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Jun 1, 2025

साहित्य मंथनः साहित्य के सरोकार को बड़ा फलक देती ‘सोंढूर- डायरी’

  - विनोद साव 

इन्दुशंकर मनु भिलाई में व्याख्याता रहे हैं। वे तीन विषयों में एम.ए. हैं। वे साहित्य के बड़े अध्येता और साधक रहे हैं। कम लिखते हैं पर सार्थक और गंभीर लेखन करते हैं। बहुत पहले उनका एक कविता संग्रह ‘प्रश्न शेष है’ छपकर आया था जिसे हिंदी साहित्य में एक जरूरी हस्तक्षेप माना गया। स्वयं गंभीर रहकर बातचीत और वार्ताओं के प्रति वे इतने आग्रही रहे हैं कि उनकी साहित्यिक मित्र मंडली काफी बड़ी है और जिन्होंने उनके आसपास विमर्शों को बनाए रखा है। हम इन्दुशंकर मनु की सर्वप्रिय प्रकाशन से सद्यःप्रकाशित कृति ‘सोंढूर-डायरी’ पर यहाँ चर्चा करेंगे। उनकी यह कृति भी उनकी प्रकृति के अनुकूल एक चर्चा-विन्यास है। इस तरह के विमर्श, लेखन में तभी आकार ग्रहण करते हैं जब लेखक में स्थानीयता व आंचलिकता के प्रति अनुराग हो और इस स्थानीयता से उपजी उन तमाम विशेषताओं को उद्घाटित करने का उनमें प्रबल आग्रह हो। उसे जानने जनवाने का वह उपक्रम जिसे अस्मिता वादी दृष्टि से भी देखा जाता है। 

हम अपनी अस्मिता (identity) को भिन्न माध्यम से तलाशते हैं: इसमें हमारी जातीय स्मृतियों, लोक-गाथाओं, मिथकों, पौराणिक चरित्रों कथाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। ये काल्पनिक होते हुए भी सत्य प्रतीत होते हैं। पर यहाँ तो सत्य है और अपने समूचे यथार्थ में है। इस कदर यथार्थ में हैं कि सत्य भी काल्पनिक प्रतीत हो जाए किसी गल्प की तरह। लेखक कवि भी हैं इसलिए स्थानीय मान्यताओं के आधार पर कल्पना की उड़ान भी भर लेते हैं। पर चूँकि लिख रहे हैं गद्य में तो गद्य की भंगिमा यथार्थ को और करीब लाकर उसे खंगाल डालने की होती है। यह कूबत ‘सोंढूर डायरी’ के लेखक इन्दुशंकर मनु में भरपूर दिखाई दे रही है और वे सोंढूर के वनप्रांतर को उद्घाटित (explore) करते चलते हैं एक कुशल खोजयात्री की तरह। यह तब होता है जब लेखक में अपनी स्थानीयता और अस्मिता के प्रति भावना प्रबल होती है। यह भी एक रोग है। योग शास्त्र के अनुसार यह पाँच क्लेशों में से एक है राग, द्वेष की तरह मन का यह भाव या मनोवृत्ति कि मेरी एक पृथक् और विशिष्ट सत्ता है, इसमें अहंकार भी निहित होता है जो क्षेत्रीयतावाद को उभार देता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जन्म दे देता है। अपनी बानी बोली धरती संस्कृति को लेकर उन्माद से भर उठता है अस्मितावादी आदमी और पृथक्तावादी आन्दोलन से भी जुड़ सकता है जबकि हमारे लिए हितकर है संवैधानिक राष्ट्र न कि फकत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद।

अतः महत्त्वपूर्ण है हम अपनी जातीय स्मृतियों, लोक-गाथाओं, मिथकों या पौराणिक चरित्रों कथाओं की भूमिका का कितना लोकतंत्रीकरण कर पा रहे हैं उसे लोकव्यापी बना पा रहे हैं। यही बातें हमें संवैधानिकता, उदार न्याय व्यवस्था और सर्वजन हिताय प्रशासनिक व्यवस्था और नागरिक संचेतना की ओर ले जाती हैं... और यह दृष्टि संपन्न चेतनागत विशेषताएँ सोंढूर- डायरी के लेखन में पूरी तरह उपस्थित है। यहाँ लेखक का रचना धर्म स्पष्ट उदार और खुला हुआ है। अगर लेखक अपनी कहानी ऐसे कहता है जैसे दूसरों की हो और वह दूसरों की कहानी ऐसे कहता है जैसे अपनी हो, यह हमारी लोकतांत्रिकता का विस्तार है... जो यहाँ निष्पन्न हुआ है।

