उनसे वह
अंतिम भेंट होगी
अंतिम भेंट होगी
-सुधेश
शान्ति निकेतन के विश्वभारती विश्व विद्यालय के हिन्दी भवन में हिन्दी के प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्षडा शैलेन्द्र त्रिपाठी का निधन 27 जनवरी 2015 को गोरखपुर में हो गया। यह दु:खद समाचार पाकरमेरा दुखी होना स्वाभाविक था, क्योंकि वे मेरे अच्छे मित्र थे। वे विगत एक वर्ष से रक्त कैन्सर सेपीड़ित थे। इलाज के बावजूद उन को बचाया नहीं जा सका। अब क्या किया जा सकता है उन्हें श्रद्धांजलि देने के सिवा और उन की यादों में खो जाने के सिवा।
उन से मेरा परिचय लगभग एक दशक पहले उन के द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका सरयू धाराके माध्यम से हुआ। न जाने कैसे सरयू धारा का कोई अंक मेरे हाथ लग गया। उसमें अन्य सामग्रीके साथ कविताएँ प्रचुर मात्रा में थीं और कुछ श्रेष्ठ कविताएँ थीं। मुझे लगा कि कविता को हाशियेपर धकेले जाने के युग में बंगाल से एक पत्रिका निकल रही है, जो मुझे कविता प्रधान लगी। मैं नेअपनी कुछ कविताएँ उन्हें भेज दीं, जो अगले अंक में सम्पादक की टिप्पणी के साथ छपीं। फिरत्रिपाठी जी से पत्राचार का सिलसिला शुरू हो गया।
एक पत्र में उन्होंने लिखा कि वे लोक साहित्य पर विशेषांक निकालना चाहते हैं और उस केलिए मैं कोई लेख भेजूँ। उन दिनों मैं कुल्लियाते नज़ीर अकबराबादी, जो उर्दू लिपि में है, पढ़ रहाथा। सोचा कि नज़ीर की कविता में लोकतत्त्व या लोकचेतना पर लिखूँ। मैं ने नज़ीर पर वह लेखलिखकर उन्हें भेज दिया। एक दो महीनों के बाद त्रिपाठी जी का टेलीफ़ोन आया। उन्होंने कहाकि लोकसाहित्य पर सामग्री पर्याप्त मात्रा में एकत्र नहीं हो पाई, लोकसाहित्य विशेषांक बादमें निकालेंगे अगला अंक प्रेमचन्द पर होगा, जिसके लिए काफी सामग्री उनके पास आ गई है। उनका सुझाव था कि मैं प्रेम चन्द के किसी पक्ष पर एक लेख उन्हें भेज दूँ। मैंने गोदान कोदूसरी या तीसरी बार पढ़ा और उस में दलित चेतना की खोज की। दलित लेखक प्रेम चन्द कोअपना लेखक नहीं मानते; लेकिन मैंने गोदान में दलित पात्र और दलित चेतना को पाया। अन्ततः गोदान में दलित चेतना शीर्षक एक लेख लिखकर त्रिपाठी जी को भेज दिया। वह विशेषांकमेरे लेख के साथ छपा जिसमें अनेक आलोचकों के लेख भी थे। लगभग दो सौ या ढाई सौपृष्ठों का विशेषांक निकालना आसान नहीं था।
सन् 2007 के किसी महीने उनका फ़ोन आया कि विश्वभारती से मुझे कोई पत्रमिला होगा, जिस के द्वारा आप को यहाँ मेरे शिष्य दुष्यन्त कुमार की मौखिक परीक्षा के लिएबुलाया गया है। शीघ्र अपनी स्वीकृति भेजिए। मैं उस शोधप्रबन्ध पर अपनी रिपोर्ट पहले भेजचुका था और उन का फ़ोन सुनकर मैं ने मौखिक परीक्षा के लिए अपनी स्वीकृति भी भेज दी।