गुरु की तलाश
- प्राण शर्मा
जब मैं ग्यारह -
बारह साल का था तब मेरी रुचि स्कूल की पढ़ाई - लिखाई में कम और फ़िल्मी गीतों को सुनने और गाने में अधिक थी। नगीना,
लाहौर, प्यार की जीत, सबक ,
बाज़ार, नास्तिक, अनारकली, पतंगा, समाधि, महल, दुलारी इत्यादि फिल्मों के सब के सब गीत मुझ
को ज़बानी याद थे। स्कूल से आने के बाद तकरीबन हर समय उन्हें रेडियो पर सुनना
और गाना मेरी आदत हो चुकी थी। नई
सड़क , दिल्ली की एक गली जोगीवाड़ा में एक हलवाई की दुकान थी। सारा दिन वहाँ रेडियो बजता था। घर से जब फुर्सत मिलती तो मैं गीत
सुनने के लिए भाग कर वहाँ पहुँच जाता था ।
फ़िल्मी गीतों को गाते- गाते मैं तुकबंदी करने लगा था और उन की धुनों
पर कुछ न कुछ लिखता रहता था। ` इक दिल के टुकड़े हज़ार
हुए , कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ
गिरा ` और ` मैं
ज़िंदगी में हर दम रोता ही रहा हूँ ` जैसे फ़िल्मी गीतों
के मुखड़ों को मैंने अपने शब्दों में यूँ ढाल लिया था- मुझ को
तेरा प्यार मिला ऐ दोस्त मेरे ऐ मीत मेरे, मैं ज़िंदगी में
खुशियाँ भरता ही रहूँगा , भरता ही रहूँगा, भरता ही रहूँगा।
किसी ने मेरे मन में यह बात भर दी थी कि गीत और कविता लिखने वाले भांड
होते हैं और अच्छे घरानों में उन्हें बुरी नज़रों से देखा जाता है। इसीलिए मैं बाऊ
जी और बी जी से लुक- छिप कर तुकबन्दियाँ करता था और उन्हें
अपने बस्ते और संदूक में संभाल कर रखता था।
धीरे- धीरे `कवि भांड होते हैं `की भावना मेरे दिमाग़से
निकल गई। बाऊ जी और बी जी तो कविता के प्रेमी थे। बी जी को तो
अनेक पंजाब के लोक गीत याद थे -
ढेरे ढेरे ढेरे
तेरे मेरे पियार दीयां
गल्लां होण संतां दे डेरे
ढेरे ढेरे ढेरे
सोहणी सूरत दे
पहली रात रात डेरे
छंद परागे आइये जाइए
छंद परागे आला
अकलां वाली साली मेरी
सोहणा मेरा साला
ये कुछ ऐसे लोक गीत थे जिन्हें बी जी उत्सवों, त्योहारों और
विवाहों पर अपनी सहेलियों के साथ मिल कर गाती थीं।
फिर भी मेरे मन में गीत- कविता को ले कर उन का भय बना रहता था। मैं नहीं
चाहता था कि उन के गुस्सा का नज़ला मुझ पर गिरे और शेरनी की तरह वह दहाड़ उठें - `तेरे
पढ़ने- वढ़ने के दिन हैं या तुकबंदी करने के ?`
बाऊ जी सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा के प्रमुख वक्ता थे। चूँकि वह मास
में बीस दिन बाहर रहते थे इसलिए उन का भय मेरे मन में उतना नहीं था जितना बी जी
का।
सोलह - सत्रह साल
की उम्र तक आते - आते मैंने कविताएँ लिखनी शुरू कर दी
थीं। तुकबंदी को विदा कर दिया था। कइयों की तरह मुझ
में भी यह गलत फहमी पैदा हो गई थी कि मुझ में भरपूर
प्रतिभा है और अब मैं कालिदास , सूरदास या तुलसीदास से
कतई कम नहीं हूँ। मुझे मेरी हर रची पंक्ति भी
बढ़िया लगने लगी थी। लेकिन मेरे दोस्त नाक भौं सिकोड़ते
थे। मेरी हर रचना को वे कूड़ा- कचरा समझते थे और कूड़ेदान में
फेंक देने का सुझाव देते थे। मैं उन के सुझाव को एक कान से सुनता था और दूसरे कान
से निकाल देता था। भला रातदिन के कड़े परिश्रम से अर्जित कमाई भी कोई फेंकता है ?
