- डॉ. रत्ना वर्मा
22 अप्रैल को पहलगाम आतंकी हमले के बाद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के ज़रिए सेना ने आतंकी ठिकानों पर सटीक वार करके सफलता हासिल की और यह जता दिया कि वह आतंकवाद के समूल नाश के लिए प्रतिबद्ध है। यह सिर्फ एक सैन्य कार्रवाई नहीं थी; बल्कि एक संदेश था कि भारत अब चुप नहीं बैठेगा। अभी हाल ही में गुजरात दौरे के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को आतंक की बीमारी से मुक्त करने के लिए वहाँ की आवाम और युवाओं को आगे आने के लिए कहा। उन्होंने चेतावनी भी दी कि सुख- चैन की जिंदगी जिओ, रोटी खाओ; वरना मेरी गोली तो है ही।
यह जवाब एक बाहरी शत्रु के लिए था; पर ऑपरेशन सिंदूर के बाद से भीतरी लड़ाई भी देश लड़ रहा है। सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक स्तर ऐसे लोगों के बदसूरत चेहरे सामने आ रहे हैं, जो देश को भीतर से खोखला करने में लगे हुए हैं। भारत की राजनीति, तीखी बयानबाज़ी और आरोप-प्रत्यारोप के दौर में घिर गई है। ऐसे समय में जब भारत अपनी सीमाओं से परे जाकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहा है, तब अपने ही देश के भीतर राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता का संघर्ष हावी हो रहा है। यह कितने अफसोस की बात है कि जिस वक्त देश को एकजुट होकर अपने भीतर और बाहर के गद्दारों से निपटना चाहिए, उस समय पक्ष और विपक्ष के कुछ नेता अनाप- शनाप बयानबाजी पर उतर आए हैं। कुछ ने ‘पाकिस्तान की भाषा बोलने’ और ‘भारतीय सेना के पराक्रम पर सवाल उठाने’ का आरोप लगाया है। बहुत से भारतीय भी दुश्मनों के लिए जासूसी करके भारत को कलंकित कर रहे हैं। अब जासूसों की शक्ल भी बदल चुकी है। हथियारों की जगह कैमरे, रेडियो की जगह इंस्टाग्राम, और ब्लैकमेल की जगह हनी ट्रैप ने ले ली है। यह सीधे तौर पर डिजिटल जासूसी है। कहने का तात्पर्य है कि लड़ाई कोई भी आसान नहीं होती भीतर के दुश्मनों से भी चौक्न्ना रहना है और बाहरी दुश्मनों को तो ठिकाने लगाना ही है।
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान तुर्किए और पाकिस्तान की दोस्ती तो पूरी दुनिया ने देखी ही है। तुर्किए खुलकर आतंकवाद के समर्थक देश के साथ आकर खड़ा हो गया। यह वही तुर्किए हैं, जहाँ भूकम्प के विनाश के समय मानवीय आधार पर भारत ने सबसे पहले सहायता की। उसका प्रतिदान क्या दिया ? यही कि पाकिस्तान ने जिन ड्रोन्स से भारत पर हमला किया, वो भी तुर्किए ने ही पाक को खैरात में दिए थे। तुर्किए की इस हरकत के बाद भारत ने सख्त रुख अख्तियार कर लिया है; पर तुर्किए है कि अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। यही नहीं पाकिस्तान का साथ देने के बाद अब तुर्किए ने बांग्लादेश में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। पर यह भी सच है कि ऐसे देशों के साथ भारत कोई नरमी नहीं बरतेगा, यह स्पष्ट है। चाणक्य ने ऐसे दुष्टों के लिए कहा है-
सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात्क्रूरतरः खलः।
मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते॥
सर्प भी क्रूर होता हैं और दुर्जन भी क्रूर होता हैं, किन्तु दुर्जन सर्प से भी अधिक क्रूर होता हैं। सर्प को तो मंत्र और औषधीय- जड़ी बूटियों से नियंत्रित किया जा सकता हैं, परन्तु दुर्जन किससे नियंत्रित हो सकता हैं?
