( प्रथम पुरस्कार-1)
- डॉ. सुषमा गुप्ता
चार
साल की बच्ची का मन मासूम था। अपने घर की खिड़की से अक्सर वह सामने वाले घर की
बालकनी में कुछ खेल होते देखती थी। एक रोज़ उसने सामने वाली दीदी से पूछा
‘आपने सामने क्या फेंका?’
दीदी के चेहरे की हवाइयाँ उड़ गईं। कुछ सोचकर
उन्होंने कहा-‘वह सामने वाले घर में मेरा दोस्त रहता है। कभी
मैं उसे कुछ कहना भूल जाती हूँ, तो इस तरह लिख कर संदेश दे
देती हूँ। दोस्तों में ऐसे संदेश देना चलता रहता है।’
उस नन्ही बच्ची को यह बात बहुत सुंदर लगी। उसने नया-नया अक्षर- ज्ञान लेना शुरू किया था। उसका एक ही दोस्त था, साथ
वाले घर में रहने वाला दो साल का नन्हा बंटी। वह सोचने लगी उसको संदेश भेजती हूँ,
पर यह सोचकर उदास हो गई कि उसको अभी पढ़ना नहीं आएगा। अगले ही पल यह
सोचकर मुस्कुरा दी कि तो क्या हुआ ,मैं ही पढ़कर सुना दूंगी।
उसने एक कागज़ पर जितने अक्षर सीखे थे, सब लिख
दिए और अपने आँगन से उसके आँगन में फेंक दिया, फिर अपने गेट
से निकलकर तेज़ी से उसके घर की तरफ गई। उसके आँगन में पड़ी अपनी चिट्ठी को देख ,खुशी से चहकती हुई, उसके घर के अंदर गई।
वह टीवी के सामने बैठा कार्टून देख रहा था। लड़की ने उसका हाथ थामकर कहा-‘तेरे लिए कुछ है।’
नन्हे बंटी ने बाल-सुलभ जिज्ञासा से तुतलाहट भरी आवाज़ में पूछा ‘त्या ?’
लड़की हाथ पकड़कर उसको बाहर की तरफ़ खींचने
लगी, ‘आ दिखाती हूँ।’
छोटे-छोटे दो कंगारू फुदकते हुए बाहर आँगन की तरफ बढ़ गए। आँगन में
शहतूत का पेड़ भी था, काले शहतूत का पेड़। चिट्ठी उड़कर उस पेड़ के नीचे
जा गिरी थी।
हवा तेज़ थी। अनगिनत पके शहतूत, पेड़ के नीचे
पड़े थे। काले धब्बों से ज़मीन पटी हुई थी । चिठ्ठी उड़कर उन काले शहतूतों से लिपट गई थी। लड़की ने
आहिस्ता से उसको उठाकर देखा। शहतूत के धब्बों से कागज़ जामुनी
हो गया था और बहुत से अक्षर उस रंग में घुलकर काले हो, लुप्त
हो चुके थे। बच्ची का मन बुझ गया। इतने मन से उसने वह चिट्ठी लिखी थी हालाँकि उसको
याद था कि उसने उसमें क्या लिखा है पर...
इतनी छोटी उम्र में भी उसको यह तो पता था कि नन्हा बंटी उस चिट्ठी
को पढ़ नहीं पाएगा, चिट्ठी उसी को पढ़कर सुनानी थी। उसके बावजूद खो गए
शब्द उसके लिए किसी खोई हुई अपनी सबसे सुंदर गुड़िया से कम नहीं थे, जिसका दु:ख बहुत बड़ा था।
लड़की की नन्ही-नन्ही हिरनी -जैसी आँखों में
बड़े-बड़े आँसू तैर गए। छोटा लड़का तो कुछ भी नहीं समझ पा
रहा था। वह टुकुर-टुकुर बस देख रहा था। जब छोटी लड़की
रोने लगी, तो उस छोटे लड़के के दिल में भी कुछ हलचल हुई।
उसने धीरे से उसको हिलाकर अपनी मीठी तोतली ज़ुबान में पूछा
‘त्या हुआ!’
काले जामुनी धब्बों से भरी हुई चिट्ठी जो उस लड़की की नन्ही
हथेली में रखी थी, उसने लड़के के आगे कर दी। लड़के को तब भी
समझ ना आया कि हुआ क्या है। उसने फिर पूछा- ‘त्या हुआ?’
