पंजाब के सुदूर गाँव की रहने वाली इस युवती ने हिन्दी में पी एचडी किया और दिल्ली के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान में काम मिल गया। होली गुजरी ही थी कि उसकी साँस घुटने लगी। फिर शरीर पर एलर्जी उभरने लगी। जब दवा भी माकूल असर नहीं दिखा पाई, तो डॉक्टर ने कह दिया कि इस मौसम में दिल्ली में न रहो। अजब है दिल्ली, जाड़े में स्मॉग से दम घुटता है और साँस की बीमारी के लोगों को कह दिया जाता है कि दिल्ली छोड़ दो ।
गर्मी आई तो भी साँसों का संकट यथावत। अब बरसात होती ही कितने दिन की है ? बहादुरगढ़ से फरीदाबाद और गुरुग्राम से गाजियाबाद-नोएडा तक फैले दिल्ली एनसीआर में। कोई पाँच करोड़ की आबादी पर बढ़ते तापमान के साथ शुद्ध पेय जल के साथ साफ हवा की कमी और गहरा रही हैं ।
कैसी विडंबना है कि जो पेड़ पर्यावरण सुधारने के इरादे से सड़क किनारे और सार्वजनिक स्थानों में लगाए गए वे ही लोगों के दम घुटने का कारक बन रहे हैं। सिरस, गुलमोहर, सफेदा, शिरीष, आम, नीम, मोलसरी जैसे कई ऐसे पेड़ दिल्ली में छाए हैं, जिनके परागण से साँस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं।
ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते हैं, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और धनत्व का पता लगाने की कोई तकनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है: लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है: तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है। यह एलर्जी इंसान को साँस की गंभीर बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजेन लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है, ऐसे में परागण के शिकार लोगों के फेंफड़े ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं।
इस मौसम में दिल्ली के लोगों को साँस लेने के लिए साफ हवा का दूसरा अदृश्य सबसे बड़ा दुश्मन हैं वाहनों की बढ़ती संख्या। हर वाहन के चलने से टायर घिसते ही हैं और इससे टायर की रबर, उसको बनाने में लगे गोंदयुक्त रसायन आदि के 2.5 पी एम के कण निकलते हैं। सड़क गरम होती है, तो घिसाई अधिक होती है और ऐसे में हवा न चलने पर ये कण मानव के आवासीय ऊँचाई तक ही सीमित रह जाते हैं ।इसमें तड़का लगता है वाहन के लिए अनिवार्य एलईएडी बेतरी से निकलने वाले रासायनिक जहरीले धुएँ का। भले ही यह वायु प्रदूषण ठंड के दिनों की तरह प्रत्यक्ष दिख नही रहे हों: लेकिन मानव शरीर पर इसकी घातकता उतनी ही हैं। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुएँ से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि।
इस बार गरम हवाएँ या लू जल्दी चल रही हैं और ऐसी हवा एक से डेढ़ किलोमीटर तेज गति से बहती है: इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लोगों को साँस लेने में बाधक बनती है। अरावली को नुकसान पहुँचने से सीमा पार से आने वाली रेत अब दिल्ली की हवा और आसमान को धुंधला बनाती है।
जितनी गर्मी होती है, दिल्ली महानगर में उससे जूझने के लिए वाहन, घर दफ्तरों में एसी का प्रयोग बढ़ जाता है। एसी चलते हैं हाइड्रो क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैस से जो कि पृथ्वी की ओज़ोन परत के लिए घातक है। यही नहीं, इतने सारे वातानुकूलन संयत्र चलाने के लिए लगने वाली बिजली उत्पादन से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं। जलवायु परिवर्तन ओजोन परत को भी प्रभावित कर सकता है।
समझना होगा कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आँकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुएँ में बड़ी मात्रा में हाइड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिलकर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण फेंफड़े बेहद कमजोर हो जाते हैं ।
आखिर इससे निबटा कैसे जाए ? एक तो अब दिल्ली की सजावट के लिए जहाँ भी हरियाली लगाई जाए , उसके लिए पेड़ों की प्रजातियाँ चुनते समय जलवायु परिवर्तन- गर्मी और परागण की समस्या को ध्यान रखा जाए। फिर सड़कों पर कम वाहन निकलें, जाम न हो, इसकी योजना बने और कड़ाई से लागू हो। पानी का छिड़काव एक ऐसा तरीका है जिससे काफी कुछ गर्मी और और उससे उपज रहे साँसों के संकट से जूझा जा सकता है। लाखों की संख्या में चल रहे एसी और करोड़ों की संख्या के पानी के आर ओ से निकलने वाले जिस पानी को हम बेकार समझ कर नाली में बहा देते हैं, उसके जल संचयन और छिड़काव में इस्तेमाल से इस महा समस्या को कम किया जा सकता हैं ।( indiaclimatechange से साभार)
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