दुर्जन को खत्म किया जाए, बस यही एकमात्र उपाय है। इन दुष्ट देशों पर दया दिखाना या विश्वास करना आत्मघात करने जैसा है। भारत आतंकवाद के खात्मे के लिए दृढ़संकल्पित है, तभी तो भारत सरकार ने अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाते हुए आतंकवाद के मुद्दे पर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को एकजुट करके वैश्विक मंचों पर भेजा, ताकि भारत की नीति को मजबूत समर्थन मिल सके। इस प्रयास का उद्देश्य था कि दुनिया यह समझे कि आतंकवाद किसी भी देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानवता के खिलाफ एक वैश्विक खतरा है, जिसका मुकाबला एकजुट होकर ही किया जा सकता है। भारत की यह पहल न केवल अपनी सुरक्षा के लिए; बल्कि वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
परंतु विडंबना यह है कि जब कुछ लोग राजनीतिक लाभ के लिए संवेदनशील मुद्दों पर तीखी बयानबाज़ी कर रहे हैं, तो कुछ लोग देश के हितों को ताक पर रखकर जासूसी जैसे कृत्यों में लिप्त पाए जा रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है, जो देश की एकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत के सभी राजनीतिक दल और नागरिक एकजुट होकर राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानें। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई केवल सरकार की नहीं, बल्कि पूरे देश की है। यदि हम अंदर से कमजोर होंगे, तो बाहरी शक्तियों को हमें कमजोर करने में देर नहीं लगेगी। सवाल यह है कि क्या भारत की सुरक्षा केवल सत्ताधारी दल की ज़िम्मेदारी है? क्या विपक्ष की भूमिका केवल आलोचना तक सीमित रहनी चाहिए? क्या यह समय नहीं कि भारत की सुरक्षा नीति एक गैर-राजनीतिक सहमति से संचालित हो?
दुख होता है यह सोचकर कि हमारे वीर जवान देश की रक्षा करते करते सरहद पर शहीद हो जाते हैं; लेकिन भीतर बैठे लोग अनर्गल बातें करके और जासूसी करके राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाते हैं। शत्रुबोध से शून्य कुछ लोग इनको बचाने के लिए कानूनी तिकड़मों का आश्रय लेते हैं। अतः हमें अपनी आंतरिक और दलगत राजनीति की खींचतान से ऊपर उठकर देश की सुरक्षा के लिए एकजुट होना होगा।
आज जब भारत वैश्विक मंच पर आतंकवाद के विरुद्ध नेतृत्व कर रहा है, तब हमें अपनी एकता और संकल्प शक्ति से यह सिद्ध करना होगा कि भारत केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया और समूची मानवता के लिए खड़ा है। आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई में हर भारतीय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। एकजुटता, संकल्प और देशभक्ति यही भारत की सच्ची शक्ति है। देश का अहित करने वाले प्रेम की भाषा नहीं समझते। उनका एक ही उपचार है- उन्हें जड़ से समाप्त करना। चाणक्य भी यही कहते हैं- शठे शाठ्यम समाचरेत्-दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए।
2 comments:
आदरणीया
बहुत सामयिक और सार्थक। मुझे तो वो पंक्तियाँ याद आ रही हैं कि.. बड़ा मुश्किल है मेरी दुनिया का संवरना
- हम अपने देश में केवल 2 चुनौतियों से सदा से जूझ रहे हैं देशभक्ति और ईमानदारी। पहली के मामले में तो पाकिस्तान तक हमसे श्रेष्ठ है। जयचंद और मीर जाफ़र कई हिंदुस्तानियों के आदर्श हैं :
- *युद्धों में कभी नहीं हारे हम डरते है छलचंदो से*
- *हर बार पराजय पाई है अपने घर के जयचंदो से*
-- इन बेशर्मों का कोई इलाज नहीं। ऑपरेशन सिंदूर में तो ये लोग पूरी तरह बेनकाब हो चुके हैं। लोग भी तो ऐसों को चुन रहे हैं स्वार्थवश, वरना अयोध्या में हिंदूओं के कातिलों का जीत जाना असंभव था।
-- चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि हम प्रजातंत्र के योग्य नहीं। उम्मीद करें किसी न किसी दिन तो अपनी आगत संतानों की ही खातिर ये सुधर सकें।
-- साहस समायोजित संपादकीय के लिये हार्दिक बधाई। सादर
श्रेष्ठ संपादकीय ...पिछले दिनों के घटनाक्रम का..तथा कतिपय जिम्मेदार लोगों के गैर जिम्मेदाराना बयानों का जिक्र करते हुए बहुत अच्छा संपादकीय लिखा है आदरणीय रत्ना वर्मा जी ने।हार्दिक बधाई।
जिन दरबारों में आतंकी आका बनकर फिरते हैं
अपनी बर्बादी का वे खुद शपथ पत्र नित भरते हैं
जहाँ की सेना हत्यारों को, अपना शीश झुकाती है
उसकी मंशा क्या होगी,ये बात समझ खुद आती है
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