं। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। विकास के नाम पर, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर वनों का अतिक्रमण हो रहा है।

हाल ही में आई केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 13,056 वर्ग किमी वन क्षेत्र पर अतिक्रमण हुआ है, जो दिल्ली के कुल क्षेत्रफल से भी अधिक है, यह चिंताजनक है। जानकारी मिलती है कि मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 5,460.9 वर्ग किमी वन भूमि पर कब्जा है, जबकि 409 वर्ग किमी भूमि अतिक्रमण मुक्त की जा चुकी है।

कहना ग़लत नहीं होगा कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय हरित अधिकरण को सौंपी गई रिपोर्ट कहीं न कहीं देश में वनों के अतिक्रमण की भयावह स्थिति को उजागर करती है; लेकिन वहीं देश में कुछ ऐसे भी स्थान हैं,जो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में देश और समाज के समक्ष एक मिसाल प्रस्तुत करते हैं। पाठकों को बताता चलूँ कि राजस्थान के राजसमंद ज़िले का पिपलांत्री गाँव,  पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ ही लड़कियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है। जानकारी के अनुसार यहाँ हर नवजात बेटी के जन्म पर 111 पौधे लगाए जाते हैं और इस अनोखी पहल की वजह से यह गाँव हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में मशहूर है।

गाँव की खास बात यह है कि इस गाँव में हर तरफ हरियाली नजर आती है तथा यह पहाड़ियों से घिरा हुआ है। बहुत कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि गौचर भूमि संरक्षण,जल संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण में इस गाँव का स्थान विश्व में प्रमुखता से लिया जाता है। इस गाँव में हजारों पेड़ लगाए गए हैं और यहाँ आप पक्षियों की चहचहाहट सुन सकते हैं। इस गाँव में पेड़ों को भाई मानकर पेड़ों के राखी बांधने की परंपरा आज भी कायम है। कहना ग़लत नहीं होगा कि पिपलांत्री मॉडल हमारे देश व समाज ही नहीं अपितु पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल है।

वास्तव में यह बालिकाओं को बचाने और हमारे पर्यावरण व पारिस्थितिकी की रक्षा की नींव पर निर्मित यह पर्यावरण-नारीवाद मॉडल कई लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। राजस्थान के इस गाँव की कहानी वर्ष 2005 में राजस्थान के इस गाँव के सरपंच (पिपलांत्री गाँव के पूर्व सरपंच/पंचायत प्रमुख) श्री  श्याम सुंदर पालीवाल के साथ शुरू हुई। उन्होंने बालिकाओं को बचाने,जल संरक्षण करने तथा पेड़ लगाने का बीड़ा उठाया। 

उपलब्ध जानकारी के अनुसार वर्ष 2000 से पहले, पिपलांत्री गाँव में संगमरमर की खदानों और खदानों की भरमार थी, जैसा कि राजसमंद इनके लिए प्रसिद्ध रहा है। यहाँ पानी का स्तर 700- 800 फीट तक नीचे चला गया था और पीने तक के लिए पानी नहीं बचा था। गाँव में सामान्य बुनियादी ढांचे (बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर) जैसे कि सड़क, सिंचाई और कृषि का अभाव था। श्री पालीवाल को वर्ष 2007 में निर्जलीकरण(डिहाइड्रेशन) के कारण अपनी 17 वर्षीय बेटी किरण की मृत्यु का सामना करना पड़ा। इससे पिपलांत्री को बदलने का उनका जुनून और बढ़ गया। अपनी बेटी किरण की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपनी बेटी किरण की याद में पहला पेड़ लगाया।

इससे पिपलांत्री गाँव में क्रांति का विचार आया। पालीवाल इस बात से वाकिफ थे कि किस प्रकार से एक लड़की को जन्म से पहले ही मार दिया जाता था, श्री पालीवाल ने बेटी जन्म पर एक पेड़ लगाने के विचार को बढ़ाकर 111 पेड़ लगाने का लक्ष्य रखा, इससे एक सामाजिक बदलाव की शुरुआत हुई। उनकी इस पहल के कारण अब तक 3 लाख से अधिक पेड़ लगाए गए हैं और 700-800 फीट से नीचे का जल स्तर मात्र 5 वर्षों में 15 फीट ऊपर उठ गया है। इतना ही नहीं,पेड़ों को दीमक से बचाने और फलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए उनके चारों ओर 2.5 मिलियन से अधिक एलोवेरा के पौधे भी लगाए गए हैं। एलोवेरा उत्पादों से आर्थिक बदलाव भी आएँ हैं, लोगों को रोजगार मिला है।

पाठकों को बताता चलूं कि गाँव में ‘किरण निधि’ योजना की शुरुआत की गई, जिसमें पंचायत द्वारा बालिका के नाम पर बैंक खाता खोला जाता था और उसमें 21,000 रुपये की शुरुआती राशि जमा की जाती थी। माता-पिता (जो शेष 11000 रुपये का योगदान करते हैं) को एक हलफनामे पर हस्ताक्षर करना होता है, जिसमें वादा किया जाता है कि वे कन्या- भ्रूण हत्या नहीं करेंगे या अपनी बेटी की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले नहीं करेंगे, और वे उसे शिक्षित करेंगे। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी बालिका शिक्षा से वंचित न रहे और उसके पास अपने भविष्य के लिए पर्याप्त धन हो।

इतना ही नहीं, श्री पालीवाल ने खदान प्रबंधन का मुद्दा अपने हाथों में ले लिया, क्योंकि मार्बल का फेंका गया कचरा एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा था और इससे गाँव की जमीनें बंजर हो रहीं थीं। श्री पालीवाल को निर्मल ग्राम पंचायत पुरस्कार मिला और पुरस्कार स्वरूप 5 लाख रुपये  मिले। श्री पालीवाल के कारण आज पिपलांत्री अपने प्राकृतिक संसाधनों पर एक आत्मनिर्भर और समृद्ध गाँव है। इतना ही नहीं, महिला व्यवसाय और शिक्षा के विकास से बालिका सशक्तीकरण का मुख्य लक्ष्य पूरा हुआ है। वन्य जीवन में वृद्धि देखी गई है, जल संरक्षण हुआ है और गाँव के लोग समृद्ध और खुशहाल हैं। श्री पालीवाल की उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें वर्ष 2021 में प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि बेटी के जन्म को इस गाँव में एक बड़े उत्सव के रूप में मनाया जाता है। आज भी बेटी के जन्म पर यहाँ 111 पौधे लगाने की परंपरा जारी है। कहना ग़लत नहीं होगा कि राजस्थान के राजसमंद जिले का यह गाँव लैंगिक समानता और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सामुदायिक भागीदारी का एक अनोखा, नायाब व खूबसूरत मॉडल प्रस्तुत कर रहा है।