मुझ को बड़ा क्लेश होता था जब कोई दोस्त मेरी अच्छी कविता को भी
नकारता था। मैंने एक कविता लिखी थी -
एक नदिया बह रही है
और तट से कह रही है
मैंने पूरी कविता दोस्तों को सुनाई। सोचा था कि ख़ूब दाद
मिलेगी। सब के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ जाएगी और उछल कर वे कह उठेंगे- `वाह क्या बात है ! अच्छे -
अच्छे कवियों छुट्टी कर दी है तूने। मान गए तेरी प्रतिभा को !`
मेरा सोचना गलत साबित हुआ। किसी ने मुझे घास तक नहीं डाली।
एक दोस्त ने तो जाते-
जाते यह कह कर मेरा मन छलनी - छलनी कर
दिया था - `कविता करना तेरे बस की बात नहीं है। बेहतर
है कि गुल्ली - डंडा खेला कर या गुड्डी उड़ाया कर।`
दूसरे दोस्त भी उसका कटाक्ष सुन कर मुझ पर हँस पड़े थे।
मेरे दोस्तों के उपेक्षा भरे व्यवहार के बावजूद भी कविता के प्रति मेरा झुकाव बरक़रार रहा।
ये दीगर बात है कि कुछ देर के लिए मुझसे कविता दूर हो गई थी। कहते
हैं न- `छुटती नहीं शराब मुंह से
लगी हुई। `
एक दिन कविवर देव राज दिनेश मेरे बाऊ जी से मिलने के लिए हमारे घर आये थे। मेरे सिवाय घर में कोई
नहीं था। बाऊ जी से उन का पुराना मेल था। भारत के
विभाजन के पहले लाहौर में हिन्दी कवि सम्मेलनों में उदय
शंकर भट्ट, शम्भू नाथ शेष, हरि
कृष्ण प्रेमी, देव राज दिनेश इत्यादि कवियों
की भागीदारी रहती थी। प्रोफ़ेसर वशिष्ठ शर्मा के नाम से विख्यात बाऊ जी सनातन धर्म
सभा से जुड़े हुए थे और पंजाब में धर्म के साथ - साथ हिन्दी का प्रचार - प्रसार
करने वालों में थे। चूँकि वह कई कवि सम्मेलनों के प्रबंधक थे इसलिए पंजाब के सभी
हिन्दी कवियों से उन की जान-पहचान थी।
देव राज दिनेश दूर से आये थे। वह शायद मालवीय नगर में रहते
थे और हम लाजपत नगर में तब। वह पहलवान अधिक और कवि कम दिखते थे। खूब
भारी शरीर था उन का। वह दरवाज़े के सहारे यूँ खड़े थे कि मुझे लगा कि वह थके - थके हैं। मैंने उन्हें अंदर आने
के लिए कहा। कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने चैन की सांस ली। हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि देव राज दिनेश अगर मेरे गुरु
बन जाएँ ,तो व्यारे - न्यारे हो जाएँ मेरे तो। इसी सोच
में मेरे मन में खुशी के लड्डू फूटने लगे थे।
उन्होंने मुझे अपनी पास वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा।
मैं पुलकित हो उठा। बातचीत शुरू हुई -
- किस क्लास में पढ़ते हो ?
- जी , प्रभाकर कर रहा
हूँ।
- आगे क्या करोगे ?
- जी , अभी कुछ सोचा
नहीं।
- तुम्हारा शौक़ क्या है ?
- जी , कविता -
गीत लिखता हूँ।
- तुम भी क्या पागल बनना चाहते हो ?
- क्या कवि पागल होते हैं ?
