है कहाँ
वह आग जो मुझको जलाए,
है कहाँ
वह ज्वाल मेरे पास आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर
से तुम बुझा दीपक जलाओ।
तुम नई
आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा
में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम
मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर
से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मैं
तपोमय ज्योति की, पर प्यास मुझको,
है प्रणय
की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की
दो बूँदें भी तो तुम गिराओ;
आज फिर
से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर
को भेद मैं आगे बढ़ूँगा,
कल प्रलय
की आंधियों से मैं लड़ूँगा,
किन्तु
आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर
से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मुझे न
अपने से कुछ प्यार,
मिट्टी
का हूँ, छोटा दीपक,
ज्योति
चाहती, दुनिया जब तक,
मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार।
पर यदि
मेरी लौ के द्वार,
दुनिया
की आँखों को निद्रित,
चकाचौंध
करते हों छिद्रित
मुझे
बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इनकार।
केवल
इतना ले वह जान
मिट्टी
के दीपों के अंतर
मुझमें
दिया प्रकृति ने है कर
मैं सजीव
दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान।
पहले कर
ले खूब विचार
तब वह
मुझ पर हाथ बढ़ाए
कहीं न
पीछे से पछताए
बुझा
मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार।
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