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Jul 12, 2018

पावस फुहार मन मल्हार

पावस फुहार मन मल्हार
-पूर्वा शर्मा
पावस भोर / खुशियाँ चहुँ ओर / नाचते मोर।
रिमझिम बरसती इन पावस फुहारों में ऐसा क्या जादू है कि इन्हें देखकर हर किसी का मन प्रफुल्लित हो जाता है। पावस की इन चमत्कारी बूँदों का असर सभी प्राणियों पर कुछ इस तरह होता है कि सभी अपने दु: एवं तकलीफों को भूल जाते हैं छोटे-से छोटे जीव से लेकर बड़े-से बड़ा प्राणी पावस की इन मनोहारी फुहारों में मद मस्त हो जाता है और उसका मन मतवाला होकर मल्हार-तान छेड़ ही देता है। प्रथम पावस की फुहारें ग्रीष्म की तपन को शान्त करने के लिए उतावली रहती है। पावस की भीनी-भीनी फुहारें ज्यों ही पेड़-पौधे को स्पर्श करते हुए धरती का मुख चूमती हैं तो माटी की सौंधी-सौंधी गंध वातावरण को महका देती है। पावस की इन बूँदों के गिरने के स्वर, सामगान प्रस्तुत करता हुआ सभी के चेहरों पर एक मुस्कान बिखेर देता है। बरखा रानी के इस सौन्दर्य को हिन्दी हाइकुकारों ने अपने हाइकु में प्रस्तुत करते हुए कहा है -
ग्रीष्म की बेड़ी / मौसम लुहार ने / काटी वर्षा से। 
- कृष्णा वर्मा    
वर्षा का रथ / गुजरा जिधर से / महका पथ। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
झूमते पेड़ / सलोनी मिट्टी-गंध / पहली वर्षा। 
- डॉ. भगवतशरण अग्रवाल     
कौन-सा राग / टीन की छत पर / बजाती वर्षा । 
- डॉ. भगवतशरण अग्रवाल  
वर्षा की बूँदें / टीन छतपे गातीं / मेघ मल्हार। 
- नलिनीकांत
सावन झरी / लहरों की ताल पे / बने घुमरी। 
- डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
पग में बाँध / बूँदों की पैंजनिया / बरखा नाची। 
- कमला निखुर्पा
मन मोहती / धरा मुख चूमती / पावस बूँदे। 
- पूर्वा शर्मा
पावस के इस मन मोहक मौसम में शृंखलित मेघों से पूरा आसमान ढका होता है इन मेघों की गर्जना एवं उसके साथ होने वाली बिजली का चमक इस सुहावने मौसम के सौन्दर्य को बढ़ा देती है इन मेघों के उमडऩे और घुमडऩे से जो मनोरम दृश्य आकाश में उपस्थित होता है उसका वर्णन विभिन्न हाइकुकारों ने बड़े ही कलात्मक ढंग से किया है। नीली-नीली घटाएँ आसमान में आँख-मिचौली खेलती हुई नज़र आती है। मानवीकरण की छटा तो देखिए -
नीले घाघरे / घटाओं की छोरियाँ / इतरा रहीं। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
दिशि कन्याएँ / खेले नभ, चौसर / मेघ गोटियाँ। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
पहनने को / माला मेघों की / झुक रहा आकाश। 
-  नलिनीकांत
द्युति-फ्लैश से / नभ ने खींचा फोटो / नहाती भू का। 
- उर्मिला कौल          
ओढ़ा दुकूल / श्यामवर्णी मेघों का / गिरि-शृंगों ने। 
- डॉ. उर्मिला अग्रवाल    
पावस में चारों ओर बूँदों की लडिय़ों को देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। बादलों के घिरते ही सूर्य लुका-छिपी करने लगता है। बादलों की गर्जना और बूँदों का स्वर एक अलग ही नाद उत्पन्न करती है। यह प्राकृतिक संगीत दिल को छू लेने वाला होता है और इस संगीत में हर कोई खो जाता है। इस वातावरण में सब कुछ नया-नया एवं आनंद देने वाला प्रतीत होता है। बादलों द्वारा गाए जाने वाले मल्हार राग और संगीत को ज़रा सुनिए -
मृदंग बजा / नाच उठी बेसुध / वर्षा -अप्सरा। 
- नीलमेंदु सागर
ढोल बजाते / बैठ काले रथ पे/ बादल आते। 
- डॉ. भावना कुँअर   
व्योम अखाड़े / ढोल तिड़क-धुम्म/ मेघों की कुश्ती। 
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु
दिखा कटारें / चिंघाड़े दिग्गज-से / बादल काले। 
- पुष्पा मेहरा    
भादों ने छल / नभ का कोलाहल / मेघ कंदल। 
- डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
वीणा के तार / बरखा रानी छेडे / धरा-शृंगार। 
- डॉ. कविता भट्ट
वर्षा के आगमन से समस्त प्राणी ख़ुशी से झूम रहे हैं। वर्षा के आते ही मोर नाच उठते हैं एवं मेंढक, टिड्डे, उडऩे वाले कीट, जुगनू आदि जीव-जंतुओं की ध्वनि वातावरण में गूँज उठती है। वर्षा की बूँदों के अनुपम स्वर के साथ मेढकों का टर्राना और उसका पानी में कूदना बहुत ही स्वाभाविक-सी क्रिया है, बाशो के मेंढक वाले हाइकु से सभी हाइकु-प्रेमी भली-भाँति परिचित है -
