पिछले दिनों बच्चों के एक हास्पिटल के सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ कि दस में से एक बच्चा सप्ताह में एक बार या उससे भी कम बार बाहर खेलने जाता है। यह सर्वेक्षण एक से पाँच साल के बच्चों के बीच किया गया था। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि हम आज के इस अत्याधुनिक तकनीक के दौर में अपने बच्चों की परवरिश किस प्रकार के माहौल में कर रहे हैं, जहाँ बचपन धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक विस्तार, खुलेपन और कल्पनाशीलता को खोता जा रहा है। आधुनिक भारतीय परिवेश में यह स्थिति और भी जटिल है। जब बच्चे कुछ समझदार होते हैं तो वे मोबाइल, टैबलेट और टीवी की चमक में इतने खो जाते हैं कि बाहर का मैदान, धूल भरी गलियाँ, और पेड़ों की छाँव जैसे प्राकृतिक वातावरण को वे जान ही नहीं पाते।
आज का बच्चा जन्म से ही स्क्रीन के वातावरण में पलता- बढ़ता है। माता-पिता सुविधा और सुरक्षा के नाम पर उसे मोबाइल थमा देते हैं; ताकि वह शांत रहे। शुरू में यह सब मासूम-सा लगता है; लेकिन यही आदत धीरे-धीरे उसका एकांत, उसका मनोरंजन और उसके लिए सीखने का माध्यम बन जाती है। पाँच साल से कम उम्र का बच्चा भी अब वीडियो देखकर खाना खाता है और डिजिटल गेम्स में खेलना सीखता है।
भारतीय पारिवारिक ढाँचे में पहले बच्चों का खेलना, दौड़ना, मोहल्ले में साथियों के संग समय बिताना, उनके सामाजिक और भावनात्मक विकास का मूल हिस्सा था; लेकिन अब महानगरों में छोटे फ्लैट, बढ़ता ट्रैफ़िक, असुरक्षा का भय और स्कूल के बाद कोचिंग-क्लास का दबाव आदि ने बचपन की स्वाभाविक गतिविधियों को सीमित कर दिया है। माता-पिता यह सोचकर राहत महसूस करते हैं कि बच्चा घर में है, सुरक्षित है; पर यह सुरक्षा उसके मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आज भारी पड़ रही है।
बाहर खेलने का अभाव बच्चों में आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक झिझक और अवसाद जैसी स्थितियाँ पैदा कर रहा है। जब बच्चा स्क्रीन पर आभासी दुनिया में रहता है, तो वह वास्तविक संवाद और सहयोग की कला से दूर हो जाता है। उसकी कल्पनाशक्ति तैयार चित्रों, वीडियो और गेम्स के साँचे में ढल जाती है। वह खुद कुछ गढ़ने, खोजने या जोखिम लेने से बचता है, जबकि खेलना केवल शारीरिक व्यायाम नहीं; बल्कि जीवन के नियमों और असफलताओं से निपटने का अभ्यास भी होता है। जिसे आज की रोबोटिक होती जा रही दुनिया को जानना और समझना होगा।
भारतीय समाज में पारिवारिक संबंध अब तकनीकी माध्यमों से बँधे दिखते हैं। परिवार एक साथ बैठा होता है, पर हर सदस्य अपनी स्क्रीन में डूबा है। बच्चे का अकेलापन उसे आभासी मित्रों की ओर खींचता है, जहाँ वास्तविक स्नेह या मार्गदर्शन का अभाव होता है। परिणामस्वरूप वह या तो आत्मकेंद्रित हो जाता है या फिर दूसरों के प्रभाव में आकर अपनी पहचान खो देता है।
यह प्रवृत्ति केवल मानसिक ही नहीं, शारीरिक रूप से भी खतरनाक है। लगातार स्क्रीन देखने से दृष्टि कमजोर होती है, शरीर की सक्रियता घटती है, मोटापा बढ़ता है और नींद पर भी असर पड़ता है। कई बच्चों में चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की कमी और आत्मसंयम का अभाव बढ़ता जा रहा है। वे जल्दी ऊब जाते हैं; क्योंकि स्क्रीन का तेज़ी से बदलता दृश्य-क्रम उनकी संवेदनशीलता को कम कर देता है।
