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Nov 2, 2025

अनकहीःबच्चों को खुला आसमान देना होगा

- डॉ.  रत्ना वर्मा

 पिछले दिनों बच्चों के एक हास्पिटल के सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ कि दस में से एक बच्चा सप्ताह में एक बार या उससे भी कम बार बाहर खेलने जाता है। यह सर्वेक्षण एक से पाँच साल के बच्चों के बीच किया गया था। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि हम आज के इस अत्याधुनिक तकनीक के दौर में अपने बच्चों की परवरिश किस प्रकार के माहौल में कर रहे हैं,  जहाँ बचपन धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक विस्तार, खुलेपन और कल्पनाशीलता को खोता जा रहा है। आधुनिक भारतीय परिवेश में यह स्थिति और भी जटिल है। जब बच्चे कुछ समझदार होते हैं तो वे मोबाइल, टैबलेट और टीवी की चमक में  इतने खो जाते हैं कि बाहर का मैदान, धूल भरी गलियाँ, और पेड़ों की छाँव जैसे प्राकृतिक वातावरण को वे जान ही नहीं पाते। 

आज का बच्चा जन्म से ही स्क्रीन के वातावरण में पलता- बढ़ता है। माता-पिता सुविधा और सुरक्षा के नाम पर उसे मोबाइल थमा देते हैं; ताकि वह शांत रहे। शुरू में यह सब मासूम-सा लगता है; लेकिन यही आदत धीरे-धीरे उसका एकांत, उसका मनोरंजन और उसके लिए सीखने का माध्यम बन जाती है। पाँच साल से कम उम्र का बच्चा भी अब वीडियो देखकर खाना खाता है और डिजिटल गेम्स में खेलना सीखता है। 

भारतीय पारिवारिक ढाँचे में पहले बच्चों का खेलना, दौड़ना, मोहल्ले में साथियों के संग समय बिताना, उनके सामाजिक और भावनात्मक विकास का मूल हिस्सा था; लेकिन अब महानगरों में छोटे फ्लैट, बढ़ता ट्रैफ़िक, असुरक्षा का भय और स्कूल के बाद कोचिंग-क्लास का दबाव आदि ने बचपन की स्वाभाविक गतिविधियों को सीमित कर दिया है। माता-पिता यह सोचकर राहत महसूस करते हैं कि बच्चा घर में है, सुरक्षित है; पर यह सुरक्षा उसके मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आज भारी पड़ रही है।

बाहर खेलने का अभाव बच्चों में आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक झिझक और अवसाद जैसी स्थितियाँ पैदा कर रहा है। जब बच्चा स्क्रीन पर आभासी दुनिया में रहता है, तो वह वास्तविक संवाद और सहयोग की कला से दूर हो जाता है। उसकी कल्पनाशक्ति तैयार चित्रों, वीडियो और गेम्स के साँचे में ढल जाती है। वह खुद कुछ गढ़ने, खोजने या जोखिम लेने से बचता है, जबकि खेलना केवल शारीरिक व्यायाम नहीं; बल्कि जीवन के नियमों और असफलताओं से निपटने का अभ्यास भी होता है। जिसे आज की रोबोटिक होती जा रही दुनिया को जानना और समझना होगा। 

भारतीय समाज में पारिवारिक संबंध अब तकनीकी माध्यमों से बँधे दिखते हैं। परिवार एक साथ बैठा होता है, पर हर सदस्य अपनी स्क्रीन में डूबा है। बच्चे का अकेलापन उसे आभासी मित्रों की ओर खींचता है, जहाँ वास्तविक स्नेह या मार्गदर्शन का अभाव होता है। परिणामस्वरूप वह या तो आत्मकेंद्रित हो जाता है या फिर दूसरों के प्रभाव में आकर अपनी पहचान खो देता है।

यह प्रवृत्ति केवल मानसिक ही नहीं, शारीरिक रूप से भी खतरनाक है। लगातार स्क्रीन देखने से दृष्टि कमजोर होती है, शरीर की सक्रियता घटती है, मोटापा बढ़ता है और नींद पर भी असर पड़ता है। कई बच्चों में चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की कमी और आत्मसंयम का अभाव बढ़ता जा रहा है। वे जल्दी ऊब जाते हैं; क्योंकि स्क्रीन का तेज़ी से बदलता दृश्य-क्रम उनकी संवेदनशीलता को कम कर देता है।

बच्चों को खेलने के लिए खुले स्थानों की कमी भी इस संकट को बढ़ाती है। महानगरों में पार्क सीमित हैं, गाँवों में खेत और खाली मैदान अब निजी निर्माण में बदल रहे हैं। ऐसे में बच्चों के पास खेलने की जगह ही नहीं बचती। जहाँ जगह है भी, वहाँ माता-पिता का डर उन्हें रोक देता है- कहीं चोट न लग जाए, कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए। यह भय अनजाने में बच्चों की साहसिकता और आत्मनिर्भरता को कुंद कर देता है।