सच तो यह है कि इस गाँव की यह परंपरा महज एक रस्म नहीं; बल्कि आज एक सामाजिक आंदोलन बन चुकी है, जो समाज की मानसिकता को बदलने का कार्य कर रही है। गाँव में हर नवजात बेटी के जन्म के साथ 111 पौधे लगाए जाते हैं, जो यह दर्शाता है कि यदि संकल्प सच्चा हो, तो इस दुनिया में कोई भी कार्य असंभव नहीं है। वास्तव में, गाँव की यह अनूठी प्रथा न सिर्फ़ जीवन के उत्सव का प्रतीक है; बल्कि पर्यावरण और लड़कियों दोनों के पोषण और सुरक्षा की शपथ भी है।

आज पौधारोपण के संकल्प से पूरे गाँव की बयार बदल चुकी है। हर तरफ हरितिमा का आवरण आज नजर आता है। आज गाँव में नीम, शीशम, आम और आँवला समेत अनेक प्रजातियाँ विद्यमान हैं। जल संरक्षण, वनस्पतियों का संरक्षण और साथ ही बेटियों की रक्षा का अनूठा संगम इसी गाँव में देखने को मिलता है। मुहिम का असर इस कदर हुआ है कि आज बेटियों को बोझ नहीं, बल्कि गौरव का प्रतीक माना जाने लगा है। बहरहाल, कहना चाहूंगा कि पिपलांत्री का यह मॉडल लैंगिक समानता, जलवायु अनुकूलन, जैव-विविधता और टिकाऊ विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) का अनूठा प्रतीक बन चुका है।

वास्तव में, पर्यावरण संरक्षण और लैंगिक समानता के प्रति गाँव के ऐसे समग्र दृष्टिकोण ने गाँव को सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक प्रगति के प्रतीक में बदल दिया है। अंत में, यही कहूंगा कि राजस्थान के राजसमंद के पिपलांत्री की यह कहानी महिला सशक्तीकरण, जल संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जमीनी पहल को दिखाती है। हमें यह चाहिए कि हम राजसमंद के इस गाँव से प्रेरणा लें और अपनी युवा पीढ़ी को इसके बारे में जानकारी दें ताकि वे पर्यावरण संरक्षण के साथ ही जल संरक्षण और बेटियों की सुरक्षा व संरक्षण के प्रति कृतसंकल्पित हों सकें। (indiaclimatechange से साभार)

प्रदूषणः हमारे पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता नहीं है

 - कुमार सिद्धार्थ

भारत में ई-कचरे (इलेक्ट्रॉनिक कचरा यानी पुराने लैपटॉप और सेल फोन, कैमरा और एसी, टीवी और एलईडी लैंप वगैरह) के  प्रबंधन की तेज़ी से बढ़ती चुनौती से जुड़े पर्यावरणीय कानूनों को मज़बूती प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल, NGT) प्रतिबद्ध है। हाल ही में अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव के नेतृत्व में एनजीटी ने ई-कचरा प्रबंधन रिपोर्टिंग की वर्तमान स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है। एनजीटी ने अपने पूर्व आदेशों का पालन न करने का दावा करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे के उत्पादन और निस्तारण पर एक नई रिपोर्ट पेश करने के निर्देश दिए हैं। वहीं ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों का पालन न करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के खिलाफ की गई कार्रवाई का भी उल्लेख करने को कहा है। 

यह पहल ई-कचरे से निपटने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य और पारिस्थितिक अखंडता के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दा है।

देश में ई-कचरा प्रबंधन से जुड़े नियमों को लागू कराने में सीपीसीबी की भूमिका अहम है। ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों के पालन की निगरानी के साथ-साथ ई-कचरा प्रबंधन और निपटारा सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों हेतु भी सक्रिय पहल करने की ज़िम्मेदारी सीपीसीबी की है। एनजीटी ने सीपीसीबी को यह नई रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्‍तुत करने के लिए 12 दिसंबर तक का वक्‍त दिया है, जिसमें समस्त राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ई-कचरे के उत्पादन, उपचार सुविधाओं, और मौजूदा खामियों पर विस्तृत डैटा शामिल होना चाहिए। 

देश में बढ़ते ई-कचरे पर एनजीटी ने 7 नवंबर, 2022 को निर्देश दिए थे कि ई-कचरे के मामले में सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्रदूषण नियंत्रण समितियाँ, सीपीसीबी द्वारा जारी रिपोर्ट का पालन करें। लेकिन तमाम ज़िम्मेदार संस्‍थाओं द्वारा इन निर्देशों का अनुपालन ठीक से न करने पर एनजीटी ने असंतोष व्‍यक्‍त किया है। 

ई-कचरा जहाँ पर्यावरण के लिए खतरनाक होता है, वहीं मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। ई-कचरे के निपटान और तोड़फोड़ से पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। इनसे निकलने वाले तरल और रसायन सतही जल, भूजल, मिट्टी और हवा में मिल सकते हैं। इनके ज़रिए ये जानवरों और फसलों में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसी फसलों के इस्तेमाल से मानव शरीर में घातक रसायन पहुँचने का खतरा होता है। इलेक्ट्रॉनिक सामान में लेड, कैडमियम, बैरियम, भारी धातुएँ व अन्य घातक रसायन होते हैं।

सीपीसीबी द्वारा दिसंबर, 2020 में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 में भारत में 10,00,000 लाख टन से अधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 2017-18 में यह 25,325 टन और 2018-19 में 78,281 टन था। एक तथ्य यह भी है कि 2018 में केवल 3 फीसदी ई-कचरा एकत्र किया गया था, जबकि 2019 में यह आँकड़ा 10 फीसदी था। मतलब साफ है कि देश में ई-कचरे को री-सायकल करना तो दूर, इस कचरे की एक बड़ी मात्रा एकत्र ही नहीं की जा रही है। एक अन्‍य रिपोर्ट के आँकड़े दर्शाते हैं कि देश में 2022 के दौरान 413.7 करोड़ किलोग्राम इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 

भारत में अभी तक राज्य सरकारों द्वारा मान्यता प्राप्त व पंजीकृत ई-कचरा री-सायक्लर 178 ही हैं। लेकिन भारत के ज़्यादातर ई-कचरा री-सायक्लर ई-कचरे का रीसायक्लिंग नहीं कर पा रहे हैं और कुछ तो इसे खतरनाक तरीके से संगृहीत कर रहे हैं। इनमें से कई री-सायक्लर के पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता भी नहीं है।

आँकड़े बताते हैं कि खतरनाक ई-कचरे को सुरक्षित रूप से संसाधित करने के लिए नए नियम आने के बावजूद, लगभग 80 प्रतिशत ई-कचरा अनौपचारिक सेक्टर द्वारा गलत तरीके से निपटान किया जा रहा है, जिससे प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे कई गुना बढ़ने की आशंका है। इतना ही नहीं इससे भूजल और मिट्टी भी प्रदूषित हो रही है।

