- गिरीश पंकज
दिवाली निकट थी, पर स्थिति बड़ी विकट थी। कारण यह कि हमारे जीवन का दिवाला पिटा हुआ था और हम दीवाल से सिर सटाकर यही सोच रहे थे कि इस (कमरतोड़ नहीं) हृदयतोड़ महँगाई के बीच खुशियों के दीप जलें तो जलें कैसे! तभी किसी ने द्वार खटखटाया। रात का समय था । हम अतिरिक्त उत्साह से भर गए, क्योंकि सुन रखा था कि दिवाली के आसपास लक्ष्मी मैया कभी भी दरवाजा खटखटाके घर के भीतर प्रवेश कर सकती है । हमने एक विज्ञापन भी सुना था जिसमें लॉटरी बेचने वाला बार-बार यही कहता था, ‘लक्ष्मी आपके घर का दरवाजा खटखटा रही है।’ हमने कोई लॉटरी तो नहीं खरीदी थी; लेकिन यह सोचकर दरवाजा खोलने के लिए उठ खड़े हुए कि हो सकता है आज लॉटरी लग जाए, यानी लक्ष्मी मैया आकर कहे - ‘बेटे! बता, तेरे घर की तिजोरी कहाँ है, मैं उसमें समाना चाहती हूँ।’ लेकिन जैसे ही दरवाजा खुला, मैंने देखा, वहाँ कोई नहीं था। तब मुझे किसी कवि की रचना याद आ गई, जिसमें कवि ने कहा है- ‘न कोई आया था, न कोई आया होगा/ तुम्हारा दरवाजा हवाओं ने खटखटाया होगा।’ हालाँकि बाहर ऐसी कोई हवा नहीं चल रही थी कि दरवाजा अपने आप खटकने लगे । थोड़ी देर बाद फिर खटखट की आवाज हुई तो मैंने फिर अति उत्साह के साथ दरवाजा खोला, तो देखा, बाहर एक ‘कूपसी’ खड़ी है। ( रूपसी का विलोम कूपसी)
मुझे देखकर कूपसी मुस्काई; लेकिन उसकी मुस्कान मुझे रत्ती भर
नहीं भाई, क्योंकि उसका चेहरा सामान्य
नारियों जैसा बिल्कुल नहीं था। मुझे रामायण काल की शूर्पणखा की याद हो आई। बिल्कुल
उसकी तरह ही कूपसी का चेहरा नज़र आ रहा था। उसे देख कर मैं मन-ही-मन घबरा रहा था: हे भगवान! भला, यह कौन-सी बला टपक पड़ी है। मैंने
उसकी मुस्कान का ज़वाब मुस्कान से देते हुए खानदानी शिष्टाचार निभाया और हाथ जोड़कर
फरमाया, ‘बताइए देवी! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’
कूपसी कुछ कुछ कविता पढ़ने के अंदाज़ में बोली-
अरे भाई, मैं महँगाई हूँ।
तुम्हारा हालचाल
जानने
के लिए आई हूँ।
कैसी कट रही है
मेरे राज में?
कुछ स्वाद आ रहा है
आलू और प्याज में?
या फिर जिंदगी जीने के लिए
हमेशा की तरह
पैसे उठा रहे हो ब्याज में?’