औपचारिकताओं के बाद मैं मार्च 2007 के अन्तिम सप्ताह में दिल्ली से कोलकाता के लिएएयर सहारा के विमान से सवेरे वहाँ के हवाई अड्डे पर उतरा। मेरी हवाई यात्रा का प्रबन्ध त्रिपाठीजी के प्रयत्न से हो गया था। हावड़ा के रेलवे स्टेशन से एक एक्सप्रेस गाड़ी लेकर मैं शाम कोलगभग साढ़े छह बजे के लगभग बोलपुर स्टेशन पर उतरा। विचित्र लगा कि स्टेशन का नामबोलपुर है शान्ति निकेतन क्यों नहीं; लेकिन तब बोलपुर ही था। स्टेशन पर गाड़ी से उतरते हीलाउडस्पीकर पर घोषणा सुनी कि डा सुधेश अमुक जगह पर आ जाएँ ,जहाँ आप को दुष्यन्तमिलेंगे। मैं उनके साथ रिक्शा द्वारा विश्वभारती के अतिथि गृह में पहुँचा, जहाँ दुष्यन्त औरउन के मित्र अनिल कुमार सिंह मुझे सीधे कैन्टीन में ले गए जहाँ चायपान के बाद वे चले गएऔर यह कह कह गए- आपके रात के भोजन का प्रबन्ध भी इसी कैन्टीन में है।
अगले दिन सवेरे त्रिपाठी जी कैन्टीन में आए । तब उनसे मेरी पहली भेंट हुई। नाश्ते केबाद वे मुझे पहले अपने आवास पर ले गए, जो हिन्दी भवन के पास ही है। बातचीत में पताचला कि वे उसी आवास में रहते हैं,जहाँ कभी हज़ारी प्रसाद द्विवेदी रहते थे। आवास के पीछेएक बग़ीचा है, जिसमें अनेक फूल वाले पौधों के साथ एक अशोक वृक्ष भी है, जिस परलाल फूल आते हैं। यह वही अशोक वृक्ष है जिस के लाल फूलों पर मुग्ध होकर द्विवेदी जी नेअशोक के फूल नामक प्रसिद्ध निबन्ध लिखा था। द्विवेदी जी का लगाया एक नीम का पेड़भी त्रिपाठी जी ने मुझे दिखाया।
पता चला कि द्विवेदी जी पर जब कोई वृत्तचित्र दिल्ली के एन सी आर टी द्वारा बनाया जारहा था, तो प्रोड्यूसर और कैमरा टीम के साथ उन के पुत्र मुकुन्द द्विवेदी भी उस घर कोफ़िल्माने आए थे, जिसमें तब शैलेन्द्र जी रह रहे थे। मैं ने उनसे चुटकी ली कि आप एकऐतिहासिक घर मे हैं, जहाँ हज़ारी प्रसाद जी की स्मृतियाँ बसी हुई हैं। शैलेन्द्र जी का उत्तर था-तो मैं भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति हूँ। तब बात हँसी में उड गई थी, पर अब तो सचमुच वे इतिहास कीवस्तु होगए हैं, जब उन के मित्र और प्रशंसक उन के दुखद वर्तमान के साथ उन के प्रकाशमानइतिहास की भी खोज करेंगे।
कुछ देर बाद शैलेन्द्र जी मुझे डिप्टी रजिस्ट्रार के दफ़्तर में ले गये, जहाँ कुछ काग़ज़ों परमेरे हस्ताक्षर लिये गये। औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हम दोनों उस कमरे में गए जोमौखिक परीक्षा के लिए था। शोधार्थी दुष्यन्त कुमार वहाँ पहले से बैठे थे। मैंने उन से जो प्रश्नपूछे उन के उत्तर सन्तोषजनक थे, जिनसे मुझे लगा कि वे अपने विषय में पारंगत हैं। उन्होंने गोविन्द मिश्र की कहानियों पर अपना शोधप्रबन्ध लिखा था।
उस दिन दोपहर के भोजन के लिए दुष्यन्त बोलपुर के एक होटल रसना में ले गए। उनसे मित्र अनिल सिंह भी वहाँ आए। हम तीनों ने वहाँ शाकाहारी भोजन किया। उस के बाद दुष्यन्त जी ने मुझे अपनी मोटर साइकिल द्वारा अतिथि गृह में छोड़ा।
लगभग चार बजे वे दोनों मित्र फिर वहाँ आये और मुझे उत्तरायण, संगीत भवन और कला भवन दिखाने के लिए ले गये।