-सुधा भार्गव
जब मैं छोटी थी धोबी गंदे कपड़े लेने आता था और धोबिन उन्हें देने आती। वे दादी-बाबा के समय से कपड़े धोते थे। दोनों ताड़ की तरह लंबे और काले थे। पर कालू होने पर भी मुझे बहुत अच्छे लगते थे।
मुझे अच्छी तरह याद है -धोबी कान में चाँदी के कुंडल और हाथ में कड़ा पहने रहता था। धोबिन के तो क्या कहने--- चमकदार छींट का घेरदार लहँगा –ओढ़ना पहने , चाँदी के गहनों से लदी फदी जब आती तो मैं उसके पैरों की तरफ देख गिनती गिनना शुरू कर देती 1—2—3-लच्छे,पायजेब ,बिछुए। फिर हाथों को देखती और शुरू हो जाती 1—2—3—चूड़ी,कड़े,पछेली। कभी गले को देख बुदबुदाती –हँसली,मटरमाला नौलड़ीबताशे वाला हार! घूँघट के कारण उसके कान- नाक नहीं देख पाती थी।हाँ माथे पर बँधा बोर(एक गहना) उठा -उठा सा देखने से उसका पता लग जाता था। भारी से लहँगे पर भारी सी तगड़ी पहनकर चलती तो कमर लचक -लचक जाती । एक हाथ से हल्का सा घूँघट सँभालती और दूसरे हाथ से सिर पर रखी कपड़ों की गठरी --धीरे धीरे आती,अम्मा से कहती –बहूरानी राम राम। वह तो मुझे सच में बहुत-बहुत अच्छी लगती थी।
कमरे में दादी की एक बड़ी सी फोटो थी। मैंने उन्हें देखा तो नहीं था पर वे तो धोबिन से भी ज्यादा जेवर पहने हुए थीं। दादी ने चार जगह से कानों को छिदा रखा था । उनमें लम्बे- लम्बे- झुमके बालियाँ पहने थीं । नाक में भी तीन तीन जगह छेदन—दोनों तरफ दो लौंग और बीच में मोती वाली झुमकी। धोबिन में मुझे दादी की झलक मिलती थी; इसलिए आसानी से कल्पना कर बैठी कि हो न हो धोबिन ने भी दादी की तरह कान -नाक में पहन रखा होगा। पर हाय राम नाक -कान में इतने छेद कराने में तो बड़ा दर्द हुआ होगा। मैंने तो एक छेद कराने में आसमान सिर पर उठा लिया था। एक बार नायन काकी ने सुई में काले धागे को पिरोकर मेरे कानों में आर -पार उसे भोंक दी थी। कितना रोई चिल्लाई थी। सरसों का तेल और हल्दी से सेक करकर मुझे परेशान कर दिया था। बहुत दिनों तक जैसे ही मैं घर में उस काकी को देखती कुटकुटाती– माँ, इसे क्यों बुलाती हो।
एक दिन अम्मा बोलीं-मुन्नी तू हमेशा धोबिन को घूरती रहती है यह आदत ठीक नहीं।
-माँ उसे देख मुझे दादी की याद आती है। वह दादी की तरह ही हाथों-पैरों में खूब सारे जेवर पहनती है।
-बेटा तुम्हारी दादी तो सोने के पहनती थीं और धोबिन चाँदी के पहनती है। चाँदी के जेवर छोटी जात के पहनते हैं। हम लोगों में नहीं पहनते है।
-क्यों माँ?
-क्यों माँ!
क्योंकि ये गरीब बेपढ़े- होते है ,इनके पास ज्यादा पैसा नहीं होता।
-ये पढ़ते –लिखते क्यों नहीं माँ?