गौरतलब है कि दुनिया भर में प्रति वर्ष 2 से 5 करोड़ टन ई-कचरा पैदा होता है। जबकि वर्तमान में सिर्फ 12.5 फीसदी ई-कचरा रिसाइकल हो रहा है। मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान में बड़ी मात्रा में सोना या चांदी जैसी कीमती धातुएँ होती हैं। अमेरिका में प्रति वर्ष फेंके गए मोबाइल फोन में 3.82 अरब रुपये  का सोना या चाँदी होता है। ई-कचरे के रीसायक्लिंग से ये धातुएँ प्राप्त की जा सकती हैं। 10 लाख लैपटॉप के रीसायक्लिंग से अमेरिका के 3657 घरों में प्रयोग होने वाली बिजली जितनी ऊर्जा मिलती है।

विश्व भर में ई-कचरे का वार्षिक उत्पादन 2.6 करोड़ टन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है, जो 2030 तक 8.2 करोड़ टन तक पहुँच जाएगा। रीसायक्लिंग की कमी वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक उद्योग पर भारी पड़ती है, और जैसे-जैसे उपकरण अधिक संख्या में, छोटे और अधिक जटिल होते जाते हैं, समस्या बढ़ती जाती है। वर्तमान में, कुछ प्रकार के ई-कचरे का रीसायक्लिंग और धातुओं को पुनर्प्राप्त करना एक महँगी प्रक्रिया है।

हमें इस बढ़ती समस्या के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इससे निपटने के लिए सबके साथ की आवश्यकता है। राष्ट्रीय प्राधिकरणों, प्रवर्तन एजेंसियों, उपकरण निर्माताओं, रीसायक्लिंग में जुटे लोगों, शोधकर्ताओं के साथ उपभोक्ताओं को भी इनके प्रबंधन और रीसायक्लिंग में योगदान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

स्मृति शेषः पर्यावरण कार्यकर्ता समाज सुधारक विमला बहुगुणा

- भारत डोगरा

बहुत ही कम उम्र में महात्मा गांधी का मार्ग अपनाकर जीवन जीने वाली विमला बहुगुणा ने 14 फरवरी 2025 को देहरादून स्थित अपने घर पर अंतिम साँस ली। वे 92 वर्ष की थीं। अपने पीछे वे बेटी मधु पाठक और बेटे राजीव व प्रदीप को छोड़ गईं। उनके पति सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का 2021 में 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया था।

अक्सर लोग विमला बहुगुणा को सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर किए गए कामों के लिए याद करते हैं। लेकिन वे स्वतंत्र रूप में एक महान समाज सुधारक, न्याय की पैरोकार और पर्यावरण कार्यकर्ता थीं। उन्होंने स्वयं दूर-दराज़ के जंगलों में चिपको आंदोलन (पेड़ों को बचाने के लिए उनका आलिंगन करना) के साथ-साथ शराब-विरोधी और अन्य समाज सुधार आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

भूमिहीन लोगों के अधिकारों में दृढ़ विश्वास रखने वाली विमला बहुगुणा ने सरला बहन के मार्गदर्शन में ‘भूदान’ कार्यकर्ता के रूप में अपना सामाजिक काम शुरू किया था। वे भूमिहीन लोगों को भूमि दिलाने के लिए दूर-दराज़ के गाँवों में जाती थीं।

भूदान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विनोबा भावे ने इन शुरुआती दिनों में विमला बहुगुणा के काम करने के तरीके और दूर-दराज़ के गाँवों में उनके प्रभाव को करीब से देखा था: दूर-दराज़ के गाँवों में, और कई बार तो बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में, वे पहली बार भूदान का संकल्प दिलाने के लिए जाती थीं। विनोबा भावे के सचिव ने सरला बहन को (विनोबा भावे की भावनाएँ व्यक्त करते हुए) लिखा था, “मैंने उसके जैसी लड़की कार्यकर्ता नहीं देखी। वह सिर्फ पहाड़ों की लड़की नहीं है, वह पहाड़ों की देवी है।”

सरला बहन ने इन गाँवों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर बताया है कि एक नए क्षेत्र में काम करने के बावजूद, विमला को अक्सर अपने से अनुभवी स्थानीय पुरुष सदस्यों वाले समूह में नेतृत्व की भूमिका मिलती थी।

विमला बहुगुणा का दृढ़ विचार था कि महिलाओं को समानता का अधिकार मिले। उन्होंने उस समय प्रांतीय राजनीति के उभरते सितारे सुंदरलाल बहुगुणा के विवाह प्रस्ताव के समय यह शर्त रखी थी कि यदि सुंदरलाल राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ने और महात्मा गांधी के मार्ग पर चलकर स्वयं लोगों की सेवा करने का मार्ग अपनाने के लिए सहमत होते हैं, तभी वे विवाह के लिए राज़ी होंगी।

उन्होंने अपनी राह चुन ली थी और उसी पर चलीं। सुंदरलाल बहुगुणा ने सभी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को त्याग दिया। शादी के तुरंत बाद युवा जोड़े ने टिहरी गढ़वाल के एक सुदूर गाँव सिलयारा में खुद के लिए एक बहुत ही साधारण-सा आश्रम बनाने के लिए कड़ी मेहनत की।

यहाँ वे सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सहारा और प्रेरणादायक शख्सियत बन गईं, जिन्होंने नदियों और जंगलों की रक्षा के लिए, दलितों के समान अधिकारों के लिए, शराब की बढ़ती समस्याओं के खिलाफ काम किया और कई रचनात्मक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया।

जब भूकंप ने सिलयारा आश्रम के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया था, तब विमला बहुगुणा ने आश्रम का पुनर्निर्माण कार्य आरंभ होने तक बड़ी हिम्मत से इस मुश्किल घड़ी का सामना किया।

उनका सबसे कठिन और लंबा संघर्ष टिहरी बाँध परियोजना के खिलाफ था। इस संघर्ष में सुंदरलाल ने बाँध स्थल के पास नदी के किनारे एक झोंपड़ी में रहने की प्रतिज्ञा ली थी। उनके इस संघर्ष में वे दूर कैसे रह सकती थीं, तो विमला जी भी वहीं उनके साथ रहीं।

मैं 1977 के आसपास विमला जी से पहली बार मिला था। तब मैं 22 वर्षीया पत्रकार के रूप में चिपको आंदोलन और उससे जुड़े मुद्दों पर लिखने के लिए सिलयारा आश्रम गया था। बहुत जल्द ही वे हमारे परिवार के लिए एक प्रेरणास्रोत बन गईं। उनके अंतिम दिनों तक हम फोन पर बात करते रहे और जब मैं उन्हें अपनी नई किताब भेंट करने गया, तो वे बहुत खुश हुई थीं।