बच्चों को खेलने के लिए खुले स्थानों की कमी भी इस संकट को बढ़ाती है। महानगरों में पार्क सीमित हैं, गाँवों में खेत और खाली मैदान अब निजी निर्माण में बदल रहे हैं। ऐसे में बच्चों के पास खेलने की जगह ही नहीं बचती। जहाँ जगह है भी, वहाँ माता-पिता का डर उन्हें रोक देता है- कहीं चोट न लग जाए, कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए। यह भय अनजाने में बच्चों की साहसिकता और आत्मनिर्भरता को कुंद कर देता है।समस्या यह नहीं कि तकनीक बुरी है; बल्कि यह है कि उसका उपयोग संतुलित नहीं है। मोबाइल बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम भी बन सकता है; लेकिन जब वही शिक्षा खेलने, अनुभव करने और सामाजिक जुड़ाव का विकल्प बन जाए, तब वह विनाशकारी सिद्ध होती है।
भारतीय संस्कृति में खेल को शिक्षा का अंग माना गया था- कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, रस्सी कूदना जैसे खेल बच्चों को सहयोग की भावना, रणनीति बनाना और धैर्य रखना सिखाते थे। आज वे सब गाँव के खेल या पुराने जमाने के खेल कहकर खारिज कर दिए जाते हैं ।
इस स्थिति में सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवार की है। माता-पिता यदि बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करें, उनके साथ मैदान में जाएँ या सप्ताहांत पार्क ले जाएँ, तो धीरे-धीरे बच्चे स्क्रीन से बाहर आने लगते हैं। शिक्षा संस्थानों को भी खेल और रचनात्मक गतिविधियों को पढ़ाई जितना महत्त्व देना चाहिए, अन्यथा आने वाली पीढ़ी मानसिक रूप से थकी, असहिष्णु और आभासी दुनिया में खोई हुई होगी।
भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवा है, वहाँ बचपन का यह संकट भविष्य का सामाजिक संकट बन सकता है। मोबाइल ने बच्चों की उँगलियों को तेज़ कर दिया है; लेकिन उनकी संवेदना को सुन्न भी कर दिया है। यदि हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी आत्मविश्वासी, सृजनशील और सामाजिक रूप से संवेदनशील बने, तो हमें उनके बचपन को मुक्त करना होगा-खुला आसमान, मिट्टी की खुशबू और खेल की सहजता में उन्हें आगे बढ़ने देना होगा, तभी बचपन फिर से खिलखिलाएगा और घर की चारदीवारी से निकल कर खुले आसमान में पंख फैलाकर उड़ान भरेगा।


बहुत सुन्दर लिखा है आप ने। सचमुच आजकल की शिक्षा पद्धति से बच्चे भले ही पढ़ाई में आगे हों पर उन का बचपन छिनता जा रहा है। नैतिक मूल्यों की बातें छोड़ पारिवारिक स्नेह ख़त्म हो रहा है।
ReplyDeleteशुक्रिया आपका । आपने सच कहा पारिवारिक स्नेह खत्म हो रहा है और हमें इसी स्नेह को पुनः वापस लाना है जिसमें सभी की भागीदारी चाहिए।
Deleteसही कहा है. परिवार के संस्कार ,भारतीय पद्दति से लालन पालन, बच्चे के सम्पूर्ण विकास मे योगदान प्रदान कर सकते है
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका। हमें मिलजुल कर ही प्रयास करने होंगे। बच्चों के मामले में तो यह और भी आवश्यक है।
Deleteआज की ज्वलंत समस्या को आपने बड़ी ख़ूबसूरती से सामने लाया है ।जो भी माता पिता इस लेख पढ़ रहे होंगे यह उनके लिए एक चेतावनी भी है कि वे अपना बचपन याद करें । हम प्रकृति से और लोगों से कितना अधिक जुड़े हुए थे और आज हम अपने बच्चों को क्या आप देने जा रहे हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया सुनीता। सही कहा तुमने हम तो स्कूल से आने के बाद बस्ता फेंक कर खेलने भाग जाते थे। कितनी खूबसूरत यादें हैं बचपन की।