उस दिन मुझे विश्वभारती के परिसर में घूमने काअवसर मिला। वहाँ विश्वविद्यालय के विभाग को भवन कहा जाता है, जैसे हिन्दी भवन, कला भवन, अंग्रेज़ी भवन, इतिहास भवन आदि। कला भवन बड़ा रोचक और कलात्मक लगा। अनेक मूर्तियाँ, और कलात्मक दृश्य मेरे सामने थे। एक वृक्ष की उलझी हुई डालियों को इसतरह जोड़ा गया था कि उस में कोई आकृति झाँकनें लगी थी। एक किनारे पर विशाल पत्थरको इस तरह तराशा गया था कि उस में डाँडी में नमक सत्याग्रह के लिए मार्च करते महात्मागाँधी की प्रतिमा नज़र आती है । इस प्रकार की आकृतियाँ वहाँ के वातावरण को कलात्मकबना रही हैं। शान्तिनिकेतन की यात्रा पर मैं ने दिल्ली लौटकर एक लेख लिखा था, जोदिल्ली की पत्रिका साहित्य अमृत में छपा। वही लेख महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग द्वारासंचालित स्कूल बोर्ड की आठवीं कक्षा के हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।उस की रायल्टी मुझे कई वर्षों तक मिलती रही। इस का श्रेय मैं शैलेन्द्र त्रिपाठी जी को देता हूँ , क्योंकि उन्हीं के कारण मेरी वहाँ की यात्रा हुई थी।
उस दिन रात को त्रिपाठी जी मुझे भोजन के लिए अपने आवास पर ले गये। उनसे खूब बातेंहुईं। पता चला कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे पढ़े थे और वहीं से उन्होंने डीफिल उपाधि प्राप्तकी थी। वे जगदीश गुप्त और सत्य प्रकाश मिश्र के शिष्य रहे। वहाँ की छात्र राजनीति में भी वे सक्रिय रहे । तब वे वामपन्थी थे पर बाद में वाम पन्थियों से उन का मोह भंग हो गया । किस कारणउन का वाम पन्थियों से मोह भंग हुआ , यह उन्हों ने नहीं बताया । इस विषय में उन्हें कुरेदना मैंने उचित नहीं समझा। हाँ मुझे यह आभास अवश्य हुआ कि त्रिपाठी जी एक चिन्तन शील और सक्रियव्यक्ति थे।
उन्होंने बताया कि शान्तिनिकेतन में उन की नियुक्ति तत्कालीन विभागाध्यक्ष सिया रामतिवारी की इच्छा के विरुद्ध हो गई थी। उन्होंने कई प्रसंग सुनाए जिनसे यह प्रकट होता है किवे तिवारी जी की विद्वत्ता के प्रति आश्वस्त नहीं थे। फिर भी तिवारी जी की अध्यक्षता के कालमें उन्होंने तिवारी जी को अपना पूर्ण सहयोग दिया। इस से प्रकट होता है कि त्रिपाठी जी झगड़ालू क़िस्म के व्यक्ति नहीं थे। वे अध्ययनशील व्यक्ति थे और अपने कर्तव्य के प्रति सचेत थे।
त्रिपाठी जी ने शान्तिनिकेतन में रहते हुए स्वाध्याय से बंगला सीखी और उस में इतनाकौशल प्राप्त कर लिया कि बंगला से हिन्दी में अनुवाद करने लगे। वे हिन्दी और भोजपुरी में कविताएँ लिखते थे और हिन्दी का एक त्रैमासिक सरयू धारा नाम से कई वर्षों तक सम्पादित एवं प्रकाशितकरते रहे। यह उन की सृजनशीलता और कर्मठता का परिचायक है ।उनकी बातों से मुझे लगा कि वे शान्ति निकेतन से सन्तुष्ट नहीं हैं और वाराणसी के हिन्दूविश्वविद्यालय मे प्रोफ़ेसर हो कर जाना चाहते हैं। उनकी असन्तुष्टि के कारण का मुझे पतानहीं चला पर अनुमान कर सकता हूँ कि शायद उन्हें लगता था कि वहाँ उन की पदोन्नति नहीं हो सकेगी। अगले दिन शान्तिनिकेतन से मैं रेलगाड़ी द्वारा कोलकाता गया,जहाँ दो दिनों तक रुकने के बाद दिल्ली लौट आया।
शैलेन्द्र जी ने विश्वभारती विश्वविद्यालय से मेरे पास एक दूसरा शोधप्रबन्ध भिजवाया,जो मोती बीए के भोजपुरी साहित्य को योगदान पर केन्द्रित था। मैं ने उसे जाँचकर उस पर अपनी रिपोर्ट समयानुसार विश्वविद्यालय को भेज दी। कुछ समय बाद त्रिपाठी जी ने फ़ोन पर कहाकि दूसरे शोधार्थी की मौखिक परीक्षा के लिए यदि आप को बुलाया जाए, तो अपनी स्वीकृतिभेज दीजियेगा। संयोग ऐसा हुआ कि मुझे नहीं बुलाया गया , अन्यथा शान्तिनिकेतन की दूसरी यात्रा हो जाती