मैं जब-जब उनके घर या आश्रम गया, तब-तब मैं न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनकी गहरी रुचि से प्रभावित हुआ। वे हाल के घटनाक्रमों से अवगत होने के साथ-साथ इन मुद्दों पर मेरी राय जानने में बहुत रुचि रखती थीं, और बेशक इन पर वे अपनी टिप्पणियाँ और नज़रिया भी साझा करती थीं।

वे एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रतिबद्ध थीं। चाहे कितनी भी बड़ी मुश्किलें आईं, वे कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं हुईं।

उनके काम को विस्तार से इन दो किताबों - प्लेनेट इन पेरिल (Planet in Peril) और विमला एंड सुंदरलाल – चिपको मूवमेंट एंड स्ट्रगल अगेंस्ट टिहरी डैम प्रोजेक्ट (Vimla and Sunderlal Bahuguna—Chipko Movement and Struggle against Tehri Dam Project in Garhwal Himalaya) - में पढ़ा जा सकता है।

विमला जी सदैव एक प्रेरणा स्रोत रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

कहानीः आशा की दूसरी किरण

  - ज्योतिर्मयी  पन्त 

आज देवयानी का पत्र मिला। अपार ख़ुशी हुई। एक तो इस जमानें में जब पत्रों का आदान -प्रदान लुप्त सा हो रहा है तो कोई पत्र लिख भेजे तो प्रसन्नता का विषय है ही।दूसरा दो साल पहले  देवयानी पर दुखों का जो पहाड़ टूट पड़ा था। उससे शायद अब वह उबरने लगी थी। एक अजीब मनस्थिति में मैंने उसका पत्र खोला। पत्र खोल कर पढ़ने के बीच ही पिछली बातें एक झंझावात की तरह मन डुला गयीं और आँखों में आँसुओं के बादल से घिर आए। आँचल में उन्हें समेट  पत्र पढ़ना आरम्भ किया। 

      औपचारिक कुशल-क्षेम के बाद लिखा था। ‘आज  जो लिख रही हूँ। मुझे स्वयं ही यकीन नहीं आ रहा है कि यह सच है। पर तुमसे कुछ  छिपा भी तो नहीं। तीन बेटियों  के साथ अकेले किस तरह मैंने जीवन बिताया। जब भरी जवानी में ही पति अचानक ईश्वर को प्रिय हो गए। तीनों को माँ -बाप दोनों का प्यार और सहारा देकर बड़ा किया। उन्हें उनकी इच्छानुसार पढ़ा लिखा कर आत्म निर्भर बनाया ।अपनी   इस छोटी सी दुनिया में संतुष्ट हो गई थी ।तभी किसी रिश्तेदार ने बड़ी बेटी आशा का रिश्ता पक्का किया था ।लड़का  अनिकेत अच्छे खानदान का था ।पढ़ा लिखा था। किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर काम कर रहा था ।दोनों ने मिलकर एक दूसरे को पसंद भी कर लिया था। हर तरह से सुयोग्य जान कर सगाई निश्चित की थी। फिर जो हुआ ....तुम भी साक्षी रही थी ....’ 

    यहाँ से आगे पढ़ने से पूर्व वे सारी  बातें आँखों के सामने एक बार फिर उपस्थित हो गयीं ....हाँ सच ही तो है सगाई का समाचार और आमंत्रण पाकर  वह दो दिन पहले ही पहुँच गई थी। उसकी बचपन की सहेली की बेटी की सगाई थी न। घर में खुशियाँ   छलक रही थीं। देवयानी ने बहुत अच्छी तैयारी कर रखी  थी। बड़े सौभाग्य से यह दिन आया था। शुभ मुहूर्त पर अँगूठियाँ एक दूसरे को पहनाई गई। नाच -गाना, खाना पीना। हँसी खुशी संपन्न  हो गया। लड़के के घरवाले खुश होकर लौटे और शादी की तारीख निश्चित कर शीघ्र ही नए रिश्ते जोड़ने वाले थे। लड़का एक दिन के लिए और रुक गया था। उसे वहीं से अगले दिन चेन्नई जाना था। पूरा दिन दोनों को साथ बिताने,घूमने और खरीदारी करने  का मौका मिल गया था। अनिकेत सभी से मिलकर विदा हुआ ।पर किसी को यह आभास नहीं था कि यह विदाई अंतिम विदाई हो रही है ।सभी देर रात तक जगे बतियाते रहे थे। सुबह उस दिन रौशनी लेकर नहीं घोर अंधकार लेकर आई। टी.वी. पर प्रमुख समाचार ही उस ट्रेन के हादसे का था। सभी हक्के- बक्के से हो गए थे और दोपहर होते- होते तो सारी दुनिया ही  लुट गई थी। ट्रेन की भयानक टक्कर हुई थी सामने आती हुई ट्रेन से और कई लोगों की मृत्यु तो घटनास्थल पर ही हो चुकी थी। देवयानी को भी अनिकेत के घर से दुखद समाचार मिला। वह आशा  को लेकर तुरंत ही चेन्नई को रवाना हो गई घायलों को वहीं के अस्पताल में दाखिल किया गया था। मुझे उसके वापस लौटने तक वहीं रुकना पड़ा ।दोनों बेटियों  और घर की देख-रेख के लिए। जो ख़ुशी दो दिन पहले सारे घर को गुंजायमान किए  थी वहाँ अब मौत का सा सन्नाटा छाया था ।दो दिन के बाद ही अनिकेत सबको रोता बिलखता छोड़ कर चला गया। देवयानी आशा को लेकर लौट तो आई थी; पर लगता था आशा कही खो गई थी। एकदम सुन्न और  पत्थर की मूर्ति सी। जैसे किसी और ही दुनिया में हो।न तो वह खुल कर रो ही सकती थी न अपने मन की बात कह सकती थी। 

  देवयानी ने ही बताया था  ऐसे दुःख के समय क्या बात हो सकती थी ? सभी अवाक् हो गए थे। आँखों में आँसू ...स्वप्न- सा सब कुछ हुआ ...समझ से परे। सभी दुर्भाग्य को कोस रहे थे ।क्या चाहा क्या हो गया? पर अनिकेत की दादी और चाची  ने सारा दोष आशा के माथे मढ़ दिया। ऐसी लड़की जिसने घर में कदम भी न रखे, सिर्फ सम्बन्ध जोड़ने भर से घर का चिराग बुझा दिया। सभी को अंधकार के कुएँ में धकेल दिया। कितनी अपशकुनी ....दुःख की अवस्था में उन्होंने जो कहा वह तो फिर भी सुना जा सकता था। उनकी मानसिक अवस्था विवेक शून्य थी। लेकिन अपने ही सगे, रिश्तेदार, और आस-पास के लोग ...कभी मुखरित हो कर तो कभी इशारों में यही सब दोहराने लगे, तो केवल आशा ही नहीं उसकी दोनों बहनें भी एक अजीब सी स्थिति का सामना करने हो मजबूर सी हो गईं। अब आशा के दुर्भाग्य को लेकर उसकी बहनों के लिए जो रिश्ते आने लगे थे- एक-एक कर गुम से हो गए ।

