लगभग 80 साल पहले रिचर्ड लेवलीन ने एक किताब लिखी थी, हाऊ
ग्रीन वॉस माय वैली (कितनी हरी-भरी थी
मेरी घाटी)। इस उपन्यास में बताया गया था कि कैसे वेल्स देश के खदान क्षेत्र, लगातार
और गहरे खनन के कारण धीरे-धीरे प्रदूषित इलाकों में तब्दील हो गए। हमारे यहां भी
हाल ही में हुए घटनाक्रम रिचर्ड लेवलीन की इस किताब की याद दिलाते हैं - दिवाली के
समय पटाखों का इस्तेमाल, उनके कारण उत्पन्न ध्वनि और पर्यावरण प्रदूषण (जो भारत के
कई स्थानों की पहले से प्रदूषित हवा को और भी प्रदूषित कर रहे हैं) और पटाखों के
इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश कि पटाखे, वह भी
मात्र ‘ग्रीन’ (पर्यावरण हितैषी) पटाखे, रात में
सिर्फ दो घंटे ही चलाए जाएँ (जिसका पालन नहीं हुआ)।
‘ग्रीन’पटाखे क्या हैं?
ग्रीन पटाखों में पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने
वाले लीथियम, एंटीमनी, लेड, मर्करी जैसे तत्व नहीं होते। इसके अलावा इन पटाखों में
परक्लोरेट, परआयोडेट और बेरियम जैसे अति-शक्तिशाली विस्फोटक भी नहीं
होते। कोर्ट द्वारा पटाखों के इस्तेमाल से सम्बंधित ये दिशानिर्देश भारत के
पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गेनाइज़ेशन (PESO) के
सुझाव के आधार पर दिए गए थे। लेकिन वर्तमान में ये ग्रीन पटाखे बाज़ार में उपलब्ध
ही नहीं है। तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड एमोर्सेस मेन्यूफैक्चरर एसोसिएशन (TANFAMA) की 850
पटाखा फैक्टरी में तकरीबन दस लाख लोग काम करते हैं। उनका सालाना टर्नओवर 5 हज़ार
करोड़ का है। एसोसिएशन ने घोषणा की है कि वे परक्लोरेट व उपरोक्त हानिकारक धातुओं
का पटाखे बनाने में इस्तेमाल नहीं करते हैं (जिनका उपयोग चीन की पटाखा फैक्टरियों
में किया जाता है और उन्हें भारत में निर्यात किया जाता है)। एसोसिएशन का कहना है
कि पटाखे बनाने में वे पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्यूमिनियम
पावडर और बेरियम नाइट्रेट का उपयोग करते हैं। आतिशबाज़ी में लाल रंग के लिए स्ट्रॉन्शियम
नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है और फुलझड़ी की चिंगारियों के लिए एल्यूमिनियम का
उपयोग किया जाता है और धमाकेदार आवाज़ के लिए एल्यूमिनियम के साथ सल्फर का उपयोग
किया जाता है। हरे रंग के लिए बेरियम का उपयोग किया जाता है। पटाखों में लाल सीसा
और बिस्मथ ऑक्साइड का भी उपयोग होता है। एसोसिएशन अपनी वेबसाइट पर दावा करता है कि
उनके पटाखों का ध्वनि का स्तर 125 डेसीबल है जो युरोप के मानक ध्वनि स्तर (131
डेसीबल) से भी कम है।
परक्लोरेट और बेरियम
भारत में, पटाखों
के निर्माण में अभी भी बेरियम का उपयोग किया जाता है। बेरियम भी ग्रीन नहीं बल्कि
ज़हरीला भी है। एक आबादी आधारित अध्ययन में पाया गया है कि सुरक्षित सीमा से अधिक
बेरियम युक्त पेयजल वाले इलाकों में,
65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों में ह्मदय सम्बंधी
रोगों से मृत्यु होने की आशंका काफी बढ़ जाती है। चूहों पर हुए एक अध्ययन में देखा
गया है कि बेरियम का सेवन किडनी को प्रभावित करता है जिसके कारण तंत्रिका सम्बंधी
समस्या हो सकती है। यह देखना बाकी है कि यह मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है।
बिस्मथ भी समस्यामूलक है। हालांकि लेड और एंटीमनी की तुलना में बिस्मथ कम विषैला
है, लेकिन यह किडनी,
लीवर और मूत्राशय को प्रभावित करता है। इसका विषाक्तता स्तर
निर्धारित करना ज़रूरी है।
दिल्ली और उसके पड़ोसी
राज्य वायु प्रदूषण (हवा में निलंबित कण,
वाहनों से निकलने वाले प्रदूषक, धुआँ और
स्मॉग) से जूझ रहे हैं। जिससे वहाँ के लोगों का रहना दूभर हो रहा है। देश के कई
अन्य शहर भी अब दिल्ली की तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं। त्यौहारों के अलावा शादी, सामाजिक उत्सवों में
पटाखे चलाना प्रदूषण को और भी बढ़ा देता है। हम भारतीय शोर-शराबा करने और पर्यावरण
को प्रदूषित करने के आदी हैं। रोक चाहे किसी भी स्तर (स्थानीय, सरकार या
सुप्रीम कोर्ट के स्तर) पर लगे किंतु हम लोग उनका पालन नहीं करते। व्यक्तिगत रूप
से, परिवार के स्तर पर, समाज के
स्तर पर नियमों का पालन करने पर ही बदलाव आएगा। हम भारतीयों के लिए जश्न मनाने का
मतलब बस शोर-शराबा करना ही हो गया है।
अन्य देश
मगर ऐसा क्यों है कि
भारतीय लोग सिर्फ भारत में ऐसा करते हैं?