यह नदी के उस पार की व्यथा-कथा है। संभव है इस पार कोई समृद्ध सभ्यता हो और नदी का उस पार अनबूझा और रहस्यमय हो। अल्बर्ट आइन्स्टाइन कहते हैं-  ‘यह बड़ी ख़ूबसूरत चीज है कि हम यहाँ आकर यह अनुभव कर सकते हैं यह रहस्यमयता ही सच्ची कला और विज्ञान का स्रोत है।’ हम उस पार की सभ्यता से अनभिज्ञ होते हैं; पर अनभिज्ञ रहना नहीं चाहते। भूगोल की भाषा में यह ट्रांस महानदी एरिया या ट्रांस सोंढूर एरिया कहलाएगा। इस ‘ट्रांस एरिया’ के पीछे मनुष्य की जिज्ञासा हमेशा बनी होती है। वह उसे हमेशा ‘एक्सप्लोर’ करने को बेचैनी और छटपटाहट में होता है और इसके लिए वह निरंतर कोशिश करता आया है। इसके अप्रतिम उदाहरण राजनेताओं में नेहरू और साहित्यकारों में सांकृत्यायन रहे हैं। नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ सहित उनकी सभी पाँच कृतियाँ उनके हिंदुस्तान की खोज और विश्व इतिहास की झलक दिखलाने वाली विलक्षण कृतियाँ रही हैं और सांकृत्यायन ने मनुष्य की सामाजिकता और उसकी संस्कृति के अंकुरित होते बीजों को तलाशने के लिए पूरा हिमालय छान मारा है, बुद्ध धर्म की जड़ें तलाश ली हैं और खुद भी बुद्धिष्ट हो गए थे। खोजी इन्सान को ऐसी प्रदक्षिणा उन्हें परिव्राजक भी बना देती हैं।

यहाँ यह काम एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र में है और जिसका निर्वाह इन्दुशंकर मनु ने अपनी खोजी प्रवृत्ति में किया है। यहाँ सोंढूर नदी और उसका जलाशय क्षेत्र है सोंढूर बांध। दुधावा बांध और गाँव हैं। सप्तऋषि पहाड़ियाँ हैं, आदिवासी समाज और उनका जन-जीवन है, हिंसक वन्यजीवों के बीच उनका असुरक्षित वन्य जीवन है... और इस वन्य जीवन के घेरे में उनका जिजीविषा भरा जल-जोरू-जमीन का सामाजिक संघर्षमय जीवन है। उन्हें प्राप्त होने वाली लचर शिक्षा व प्रशासनिक सुविधाएँ नहीं बल्कि दुविधाएँ हैं। इसलिए बेर-कुबेर उनकी सामाजिकता अनायास असामाजिकता का रूप भी ले लेती है। 

यह डायरी शैली में लेखन तो है पर इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं और डायरी बिना तारीख या समय निर्धारित किए बिना भी लिखी जा सकती हैं। उसके घटनाक्रम और परिवेश ही रचना समय को निर्धारित कर देते हैं। यहाँ रचना छोटे - छोटे खंड में समाहित होती हुई आगे बढ़ती है और हर तरह के तथ्यों को उद्घाटित करती चलती है। पुस्तक में चर्चानुसार बीच -बीच में रंगीन व श्वेतश्याम लोकचित्र हैं। आदिवासी तथा गैर आदिवासी जनों व मूल निवासियों के चित्र हैं। उनके गाँव व हाट-बाजार हैं। इन चित्रों से पाठकों की समझ थोड़ी और रुचिकर हो जाती है। रचना में रेखांकन केवल लिखित न रहकर, चित्रमय भी हो जाए, इसका लेखक ने अपनी सम्पादकीय दृष्टि में ख्याल रखा है। असगर वज़ाहत ने भी अपने एक यात्रावृत्तांत ‘रास्ते की तलाश में’ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘अस्त्राखान वाया येरेवान’ को इसी तरह चित्रमय बनाया है।

