माँ -पिता जी अकस्मात् ही, बिना समय मेरे चारों बड़े बहन – भाइयों को अनाथ कर गए। अनाथ तो मैं भी हो ही जाती अगर बड़े
भैया में पिता जी अपना
प्रतिरूप ना गढ़ गए होते और भाभी हौले से माँ की प्रतिकृति हो उनकी उदारता और
नेह को आत्मसात् ना कर लेतीं। बहरहाल जैसे भी हो प्रकृति का
मुझे अनाथ बना देने का महाषड्यंत्र
सौ प्रतिशत नाकाम हो गया था। और मैं पहले की तरह ही घर की
सबसे छोटी लाड़ली और
ज़िद्दी और नकचढ़ी लड़की के सिंहासन से टस से मस नहीं हुई, वह लड़की जिसे घर की समस्याओं
को समझने की ज़रूरत तो क़तई नहीं थी। मुझे यह समझने में
थोड़ी देर लगी कि जब कोई भयावह
अंधड़ परिवार पर पसरे घनी छाया वाले पेड़ को जड़ सहित उखाड़ फेंके तो
चिलचिलाती धूप निरंकुश होकर तांडव दिखाने पर उतारू हो जाती
है। परिवार के नए पौधों को
छाँव देने लायक़ शाखाएँ और पत्तियाँ उगाने में थोड़ा समय तो लगता ही है । वह
अलग बात है कि हमारे घर के नवांकुरित पौधे हमारे बड़े भैया
ने वे शाखाएँ और पत्तियाँ उगाने में बहुत अधिक समय नहीं लिया। और अपनी थोड़ी ही सही
पर नरम छायादार पत्तियों से
जल्दी ही हम सबको छाँव देना आरम्भ कर दिया। ऐसे में घनी छाँव वाले वृक्ष से
अपने घर के इस नवांकुरित पौधे की तुलना करना उस पर सीधे –
सीधे अन्याय सदृश था। अतः उस नन्ही सी सीमित छाँव को ही हम सब
बहुत अधिक समझते। यूँ तो हम पाँचों बहन – भाइयों पर पहाड़
तो एक ही टूटा था परंतु मेरी
छोटी आयु की नासमझी ने मुझे यह विश्वास दिला दिया कि उस पहाड़ का सबसे अधिक
घनत्व वाला खण्ड मुझ पर ही आन गिरा था । छोटी – छोटी बातें
आँखों को नम कर जातीं, कई – कई दिनों तक
उदासी के कुएँ में धकेल देतीं। ऐसी निराशा में डूबते – उतरते माहौल में एक दिन मेरी अलार्म घड़ी थम गई। उन दिनों घड़ी ही
अलार्म लगाने का एक मात्र
साधन होती थी । लाख चाबी उमेठने पर भी उसकी सुइयों ने तिल भर ही सरकना गवारा
नहीं किया। परीक्षा के ठीक पहले पिता जी वाली पुरानी घड़ी
का रुक जाना और भी घनी उदासी
ले आया था। बड़े भैया ने उसे जल्दी से जल्दी ठीक कराने का ज़िम्मा छोटे भैया
को सौंप दिया। पहले दिन तो छोटे भैया को व्यस्तता रही । दूसरे
दिन वे किसी काम से बाज़ार गए भी पर मेरी थमी हुई घड़ी ले जाना भूल गए । तीसरे दिन इम्तियाज़ घड़ीसाज की दुकान पर घड़ी सुधारने के लिए दे आए। चौथे दिन
गए तो पता चला कि घड़ीसाज
व्यस्त था मेरी घड़ी से पहले आया हुआ कार्य करने के लिए बाध्य था। भैया
पाँचवें दिन गए तो घड़ी साज की दुकान बंद थी कारण नहीं पता, क्यों। मैं इन सभी दिनों सुबह
के अपने नियत समय पर नहीं उठ सकी थी। परीक्षा से ऐन पहले की
पढ़ाई का महत्व सोच – सोच
कर मैं परेशान हो गई थी । शायद मेरे हाथ एक अवसर भी आ गया था यह सोच कर उदास
होने का कि अगर पिता जी होते तो मेरी घड़ी कब की ठीक हो गई
होती। या वे तो मुझे खुद
ही जगा दिया करते और मेरी सुबह के समय की पढ़ाई किसी हालत में बर्बाद नहीं
होती।
छठे दिन भी घड़ीसाज़ की
दुकान बंद थी और उसी दिन पता
चला उसकी दुकान बंद होने का कारण भी जो कि उसकी अम्मीजान का गुज़र जाना था। उस
दिन तो लगा कि अब तो ना जाने कब तक उसकी दुकान बंद ही रहेगी