-क्यों की बच्ची! भाग यहाँ से मेरा खोपड़ा खाली कर दिया।
मैं माँ के डर के मारे चुप हो गई।पर मुझे लगा –माँ मुझसे कुछ छिपा रही है। बहुत समय तक अपने सवाल का जबाव ढूँढती रही। एक दिन मेरे सवाल का जबाव मिल ही गया।
जग्गी, धोबी का बेटा कभी कभी अपनी माँ के साथ हमारे घर आया करता था। उसकी माँ ज्यादतर अपनी परेशानियाँ माँ को बताने बैठ जाती । ऐसे में मैं और जग्गी बतियाने लगते। वह भी कल्लू था मगर कपड़े पहनता एकदम झकाझक सफेद।
एकदिन मैंने पूछा –जग्गी इतने सफेद कपड़े पहनता है । गंदे हो जाते होंगे । माँ से खूब डाँट पड़ती होगी।
-हँसकर बोला-ये मेरे कपड़े थोड़े ही हैं,दूसरों के हैं।
मैं पूछती-जग्गी तेरे बाल हमेशा खड़े रहते है। तेल लगाकर काढ़ता क्यों नहीं?
वह फिर हँसता और कहता-मैंने आजतक कभी तेल नहीं लगाया।
-तेरे पास तेल लगाने को पैसे नहीं हैं क्या?मैं तुझे तेल ला दूँगी।
-वह फिर हँसता-मुझे तेल से बू आती है।
उसकी बात पर मैं भी हँस देती।
हम दोनों के बीच ऊँच–नीच की कोई तलवार नहीं लटकती थी । बस दो मासूम दिल खोलकर हँसते थे।
लेकिन उस दिन जब जग्गी आया मुझ पर अपने सवाल का जवाब खोजने का भूत सवार था। उस पर बंदूक सी दाग बैठी-ओ जग्गी तू स्कूल पढ़ने क्यों नहीं जाता? तू गरीब है क्या?
एकाएक वह उदास हो गया । बोला-इतना गरीब भी नहीं हूँ कि स्कूल की फीस न दे सकूँ। पर कोई पढ़ने दे तब न !
-तू मुझे बता कौन है वह, मैं उसकी शिकायत पिता जी से कर दूँगी।
-मैं छोटी जात का हूँ ; इसलिए स्कूल में कोई घुसने नहीं देगा। उसने बहुत घीरे से मरियल -सी आवाज में कहा।
धोबी के मरने के बाद धोबिन का रूप-रंग बदल गया। उसने सारे जेवर उतारकर रख दिए। मैंने सोचा गहने चोरी हो गए हैं। मेरा दुख और बढ़ गया। लेकिन एक दिन मैंने उसे माँ से कहते सुना –बहू,सारे गहने उतारकर घर में ही कच्चे फर्श के नीचे दबा दिए थे। न जाने कब -कब में बड़ा छोरा तगड़ी निकालकर ले गया और बेच खाई। उसे कपड़े धोना पसंद नहीं। निठल्ले ने बाप की कमाई पर नजर रखने की कसम खा ली है। तीन -तीन बच्चों की शादी करनी है।अब तो ये गहने ही मेरा सहारा है। बड़े से तो कोई उम्मीद नहीं।
माँ ने क्या कहा यह तो नहीं मालूम पर अगले दिन वह आई और एक मिट्टी की हाँडी माँ के हवाले करके चली गई। मुझमें कौतूहल जागा- इसमें क्या… है? अम्मा से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। कमरे से लगी एक कोठरी थी, जिसमें बड़ी सी लकड़ी की अलमारी थी। उसी में अम्मा ने हाँडी रख दी। यह तो अंदाज लग गया कि इसमें कीमती सामान है,पर क्या है?पहेली ही बनकर रह गया। इस पहेली को सुलझाने की कतरब्योंत दिमाग में चलती रहती। आते जाते कोठरी में ताक- झाँक बनी रहती कब चुपके से अंदर जाऊँ और हाँडी में झाँकूँ।
एक दिन मैं दबे पाँव कोठरी में घुस गई। अंदर अँधेरा था लेकिन आपजानकर लाइट नहीं जलाई। जरा -सा शक होने पर माँ आ धमकतीं और मेरी खोज अधूरी रह जाती। चोरों की तरह धीरे से अलमारी खोली –कहीं चूँ –चूँ न कर पड़े,हाँ डी में हाथ डाला। अँगुलियों की टकराहट से खनखन करके सिक्के बज उठे। हिम्मत करके उँगलियाँ गहराई में घुसाई। मुट्ठी में भरकर सिक्के हाथ ऊपर किए। मुट्ठी खोली- चाँदी की चमक से सिक्के अँधेरे में साफ नजर आ गए-बाप रे… इतने सारे सिक्के ---अरे यह तो विक्टोरिया का है, जार्जपंचम– एडवर्ड! इन्हीं के बारे में तो पिताजी बातें करते हैं। पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की सैर मिनटों में कर ली।
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अपने बापू के मरने के बाद जग्गी ही गंदे कपड़े लेकर जाता। ढेर से कपड़ों की गठरी सिर पर रखता तो उसका चेहरा दिखाई ही नहीं देता था। मुझसे पहले की तरह बातें भी नहीं करता और हँसता भी नहीं था। हमेशा जल्दी में रहता।
एक दिन मैंने पूछा –जग्गी तुझे बहुत काम रहता है?