लेखक इन जगहों में ‘टूरिस्ट’ नहीं ‘ट्रेवलर’ बनकर आया है। वह किसी टूरिस्ट (पर्यटक) की तरह सोंढूर के बांध, जंगल व पहाड़ी क्षेत्रों में पिकनिक मनाने नहीं आया है। बल्कि वह ट्रेवलर (सैलानी) की तरह आया है। यानि एक ऐसा यायावर जो कहीं भी जाता हो तो वहाँ की तमाम परिस्थितियों को अपने साथ लेकर आता हो। वह समय काटने या मित्रों के साथ केवल मौज-मस्ती के लिए नहीं आया है। इसे ऐशगाह नहीं बनाया है बल्कि उसके साथ उसकी ‘डायरी’ भी हैं जिनमें जंगल-जीवन के हर प्रसंग को वह नोट करता है चाहे अपनी स्मृतियों में सही। उनका विश्लेषण कर हमारे सामने एक रचनात्मक कृति में उन्हें पेश करता है। वह रचना के आरम्भ में ही वहाँ की मान्यता अनुसार यह बता देता है कि “मायावी स्वर्ण मृग मारीच जहाँ मारा गया वहाँ से जो जलधारा फूटी उस प्रवाहिका का नाम सोंढूर ख्यात हुआ। छत्तीसगढ़ की जीवन रेखा महानदी में जहाँ पैरी और सोंढूर नदी का संगम हुआ वहाँ सोनकर जाति के लोग नदी की रेत से स्वर्ण कण संग्रहीत करते थे। स्वर्ण मृग का मिथक और नदी की रेत में स्वर्ण पाए जाने की हकीकत ने इस नदी का सोंढूर नाम सार्थक किया है। इस नदी पर जहाँ बाँध का निर्माण किया गया है उस गाँव का राजस्व नाम मेचका है लेकिन प्रचलन में इसे सोंढूर ही कहा जाता है। मेचका ग्राम, मेचका पहाड़ी और मेचका, ऋषि मुचकुंद का अपभ्रंश है।”

यहाँ राजा मुचकुंद हुए। राजाओं और सामंतों के युद्ध हैं। राजा मुचकुंद ने पहाड़ी पर शिखर की गुफा को अपना आवास बनाया और चारों दिशाओं में चार सामंत नियुक्त किए- मेचका में माँझी, अरसी कन्हार में मरकाम, खालगढ़ में मुरिया और बरपदर में धुरवा उपनाम वाले सामंत थे। इन क्षेत्रों में पौराणिक कथाओं से जुड़े ऋषियों के नाम से सात पहाड़ियाँ है जिन्हें सप्तऋषि कहते हैं। दूर से ऊन के गोलों के समान दिखने वाली ये पहाड़ियाँ- शृंगी, अंगिरा, मुचकुंद और गौतम ऋषि के नाम हैं। शेष तीन ऋषियों के आश्रम अमरकंटक में हैं। यहाँ यात्रा करने वाले दोनों क्षेत्रों की यात्रा कर परिक्रमा पूरी करते हैं। ऐसे परिवेश में यहाँ गुरु, बाबा उनके अनुयायी मूल और आस्थावादी प्रवासी अप्रवासी आदिवासी जन व सरकारी कर्मियों को लेकर कई रोचक किवदंतियाँ कही जाती हैं जिन्हें पढ़कर एकबारगी राजस्थान के लोकजीवन को चित्रित करते विजयदान देथा लिखित आख्यानों की याद आती है। जंगल का सौन्दर्य रुडयार्ड किपलिंग के ‘जंगल बुक’ के समान उभरकर आता है। इन सबका चित्रण जो यहाँ करते हैं उन्हें सोंढूर के लोग ‘शहर वाले गुरूजी’ कहते हैं। लेखक मनु भिलाई में शिक्षक रहे हैं।

