जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और
मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार
है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
-प्रेमचंद
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