ताल पुराना / दादुर की डुबकी / जल-तराना। 
- बाशो (अनुवाद - डॉ. कुँवर दिनेश )
जैसे ही बारिश की लडिय़ाँ कुछ देर के लिए थमती है तो विभिन्न प्राणियों के स्वर कानों में और भी साफ सुनाई देने लगते हैं। कहीं पर पपीहे, दादुर का स्वर तो कहीं झींगुर और टिड्डे की कर्कश आवाज़ सुनाई देती है। रिमझिम के स्वर के साथ इनज ीव-जंतुओं के बेसुरे एवं सुरीले स्वर मन को उद्वेलित कर देते हैं पावस के आगमन पर सभी प्राणी अपनी प्रतिक्रिया को कुछ इस प्रकार प्रदर्शित कर रहे  हैं -
मेघाच्छादित / कालिख पुती रात / गुर्रायें मेंढक। 
- डॉ. भगवतशरण अग्रवाल
पावस रात / पिकनिक मानते / नाचें जुगनूँ। 
- डॉ. भगवतशरण अग्रवाल     
वर्षा के झोंके / बतियाते मेंढक / चाय-पकौड़ी।
- डॉ. भगवतशरण अग्रवाल  
दादुर, मोर / पपीहा करें शोर / वर्षा की भोर। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
गाए दादुर / कुहूक- मन कूके / सुर हैं भीजे। 
- कमला निखुर्पा
फुदकें पक्षी / हरी हुईं शाखाएँ / वर्षा आने से। 
- सुदर्शन रत्नाकर
पत्तों में छिप / वर्षा को निहारती / नन्ही-सी चिड़ी। 
- पूर्वा शर्मा
एक ओर जहाँ इस पावस ऋतु के आगमन से ऐसा लग रहा है कि सभी पर सम्पूर्ण यौवन छा गया हो, प्रेमी-प्रेमिका प्रसन्नचित्त हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पावस की यह फुहारें विरह -वेदना में वृद्धि करने का कार्य भी कर रही है। पिया की याद एवं उसकी प्रतीक्षा में नायिका के नैनों से सावन-भादों बरस रहे हैं इस विरह में बारिश की बूँदे भी आँसुओं की तरह प्रतीत होती है। आसमान पर छाए बादल हृदय में शूल की तरह चुभ रहे हैं और ऐसा लगता है कि इन बूँदों का स्वर हृदय की पीड़ा को अभिव्यक्त कर रहा है। सावन के झूले का आनंदपिया के बिन अधूरा ही प्रतीत होता है, मेघों की गडग़ड़ाहट पिया की याद को बढ़ा रहा है, इस तु  में होने वाली प्रत्येक क्रिया पिया से दूर होने के भाव को उद्दीप्तकर रही है  विरह-अग्नि में जल रही नायिका के लिए यह पावस की फुहारें बहुत ही कष्टप्रद प्रतीत हो रही है।
यौवन जगा / रति-काम उद्धत / ऋतु पावस। 
- डॉ. कविता भट्ट
ठंडी फुहारें / हिंडोला सावन का / यादें पिया की। 
- पुष्पा मेहरा
कौन समझे ? / वर्षा की आँसू लिपि / भीने अक्षर। 
- डॉ. भगवतशरण अग्रवाल
वर्षा की शाम / दर्द जगाता कोई / गा के माहिया। 
- डॉ. भगवतशरणअग्रवाल
मेघों का नाद / हृदय की बींधती / पिया की याद। 
- डॉ. कुँवर दिनेश
कैसी ये झड़ी / बूँदों के संग बही / अश्कों की लड़ी। 
- अनिता ललित
कभी-कभी प्रकृति रौद्र रूप भी धारण कर लेती है। अतिवृष्टि, तूफ़ान या बिजली के गिरने के कारण पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचता है। हमें प्रकृति के इस रौद्र रूप का भी सामना करना पड़ता है। हमारे प्रकृति-प्रेमी सचेत हाइकुकारों ने प्रकृति के इस रूप को भी हाइकु में प्रस्तुत किया है -
प्रकृति क्रुद्ध / सटकारती कोड़ा / बिजलियों का। 
- डॉ. सुधा गुप्ता 
वर्षा, अंधड़ / धुआँधार बौछार / पानी की मार। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
टूटा घोंसला / बेघर हुआ मैना / सहमी बैठी। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
बरसे ओले / हैं चौपट फसलें / रोए किसान। 
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु
पावस में पूरी धरती धुली-उजली नजऱ आती है। लगता है कि पावस की फुहारों के आगमन से पूरी सृष्टि नृत्य कर रही है। पत्तों पर इस जल की बूँदों का स्नान होने से पत्ते इतने सुन्दर सज रहे हैं कि जैसे उन्होंने नए वस्त्र धारण किए हो। पूरी धरती का सौन्दर्य इस ऋतु में कई गुना अधिक बढ़ जाता है। पावस तु के इस सौन्दर्य का सुन्दर चित्रण हाइकुकारों ने अनेक बिम्बों के द्वारा अपने हाइकु में उकेरा है।
घटा घूमती / यूँ घाघरा उठाए / जमीं चूमती।
- डॉ. हरदीप कौर सन्धु           
वर्षा पहने / बूँदों सजा लहँगा / मटक चले। 
-  रचना श्रीवास्तव
मचल रहा / व्योम में मृगछौना / इन्द्रधनुष। 
- नलिनीकान्त
धानी दुपट्टा / खेतों में लहरा के / वर्षा ठुमकी। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
भीनी फुहार / बरखा की बाहर / मोती की झार। 
- डॉ. सुधा गुप्ता
गर्जना करें / सावन के बदरा / बरसा करें। 
- पूर्वा शर्मा