- लोग तो यही कहते हैं।
- अगर कवि पागल होते हैं तो मुझे पागल बनना स्वीकार
है।
वह हँस पड़े। हँसते -
हँसते मुझ से कहने लगे - `चलो अब तुम
अपना कोई गीत सुनाओ। `
मैंने तरन्नुम में अपना रोमांटिक गीत उन्हें गीत
सुनाया -
घूँघट तो
खोलो मौन प्रिये
क्यों बार - बार शर्माती हो
क्यों इतना तुम इतराती हो
मैं तो दर्शन का प्यासा हूँ
क्यों मुझ से आँख चुराती हो
गीत सुन कर देव राज दिनेश कड़े शब्दों में बोले-
`देखो , तुम्हारी उम्र अभी पढ़ने की है।
कविता - गीत तो तुम पढ़ाई ख़त्म होने के बाद भी लिख सकते
हो। हाँ ,भविष्य में कोई गीत लिखो ,तो इसबात का ध्यान
रखना कि वह फूहड़ फ़िल्मी गीत जैसा नहीं हो।
छंदों का ज्ञान हो। `जाते - जाते वह कई नश्तर मुझे चुभो गए। उन की
उपदेश- भरी बातें मुझे अप्रिय लगीं।
रात भर मैं चारपाई पर करवटें लेता रहा। सोचता रहा- `मेरा गीत उन को फ़िल्मी गीत जैसा क्यों
लगा ? पढ़ाई के साथ - साथ
कविता क्यों नहीं की जा सकती ? मेरे गीत में लय कहाँ
भंग होती है ? आस की एक किरण मुझ
में जागी थी कि देव राज दिनेश से अच्छी कविता सीखने के गुण जानूँगा, वह भी लुप्त हो गई।
कुछ दिनों बाद मेरा मन हल्का हुआ। अचानक एक दिन लाजपत नगर की
मार्किट में एक चौबीस - पच्चीस साल
के एक नौजवान मिले। लम्बे - लम्बे केश थे उनके। मैंने
सुमित्रा नंदन पंत का चित्र देख रखा था। उनके जैसा ही उन का हुलिया था। मेरे
पूछने पर उन्होंने बताया कि वह पेशेवर कवि हैं और
कई लड़के - लड़कियों को कविता की शिक्षा देते हैं। मैं उन से बड़ा प्रभावित हुआ और कह
उठा - `मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूँ। `उन्होने मुझे गले से लगा लिया। बोले- `अवश्य शिष्य
बनाऊँगा तुम्हें ; लेकिन--`
`लेकिन क्या ?
`गुरु दक्षिणा
देनी पड़ेगी तुमको।`
`गुरु दक्षिणा ?
`जी, गुरु दक्षिणा।`
`गुरु दक्षिणा
क्या लेंगे आप ?
`देखो, तुम अभी बच्चे जैसे हो, कमाई - वमाई तो करते नहीं होगे; इसलिए तुम से पचास रूपये लूँगा।
पचास रुपये?
सुनकर मेरे पसीने छूट गए । इतनी बड़ी रकम ! कहाँ से लाऊँगा इतनी रकम? रोज़ ही
बी जी से मुझे एक रुपया ही मिलता था ज़ेब खर्च के लिए। फिर भी मैंने हाँ कह दी।
पचास रूपये की रकम मुझे एक सप्ताह में ही अदा करनी थी। जैसे - तैसे मैंने रुपये जोड़े। कुछ रूपये मैंने दोस्तों से उधार लिये और कुछ
रुपये बी जी से झूठ बोलकर। मैंने रुपये इकट्ठा किये ही थे कि
उन की पोल खुल गई। रोज़ की तरह वह मार्केट में मिले। बोले कि
उन्होंने एक नयी कविता लिखी है। मैं सुनने के लिए बेताब हो गया। वह सुनाने
लगे -
पूरब में जागा
है सवेरा
दूर हुआ दुनिया का अँधेरा
मैंने उनको बीच में टोक दिया–‘ये कविता क्या
आपकी है ?`जवाब में वह बोले `बिलकुल मेरी है। `
जब मैंने कहा-
`ये कविता तो उर्दू के मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी की है ` तो वह सुनते ही नौ दो ग्यारह हो गए।
उफ़ , यहाँ भी
निराशा हाथ लगी।
कहते हैं कि सच्चा गुरु भाग्य से मिलता है। मेरा भाग्य अच्छा
नहीं था, ऐसा
मुझे लग रहा था। फिर भी हिम्मत बटोर कर गुरु की तलाश में लगा रहा। गुरु का
होना अत्यावश्यक है। कबीर दास ने लिखा भी है -
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागे पाय
बलिहारी गुरु आपने सतगुरु दिया बताय
एक दिन बी जी को बाऊ जी से मालूम हुआ कि मैं कविता लिखता हूँ। यह बात
देवराज दिनेश ने बाऊ जी को बताई थी। बी जी ने मुझे अपने पास बिठा कर बड़ी नम्रता से
पूछा - ` क्या तू वाकई कविता लिखता है ? मैंने डरते - डरते हाँ में अपना सिर हिला दिया।
मैंने देखा कि उन के मुख पर मुस्कराहट छा गई है। मैं भी खिल उठा। मैंने
व्यर्थ ही कविता को लेकर अपने ह्रदय में भय पाल रखा था। उन के बोल मेरे कानों में
पड़े - ` लाडले , कोई
भाग्यशाली ही कविता रचता है। मैं बड़ी खुश हुई थी जब तेरे बाऊ जी ने बताया कि तू कविता लिखता है। तूने आज तक यह बात छिपाई क्यों ?
तेरे बाऊ जी तुझ से बड़े नाराज़ हैं। देवराज
जी का शुक्र है कि उन्होंने
तेरे बारे में बताया। अच्छा दिखा तो सही मुझे
अपनी कविताएँ , कहाँ छिपा रखी हैं तूने ?