विदेशों में रह रहे भारतीय वहाँ ऐसा क्यों नहीं करते? सप्तऋषि
दत्ता ने पिछले साल swachhindia.ndtv.com में एक लेख लिखा था: ‘पटाखों
पर नियंत्रण और प्रतिबंध: भारत इन देशों से क्या सीख सकता है’।
ज़्यादातर युरोपीय देश, वियतनाम, सिंगापुर, यूके, आइसलैंड जैसे देश सिर्फ त्यौहारों के आसपास ही पटाखे खरीदने
की इज़ाजत देते हैं। यूएसए के 50 से अधिक प्रांतों में कई प्रकार के पटाखों पर
प्रतिबंध है। साथ ही वहाँ व्यक्तिगत स्तर पर पटाखे चलाने की जगह सामाजिक, शहर, राज्य
स्तर पर चलाने की अनुमति है। ऑस्ट्रेलिया में भी ऊपर आकाश में जाकर फूटने वाले और
तेज़ धमाकेदार आवाज़ करने वाले पटाखों पर प्रतिबंध लगा है। और न्यूज़ीलैंड में साल
में सिर्फ चार बार ही पटाखे चलाने की अनुमति है।
यदि भारतीय लोग विदेशों
में नियमों का पालन कर सकते हैं तो वे भारत में रहते हुए क्यों नहीं करते? चाहे
कितने भी नियम बन जाएँ, जब तक सोच नहीं बदलेगी, हम
स्वच्छ भारत नहीं बना पाएँगे। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि परंपराओं और आस्थाओं
का संरक्षण ज़रूरी है। इस संदर्भ में विदेशी और भारतीय दोनों ही सरकारों ने पटाखों
को चलाने के लिए कुछ छूट दी है। यदि पटाखे चलाना धार्मिक अनुष्ठान के लिए ज़रूरी है
(है क्या?) तो क्यों ना निश्चित समय के लिए और सांकेतिक रूप से चलाए
जाएँ, जिससे पर्यावरण को भी नुकसान ना पहुँचे।
जैसे कि हम गणेश विसर्जन
में मूर्तियों को झील, तालाब या नदियों में इस बात की परवाह किए बिना विसर्जित कर
देते हैं कि क्या ऐसा करना पर्यावरण हितैषी हैं। पहले मूर्तियाँ मिट्टी की बनाई
जाती थी, मगर आज बड़ी, पर्यावरण विरोधी,
और भड़कीली मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। दी हिंदू में कीर्तिक
शशिधरन लिखते हैं, नदी ऐसी जगह बन गई है जहाँ धार्मिक और प्रदूषणकारी लोग एक
साथ देखने को मिलते है। धर्म को लेकर जो हमारी मान्यताएं हैं वह हमारे स्वचछता के
विचार से कहीं मेल नहीं खाती। कैसे कोई भक्त नदी को दूषित छोड़ सकता है। और क्या
प्रदूषण नदी की पवित्रता कम नहीं करता। हम पटाखे चलाते हैं तो क्या हम प्रदूषण के
बारे में सोचते हैं? क्या हवा पवित्र या धार्मिक नहीं है? (स्रोत
फीचर्स)
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