लड़की ने मुट्ठी बंद की और अपने घर की तरफ दौड़ गई। सीधे अपने कमरे
में जाकर बिस्तर पर फूट-फूट कर रोने लगी।
शब्दों के गुम जाने के बाद दिल टूटने की यह उसकी ज़िंदगी की पहली घटना थी।
-राम करन
बारहों महीने वे व्यस्त रहते। मैं सुबह उन्हें खेत में जाते देखता और शाम
को खेत से आते। कभी वे खुरपा-खुरपी, कभी हँसिया, कभी कुदाल, कभी फावड़ा
आदि लेकर जाते। एक दिन मैंने पूछ लिया –‘कितना जोतते हैं?’
‘पाँच... पाँच बीघे,’ वे बोले।
‘तब तो खाने की कमी नही होती होगी,’ मैने पूछा।
‘हाँ, नही होती,’ वे बोले।
‘बेचना पड़ता होगा?’ मैंने
पूछा।
‘नही। बेचने भर का नही होता,’ वह
सहजता से बोले।
लेकिन मैं चकित था। मैने पूछा –‘पाँच
बीघे का अनाज खा जाते हैं?’
वे बोले –‘अरे गल्ले पर है। खेत मेरा नहीं है।’
‘आपका कितना बीघा है?’
उन्होंने ने हाथ से ‘कुछ नहीं’ का इशारा किया। मैने पूछा-‘भाई-पाटीदार के पास भी
नही होगा?’
वे बोले –‘नही, किसी के पास नही है।’
‘लेकिन खेती सब करते हैं.... सब किसान हैं,’ मैंने कहा।
वे मुस्कराए और बोले –‘हाँ।’
‘तब तो अनुदान-सहायता कुछ नही
मिलता होगा?’
‘कहाँ से मिलेगा? जब किसी के
नाम पर एक धुर भी नहीं है।’
‘दादा-परदादा से ही ऐसे... ’
‘हाँ। दादा-परदादा का भी खेत नहीं था।’
‘लेकिन गाँव के दूसरे लोगों के पास तो पाँच-पाँच
दस-दस बीघा है।’
‘उन्हें भगवान ने दिया है।’
‘मतलब आपको भगवान ने नहीं दिया?’
‘हाँ, ऐसा ही है।’
मैं उनको और खँगालने लगा। मैंने पूछा
–‘भगवान ने आपको क्यों नहीं दिया?’
‘अब नहीं दिया तो नहीं दिया। क्यों नहीं दिया ये वही
जाने,’ वे मुस्कुरा कर बोले।
‘अच्छा आपको लगता है कि भगवान ही सबको देता है?
देता है तो भेदभाव क्यों?’ मैंने उन्हें टटोला।
इस बार वे झल्लाए, ‘भगवान के नाम पर संतोष तो करने दीजिए...कहाँ सिर फोड़ लूँ...।’ मैं समझ गया कि काँटा बहुत गहराई में है।
-महेश शर्मा
कोचिंग के लिए निकलने ही वाला था कि
मम्मी ने टोक दिया – ‘पहले दादी को किसी डॉक्टर को दिखा लाओ! सुबह से तकलीफ में हैं!’
मैं
मन ही मन बुरी तरह से झल्ला उठा –
मेडिकल
के प्रि-एक्जाम की कोचिंग है यह - कोई मज़ाक नहीं है! पापा इतनी महँगी फीस कैसे भर रहे हैं, यह सोचकर कभी-कभी बहुत
ग्लानि होती है - इसलिए अब एक मिनट भी फालतू खर्च करना मुझे बर्दाश्त नहीं है! हर
हाल में यह एक्जाम क्रेक करना है मुझे!
मैंने
स्कूटर का रूख एक प्राइवेट हॉस्पिटल की तरफ मोड़ दिया। सरकारी अस्पताल की कतार में
खड़े रह कर सारा दिन बर्बाद नहीं करना है मुझे!
और
यह मम्मी ने सिर्फ हज़ार रुपये क्या सोचकर पकड़ा दिये मुझे? किस ज़माने में जी रहे हैं ये
लोग! अरे तीन सौ रुपये तो डॉक्टर की फीस ही होगी – फिर आजकल
बिना ब्लड-यूरिन टेस्ट करवाए कोई डॉक्टर इलाज कहाँ शुरू करता है – तो पाँच-छह सौ उसमे लग जाएँगे – फिर दवाइयाँ!! अगर पैसे कम पड़ गए तो क्या करूँगा?