आशा अब घर से बाहर निकलना ही नहीं चाहती। वह भी अपने आपको ही दोषी समझने लगी। सगाई की अँगूठी बहुत मुश्किल से ही उतारी थी। देवयानी ने आगे लिखा था ... ‘‘ऐसी स्थिति से गुज़र रही थी मैं की क्या बताऊँ? अपने सारे दुःख भूलकर मैंने इन्हें सम्हाला था …सारी उम्र। तब ये छोटी थी बातें मान जाती पर अब इनको समझाना दिन पर दिन कठिन हो रहा था। हर समय उदासी के बादल घिरे रहते। हँसी- ख़ुशी तो इस घर का रास्ता ही भूल गई।’‘ 

  दो साल से अधिक समय होने को आया पर हमारा समय जैसे वहीं स्थगित हो गया। एक दिन बड़ी हिम्मत से सोच  कि  जो भेंट- उपहार -गहने आशा को मिले थे। उनका क्या करें ? घर में रख कर भी पुरानी यादें जब-तब मन व्यथित कर देती ।वापस देना ठीक होगा कि नहीं? चुपचाप रख लेना भी ठीक नहीं। उनसे कहते भी न बनता था और न  कहना  भी। तब छोटी बिटिया रेनू ने  हिम्मत कर एक दिन अनिकेत की माँ कालिंदी जी से फोन पर बात करने की जिद की। उसने कहा ‘‘नाराज़ ही तो होंगे फिर से भला-बुरा सुनाएँगे ….सुन लेंगे कोई बात नहीं पर कहीं उन्होंने गहने -उपहार हड़प लेने  जैसी बातें मन में सोच रखी होंगी तो उनसे तो हमें छुटकारा मिलेगा …दुविधा में दिल पर बोझ लादने का क्या फायदा? रेनू की बात भी सही लगी। अब मिलजुलकर ही हमें हर हाल का सामना करना था। बहुत असमंजस से घिर कर डरते -घबराते एक दिन फोन कर ही दिया। कालिंदी जी तो रोती  रहीं  पता नहीं उन्होंने बात ठीक ढंग से सुनी भी या नहीं? सबके हाल पूछकर बोली …कुछ दिनों बाद  वे स्वयं  ही आएँगी , आने की सूचना भी पहले दे देंगी। कोई चिंता की बात नहीं। 

 कालिंदी  जी ने निश्चिन्त रहने को कह तो दिया पर उस दिन से चिंताएँ और बढ़ गईं। अब अगर कहती तो सामान हमीं दे आते …खुद ही आ रही हैं …क्या कहेंगी ? कहीं गहने उपहार में कोई कमी तो नहीं निकाल देंगी ।सब कुछ तो वैसे का वैसा ही है खोला ही कहाँ ? हे ईश्वर ! क्या क्या देखना सुनना बाकी है किस्मत में ? 

लगभग एक महीने बाद एक दिन फोन बज ही उठा। कौन उठाकर सुनने की हिम्मत जुटाए? इसी ऊहापोह में कोई न उठा सका …अब और चिंता न उठा पाने से …दुबारा करें या प्रतीक्षा करें ? एक दूसरे से आँखों से ही पूछ रहे थे। सभी की आवाज़ अवरुद्ध सी हो गई थी। तभी फिर घंटी  बज उठी ।मैं ने ही उठाया। आरंभिक औपचारिकता के बाद माफ़ी भी माँग ली। कालिंदी जी ने बताया कि वह अगले दिन ग्यारह बजे पहुँच जाएँगी। सभी लोग घर पर ही मिलें तो ख़ुशी होगी। स्वागत की तैयारी रखें। इस ‘आदेश’ को सुनकर हम सब और घबरा गए। स्वागत तो वैसे भी करते ही ....तो कहने की क्या आवश्यकता थी ? खैर अब जो होगा, धैर्य रख कर निभाना होगा। 

जो भी हो आज सुबह से फिर घर में थोड़ी हलचल होने लगी। सभी जैसे किसी सपने से जागे हों। हर तरह से तैयारी में लग गए। बार-बार नज़रें घड़ी की ओर जाती। शायद सबके मन में पिछली बार की तैयारियों की याद भी ताज़ा हो उठती थी; क्योंकि बीच -बीच में अचानक कुछ बात शुरू सी होती और एकदम ख़त्म भी हो जाती। ग्यारह बजते ही जैसे सबके कान बाहर दरवाज़े पर चिपक गए। थोड़ी ही देर में घंटी बजी। बेटियों को मैंने अन्दर जाने को कहा। दरवाजा खोल कर उनका स्वागत किया। कालिंदी जी गले मिल कर प्रेम से मिली तो मन एकदम हल्का सा हो गया। उनके साथ उनका छोटा बेटा अभिनव था उसने आदर से पैर छुए उसे आशीष दे अन्दर ले आई, बिठाया। रेनू से पानी लेकर आने को कहा। रेनू पानी ले आई। उसने कालिंदी जी के पग छुए और अभिनव को नमस्कार कर जाने ही लगी कि कालिंदी ने उसका हाथ थाम अपने पास बिठा लिया ।

 मैं चाय-नाश्ते के लिए रसोई में जाने ही लगी कि वे बोलीं ....अरे जल्दी क्या है? आराम से पिऊँगी चाय। आशा और तारा कहाँ हैं क्या घर पर नहीं? 

दोनों को  पुकारती हुई मैं चाय लेने चली ही गई। बाद में तारा और आशा  को  चाय नाश्ता लाने को कह मैं वापस आ गई। बैठते ही सोच रही थी  कि बात कहाँ से शुरू हो? फिर पिछली दुर्घटना से ही बात शुरू की। सांत्वना देते हुए भाग्य, होनी, बुरा समय ....था ....असहाय होते हैं सभी ऐसे वक्त में ....और न जाने क्या -क्या उसे खुद भी नहीं मालूम ....थोड़ी देर में दोनों ही गले मिलकर इतना रोईं  कि सभी की आँखों से आँसू बहने लगे। 