-हाँ, माँ अकेली पड़ गई है।उसको तो देखना ही होगा। धीरे धीरे बापू का काम मैं करने लगूँगा। उसे कुछ नहीं करने दूँगा।
जग्गी मेरे बराबर का था पर मुझे लगा वह मुझसे बहुत बड़ा हो गया है।
उसके बापू के मरने का दुख अम्मा –पिताजी को भी बहुत था। उन्होंने कपड़ों की धुलाई के पैसे भी बढ़ा दिए थे। पर जग्गी पिताजी से बहुत डरता था। कभी मैंने उसे सिर उठाकर बात करते नहीं देखा। हमेशा नजर नीचे किए खड़ा रहता या जमीन पर बैठता। पिताजी सफेद कमीज और सफेद धोती पहनते और शानदार रूमाल रखते। एक बार कमीज के कॉलर पर ठीक से प्रेस नहीं हुई, बस उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ज्वालामुखी से फट पड़े- और जड़ दिया उसके चाँटा। मुझे बहुत बुरा लगा। अपने बच्चे को तो डाँटते- मारते मैंने देखा था पर पिता जी तो दूसरे के बच्चे को मार रहे थे। न उसने अपना बचाव किया और न पिताजी ने अपना हाथ रोका। बस सिर नीचा किए आँसू बहाने लगा। ऐसा लगा मानो पिताजी को मारने का अधिकार था और चोटें सहना जग्गी का काम।
जग्गी को मैं बहुत दिनों तक नहीं भुला पाई और माँ की बात बहुत दिनों के बाद समझ में आयी कि वह छोटी जात का है और हम है ऊँच जात के इसी कारण उन्हें सताने की हिम्मत होती थी।पढ़ लिखकर कहीं छोटे लोग ऊँच जात से आगे न बढ़ जाएँ इसीकारण उनके बच्चों को स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता था। जग्गी तभी अनपढ़ रहा।
अब भी जब अखवार की सुर्खियों में दलित -दलन, दलित- दहन के बारे में पढ़ती हूँ, तो जग्गी की याद ताज़ा हो उठती है। न जाने कब ऊँच-नीच का भेद भाव मिटेगा। भारत देश तो उनका भी है फिर उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों?
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लेखक परिचय: जन्म 8 मार्च, 1942 को अनूपशहर, बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) में। बी.ए., बी.टी., विद्याविनोदिनी, विशारद की उपाधियाँ । हिन्दी भाषा के अतिरिक्त अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्ला पर भी अच्छा अधिकार। बिरला हाईस्कूल, कोलकाता में 22 वर्षों तक हिन्दी शिक्षक। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। परिषद भारती, कविता सम्भव- 1992, कलकत्ता-1996 आदि संग्रहों में भी आपकी रचनायें संगृहीत हैं। बाल कहानियों पर तीन पुस्तकें- अंगूठा चूस, अहंकारी राजा व जितनी चादर उतने पैर पसार। काव्य-संग्रह- रोशनी की तलाश में। रचनायें रेडियो से भी प्रसारित। डॉ. कमला रत्नम, राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान तथा प.बंगाल के राष्ट्र निर्माता पुरस्कार से सम्मानित।
सम्पर्क: जे.703, स्प्रिंग फील्ड्स, 17/20 अम्बालिपुरा विलेज, बल्लान्दुर गेट, सर्जापौरा रोड, बंगलौर 560102,
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