यह जानकर अचम्भा होता है कि यहाँ ब्रिटिश काल में खोदा गया एक कुआँ है। जब छत्तीसगढ़ में बम्बई कलकत्ता रेल-लाइन डाली जा रही थी, पटरियों के नीचे लकड़ी का स्लीपर डाला जाता था। इस काम के लिए साल और सागौन की लकड़ी उपयुक्त मानी जाती थी, जो इस क्षेत्र में अब भी बहुतायत से पाई जाती है। इसके परिवहन के लिए रायपुर से सिहावा तक छोटी लाइन की रेल चलाई जाती थी। राजिम-अभनपुर-धमतरी तक चलने वाली ये छोटी लाइन की गाड़ियाँ तब दुधावा सोंढूर के दुर्जन इलाकों तक जाया करती थी। पर विकास की गति ऐसे चली कि समय से पहले हो जाने वाला यातायात एवं परिवहन का आधुनिक मशीनी माध्यम ध्वस्त हो गया। एक ज़माने में इस क्षेत्र के धमतरी जैसे बड़े और समृद्ध नगर का विकास आज इसीलिए अवरुद्ध हुआ कि उसकी रेल सुविधाओं का विकास नहीं हो पाया। उसकी छोटी लाइन तो बंद हुई; पर उसे बड़ी लाइन में तब्दील हो जाना था, वह नहीं हो पाई। अन्यथा रायपुर स्टेशन से छूटने वाली कई लोकल व एक्सप्रेस ट्रेनों को धमतरी तक लाया- छोड़ा जा सकता था। हम धमतरी लाइन को धमतरी टर्मिनस में बदल सकते थे। 

सोंढूर बांध के एक सिरे पर मुचकुंद पहाड़ है और इसके दूसरे सिरे पर सूर्य पाट की पहाड़ियाँ हैं। ये समुद्र सतह से सात सौ मीटर ऊंचाई पर हैं। पूरी पहाड़ी गुफाओं से भरी हुई है। पहाड़ी के शिखर पर एक तलैया है जो कभी नहीं सूखती। यहाँ तेंदुआ, भालू और साही बहुतायत में पाए जाते हैं। मुचकुंद और सूर्यपाट डोंगरी के बीच बाँध बनाकर जिस जलाशय का निर्माण किया गया है, उसका नाम सोंढूर है। यह रायपुर से धमतरी होकर 165 किलोमीटर की दूरी पर है। मुचकुंद गिरी तो जाना पहचाना ऐतिहासिक एवं धार्मिक आस्था का केंद्र है लेकिन सूर्य पाट डोंगरी में मानवीय हस्तक्षेप बहुत कम है। यह कभी-कभी शिकारियों, तस्करों एवं नक्सलियों की गतिविधियों से स्पंदित होते रहता है। पहाड़ पर स्थित एक खदान चमकदार जामुनी नगों से भरा हुआ है। जिसकी छटा निराली है। यह सात पहाड़ियों का समुच्चय है। हर पहाड़ी की अपनी विशेषता है। इसकी दलदली जमीन से एक नाले का उद्गम भी है जो एक जलप्रपात में समाहित हो जाता है। हजारों फुट की यात्रा में यह नाला अनेक प्रपातों का निर्माण करता है। झरना के पत्थर ताम्बई रंग के और सुडौल आकृति वाले है जैसे हजारों कारीगरों ने इसे एक साथ संवारा हो जहाँ यह झरना धरती पर पांव धरता है वहाँ बहुत पुराने कोरिया के पेड़ों का उपवन है। भीषण गर्मी के बाद जब बारिश की पहली बूंदें धरती का स्पर्श करती हैं तब कोरिया के सफ़ेद फूलों की महक से सारा जंगल महमहा उठता है जैसे स्वर्ग का कोई कोना हो।

सोंढूर के दक्षिण-पूर्व में विश्व प्रसिद्ध पायली का हीरा खदान है। यहाँ उदंती नदी से बना देवधर जलप्रपात है। एक महुए का पेड़ है जब शाम को वर्षा होकर थम जाती है तब रात में इस पेड़ के नीचे उजाला फ़ैल जाता है। लोग इसे एक रहस्य की तरह देखते हैं। हो सकता है कि इस पेड़ के नीचे फास्फोरस अथवा किसी प्रदीप्त खंनिज का भंडार हो। मधुमक्खियों द्वारा बनाए गए शहद के लड्डू हैं जिसे वहाँ ‘लोकडा’ कहते हैं। यह ऊपर से सख्त और भीतर तरल मधु है। लेखक मित्रों ने जी भरकर लोकडा खाया।

