- विनोद साव
वर्ष 1966 से 1972 के बीच हम शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला,
पाटन के छात्र थे और हमारे पिता अर्जुन सिंह साव वहाँ के प्राचार्य थे। पिता ने हमें शेक्सपियर के
नाटकों को खेलना सिखाया था। पिता में रंगमंच की कला नागपुर से आई थी। दुर्ग में
जनमें और स्नातकोत्तर तक शिक्षा ग्रहण किये पिता ने नागपुर से बी.टी. और रायपुर से
पी.जी.बी.टी. किया था। वे पूरी तरह से शहरी, कलाप्रेमी और
आधुनिक विचारों से संपन्न व्यक्ति थे। तब
पाटन दुर्ग जिले में बसा पूरी तरह से ग्राम्य बोध से भरा एक गाँव था। उस गाँव के
स्कूल में छात्रों से अंग्रेजी के नाटकों को खेलवाया जाना प्राचार्य पिता का एक
क्रांतिकारी कदम था और स्कूल से संस्कारित होने वाले गाँव के दर्षकों को ये नाटक
देखते समय एकबारगी अंग्रेजों के किसी गाँव में होने का अहसास हुआ था। वे अपने गाँव
के बच्चों को शेक्सपियर के नाटक ’मर्चेन्ट ऑफ वेनिस’ के शैलाक, एँ टोनी और पोर्टियों जैसे चरित्रों में
ढलकर उन्हें धड़ -धड़ अंग्रेजी बोलते हुए किंकर्तव्य-विमूढ़
होकर देख रहे थे।
तब
पाटन स्कूल में हर साल होने वाले सोशल गेदरिंग में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच
हिन्दी, अंग्रेजी के कुछ
नाटकों का भी मंचन करवाया जाता था। इनमें शेक्सपियर का नाटक ‘मर्चेन्ट ऑफ वेनिस’ और नार्मन मेकनिल का ‘द बिशप्स केंडल स्टिक्स’ को हम छात्रोंने खेला था। ‘द बिशप्स केंडल स्टिक्स’ विक्टर ह्यूगो के प्रसिद्ध
उपन्यास ‘ले मिजरेबल’ पर आधारित था।
इसका नाट्य रुपांतर नार्मन मेकनिल ने किया था। ‘ले मिजरेबल’
हमारे अंग्रेजी स्नातक के पाठ्यक्रम में था। ये दोनों नाटक उस समय
स्कूल में चलने वाली किताब ‘इंग्लिशप्रोज एवं वर्स’ में शामिल थे और ग्यारहवीं कक्षा के अंग्रेजी विषय को जब हमारे प्राचार्य
पढ़ाया करते थे, तब शेक्सपियर के नाटकों के संवादों को वे
पूरी तरह ड्रामेटिक-कॉमेडी स्टाइल में पढ़ाया करते थे और कक्षा को मंच मानकर इधर
उधर तेजी से चहलकदमी करते हुए नाटक के अलग- अलग पात्रों के
संवादों को मुँह घुमाकर चेहरे की भाव-भंगिमा बदलते हुए बोला करते थे। इससे
अंग्रेजी विषय और शेक्सपियर को पढ़ते-सुनते समय हम सब छात्र एक अलग वायावी दुनिया
में पहुँच जाते थे। प्राचार्य की इन्हीं भंगिमाओं ने छात्रों को अंग्रेजी के
नाटकों को खेलने और उनके पात्रों को अभिनीत करने की साहसिक प्रेरणा दी थी।
हिन्दी
और दूसरी कई भाषाओं के साहित्य में नाटक ,जहाँ एक दरिद्र विधा रही ,वहीं अंग्रेजी में यह सबसे समृद्ध विधा रही और अंग्रेजी साहित्य के इतिहास
में जो दो सबसे बड़े लेखक जाने माने गए वे शेक्सपियर और बर्नार्ड शॉ थे और ये दोनों
लेखक दर्जनों की संख्या में लिखे गए अपने विलक्षण नाटकों के कारण जाने गये।
बर्नार्ड-षॉ के व्यक्तित्व और जीवन शैली पर उनकी महिला सेक्रेटरी ब्लांश पैच की
किताब ’थर्टी इयर्स विद शॉ’ पढ़ने को
मिली थी जो बेहद रोचक थी। यह मानी हुई बात है कि दुनिया की कोई दूसरी भाषा
शेक्सपियर और शॅा पैदा नहीं कर सकी। यहाँ
यह उल्लेखनीय है कि बीसवीं सदी में हमारे देश में मराठी भाषा के साहित्य
में जो शीर्ष स्थान के लिए नाम दिखा वह नाटककार विजय तेंदुलकर का है और उनका यह
स्थान भारत की समग्र भाषाओं में रचित आधुनिक नाटकों के बीच बरकरार है।
अपने
छात्र जीवन में खेले गए और टेक्स्ट बुक में पढ़े नाटकों के कारण शेक्सपियर से एक
जुड़ाव तो हो ही गया था और जहाँ भी उनकी
कृतियों पर कोई चर्चा होती हम उनमें जरूर शामिल होते या कोई फिल्म बनती तो हम
उन्हें जरुर देखते थे। मुझे निजी तौर पर शेक्सपियर के दो नाट्य उपन्यासों से रू-ब-रू होने
का मौका मिला - इनमें से एक ’द ट्वेल्थ नाइट’ था और दूसरा’एज यू लाइक इट’।