मैंने कहा, ‘तुम तो इस देश के मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों का
हाल-चाल जानती ही हो। तुम्हारे कारण हम सबकी जो दुर्गति हो रही है, उसे देख कर यही लगने लगा है कि बहुत जल्दी हम 'सद्गति' को प्राप्त हो जाएँगे।’
मेरी बात सुनकर कूपसी हँसी और बोली, ‘हम तुम्हें जीने नहीं देंगे और सरकार तुम्हें मरने नहीं
देगी। वह ऐसे-ऐसे लोक लुभावन वादे करेगी कि उसी प्रत्याशा में तुम लोग जिंदा
रहोगे। इतने साल से तुम सब सरकार के वादों पर ही तो जिंदा हो। हालाँकि तुम सब
बार-बार यह गाना भी गाते हो कि वादे पे तेरे मारा गया अब बंदा ये सीधा-सादा, वादा तेरा वादा । लेकिन एक बात तो
है कि सरकारी वादे इस देश के आम आदमी को उत्साह से भर देते हैं और वह मगन होकर
सोचने लगता है कि अब आएँगे अच्छे दिन। अब दूर होगी गरीबी; लेकिन ऐसा होता नहीं है। वैसे सच्चाई यह है कि जो लोग गरीबी हटाओ का नारा देते हैं, सबसे पहले उनकी गरीबी दूर हो जाती है। जो लोग कहते हैं, अच्छे दिन आएँगे, सत्ता में आने के बाद उनके अच्छे
दिन शुरू हो जाते हैं । तो एक तरह से वे गलत भी नहीं कहते । उनकी गरीबी तो हट गई
न! उनके अच्छे दिन आ गए न!! आखिर वे भी तो इस देश के नागरिक हैं । उन्हें भी
जीने-खाने का हक है । चलो करोड़ों के अच्छे दिन नहीं आए तो क्या हुआ, मुट्ठी भर लोगों के तो आ गए।’
मैंने कहा, ‘ओ रूपसी की डुप्लीकेट बहन कूपसी! यह सब तुम्हारी कृपा के
कारण हो रहा है। देशभर में तुम्हारा जलवा है। तुम जिस चीज पर हाथ रख दो, उसकी कीमत बढ़ जाती है। विपक्ष को तुम्हारी आड़ लेकर सरकार
की खिंचाई करने का मौका मिल जाता है। जो दल सरकार में रहता है, उसे विपक्ष वाले बस इसी बात पर कोसते हैं कि हाय- ‘हाय! देखो, इस नालायक सरकार के कारण देश में
महँगाई बढ़ गई है।.. लोगों का जीना दूभर हो गया है’ । मगर जैसे ही विपक्ष सत्ता के
घोड़े पर सवार होता है, वह भी तुमसे (यानी महँगाई से) इश्क
लड़ाने लगता है। और शुरू हो जाता है खुला खेल
फर्रुखाबादी । हे डायनश्री, तुम्हारे साथ सरकार का ऐसा गठबंधन होता है कि मत पूछो।
तुम्हारे हुस्न के जलवे ऐसे बिखरते हैं कि लोग बस आहें भर के
रह जाते हैं। तब तुम यही गाना गाती हो, आहें न भर ठंडी-ठंडी खतरे की है यह घंटी, गरम-गरम चाय पी ले।’
महँगाई बाई हँसी और आश्चर्यचकित होकर कहने लगी,
‘अच्छा ! तो
लोग इस महँगाई के ज़माने में चाय भी पी लेते हैं?
क्या शक्कर सस्ती हो गई है? मैंने तो हर तरफ अपना शिकंजा फैला कर रखा है। पेट्रोल की
कीमतें आकाश छू रही हैं। डीजल उसके पीछे-पीछे भागा चला जा रहा है । घरेलू गैस भी
सबसे आगे निकल चुकी है। सब्जी, अनाज हर कहीं मेरा जलवा नज़र आता है
। आम आदमी कुछ खरीदने के पहले सौ बार सोचता है। अपनी जेब देखता है, तब आगे बढ़ता है । कई बार तो बेचारा सामान के दूर-दर्शन
करके ही घर लौट जाता है। ऐसा भयंकर आतंक मैंने फैला कर रखा है।’
मैंने महँगाई को प्रणाम करते हुए
कहा, ‘हे कु-देवी! तुम इस देश से जाने का क्या लोगी? तुम्हारे कारण हम लोग ठीक से त्यौहार भी नहीं मना सकते । अब
देखो न, दिवाली पर दिवाला पिटने जैसी स्थिति है। मिठाई खरीद नहीं सकते। वह इतनी महंगी हो गई है। ले- दे कर
एकाध पाव खरीद लिया, तो बड़ी बात। और उस पर भी डर लगता
है कि कहीं उसमें मिलावट न हो। एक तो महँगी मिठाई और उस पर मिलावटी! मतलब हम पर दोहरी मार
। उधर पटाखे भी इतने महंगे कि कीमत सुनकर ही आदमी ‘बम’ हम हो जाता है । कहने का मतलब यह है कि तुम्हारे कारण दिवाली केवल धनवालों का त्योहार होकर रह गई है। लेकिन ऐसा
नहीं है कि
केवल धन वाले ही
दिवाली मनाते हैं
हम जैसे दिलवाले भी
दिवाली मना लेते हैं ।
और दो-चार मिट्टी के दीयों में
अपने आँसू भर कर
उन्हें जला देते हैं।’
मेरी पीड़ा सुनकर महँगाई एक बार
फिर हँसी और बोली, ‘तुम लोगों के हिम्मत की दाद देती