Deleteबेहद गम्भीर विषय पर लेखनी को धार दी आपने। बच्चों से अधिक तो अभिभावकों की गलती है। पिता बच्चे को समय न देकर पैसे से compensate करता है और माताएं i-pad थमा कर खुद की स्वतंत्रता सुनिश्चित कर रही हैं।
ReplyDeleteस्कूलों की तो पूछिये ही मत। उन्हें क्या लेना देना। स्वस्थ तन में स्वस्थ मन पुस्तकों में सिमट गया है।
कुल मिलाकर स्थिति विकट है। टीचर तक ज्ञान के लिए google पर आश्रित।
और क्या बचा है देखने को। राष्ट्रीय खेल क्रिकेट tv स्क्रीन पर। प्रावीण्य video गेम्स में समाहित।
खैर प्रलय के बाद ही होता है सृजन। शायद यही उक्ति कभी जाग्रत कर सके समाज को।
साहसिक संपादकीय हेतु हार्दिक बधाई सहित सादर
धन्यवाद आदरणीय जोशी जी। आपने सच कहा कि स्थिति विकट है। समय बदल रहा है ऐसे में हम सभी को बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका आभार।
Deleteआपने हमेशा की तरह फिर से एक ज्वलंत एवं अति महत्वपूर्ण समस्या को उजागर किया है, जिसका सम्बन्ध केवल आज से नहीं, समाज और देश के भविष्य से भी सम्बन्धित है। आज के बच्चे ही तो कल के देश को सम्भालेंगे। मन और शरीर से स्वस्थ होंगे तो सक्षम होंगे। याद आता है किस तरह से हम बचपन में पढ़ाई के साथ-साथ खेला भी करते थे। फिर हमारे बच्चों का अधिक समय बहुत भारी बस्तों के बोझ के नीचे दब गया और अब, स्थिति सामने है। मोबाइल की स्क्रीन के नीचे ही छिप कर रह गया है। आपके सम्पादकीय जागृत करने में सहायक होते हैं। साधुवाद। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteआपका बहुत- बहुत धन्यवाद एवं आभार सुदर्शन जी। आपने बहुत गंभीर बात कही है विशेषकर भारी बस्तों के बोझ का मुद्दा उठा कर। बच्चों के भविष्य को लेकर समय- समय पर अनेक सवाल उठते रहे हैं। अब समय आ गया है कि इन मुद्दों को गंभीरता से लिया जाए।
Deleteपहले गुरु से हम जो भी सीखते थे उसका हमारा आत्मीय संबंध होता था। अब यह आत्मीयता खत्म हो रही है। सुसंस्कृत करने के लिए अब न वह गुरु रह गए, न परिवेश। बहुत महत्त्वपूर्ण विषय उठाया है आपने 🙏
ReplyDeleteआपने एक और महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान दिलाया है शिप्रा जी। आज की शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई है, इसलिए गुरु शिष्य के सम्बंधों में भी बदलाव आ गया है। आभार एवं धन्यवाद।
Deleteबहुत शानदार और सारगर्भित आलेख। सच्ची देशभक्ति यही है।वर्तमान समय में समाज की ज्वलंत समस्या है।जो देश के भावी कर्णधार हैं उनकी चिंता किसी को नहीं है। मैंने सुना है पहले स्त्रियां काम की अधिकता में बच्चों को अफीम चटाकर सुला देती थीं। वे तो अज्ञानतावश ऐसा करती थीं परन्तु आज शिक्षित महिलाएं अपनी सुविधा के लिए मोबाइल देकर यहीं कार्य कर रही है।बहुत विचारात्मक आलेख। हार्दिक बधाई आदरणीय।
ReplyDeleteआप बिल्कुल सही कह रही हैं मंडवी जी। सबकुछ जानते हुए भी यदि आज के शिक्षित और जागरूक माता- पिता इस नुकसान को नहीं समझ पा रहे हैं यह भावी पीढ़ी के लिए चिंता की बात है। आपने बहुत सार्थक सवाल उठाए हैं। धन्यवाद और आभार।
ReplyDeleteआने वाली पीढ़ी मानसिक रूप से थकी, असहिष्णु और आभासी दुनियां में खोई हुई होगी। ये पंक्तियां महत्वपूर्ण हैं। पहले विद्यालयों के लिए अनुमति या अनुदान मांगने वाली संस्थाओं के लिए शाला भवन के साथ खेल के मैदान की अनिवार्यता होती थी। अब ऐसा देखने में नहीं आता.