तभी
पीछे सीट पर बैठी दादी ने एक अलग ही रट लगानी शुरू कर दी – ‘डॉक्टर
के नहीं जाना मुझे – नाभि खिसकने का दर्द है यह – उस चूड़ी वाली बुढ़िया के पास ले
चल!’
दादी
की इस दक़ियानूसी सोच से मेरा पारा चढ़ने लगा – मैंने उन्हें लाख समझाने की कोशिश की;
लेकिन सब बेकार! उनकी ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा!
बाज़ार
की उस तंग सी गली में वह चूड़ियों की एक छोटी सी दुकान थी।
उस
बुढ़िया ने वहीं भीतर फर्श पर बिछी एक दरी पर दादी को लिटा कर उपचार शुरू कर दिया –
मैं अपना मुँह फेर कर खड़ा हो गया – नहीं देखना था मुझे यह सब!!
दस
मिनट बाद मुस्कुराती हुई दादी ने मेरे कंधे को थपथपाकर चलने का इशारा किया! मैंने
थोड़ी बेरुखी से पूछा – ‘कितने पैसे देने हैं इस चूड़ीवाली को!’
दादी
अभी कुछ कहती कि उस बुढ़िया ने अपने झुर्रीदार चेहरे पर उभर आई हँसी को काबू में
करते हुए कहा – ‘अरे बेटा, यह तो विद्या है – इसके पैसे नहीं लेने
चाहिए – पाप लगता है!
जाओ तुम पढ़-लिखकर खूब बड़े आदमी बनो!’
-सन्दीप तोमर
आए दिन गटर के भर जाने से
मास्साहब की घर में पानी की निकासी बन्द हो जाती, मास्साहब
ही क्या पूरी गली के घरों का आलम यही होता। मास्साहब बालेश्वर को बुला खरपच्ची से
गटर खुलवाते। बालेश्वर इस काम की मुँहमाँगी कीमत वसूलता। उसका पेशा ही वही था।
मासाहब्ब आए दिन गटर बन्द होने से दुःखी थे। आखिर उन्होंने मोटे पाइप को मुख्य सड़क
की गटर लाइन से जोड़ समस्या का निदान कर लिया। अब वे निश्चिन्त थे। कुछ दिन पहले ही छत का पाइप अवरूद्ध होने पर उन्हें बालेश्वर का
ध्यान आया। मास्साहब बालेश्वर के बैठने के ठिये से उसे बुला लाए थे। बालेश्वर ने पाइप लाइन खोलने के तीन हजार रुपये माँगे। मास्साहब ने
कहा-‘भाई, ये काम इतने का नहीं है। फिर
इसमें गटर जैसी कुछ गंद भी नहीं, छत का पानी ही आता है।’
‘मास्साहब, इतना ही जानते हो तो खुद कर लो। मेरी क्या
जरूरत है।’
मास्साहब
ने पुरानी पहचान,
अपने व्यवहार, उसकी पूर्व में की सहायता
की दुहाई भी दी; लेकिन उस पर उनका कोई असर न पड़ा। आखिर
मास्साहब को मुँह माँगी कीमत पर काम करवाना पड़ा। बालेश्वर आधे-पौने घण्टे में काम
निपटा पैसे लेकर जा चुका तो मास्साहब बहुत देर तक दिहाड़ी का हिसाब-किताब लगाते
रहे।
इस
घटना को बामुश्किल महीना भी नहीं हुआ कि माहमारी के चलते, शहर में आपातकाल जैसी स्थिति हो गई। मास्साहब को
ख्याल आया कि कैसे मजदूर, गरीब इस दौर में गुजर-बसर कर रहे
होंगे। वे इस सोच में डूबे थे, अचानक डोरबेल बजने पर उनका
ध्यान भंग हुआ। दरवाजा खोला तो देखा, बालेश्वर सामने था।
मास्साहब को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
‘कहो, कैसे आये बालेश्वर?’
‘साहब, सब काम-धाम बन्द है, खाने
तक को पैसे नहीं हैं, कुछ मदद कर देते तो...।’
उसकी
बात भी पूरी नहीं हुई थी,
मास्साहब की आँखों के सामने छत का पाइप खुलवाने की पूरी घटना चलचित्र की तरह घूम गई। वे बोले-‘बताओ, क्या करूँ?’