       तारा तब तक चाय ले आई थी। कालिंदी जी ने पहले पानी पिया। तारा को भी अपने पास बैठने को कहा। तभी आशा नाश्ता लेकर आ गई। मेज पर ट्रे  रख उसने डरते- डरते कालिंदी के पैर छुए। कालिंदी जी एक झटके में उठ  खड़ी हुई । सभी अचकचा से गए ....अब न जाने क्या हो? उन्होंने आशा को गले लगा लिया। और इतनी जोर-जोर से रोने लगीं। किसी को समझ में नहीं आ रहा था। क्या करें। क्या हुआ? और आशा भी मानों उनका पूरा साथ दे रही थी। वह भी उतनी ही जोर से चीखें मारकर रोने लगी। रो-रोकर जब मन थोड़ा आश्वस्त हुआ तब कालिंदी जी ने उसे अपने पास बिठा लिया। कुछ देर एक चुप्पी सी छा गई। कोई कुछ बोल ही नहीं सका। तभी कालिंदी जी ने कहा ....चाय ठंडी हो गई ....जल्दी पियो ...लो ....कह प्याला उठाने लगीं, सभी उनका अनुसरण- सा करने लगे। चाय पीते हुए उन्होंने सभी के हालचाल पूछे। फिर अचानक ही बड़ी गंभीर- सी हो गई। बोलीं देवयानी जी ! मुझे आपसे बहुत गंभीर बात करनी है ....सुनते ही मेरे पसीने छूटने लगे ....वह कहती जा रही थीं ....पर मेरी बात सभी एक साथ सुनें; इसीलिए मैंने सब को घर पर रहने की बात की थी ....फिर सोच-विचारकर जो भी फैसला हो ....मिलजुलकर आपसी सहमति से हो।

बात ये है कि मेरे साथ ....या कहों कि हमारे साथ जो होना था हो गया ....भरी जवानी में बेटा चल दिया ....इससे बड़ा दुःख और क्या होगा ? आपकी बेटी के सपने चकनाचूर हो गए, पर इसमें किसी  को दोष कैसे दें? पर ये समाज भी हमारा ही है। कहने सुनने वाले भी हमीं हैं। लोगों ने तो कहना था सो कह दिया  इससे भला क्या होगा ? पर बुरा ज़रूर हो जाता है। अब देखिए  जिस लड़की को हमने सब तरह से योग्य और गुणी समझकर अपने घर की लक्ष्मी बनाना चाहा वही आज अपशकुनों का घर समझी जा रही है ।और तो और उसकी बहनों पर भी बिना कारण लांछन लगाए जा रहे हैं। ऐसे में आपकी तकलीफ समझ सकती हूँ। हमारे भाग्य में यह दुःख साझा करना है। अगर सगाई से पहले यह होता तो? क्या तब भी आशा दोषी होती? अब जो मैं चाहती हूँ सुनिए ....सब कुछ पहले सा हो सकता है ....मैंने तो अभिनव को मना लिया है ....अब अगर आशा और आप भी साथ दें तो बात बन सकती है ....इन दोनों के गठ-बंधन से हमारे रिश्ते फिर जुड़ जाएँगे ....सभी मंत्रमुग्ध से सुन रहे थे ....रेनू और  तारा को भी बात ठीक लग रही थी पर आशा ....क्या इस बात पर राज़ी होगी ? असली बात तो अब उसके हाथ में थी क्या वह ये समझौता कर पाएगी ? कालिंदी जी ने कहा ....और कुछ देखना- सुनना तो है ही नहीं ....सब कुछ वैसा ही है सिर्फ  ....अनिकेत की  जगह  ....कहती हुई वे फिर सुबकने लगीं। चाहो तो ये दोनों आपस में बातें कर लें। घर में या कहीं बाहर जाकर ....सभी एक दूसरे को देखने लगे। तभी आशा अपनी जगह से उठ खड़ी हुई, लगा वह अपने कमरे में जाकर फिर रोएगी ....आज पहली बार वह रोई थी ....तभी लगा था उसमें संवेदनाएँ बाकी हैं वर्ना पूरे साल भर से वह एक जिन्दा लाश सी हो गई थी। बस काम से काम। न हँसना न बातें करना। आशा अपने कमरे में चली गई। सभी चुप बैठे रहे। क्या ये विषय गलत समय पर तो उपस्थित नहीं हुआ ? पहले आशा को अकेले में पूछकर उसका मन टटोलना उचित नहीं होता? सभी के मन अलग-अलग प्रश्नों में उलझे हुए थे। बहुत देर की शांति के बाद कालिंदी जी ही कहने लगी ...देवयानी जी  मैंने तो अपनी मन की बात आपसे कह दी। हमारी वजह से आशा का जीवन मुश्किलों से भर गया है। अनिकेत की भी यही इच्छा थी और अंतिम समय में इसी के सपने लेकर गया होगा। जो हुआ उसे हम बदल तो नहीं सकते पर कुछ कोशिश तो कर ही सकते हैं भावी जीवन के लिए। अब सारा जीवन रोकर ही नहीं बिताया जा सकता न? चलो मन की बातें कर जी हल्का तो हुआ आज …मेरे मन में आपसे ये बात करने की इच्छा कई बार हुई थी पर साहस नहीं जुटा पाई। उस दिन जब आपने  सामान लौटाने की बात की तभी मन में ये ख़याल आया  कि सिर्फ सामान ही क्यों  हमारी एक बहुमूल्य अमानत और भी है आपके घर में। …अगर सभी साथ में मिल जाए तो? इसीलिए मैंने यहाँ आने की बात कही थी। टेलीफोन  पर सब बातें नहीं की जा सकती थी। अब आशा जो भी ठीक समझे उसे  अपने जीवन का फैसला स्वयं करना है हम अपनी रुचि, राय …उस पर नहीं थोप सकते, वह अच्छी तरह सोच विचार कर ले …फैसला कर ले। तब आप हमें सूचित कर सकती हैं। अब चलना चाहिए।  तभी तारा ने कहा आंटी। अभी कैसे जा सकती हैं आप ?दोपहर के भोजन का समय है। आपकी ट्रेन तो रात को जाती है। अतः आप थोड़ा आराम करें फिर भोजन। इतनी जल्दी क्यों ? 

   रेनू और तारा को लेकर मैं रसोई में गई। एक बार चाय और हो तो अच्छा  रेनू  चलो ...यह कहकर चल दी। मन में यह भी जानने की उत्कंठा थी कि आशा  क्या कर रही  होगी ? पर अपने को रोक लिया अगर आशा ने कुछ कह दिया तो स्थिति ख़राब हो सकती है। अच्छा तो यही होगा कि इनके जाने के बाद ही बात की जाए। उसे कुछ देर अकेले ही रहने देना बेहतर होगा। चाय और खाना निबट गया तो उन दोनों को  आराम करने को कह दिया। अभिनव ने अपने किसी मित्र से मिलने के लिए जाने की बात की और चला गया । 