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही कहा । आभार एवं धन्यवाद।
Deleteबहुत सुंदर और सारगर्भित लेख। 🌿
ReplyDeleteयह सच है कि तकनीक ने जहाँ सुविधाएँ दी हैं, वहीं उसने बचपन के स्वाभाविक आनंद, सृजनशीलता और सामाजिकता को भी सीमित कर दिया है। आपका विश्लेषण न केवल चिंतन योग्य है, बल्कि अभिभावकों के लिए एक आवश्यक चेतावनी भी देता है कि वे बच्चों को फिर से प्रकृति, खेल और वास्तविक संवाद से जोड़ें। उत्कृष्ट दृष्टिकोण! 👏
शुक्रिया डॉ. मुकेश जी। आपने बिल्कुल सही कहा कि बच्चों को फिर से प्रकृति और खेल से जोड़ने के जतन करने होंगे। ताकि वे रोबोट न बनकर एक स्वस्थ और बेहतर इंसान बनें। प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार।
Deleteआपकी हरेक बात बिल्कुल सही एवं विचारणीय है। इसके लिए सभी को ठोस क़दम उठाने की आवश्यकता है।
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
शुक्रिया अनिता जी। हम सभी को मिलकर इन मुद्दों पर विचार करना होगा और सुलझाना होगा। आभार आपका।
Delete"भारतीय समाज में पारिवारिक संबंध अब तकनीकी माध्यमों से बँधे दिखते हैं। परिवार एक साथ बैठा होता है, पर हर सदस्य अपनी स्क्रीन में डूबा है।" ये आपने बिल्कुल सही कहा।वास्तव में बच्चे हमें डिस्डर्ब न करें इसलिए भी उन्हें मोबाइल पकड़ा दिया जाता है। बच्चों की सुरक्षा को लेकर माता-पिता की जरूरत से ज्यादा सतर्कता, व्यस्ततम जीवन शैली, सामाजिक परिवेश आदि के बीच बच्चों को स्क्रीन के आगे बिठा देना ही सबसे सहज उपाय बन गया है,लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत भयावह हैं,जो न केवल बच्चों का बचपन छीन रहे हैं,वरन् शारीरिक एवं मानसिक समस्याएँ भी उत्पन्न कर रहें है। सुंदर आलेख।
ReplyDeleteबहुत- बहुत धन्यवाद और आभार डॉ. सुरंगमा जी। आपने बहुत सही बात कही है कि बच्चों का बचपन तो मोबाइल ने छीन ही लिया है, जिसका असर उनकी सेहत पर भी पड़ रहा है। इसी का समाधान तो ढूँढना होगा।
Deleteसम सामयिक विषय....सटीक चित्रण व समस्या का अति सुंदर विवेचन . देर हो इससे पूर्व ही समाज के सभी वर्गों को चेतने की आवश्यकता है. बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए उपलब्ध उपकरण बेहद खतरनाक. - आदरणीया सबको जागरूक करने हेतु बधाई. - रीता प्रसाद
ReplyDeleteआभार और धन्यवाद रीता जी। आपने इस गंभीर मुद्दे पर अपनी सटीक टिप्पणी देकर अपनी चिंता जाहिर की है। यह चिंता सभी अभिभावकों को करनी होगी और समाधान ढूँढना होगा।
Deleteआज के समय को देखते हुए यह लेख अत्यंत विचारणीय है। वाकई हम सजग नहीं हुए तो आने वाली पीढ़ियां शारीरिक और मानसिक ही नहीं जीवन के सभी विकासात्मक आयाम में विकृत होती जाएंगी, परन्तु इसी के साथ विचारणीय मुद्दा यह भी है कि आख़िर किया भी क्या जाय? कहीं न कहीं आज के आधुनिक परिवेश में माता-पिता यहाँ तक कि बच्चों को समय के साथ आगे बढ़ाने हेतु शिक्षक भी मजबूर हैं। विश्व के प्रत्येक कोने में आज डिजिटल लिटरेसी की ही मांग है ऐसे में हम किस तरह से अपने बच्चों को रोक सकते हैं? आज के समय में पठन-पाठन की जो सामग्री किताबों में मुश्किल से मिल पाती है वो इंटररनेट या AI पर आसानी से उपलब्ध है। इस मकड़जाल से बाहर निकल पाना अब बहुत मुश्किल है।
ReplyDeleteआपकी गहन और संतुलित प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद कनक लता जी।आपने समस्या के मूल और उसकी जटिलता दोनों को बखूबी उजागर किया है। सच है, डिजिटल युग में संतुलन बनाना ही सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। आपका दृष्टिकोण विचार को और गहराई देता है।आभार 🙏
Deleteगंभीर विषय को लेकर सुंदर और ज्ञानपरख लेख के लिए हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद आभार 🙏
Deleteश्रद्धेय रत्ना जी !
