बोल रे पपीहरा...
पपीहा वह पक्षी है जो दक्षिण एशिया में बहुतायत में पाया जाता है। यह दिखने में शिकारा की तरह होता है। इसके उडऩे और बैठने का तरीका भी बिल्कुल शिकारा जैसा होता है। इसीलिए अंग्रेज़ी में इसको Common Hawk-Cuckoo कहते हैं।
पपीहे की आवाज बहुत ही रसमय होती है, बल्कि कोयल से भी सुरीला और मीठा गीत गाता है यह पक्षी। उसमें कई स्वरों का समावेश होता है। किसी- किसी के मत से इसकी बोली में कोयल की बोली से भी अधिक मिठास है।
हिन्दी फिल्मों में इस पक्षी को लेकर अनेक गीत रचे गए हैं। कवियों ने भी इस पक्षी को लेकर कई कविताएँ लिखी हैं। कवियों ने मान रखा है कि वह अपनी बोली में पी कहाँ....? पी कहाँ....? अर्थात् प्रियतम कहाँ हैं? बोलता है। वास्तव में ध्यान देने से इसकी रागमय बोली से इस वाक्य के उच्चारण के समान ही ध्वनि निकलती जान पड़ती है। बंगाली लोगों का मानना है कि यह पक्षी 'चोख गेलो’ (मेरी आँख चली गई) कहता है, जबकि मराठी लोगों के अनुसार यह पक्षी अपनी बोली में 'पयोस आता’ (बारिश आने वाली है) कहकर चिल्लाता है। वैसे खूब ध्यान से सुनने पर पपीहा की रागमय बोली में 'पी कहाँ’ के उच्चारण के समान ही ध्वनि निकलती जान पड़ती है।

इसकी बोली कामोद्दीपक मानी गई है। इसके अटल नियम, मेघ पर अनन्य प्रेम और इसकी बोली की कामोद्दीपकता को लेकर संस्कृत और भाषा के कवियों ने कितनी ही अच्छी -अच्छी उक्तियाँ की है।यद्यपि इसकी बोली चैत से भादों तक बराबर सुनाई पड़ती रहती है; परंतु कवियों ने इसका वर्णन केवल वर्षा के उद्दीपनों में ही किया है।
पपीहा कीड़े खानेवाला एक पक्षी है ,जो बसंत और वर्षा में प्राय: आम के पेड़ों पर बैठकर बड़ी सुरीली ध्वनि में बोलता है। यह वृक्षों पर रहने वाला पक्षी है। पपीहा पेड़ों में ही रहता है और बहुत कम ही ज़मीन पर उतरता है। इसका आवास बाग, बगीचे, पतझड़ी और अर्ध सदाबहार जंगलों में होता है। जब मस्ती में आता है तब वृक्ष की चोटी पर बैठकर जोर से टेर लगाता रहता है।

देशभेद से यह पक्षी कई रंग, रूप और आकार का पाया जाता है। उत्तर भारत में इसका डील प्राय: श्यामा पक्षी के बराबर और रंग हलका काला या मटमैला होता है। दक्षिण भारत का पपीहा डील में इससे कुछ बड़ा और रंग में चित्र-विचित्र होता है। अन्यान्य स्थानों में और भी कई प्रकार के पपीहे मिलते हैं, जो कदाचित् उत्तर और दक्षिण के पपीहे की संकर संतानें हैं। मादा का रंगरूप प्राय: सर्वत्र एक ही जैसा होता है। पपीहा पेड़ से नीचे प्राय: बहुत कम उतरता है और उसपर भी इस प्रकार छिपकर बैठा रहता है कि मनुष्य की दृष्टि कदाचित् ही उसपर पड़ती है।
कोयल की तरह पपीहा भी अपना घोंसला खुद नहीं बनाता। दूसरे चिड़ियों के घोंसलों में अपने अण्डे देता है। मादा अप्रैल से जून के बीच अंडे देती है, जिन्हें वह चुपके से कोयल या छोटी फुदकी के घोंसले में छोड़ आती है। उसके अंडों का रंग भी कोयल के अंडों जैसा नीला होता है।
प्रजनन काल में नर तीन स्वर की आवाज़ दोहराता रहता है जिसमें दूसरा स्वर सबसे लंबा और ज़्यादा तीव्र होता है। यह स्वर धीरे-धीरे तेज होते जाता हैं और एकदम बन्द हो जाता, और काफ़ी देर तक चलते रहता है; पूरे दिन, शाम को देर तक और सवेरे पौ फटने तक।
बरसात के बाद यह पक्षी दिखाई नहीं देता। वैसे ही इसे सर्दी बिल्कुल पसंद नहीं। इन दिनों यह दक्षिण की ओर चला जाता है, जहाँ सर्दी का प्रकोप कम होता है। पपीहे की एक जाति आम पपीहों से कुछ भिन्न होती है, इसे चातक कहते हैं। कद में ये पपीहे की तरह के होते हैं, बस इनके सिर पर बुलबुल की तरह एक कलगी-सी होती है।
मेघ से पानी की
याचना करते चातक
याचना करते चातक

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