मैं अपनी सहेलियों से मान से कहूँगी कि देखो मेरे लाडले की कविताएँ।
बी जी की प्रसन्नता का
कोई ठिकाना नहीं था। उनके उत्साहवर्धक वचनों को सुन कर मुझे लगा कि जैसे मैंने नए
कीर्तिमान स्थापित कर लिये हैं।
दौड़कर मैं अपने संदूक से कविताओं की कॉपी निकालकर ले आया। बी जी ने कॉपी को कई बार चूमा और मस्तक से
लगाया। ये सब देखकर मैं मन ही मन झूम रहा था। वह एक
साँस में कई कविताएँ - गीत पढ़ गईं। उन की ममता बोली - `मेरा बेटा कितना होनहार है
कविताओं और गीतों की कई पंक्तियों में उन्हें दोष नज़र आया।
वह समझाने लगीं -` देख बेटे ,
गुरु के ज्ञान के अलावा अच्छा कवि बनने के लिए अध्ययन , परख और विचार -
विमर्श भी आवश्यक है। तूने लिखा है - नील
गगन में तारे चमके। क्या नीले गगन में भी तारे चमकते हैं। ? तारे
तो रात के अँधेरे में चमकते हैं। एक जगह तूने यह भी लिखा है- आँधी में दीपक जलता है।जब दीपक हवा में नहीं जल पाता है, तो आँधी में क्या
जलेगा ? कविता भी स्वाभाविकता की माँग करती है।` तनिक विराम के बाद वह बोलीं - `मुझे एक बात याद
आ रही है। भारत के बँटवारे के एक - दो साल पहले वज़ीराबाद में मेरी एक सहेली
थी - रुकसाना।
फिल्म रत्न के सभी गीत लोकप्रिय हुए थे। गीत लिखे थे डी एन मधोक ने। एक गीत था - मिल के बिछड़ गयीं अँखियाँ ,
हाय रामा
मिल के बिछड़ गयीं अँखियाँ। रुकसाना को
इस मुखड़े में आये रामा शब्द पर ऐतराज़ था। उनका कहना था
कि रामा के स्थान पर
अल्लाह होना चाहिए।
मुझे उस को समझाना पड़ा- देख रुकसाना ,
कवि ने राम के दुःखकी तरह अँखियों के दुःख का वर्णन किया है। जिस तरह सीता के वियोग का दुःख राम को सहना पड़ा था उसी तरह प्रियतमा की अँखियों को साजन की अँखियों से मिल के बिछड़ जाने का दुःख झेलना पड़ रहा है।`
मैं दो जमातें पढ़ी बी जी में एक नया रूप देख रहा था। वह रूप जिसकी मुझे तलाश थी।
लेखक
परिचय: 13 जून 1937 को वजीराबाद (अब पाकिस्तान) में जन्म। दिल्ली
विश्वविद्यालय से एम ए बी एड, 1965 से लंदन में प्रवास । वे
यू.के. के लोकप्रिय शायर और लेखक है। यू.के. से निकलने वाली हिन्दी की एकमात्र
पत्रिका पुरवाई में ग़ज़ल के विषय में आपने महत्त्वपूर्ण लेख लिखे हैं। उन्होंने
लंदन में पनपे नए शायरों को कलम माँजने की कला सिखाई है। उनकी रचनाएँ युवा अवस्था
से ही पंजाब के दैनिक पत्र, वीर अर्जुन एवं हिन्दी मिलाप में
प्रकाशित होती रही हैं। वे देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों
तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भाग ले चुके हैं। वे अपने लेखन के लिए अनेक पुरस्कार
प्राप्त कर चुके हैं तथा उनकी लेखनी आज भी निरंतर चल रही है। प्रकाशित रचनाएँ -सुराही (कविता संग्रह),
पराया देश (कहानी संग्रह) ग़ज़ल कहता हूँ (ग़ज़ल संग्रह)। सम्पर्क: CRAKSTON CLOSE, COVENTRY CV25EB, UK, Email- sharmapran4@gmail.com
1 comment:
प्राण शर्मा जी के संस्मरण में बडी ईमानदारी है। देव राज दिनेश को वे गुरु बनाना चाहते थे और वे मेरे मित्रों में थे । तब मैं भी मालवीय नगर में रहता था । आप भाग्यशाली हैं कि आप की माता ही आप की गुरु बन गई । दिनेश के पास आप के लिए समय नहीं था क्योंकि कविता से ही वे रोटी कमाते थे ।
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