इन जंगलों में कंद- मूल फल बीनती महिलाएँ किस तरह अपने बच्चों के साथ जंगल-जंगल फिरती हैं बाघ उन पर हमला कर देते हैं। साहसी महिलाएँ किस तरह बाघ से लड़ पड़ती हैं, उनके चंगुल से अपने बच्चों को छुड़ाती हैं। अपने वैवाहिक जीवन में अपने मर्द से नहीं खटने वाली पत्नियाँ अपने पति को छोड़कर दूसरे को अपना लेती हैं। आदिवासी समाज में नारी स्वतंत्रता का यह शानदार उदाहरण है। जिन पहाड़ियों पर स्त्रियों के चढ़ने का निषेध था वह प्रतिबंध भी टूट गया। आदिवासियों ने जिन पहाड़ियों की पवित्रता की रक्षा करने के लिए नियम-कानून बना रखे थे, सब ध्वस्त हो गया। पहाड़ों पर शराब पीने की मनाही थी वहाँ अब शराब की शीशियों और प्लास्टिक के गिलास नजर आने लगे। पान मसाले के खाली पाउचों की भरमार हो गई। बाइक पर सवार होकर प्रेमी जोड़ी आने-जाने लगे...और आदिम संस्कृति का विनाश प्रारंभ हो गया। अब पहाड़ी रास्तों पर साही के काँटे और मोरों के पंख नजर नहीं आते। पहाड़ों की जैव-विविधता भी समाप्त हो गई। जबकि पर्यावरण ने आदिवासी जन को दीर्घ जीवन दिया और वे कई तरह की असुविधाओं के बीच रहकर सौ से भी अधिक उम्र पारकर वहाँ दिख जाते थे। वहाँ से प्राप्त पुरातत्वों की चोरी कर घर लाकर लोग अपने ड्राइंगरूम सजाने लगे। 

इस तरह से लेखक की भाषा और उनका बोध पूरे वृत्तान्त को चित्रमय और मनोहारी करते चलता है। ऐसे कितने ही रोचक प्रसंग और चित्रण कृति की पठनीयता को न केवल बढ़ाते हैं बल्कि पाठकों का ज्ञानवर्धन भी करते हैं। यहाँ के दृश्य आने वालों को रचनात्मक दृष्टि देते हैं। शहर वाले गुरूजी के साथ साहित्यकारों की मित्र-मंडली के जो सदस्य वहाँ आए गए उन्होंने सोंढूर के सौन्दर्य रस का पान किया। उनकी नई कविताओं का अंकुरण हुआ। उपन्यास और कहानियाँ लिखी गईं। इनके नैसर्गिक रंगों को रंगमंच में उतारने की कोशिश हुई। चित्रकारों ने पेंटिंग्स बनाई। प्रकृति के सौन्दर्य का असीम विस्तार कला और संस्कृति की अभिव्यंजना को ओज और उत्साह प्रदान करता है। इस तरह यहाँ तमाम अवसर, कष्ट और जिजीविषाएँ हैं। लेखक मान्यताओं के पीछे वैज्ञानिकता की तलाश करते हैं। आज नष्ट होते पर्यावरण और अलनीनो के प्रभाव से मौसम का असंतुलन ज्वालामुखी की तरह फूट रहा है जहाँ वर्षा, शीत और गर्मी अब आनंद और सृजन नहीं देते बल्कि उनके प्रकोप और ध्वंस से विनाश का रूप दिखाई देता है।

यह वृत्तान्त विचार देता है कि आखिर क्यों देश के तमाम ट्राइबल क्षेत्र अलगाववादी आंदोलनों से भरे पड़े हैं। नगालैंड, बोडोलैंड, उत्तरांचल पूर्वांचल, बस्तर-सरगुजा सब पृथकतावाद और नक्सलवाद की गतिविधियों के घेरे में है। क्या यह सरकार प्रशासन और आदिवासी समाज के बीच संवाद हीनता की उपज है जिससे इन वन्यक्षेत्रों के विकास की अनदेखी हो रही है। सोंढूर डायरी का लेखन कोई स्थानीय मुद्दा नहीं है इसे राष्ट्रीय अनुभव के रूप में देखा जाना चाहिए। इन्दुशंकर मनु की ‘सोंढूर-डायरी’ उनकी शैक्षणिक वैज्ञानिक चेतना से भरा एक ऐसा दस्तावेज है जो साहित्यकार के मानवीय सरोकार को और भी बड़ा फलक देता है।

सम्पर्कः मुक्त नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491001, मो. 9009884014

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