‘कुछ पैसे मिल जाते, तो बच्चो के लिए राशन ...।’
‘अरे पास ही मेरा विद्यालय हैं, वहाँ बना-बनाया खाना
आता है, मैं साथ चलकर दिलवा देता हूँ।’
उसने
सकुचाते हुए बना-बनाया खाना ले जाने में लाचारी जाहिर की, मास्साहब के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कान आ गई। जेब
से चार पाँच-पाँच सौ के नोट उसके हाथ पर थमाते हुए बोले-‘लो,
पास की दुकान से घी-तेल, आटा, दाल ले लेना; लेकिन एक बात है, उस दिन के काम के तीन हजार रुपये वाकई ज्यादा थे।’
बालेश्वर ने गर्दन झुकाते हुए पैसे लेने को हाथ आगे बढ़ा दिया।
( सांत्वना पुरस्कार-1)
- मार्टिन जॉन
वह अपने घर के बरामदे में रखी कुर्सी पर
बैठकर मोबाइल में कोविड-19 के ताज़ा स्टेट्स देखने में मशगूल था कि मेन गेट पर एक
बाइक आकर रुकी । ई-कार्ट के विशमास्टर को बाइक से उतरते देख उसने फटाफट अपने हाथों
को बरामदे में ही रखे सेनिटाइज़र से सेनिटाइज़
किया, मास्क लगाया और गेट के पास ज़रूरत से ज़्यादा दूरी बनाकर खड़ा हो गया ।
कोरोना काल में ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियाँ कुछ दिनों तक बंद रहने के बाद
पिछले पखवाड़े से खुल गई थीं । अब वह ज़रूरत के बहुत सारे उपयोगी सामान ऑर्डर
प्लेस कर मँगवा लेता है । इन सामानों की ख़रीदारी के लिए घर
से बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं रही। बिग बास्केट, जमोटा, अमेज़न, फ्लिपकर्ट के खुल
जाने से वह बेहद प्रसन्न था; क्योंकि इस सुविधा से ‘स्टे होम, स्टे सेफ़’ का
एक हद तक पालन हो जा रहा था ।
विशमास्टर एक हाथ में पैकेट लिये दूसरे हाथ से गेट खोलने जा ही रहा था कि वह जोर से चिल्लया , ‘अरे , फिर तुमने गेट को छू लिया ...हाथ मत लगाओ !’ उसकी आवाज़ की कर्कशता ने
विशमास्टर पर डंडे जैसा प्रहार किया। वह सहम गया ।
‘सॉरी सर
..एक्सट्रीमली सॉरी !’
‘हर बार यही कहते हो और हाथ लगा देते हो !’ उसके स्वर
के रूखेपन के एहसास से विशमास्टर एक पल के लिए थम गया ।
‘आगे ख्याल रखूँगा ।...पैकेट ले लीजिए सर !’
‘अरे भाई , बाउंड्री पर रख दो न !’ अपनी जगह से हिले
बगैर उसने उसी लहज़े में कहा ।
‘जी सर !’ ...फीडबैक दे दीजिएगा प्लीज !’
‘हाँ , हाँ दे दूँगा !’
विशमास्टर
पैकेट से भरे बड़े और वजनी बैग कंधे से लटका कर जैसे ही बाइक स्टार्ट करने को उद्यत हुआ, उसने यूँ ही पूछ डाला , ‘तुम लोगों
को डर नहीं लगता ?’
‘डर ?’ विशमास्टर ने हेलमेट के पारदर्शी काँच से अपनी आँखों को फैलाकर उसके चेहरे पर टिकाया , ‘लगता है सर।...लेकिन...’
‘लेकिन क्या ?’
‘उसके आगे झुकते नहीं !....झुक जाएँगे तो आप सब की
सेवा कैसे कर पाएँगे !’
ज़वाब
सुनकर वह झेंप-सा गया। मन ही मन बुदबुदाया ‘नाहक ही ऐसा बेतुका सवाल पूछ डाला’।
‘इफ यू डोंट माइंड .......एक बात कहूँ सर ?’ विशमास्टर ने हेलमेट उतारकर अपने हाथों में ले लिया। अपने बुझे और मायूस चेहरे पर ‘सर्विस विद स्माइल’ के तहत मुस्कान लाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा , ‘सेफ्टी और सोशल डिस्टेंसिंग मेन्टेन करना तो ज़रूरी है सर।.......लेकिन इतना भी नहीं कि उससे इंसानियत का खात्मा हो जाए!’ वह झटके से बाइक स्टार्ट कर पलक झपकते आँखों से ओझल हो गया और दे गया शालीन पलटवार से शर्मिंदगी का वायरस जिसके चपेट में आकर वह यथावत् खड़ा रह गया ।
-अनिता ललित
‘क्या माँ!