ReplyDeleteयह एक भावनात्मक पहलू ही नहीं बल्कि किसी भी देश की रीढ़ की मज़बूती के विषय को छुआ है आपने !
बच्चों को खुला आसमान तब ही मिलेगा जब सर्वप्रथम पीठ पर बस्ते का बोझा कम होगा !
बाबा ब्लैक शीप को ना रटाकर प्रैक्टिकल ओरिएंटेशन पर फोकस करना होगा !
और इन सब के लिए शिक्षक की योग्यता को आधार नहीं बल्कि उसका योग्य होना ज़्यादा महत्व पूर्ण रहेगा !
हमे याद है हमारे अंग्रेज़ी के टीचर बुश को भुस बोलते थे
यह छोटी छोटी बातें लगती हैं पर बाद में बच्चों के मन से उतारना बहुत भारी होता है !
आज परिवार संयुक्त होते जा रहे हैं, बच्चे माँ बाप के साथ रहने को तैयार नहीं, ऐसे में बच्चे को ग़ैर किताबी संस्कार कहाँ से मिलेंगे !
मेट और क्रच के भरोसे बच्चा सिर्फ़ बड़ा होता है !
बच्चों के साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताने से यकीनन बच्चा हर तरह से मज़बूत होगा !
सादर !
डॉ दीपेंद्र कमथान
आदरणीय डॉ. दीपेंद्र कमथान जी,
ReplyDeleteआपकी संवेदनशील और गंभीर मुद्दों को उठाती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद। आपने शिक्षा व्यवस्था की जड़ तक पहुँचकर जो बातें कही हैं, वे विचारणीय हैं। सच है, बच्चे का वास्तविक विकास तभी संभव है जब उसे किताबों से अधिक जीवन से सीखने का अवसर मिले। आपका दृष्टिकोण निश्चय ही प्रेरक है।आभार सहित आपका धन्यवाद।
लाज़वाब 🌹
ReplyDeleteएक सार्थक आलेख... किसी ज़माने में बचपन का दूसरा नाम ही खूब खेलना-कूदना हुआ करता था, परन्तु आज इस टेक्नोलॉजी ने जब बच्चों को खेल-कूद से दूर किया, तभी उनका असली बचपन भी मानो कहीं खो गया।
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएँ
आपके इन चिंतन भरे विचारों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद प्रियंका जी। अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर कुछ ऐसा कर पाएँ कि उनका बचपन एक स्वस्थ माहौल में पनपे और नई तकनीक उन्हें बेहतर जिंदगी दे।आभार।
Deleteसारगर्भित आलेख ! संयुक्त से एकल परिवार तो पहले ही बन चुका था। एकल परिवार में या तो माता पिता के कार्यबोझ के कारण या कहीं कहीं लालन पालन में लापरवाही के कारण बच्चों की दुनिया एकांत होकर सिमटती जा रही। खेल कूद के लिए घरों के अंदर भी हमउम्र बच्चे नहीं। विचारणीय तथ्यपरक आलेख। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही कहा ऋता जी। परिवार को बच्चों की परवरिश के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। एकल परिवार ने बच्चों से दादा - दादी नाना - नानी का प्यार छीन लिया है। प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद एवं आभार।
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