पावस का सुन्दर वर्णन हाइकु में देखा जा सकता है। पावस तु का मनोहर दृश्य तो हर किसी का मन मोहने की क्षमता रखता है। जल के बिना जीवन संभव नहीं है। पावस तु के आगमन से हमारी जल की आवश्यकता की पूर्ति तो होती ही है साथ ही सृष्टि के सुन्दर रूप को निहारने का अवसर भी प्राप्त होता है। पावस की फुहारें धरती पर पडऩे से माटी से उठने वाली सुगंध किसी को भी बहकाने पर मजबूर कर देती है, इस सुगंध को किसी बोतल में कैद नहीं किया जा सकता है। हाँ इसे मन की बोतल में कैद किया जा सकता है, जहाँ से कभी-भी इसकी सुगंध उड़ नहीं सकती है। नवअंकुरों को फूटता देखकर, लहराते पेड़ों को देखकर और जीव-जंतुओं के झूमता-गाता देखकर हर तरह सिर्फ प्रसन्नता का माहौल ही दिखाई देता है। यह माहौल सिर्फ पावस की फुहारें ही उत्पन्न कर सकती है  इस तु में नवपल्लवों से लेकर मनुष्य तक सभी के होठों पर मुस्कान होती है। पावस की इन फुहारों में भीगे हुए समस्त पेड़-पौधे सज-धजकर हर किसी का स्वागत करते हैं, प्रकृति का यह नेह सदा ही सब पर बरसता रहे।
सजे खड़े हैं / वर्षा में भीगे पात / इन्द्र सौगात।
E-mail- purvac@yahoo.com

2 comments:

नीलाम्बरा.com said...

पूर्वा जी सुन्दर लेखन हेतु हार्दिक बधाई। मेरे हाइकु भी आपको अच्छे लगे इसके लिए आभार।

Ravi Sharma said...

वर्षा ऋतु प्राणी मात्र के लिये बहुत सुखदायी होती है,मन कल्पनालोक में विचरण करने लगता है,कवियों,शायरों और हाइकु वालों की तो बल्ले बल्ले हो जाती है । सभी रचनाएं अद्भुत आनन्द देती है । ग्रीष्म ऋतु तपाती है,शीत ऋतु तन मन ठंडा कर देती है लेकिन बसंत और वर्षा ऋतु मन मे कई हिलोरे उठाती है,जिससे कई सुखद रचनाओं का प्रादुर्भाव होता है । सभी रचनाकारों को बधाई ।