बस और यही हुआ भी। दुकान
बंद ही रही। उस समय नयी चीजें आज कल की तरह नहीं आ ज़ाया करती थीं, ना ही यूज़ एंड थ्रो का ज़माना
था। ख़ैर उस रात मैं बिना कुछ खाए – पिए खूब रो – धो कर, बुरी तरह थक – थकाकर कर सो गई।
मेरी ममतामयी भाभी मेरे लिए खाना लेकर मुझे खिलाने आईं भी
पर मैंने नहीं खाया और बस सोई ही रही। रात में
भूख के मारे आँख खुली भी
पर खाना खुद लेकर खाने का प्रश्न ही नहीं था, मुझ बगड़ैल का। अतः फिर से पिता जी और माँ को याद किया, थोड़ा रोई और फिर सो गई। छठा दिन भी निकल गया पर घड़ी ठीक होकर नहीं आ सकी छोटे भैया
मेरे
मेरे कमरे की खिड़की बाहर
लॉन की तरफ़ खुलती थी। लॉन
में आम के दो विशालकाय वृक्ष थे जिन्हें कभी एक साथ ही रोपा गया होगा। दोनों
आश्चर्यजनक ढंग से आइडेंटिकल ट्विन्स से लगते। लॉन के बीचों
- बीच गेट के दोनो ओर खड़े
थे ये जुड़वां । उन जुड़वों में से दाहिनी तरफ़ खड़े एक की, एक टहनी मेरी खिड़की के इतने
पास थी कि जब हवा चलती तो वह खिड़की को बार – बार छेड़ती, जैसे खिड़की के मोटे सरिए
सितार के महीन तार बन जाते और टहनी उनसे कोई राग छेड़ने की
जुगत में रहती। ख़ासी ऊँचाई
पर होने के कारण
खिड़की को खोल कर रखा जा
सकता था। टहनी की पत्तियाँ कई बार सरिए पार कर अंदर ही घुस आतीं । अन्यथा
उन सरियों पर सिर टिकाए चुप – चाप मुझे झाँकती रहती । मैं
उस टहनी के उस निःशब्द प्रेम
का भरपूर सम्मान करती। खिड़की से सटी स्टडी टेबल से आगे हाथ बढ़ाकर उसकी गहरी हरी पत्तियों को मैं दिन
में दसियों बार सहलाती इतनी
कि उन पत्तियों पर धूल कभी चढ़ ही नहीं पाती थी। और मेरे सान्निध्य में उनका
रंग रूप दूसरी पत्तियों की तुलना में कम से कम दस गुना तो
दमकता ही रहता। अक्सर मैं
अपने सुख – दुःख भी उससे साँझा करती रहती। वो भी उन्हें किसी को ना बताकर
स्वयं को सचमुच मेरी अंतरंग सखी साबित कर देती। घड़ी के
ख़राब हो जाने के कारण जन्मी
पिछले सप्ताह भर की उदासी और निराशा की बेबस प्रत्यक्षदर्शी भी वही थी । उन
दिनों ऐसे लगता जैसे वह मेरी ओर थोड़ी सी और झुक आई थी जैसे
वह भी मेरी ही तरह मुझे
सहलाना चाहती हो। मेरी उदास पलकों पर अपनी हरी पत्तियाँ रखकर उन्हें सहला कर
विश्राम देना चाहती हो।
उस दिन सुबह के चार ही बने होंगे छोटे भैया के मित्र महान की घड़ी अपने धर्म से विमुख़ हुई साँस रोक लेने के हठ योग पर उतारू थी। और मैं भोर के पूर्व की गहन वाली निद्रा में लीन थी कि मेरी उस सखी टहनी पर किसी चिड़िया के ज़ोर– ज़ोर से चिहुँकने की आवाज़ सुनाई देने लगी। अभी तो अँधेरा ही था इतने अँधेरे समय कहीं कोई चिड़िया बोलती है भला? परंतु आवाज़ तो चिड़िया की ही थी। उसी मेरी अंतरंग सखी टहनी की मेरे द्वारा सहलाई गई साफ़ चमकीली पत्तियों में छिपकर वो निरंतर बोले जा रही थी। उसकी चिहूँ – चिहूँ का आक्रमण इतना तेज़ था कि मेरी नींद को रण छोड़ना पड़ा । मैं खड़े होकर आँखें मलते - मलते खिड़की की ओर देखने लगी । चिड़िया की आवाज़ अभी भी आ रही थी अँधेरे में उसका दिखना तो सम्भव नहीं हो पाया । मैंने अपने कमरे की लाइट ऑन की ही थी कि चिड़िया के फुर्तीले पंखों की आवाज़ फुर्र से आई। वह जा चुकी