समस्या यह नहीं कि तकनीक बुरी है; बल्कि यह है कि उसका उपयोग संतुलित नहीं है। मोबाइल बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम भी बन सकता है; लेकिन जब वही शिक्षा खेलने, अनुभव करने और सामाजिक जुड़ाव का विकल्प बन जाए, तब वह विनाशकारी सिद्ध होती है। 

भारतीय संस्कृति में खेल को शिक्षा का अंग माना गया था- कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, रस्सी कूदना जैसे खेल बच्चों को सहयोग की भावना, रणनीति बनाना और धैर्य  रखना सिखाते थे। आज वे सब गाँव के खेल या पुराने जमाने के खेल कहकर खारिज कर दिए जाते हैं । 

इस स्थिति में सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवार की है। माता-पिता यदि बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करें, उनके साथ मैदान में जाएँ या सप्ताहांत पार्क ले जाएँ, तो धीरे-धीरे बच्चे स्क्रीन से बाहर आने लगते हैं। शिक्षा संस्थानों को भी खेल और रचनात्मक गतिविधियों को पढ़ाई जितना महत्त्व देना चाहिए, अन्यथा आने वाली पीढ़ी मानसिक रूप से थकी, असहिष्णु और आभासी दुनिया में खोई हुई होगी।

भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवा है, वहाँ बचपन का यह संकट भविष्य का सामाजिक संकट बन सकता है। मोबाइल ने बच्चों की उँगलियों को तेज़ कर दिया है; लेकिन उनकी संवेदना को सुन्न भी कर दिया है। यदि हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी आत्मविश्वासी, सृजनशील और सामाजिक रूप से संवेदनशील बने, तो हमें उनके बचपन को मुक्त करना होगा-खुला आसमान, मिट्टी की खुशबू और खेल की सहजता में उन्हें आगे बढ़ने देना होगा, तभी बचपन फिर से खिलखिलाएगा और घर की चारदीवारी से निकल कर खुले आसमान में पंख फैलाकर उड़ान भरेगा।

6 comments:

  1. Anonymous03 November

    बहुत सुन्दर लिखा है आप ने। सचमुच आजकल की शिक्षा पद्धति से बच्चे भले ही पढ़ाई में आगे हों पर उन का बचपन छिनता जा रहा है। नैतिक मूल्यों की बातें छोड़ पारिवारिक स्नेह ख़त्म हो रहा है।

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  2. सही कहा है. परिवार के संस्कार ,भारतीय पद्दति से लालन पालन, बच्चे के सम्पूर्ण विकास मे योगदान प्रदान कर सकते है

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  3. डॉ सुनीता वर्मा03 November

    आज की ज्वलंत समस्या को आपने बड़ी ख़ूबसूरती से सामने लाया है ।जो भी माता पिता इस लेख पढ़ रहे होंगे यह उनके लिए एक चेतावनी भी है कि वे अपना बचपन याद करें । हम प्रकृति से और लोगों से कितना अधिक जुड़े हुए थे और आज हम अपने बच्चों को क्या आप देने जा रहे हैं।

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    1. शुक्रिया सुनीता। सही कहा तुमने हम तो स्कूल से आने के बाद बस्ता फेंक कर खेलने भाग जाते थे। कितनी खूबसूरत यादें हैं बचपन की।

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  4. बेहद गम्भीर विषय पर लेखनी को धार दी आपने। बच्चों से अधिक तो अभिभावकों की गलती है। पिता बच्चे को समय न देकर पैसे से compensate करता है और माताएं i-pad थमा कर खुद की स्वतंत्रता सुनिश्चित कर रही हैं।
    स्कूलों की तो पूछिये ही मत। उन्हें क्या लेना देना। स्वस्थ तन में स्वस्थ मन पुस्तकों में सिमट गया है।
    कुल मिलाकर स्थिति विकट है। टीचर तक ज्ञान के लिए google पर आश्रित।
    और क्या बचा है देखने को। राष्ट्रीय खेल क्रिकेट tv स्क्रीन पर। प्रावीण्य video गेम्स में समाहित।
    खैर प्रलय के बाद ही होता है सृजन। शायद यही उक्ति कभी जाग्रत कर सके समाज को।
    साहसिक संपादकीय हेतु हार्दिक बधाई सहित सादर

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    1. धन्यवाद आदरणीय जोशी जी। आपने सच कहा कि स्थिति विकट है। समय बदल रहा है ऐसे में हम सभी को बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका आभार।

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