   शाम होने से पहले आशा ने रसोई में आकर ही भोजन किया और... ‘‘माँ मुझे कुछ कहना है’ …कहकर उसने मेरे हाथ पकड़ लिये। आँखों में आँसू तैर रहे थे और हाथों में एक स्पंदन जिसे मैं महसूस कर सकती  थी। ‘‘शायद मुझे अभिनव से बात कर लेनी चाहिए  …अगर वह तैयार है तो मुझे भी कोई आपत्ति नहीं। अगर मुझे विवाह करना ही है, तो …रेनू और तारा के लिए भी …तो सोचना है। यही ठीक है। उसे जानती तो हूँ ही। पर जो सबसे बड़ी बात है वह है उनकी सोच …एक बेटा जो माँ की बात को शिरोधार्य करने को तत्पर है। दूसरी वह माँ …जो अपने दुःख को पीछे धकेल हमारे दुखों का  बोझ कम करने आई है। हम उनके बारे में क्या-क्या सोच रहे थे? ऐसी सोच रखने वाली महिला का साथ तो मैं वैसे भी देती। और इनसे तो पहले भी …जीवन भर साथ निभाने का वादा कर चुकी थी ।फिर वह तो मुझे बहू का ही स्थान देकर एक और अवसर दे रहीं हैं। मुझे लगता है मना करने से  उनका अपमान न हो जाए  …जिसकी याद मैंने अपने मन में बसा रखी है …उससे किए वादे  भुलाना भी ठीक नहीं …माँ! बताओ मैं क्या करूँ ? मैंने उसकी बात और विचार सुनकर शाबाशी दी और गले लगाया। रेनू और तारा को भी बुलाकर बात कर ली। शाम को कालिंदी जी और अभिनव से भी सारी बातें तय हो गईं। कालिंदी जी ने अपने घर पर फोन द्वारा यह शुभ सूचना दे दी। अगले पंद्रह  दिन बाद किसी मंदिर में सिर्फ घर के लोगों और शुभचिंतकों के सानिध्य में दोनों का विवाह होना है। ‘‘अगर तुम आओ तो अच्छा लगेगा ।’ 

 देवयानी का  पत्र पढ़कर मुझे जो ख़ुशी मिली उसका वर्णन करना तो कठिन है ही। पर मुझे कालिंदी जी से मिलने का मन हो आया। अपने दुःख को नगण्य समझकर जो दूसरों का हित सोच रही हैं, जिनकी विचार धारा सामान्य समाज की विचारधारा से बिलकुल अलग है। जो और लोगों के बहकावे में न आकर खुद की अलग पहचान रखती हैं। उनसे मिलने का अवसर मुझे नहीं गँवाना चाहिए।

सम्पर्कः ए 45 रीजेंसी पार्क-1, डी. एल.एफ़, फेज़- 4, गुड़गाँव, हरियाणा- 122002

व्यंग्यः बुरे फसे डींग हाँककर

  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

आपको दिन दहाड़े ऐसे सज्जन मिल जाएँगे, जिनकी दिनचर्या में डींग हाँकना भी शामिल रहता हैं अगर ये सज्जन ऐसा न करें, तो उदरशूल से इनका जी घबराने लगेगा। डींग हाँके बिना इनकी जुबान की खुजली नहीं मिटती। रोज़मर्रा डींग हाँकने के परम पवित्र क्रम में लीन रहने के कारण उससे पीछे हटना मूँछ मुड़ाने जैसा अपमान है। डींग हाँकना भी एक प्रकार का नशा है। जिस प्रकार पियक्कड़ आदमी न गली देखता है, न चौराहा, न सुबह देखता है, न शाम, न गैरों को देखता है न सगों को, इसी प्रकार डींग प्रेमी कहीं भी खड़ा हो, अपनी डींगों से लोगों  का मनोरंजन करता रहता है। उसे फिक्र नहीं रहती कि कोई उसे कितने धैर्य से झेल रहा है। किसी भी विषय पर चर्चा छेड़िए, डींगधारी हर जगह अपने सींग फँसा लेगा। 

शनिचर जी हमारे दफ़्तर में नए-नए आए। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया जैसे कि वे इस दुनिया के अकेले आदमी हों। ईश्वर ने इनको फ़ुर्सत के समय या किसी गजटेड छुट्टी में गढ़ा था। इन्होंने बॉस के सामने अपना ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया। इनके परदादा किसी बादशाह की चिलम भरा करते थे। चिलम भरने की महारत से खुश होकर बादशाह ने इनके परदादा को पाँच गाँव की जमीदारी बख्श दी थी। शनिचर जी बॉस की चिलम भरने की दिली ख्वाहिश तो रखते हैं; लेकिन मजबूरी यह है कि बॉस को सिगरेट, बीड़ी के धुएँ से एलर्जी है। एक दिन बैठे बिठाए आमों की चर्चा चल निकली। इन्हें नौकरी पर आए छह दिन ही हुए थे। बॉस को मुट्ठी में कर लेने का यह अच्छा मौका था। शनिवार जी ने रद्दा लगाया- ‘‘सर, मेरे यहाँ सौ बीघे के खेत में आम का बाग़ है। हमारे बाग़ का आम धुर कश्मीर तक जाता है। बेहट का फजली और दसहरी लाजवाब है।’’

‘‘इस बार घर जाओ, तो एक पेटी आम लेते आना।’’ -साहब ने होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा। ‘

‘‘अरे साहब एक पेटी क्या चीज है? चार-चार पेटी आम तो हम अपने नौकरों के यहाँ भिजवा देते हैं। आप दस-बीस की बात कीजिए साहब।’’ -शनिचर जी हुलसा उठे।

‘‘भाई दस-बीस का क्या करना, एक ही बहुत है। मुझे फलों की कोई दुकान नहीं लगानी है।’’

‘‘ठीक है साहब, जब आप एक कह रहे हैं, तो एक ही सही।’’

शनिचर जी घर पहुँचे। पत्नी से बोले- ‘‘तुम मुझे उल्लू समझती थी। अपने बॉस मेरे एक इशारे पर नाचते हैं। जो भी काम कहूँ, फ़ौरन कर देते हैं। इतना असर है उन पर मेरा।’’

‘‘तो फिर मेरी बहन को अपने दफ़्तर में नौकरी दिला दीजिए न!’’

‘‘इस तरह के कामों से मेरा असर खत्म हो जाएगा। साहब से, और मैं नौकरी माँगूँ ! यह मेरी शान के खिलाफ है।’’

‘‘बीच में तुम्हारी शान कहाँ से आ गई? चलिए, और न सही मेरे मायके वाले हलवाहे के बेटे को चपरासी ही लगवा दीजिए। गरीब की मदद हो जाएगी।’’

‘‘अरे गरीब की मदद तो बाद में होगी, कहीं वह हलवाहे का बेटा मेरी इज्ज़त में बट्टा न लगा दे! आखिर पूरे दफ़्तर में मेरी कुछ हैसियत है।’’

‘‘हफ्ऱते भर में तुम्हारी कुछ हैसियत बन गई होगी, मुझे विश्वास नहीं।’’

‘‘कभी आकर ख़ुद देख लेना। पता चल जाएगा। खैर मैं देखूँगा। चपरासी की जगह खाली हो तो ज़रूर काम करा दूँगा। बस, आम की एक पेटी का सवाल है। साहब को ख़ुश करना पड़ता है न!’’