हूँ। जानलेवा महँगाई के दौर में भी तुम लोग मुस्कुरा लेते हो ? खुश रहने की कोशिश करते हो ! मिठाई का एकाध टुकड़ा खाकर ही
जीवन को स्वादिष्ट बना लेते हो । पेट्रोल खर्च न हो इसलिए लंबी-लंबी पदयात्रा भी
कर लेते हो! तुम लोगों की बात निराली है । यह
और बात है कि भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था के कारण ही तुम लोग की किस्मत काली है। यही कारण है कि सिस्टम को याद करके तुम सब के होठों पर
गाली-ही-गाली है। लेकिन चिंता मत करो । बहुत जल्दी
तुम्हारे अच्छे दिन आने वाले हैं।’
महँगाई की बात सुनकर मैंने कहा, ‘अच्छे दिन की याद मत दिलाओ। यह जुमला बड़ा खतरनाक है । जब सरकार कहती है, अच्छे दिन आएँगे, तो इसका मतलब यह है कि जनता के
बुरे दिन शुरू होने वाले हैं । बहुत पहले जब सरकार ने कहा था, गरीबी हटाओ तो लगा था,
मेरी बात सुनकर कूपसी बोली, ‘मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा। यह सरकार पूँजीपतियों के साथ जिस तरह से नैन-मटक्का या रोमांस कर रही है, उसे देखते हुए लगता है कि उसी ने सब कुछ छूट देख दे रखी है कि देश को जितना चाहो, उतना लूटो । हम तुम को अभय दान देते हैं । बस, तुम अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा हमारी जेबों को समर्पित करते रहो, फिर चाहे नंगा नाच करो। हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रही जनता की बात, तो उसे हम हर बार की तरह झाँसा देकर बहला- फुसला लेंगे और सत्ता पर काबिज रहेंगे।’
महँगाई की दो टूक बात सुनकर मैं सोचने लगा कि आखिर इस बाई ने मेरा दरवाजा क्यों खटखटाया। क्या यह मुझे और कंगाल बनाना चाहती है? या फिर खुद से यानी महँगाई से निपटने का कोई खास फार्मूला देना चाहती है ? इसलिए मैंने पूछ लिया, ‘अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इस दिवाली के मौके पर मेरे घर किसलिए तशरीफ लाई?’
मेरी बात सुनकर महँगाई पहले मुस्कुराई फिर थोड़ा-सा सकुचाई, शरमाई और उसके बाद उसने फरमाया, ‘दरअसल मैं यही देखने आई हूँ कि तुम लोगों के जीवन में दिक्कत में कोई कमी तो नहीं है। अगर तुम्हारी दिक्कत कुछ कम हो रही हो, तो मैं उसे कैसे बढ़ा सकती हूँ। इसका सर्वे करने निकली हूँ। मैं सरकार की खास प्रवक्ता हूँ। सरकार की मंशा भी यही है कि जनता को अधिक-से-अधिक तकलीफ में रखा जाए। शायद इसके पीछे उसकी मंशा यही हो कि लोग भक्ति-भाव में डूबे रहें। किसी कवि ने कहा है न- ‘दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय’, तो सरकार चाहती है कि लोग भगवान का नाम लेते रहें। इसलिए देश की जनता को वह महँगाई के बोझ तले दबाए रखना चाहती है । एक तरह से सरकार बड़ा काम कर रही है कि वह सबके हृदय में भक्ति की गंगा प्रवाहित कर रही है।’
महँगाई कि बात सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा, ‘देवी ! तुमको और इस सरकार को बारंबार प्रणाम है, जिसने हमें दुख सहने का आदी और दुख सहते हुए भगवान का भक्त भी बना दिया है। अब तुम आगे बढ़ जाओ ताकि मैं दीपक जलाकर अपने जीवन में उजाला कर लूँ।’
महँगाई चौंक कर बोली, ‘तो तुम्हारे घर में तेल भी है?आश्चर्य!!’
मैंने कहा, ‘हम गरीब लोग तेल से नहीं, आँसुओं से दीपक जलाते हैं और पटाखे फोड़ कर नहीं, उसकी आवाज सुनकर दिवाली मनाते हैं ।’
मेरा उत्तर सुनकर महँगाई का चेहरा उतर गया और वह आगे बढ़ गई। फिर हमने दरवाजा बंद कर दिया और इंतजार करने लगे कि शायद भूले-भटके ही सही, लक्ष्मीदेवी आकर मेरा दरवाजा ज़रूर खटखटाएगी।
सम्पर्कः सेक़्टर -3, एचआईजी
- 2/ 2 , दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, मोबाइल : 87709 69574
1 comment:
उम्दा व्यंग्य! इस व्यंग्य ने आम देशवासियों के जीवन का आँखों देखा हाल सुना दिया।
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