तुम सुबह से रात तक अकेली काम में लगी रहती हो। विकी को बोलो तुम्हारी मदद किया करे।’ सिमरन माँ से कहने लगी।
‘अरे! क्यों तू उसके पीछे पड़ी है...मदद करे! मदद करे! क्या हो गया है तुझे?
पढ़ाई कर रहा है वो बेचारा। मैं कर रही हूँ न।’ सदा की तरह,
माँ का अपना रटा-रटाया जवाब था। ‘अच्छा ये बता! तू इस बार
इतनी खीझी हुई क्यों है? जब से ससुराल से आई है, बात-बात पर विकी से गुस्सा हो रही
है। लगता है, लॉकडाउन का कुछ ज़्यादा ही असर हुआ है तुझपर। पहले तो कभी नहीं टोकती
थी इतना। किसी बात पर झगड़ा हुआ है क्या उससे?’ मुस्कुराते
हुए माँ ने पूछा।
‘नहीं माँ! ऐसा कुछ नहीं है ...’ अनमनी -सी होकर
सिमरन बोली, ‘उसे भी काम करने की आदत होनी चाहिए न, तुम्हारा
हाथ बँटाना चाहिए। अब इतना छोटा भी नहीं रहा।’ कहते हुए
सिमरन कपड़े उठाने चली गई।
थोड़ी
ही देर बाद विकी के कमरे से कुछ शोर की आवाज़ सुनाई दी। सिमरन विकी को डाँट रही थी
कि वो जाकर चाय बनाए , और विकी था कि चादर ताने पड़ा था। माँ ने बीच-बचाव करते हुए
कहा, ‘अरे क्या सिमु! सोने दे उसे! क्यों तू उसके साथ ज़बरदस्ती कर रही है? कुछ
सालों में अपने आप समझ आ जाएगी। तेरी भाभी आएगी तो देखना, सब करेगा...’ माँ हँसते हुए बोली।
‘नहीं करेगा! तब भी कुछ नहीं करेगा! राजा-बेटा है न तुम्हारा! बल्कि तब तो
और भी नहीं करेगा! वो इसलिए, क्योंकि तुमने तो उससे कभी कुछ कराया नहीं! और अगर
करेगा ... तो भी तुम्हें ही बुरा लगेगा कि
देखो! पत्नी के लिए कैसे चाय बनाने पहुँच गया, कभी मुझे तो एक गिलास पानी तक नहीं
पिलाया! तब तुम... हाँ माँ! तुम! तुम इसके और इसकी पत्नी के बीच में दीवार बनकर
खड़ी हो जाओगी, उनके गले में एक काँटे की तरह फँस जाओगी और फिर... दोनों का जीना
दूभर हो जाएगा; इसलिए बहुत ज़रूरी है, कि इन लाटसाहब से अभी
से काम कराओ। ...चलो! उठो विकी! ...’ विकी की चादर खींचते हुए सिमरन चीखती जा रही थी, मानों उसे कोई दौरा पड़
गया हो। उसकी साँस फूलने लगी थी।
और अवाक् खड़ी माँ, सिमरन के इस
रूप में छिपे उसके गुस्से और दर्द को शिद्दत से महसूस कर पा रही थी। उसने हौले से
सिमरन का हाथ थामा और गंभीर आवाज़ में बेटे से बोली, ‘विकी!
बहुत देर हो चुकी है! सूरज सिर पर चढ़ आया है। दस मिनट में उठकर बाहर आ जाना।’
4 comments:
अनिता ललित जी की कहानी छोटी होते हुए भी बहुत कुछ कह जाती है ...हर नवविवाहिता की यही स्थिति होती है ..और इसे माँ ही सही कर सकती है ।
हाँ मुझे अन्य सभी कहानियों से यह बेहतर लगी ...
सभी लघुकथाएँ बहुत सुंदर हैं। राजा-बेटा का कथ्य व्यवहारिक और विचारणीय है।
बेहतरीन संकलन 👌
सादर
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