थी। रो – धो कर सोने की उदासी और नींद के आँखों में शेष रह जाने पर लगा कि अभी तो अलार्म भी नहीं बजा और इस चिड़िया की बच्ची ने मुझे समय से पहले ही जगा दिया। छोटे भैया के मित्र महान की घड़ी की ओर देखा तो रात्रि का ढाई बजा रही थी। मुझे पूरा विश्वास हो गया की चिड़िया ने मुझे आधी रात में ही उठा कर बैठ दिया है खीझ हो आई उस पर। मैं फिर से सोने के लिए बिस्तर की ओर मुड़ी तो अलार्म क्लॉक के पास रखी अपनी रिस्टवाच पर मेरी नज़र पड़ी। वो चार बज कर दस मिनिट दिखा रही थी। मैंने पुनः अलार्म क्लॉक की तरफ़ देखा उसे उठाया तो उसकी टिक – टिक बंद थी, मैंने
जल्दी से चाय बनने रखी । हाथ– मुँह धोकर चाय छान कर ले आई और पढ़ने बैठ गई। और चिड़िया को मन ही मन धन्यवाद दिया। घड़ी साज की अम्मीजान के देहांत के कारण उसकी दुकान अभी तक नहीं खुली थी और भैया के मित्र की घड़ी तो मुझ अजनबी को अपना साथ देना ही नहीं चाहती थी। । अतः मैंने अब दूसरा रास्ता यह निकाला कि रात को देर तक पढ़कर सोया जाए, ताकि सुबह उठने की आवश्यकता ही ना पड़े। परंतु आज फिर ठीक चार बजे उस चिड़िया ने मेरी खिड़की पर झुकी डाली में छिप कर ठीक कल की ही तरह ज़ोर – ज़ोर से चिहुँकना शुरू कर दिया था। कैसी विचित्र आवाज़ थी जिसे मैंने उससे पहले कभी नहीं सुना था। उस दिन भी वह मुझे जगा देने के बाद ही जाने के निश्चय के साथ आई थी। मैंने अनजाने में ही उसके निश्चय में सहयोग किया और मैं जाग गई। मेरे कमरे की लाइट जलने के साथ ही चिड़िया के उड़ने की फुर्र फिर सुनाई दी । तीसरे दिन, चौथे दिन, पाँचवें दिन लगभग पंद्रह दिनों तक यही क्रम चला। अलार्म क्लॉक की अनुपस्थिति, मेरा गहरी नींद सोना, चिड़िया का ज़ोर – ज़ोर से चिहुँकना, मेरा उठना कमरे की लाइट का जलना और चिड़िया के उड़ने की फुर्र का सुनाई देना। मुझे विश्वास हो गया कि वह मुझे जगाने ही आती थी। मैं उत्सुकतावश अब कई बार उससे मिलने की धुन में उसके चिहुँकने से पहले ही जाग जाती । और लेटे – लेटे ही उसके चिहुँकने की प्रतीक्षा करती। चिड़िया ठीक चार बजे आती, चिहुँकती, मैं उठती और वो फुर्र से उड़ जाती। लगभग पंद्रह दिनों तक उसका आना निरंतर रहा। उसके आने का परिणाम यह हुआ कि मेरी नींद अब उतनी हठीली नहीं रही थी और मेरी आँख ठीक चार बजे स्वतः ही खुलने लगी थी।अब मुझे अलार्म की
आवश्यकता नहीं थी । अब अकस्मात्
ही उस भोर से भी पूर्व चिहुँकने वाली चिड़िया ने भी चिहुँकना बंद कर दिया
था। । अब सुबह चार बजे उठकर मैं स्वयं उसकी प्रतीक्षा करती, मैंने महीनों हर भोर से पहले
उसकी उस तीखी चिहुँक की प्रतीक्षा की परंतु वो फिर तो कभी
नहीं आई । वो ही नहीं उसके
जैसी कोई आवाज़ भी मेरे कानों में आज तक कभी नहीं आई । क्या मेरी अंतरंग
सहेली वह टहनी मेरी माँ को सचमुच ही बुला लाई थी, मुझे सुबह – सुबह जगाने के लिए ! तब तो यह
घटना बस एक संयोग मात्र
लगी थी परंतु नहीं, यह
कोरा संयोग कैसे हो सकता था…
सम्पर्कः विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलन्दशहर (उप्र) पिन- 203001, मेल-nirdesh.nidhi@gmail.com फ़ोन - 9358488084
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