‘‘साठ-सत्तर में एक पेटी आ जाएगी।’’

‘‘लेकिन अभी मेरे पास फ़ालतू पैसा नहीं है।’’

‘‘ठीक है सत्तर रुपये मैं देती हूँ। आप अपने साहब के घर आम पहुँचा दीजिएगा; लेकिन चपरासी की नौकरी पक्की कर लेना।’’

शनिचर जी किसी तरह आमों की पेटी खरीदकर बस पर लदवाने में सफल हुए। कंडक्टर ने डबल किराया वसूला। बस पर चढ़ाने के पैसे अलग वसूले। जहाँ भी बस रुकती, शनिचरजी खिड़की से गर्दन निकालकर देखते, कहीं कोई आम की पेटी न उतार ले जाए। आखिरी स्टॉप पर बस रुकी। सवारियाँ लदड़-फदड़ करके उतर गईं। बस के ड्राइवर और कंडक्टर चाय पीने के लिए झोपड़ ढाबे में जा घुसे। अब समस्या थी-बस की छत से पेटी कौन उतारे? सब लोग अपना-अपना सामान उतारकर चलते बने। एक रिक्शेवाले की खुशामद की। दो रुपये दिए, तब जाकर वह बस की छत पर पहुँचा। सीढ़ियों पर अधबीच में आकर उसने शनिचर जी को पेटी थमाई। बोझ की झोंक में शनिचर जी पुराने किले की तरह पेटी सहित ध्वस्त हो गए। पेटी की एक फट्टी उखड़ गई। टाँग पर चोट लगी, सो अलग। उसने पत्थर से फट्टी को बमुश्किल ठोंका। इतने में कहीं से पुलिस के दो सिपाही आ धमके। एक ने डंडा घुमाते हुए पूछा- ‘‘क्या है इस पेटी में?’’

‘‘क्या है?’’ शनिचर झुँझलाया- ‘‘क्या होता, आम है।’’

‘‘आम है, अफ़ीम क्यों नहीं? हेरोइन भी तो हो सकती है!’’ -दूसरा कड़का- ‘‘पेटी खोलकर दिखाओ।’’

मरे मन से शनिचर ने पेटी की ऊपर वाली फट्टियाँ उखाड़ीं और झुँझलाकर कहा- ‘‘लो देख लो, कहाँ है इसमें अफीम?’’ दोनों ने पेटी की ऊपर से नीचे तक टोह ली और एक-एक आम निकालकर चूसना शुरू किया। ‘‘बुरा मत मानो भाई। तुम भले आदमी हो। यहाँ कल ही दो लोग पकड़े गए। फलों की पेटी में अफ़ीम ले जा रहे थे। गलत लोगों के कारण अच्छों को भी कष्ट भुगतना पड़ता है।’’

शनिचर जी बेबसी से दोनों को घूर रहे थे, जैसे उन्होंने आम नहीं वरन् उसका कलेजा निकाल लिया हो।

अब उसे जल्दी थी साहब के यहाँ जाने की। दो बज गए थे। साहब का बंगला तीन किलोमीटर था। साथ में पेटी देखकर रिक्शा वाले ने सात रुपये माँगे। शनिचर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया- ‘‘क्यों लूट मचा रखी है? रोज तो तीन रुपये लेते हो।’’

‘‘बाबू जी, आपको अकेले चलना हो, तो तीन रुपये ही लेंगे।’’

घायल टाँग दर्द कर रही थी। जेब में केवल पाँच रुपये बचे थे। उसने रिक्शे वाले पर अंतिम हथियार चलाया- ‘‘पाँच रुपये लेने हो तो चलो, नहीं तो अपना रास्ता नापो।’’ रिक्शावाला शायद इसी उत्तर के इन्तज़ार में था। उसने रिक्शा मोड़ा- ‘‘ठीक है, बैठे रहिए साहब! जब कोई पाँच रुपये लेने वाला आ जाए, तो जाइएगा।’’ शनिचर जी रुआँसे हो गए।

धूप में और तीखापन आ गया था। बंगले की ओर जाने के लिए अब कोई रिक्शेवाला तैयार नहीं होगा। उधर से सवारी न मिलने के कारण खाली आना पड़ता है। जी कड़ा किया। पेटी कंधे पर रखी। पेटी की एक फट्टी कंधे में गड़ी जा रही थी। कुछ ही दूर चलने पर साँस फूलने लगी। शरीर पसीने से तर हो गया। धीरे से पेटी नीचे उतारी। दूसरे कंधे पर लटके बैग से तौलिया निकाला। पसीना पोंछा। फिर तहाकर तौलिया कंधे पर रखा। उस पर पेटी रखी। कुछ दूर चलने तक तो ठीक रहा। तौलिया कंधे से बार-बार खिसक जा रहा था। पेटी में से एक शैतान कील गर्दन में चुभने लगी थी। जी में आया- पेटी को फेंक खाली हाथ चला जाए। फिर मन मारकर रह गया। आखिर सत्तर रुपये खर्च किए हैं। ढोने का किराया और दिक्कत भी शामिल है। साहब को खुश भी तो करना हैं, सिर्फ़ इसी बात से उसे राहत मिली। थोड़ी दूर पर उसे सुस्ताना पड़ता। तीन किलोमीटर की दूरी तीन सौ किलोमीटर लम्बी लग रही थी। शैतान की आँत की तरह ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। कंठ प्यास से सूखने लगा। उसे लगा- सूर्य को भी उससे दुश्मनी हो गई है; नहीं तो क्या पड़ी थी इतनी धूप बरसाने की।

उसका पोर-पोर दुखने लगा। तीन बज गए। ज़ोरों की भूख लग आई। आमों के चक्कर में खाना-पीना भी भूल गया। मर-खपकर साहब के बंगले पर पहुँचा। आस-पास सन्नाटा फैला हुआ था। पेटी नीचे रखकर वह धम्म से बैठ गया। गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी। कन्धे पर ध्यान गया- कमीज मुचड़ गई थी। बालों में धूल भरी हुई थी। जैसे ही दरवाजे की ओर बढ़ा, पास के पेड़ के नीचे बैठे दो कुत्ते उस पर गुर्रा उठे। शायद वे उसका हुलिया देखकर चौंक गए थे। उसने कॉलबेल पर हाथ रखा, बेल घरघराती रही। डर के मारे हाथ हटाना भी भूल गया। दरवाजा खोलते ही मेम साहिबा झल्लाईं- ‘‘क्या बात है?’’

‘‘मेम साहिबा, आम---’’ शनिचर इतना ही कह पाया था।

उसकी बात को अनसुना करके वह बिफर उठीं- ‘‘हमें नहीं खरीदने आम। चले आते हैं भरी दुपहरी में!’’ -और दरवाज़ा बन्द कर लिया। शनिचर जी माथे पर हाथ रखकर खुद को कोस रहे थे। अगर डींग न हाँकते, तो आज यह दुर्गति न झेलनी पड़ती। दोनों कुत्ते इस समय उन्हें सहानुभूतिपूर्वक देख रहे थे।