शैलेन्द्र जी से मेरी दूसरी भेंट ओडिसा के ब्रह्मपुर नगर में 20जून सन 207 में हुई, जहाँ के विश्वविद्यालय में वे मेरी एक शिष्या निवेदिता साहू की मौखिक परीक्षा लेने गये थे और मैंदिल्ली सेब्रह्मपुर गया था। मैं ब्रह्म पुर के भुवनेश्वरी लाज में ठहरा था। उस दिन मेरी शिष्या निवेदिता साहू मुझे होटल में नाश्ता कराकर शैलेन्द्र त्रिपाठी की अगवानी के लिए स्टेशन चली गई।उन्हों ने वहाँ के विश्वविद्यालय के कार्यालय में जा कर निवेदिताकी मौखिक परीक्षा ली।उस दिन एक होटल में भोजनकरते हुए त्रिपाठी जी से अनेक विषयों पर बात हुई। उन्होंने बतायाकि विदिशा (म प्र) के राम कृष्ण प्रकाशन ने उन की कई पुस्तकें छपी हैं। वे बंगला से हिन्दी मेंकिए गए अपनेअनुवाद छपवाना चाहते थे। उन के बाबा एक स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन के अनेक संस्मरण त्रिपाठी जी ने लिखे थे। उन्हें वे पुस्तक रूप में छपवाना चाहते थे। वे कहने लगे कि अपनी कुछ कविताएँ भेजिए। वे सरयू धारा का कविता विशेषांक निकालनाचाहते थे। उन्होंने उसका कहानी विशेषांक भी निकाला था। वे स्वयम् हिन्दी और भोजपुरी मेंकविताएँ लिखते थे। उनकी कुछ हिन्दी और भोजपुरी कविताएँ मैंने फेसबुक पर देखी हैं । कहनहीं सकता कि उन की कविताओं का संकलन प्रकाशित हुआ या नहीं। पर उन के पास कईयोजनाएँथी। एक योजना थी सरयू धारा का लोकसाहित्य विशेषांक निकालना, जिसके लिए मैं ने उन्हें नज़ीर अकबराबादी की शायरी में लोक तत्त्व विषय पर एक लेख भेजा था।
उन्हें उसी दिन शाम की गाड़ी से कोलकाता लौटना था। वे स्टेशन जाने की तैयारी करनेलगे। मै ने उन्हें अपनी दो पुस्तकें भेंट कीं और शान्तिनिकेतन के पुस्तकालय के लिए भेंट स्वरूपअपनी सात पुस्तकें दीं। उसी दिन किसी गाड़ी से वे ब्र्ह्मपुर से कोलकाता वापस चलेगए। मैंदिल्ली लौट आया। उस दिन क्या पता था कि वह मेरी उन से अन्तिम भेंट होगी।
लेखक परिचय: जन्म- 6जून 1933, दिल्ली में सन् 1975 से निवास। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त। 11 काव्य कृतियाँ, 11 आलोचनात्मक पुस्तकें, 3 यात्रा वृत्तान्त, 2 संस्मरण संग्रह, 1 उपन्यास, 1 व्यंग्य संग्रह, 1 आत्म कथा। अनेक पुरस्कार एवं सम्मान- मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का भारतीय कविता पुरस्कार 2006, भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय का भारतेन्दु हरिश्चन्द़ पुरस्कार 2000, लखनऊ के राष्ट़्रधर्म प्रकाशन का राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान 2004, आगरा की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सार्वजनिक अभिनन्दन 2004, दिल्ली की संसदीय हिन्दी परिषद , विविधभारती परिषद , परिचय साहित्य परिषद के संयुक्त तत्वावधान में वर्ष 2015 का राष्ट्रगौरव सम्मान।
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