ये दोनों नाटक सुखान्त नाटकों की श्रेणी में आते हैं जबकि शेक्सपियर की शख्सियत
उनके दुखान्त नाटकों से है। इनमें ’द ट्वेल्थ नाइट’ की किताब अंग्रेजी के दो रूपों में थी। उसका बॉया पृष्ठ शेक्सपियर की मूल
भाषा में था जिसे शेक्सपियराना इंग्लिश कहते हैं और दाहिना पृष्ठ इंडियन इंग्लिश
में रुपांतरित था।
दूसरा
उपन्यास ‘एज यू लाइक इट’
का हिन्दी रुपांतर पढ़ने को मिला। इसका रुपांतर प्रसिद्ध उपन्यासकार
रांगेय राघव ने किया है। नाटक का मूल स्रोत फ्रांसीसी उपन्यास से लिया गया है
जिसमें उपदेशात्मक रूप में बताया गया है कि ‘भाग्य की देवी
सद्गृहिणी मानी जाती थी, और वह एक चक्र निरंतर घुमाती रहती
थी ; क्योंकि वह अंधी थी।’ यह एक
प्रेमकथा है जिसमें कहा गया है कि प्रतिकार से संधि भली है और भलाई की अंत में जीत
होती है।’
नाटकों
की सफलता उनके व्यंग्य की तीक्ष्णता में होती है। अगर संवादों में गहरे व्यंग्य
हैं; तो वह जल्दी संप्रेषित होता है
और दर्शकों पर गहरे प्रभाव छोड़़ता है। यह शेक्सपियर और बर्नार्ड शॉ के संवादों में
खूब देखा जा सकता है। शेक्सपियर के कई नाटकों में एक विदूषक (क्लाउन) होता है जो
उनके नाटक को विनोद-प्रियता से भर देता है। इस विदूषक की खासियत यह होती है कि वह
मूर्खतापूर्ण हरकतों को करते समय भी बड़ी -बड़ी बातों को सहजता
से कह जाता है। ’द ट्वेल्थ नाइट’ का विदूषक
तो पूरे समय पाठकों- दर्शकों को बाँधे रखता है। इस नाटक का एक संवाद याद आ रहा है
कि जब विदूषक अपनी अवहेलना होते देख कह उठता है ’बैटर ए विटी
फूल दैन ए फुलिश विट।’ प्रेम के मामले में अपने दर्शन बघारते
हुए वह एक भावुक पात्र से कहता है कि ‘अभी मिलने वाले आनंद
को भोग लो - तुम्हारे प्रेम का भविष्य अन्धकारमय है।’
इस
कॉमेडी नाटक के सभी पात्र मजेदार संवाद बोलते हैं। नाटक की नायिका वायला जब एक धनी
सामन्त ओलिवा से मिलती है तब अपना सन्देश देना चाहती है। उसे सामन्त पूछता कि ‘इज इट सीक्रेट?’ तब वायला बोल उठती है ‘ यस... माय मैसेज आर
सीक्रेट्स लाइक द वर्जिनिटी ऑफ मेडन (मेरा संदेश उतना ही गुप्त है जितना किसी किशोरी
का कौमार्य)’। शेक्सपियर के इस नाटक में भारतीय रत्न की
महिमा भी एक संवाद से प्रकट होती है जिसमें एक सुन्दरी को इस उपमा के साथ उत्साहित
किया जाता है, ‘हाउ नाउ! माई मेटल ऑफ इण्डिया (क्या खबर लाई
हो मेरी हिन्दुस्तानी सोनपरी)!’
मेरे
द्वारा पढ़े गए शेक्सपियर के दूसरे नाटक ’एज यू लाइक इट’ में जो विदूषक है उसका नाम ‘टच स्टोन’ है। कोरिन नाम का चरवाहा टच स्टोन से कहता
है कि ’सुनो! जिसे राजदरबार में शिष्टाचार माना जाता है वैसा
व्यवहार गाँव वालों के बीच हास्यास्पद माना जाता है।’ (चरवाहा
अंग्रेजी काव्य में ग्रीक काव्य की परंपरा की भाँति रोमांस का द्योतक है। उसका
जीवन आनंदमय, चिंताहीन समझा जाता है। संभवतः यह बात दुनिया
के सभी चरवाहों पर लागू होती है)।
इस
नाटक में टच स्टोन अपनी राजकुमारी रोजालिंड की महिमा गाते हुए उसकी विशेषता बताता
है कि ‘वह बिल्ली की तरह
अपनी स्त्री जाति की सहेलिया ही पसंद करती है। वह सुन्दर गुलाब है - जो इसे चाहता
है वह उसके काँटों के लिए भी तैयार रहे।’ विदूषक का पात्र इस
नाटक में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह वास्तव में
बड़ा चतुर व्यक्ति है। हास्य में शेक्सपियर ने दो अर्थी वाले शब्दों का प्रयोग भी
किया है।
इस
नाटक में राजकुमारी अपने पिता ड्यूक फ्रैडरिक के दुश्मन के पुत्र ऑरलेंडो से प्यार
करती थी। पिता फ्रैडरिक उस युवक के शौर्य से बड़े प्रभावित थे ,पर जब पता चलता है
कि वह उनके दुश्मन का बेटा है तो नि:श्वास भरते हुए दु:खी मन से कहते हैं कि ’काश... तुम किसी दूसरे पिता के
पुत्र होते।’ तब ऑरलेंडो का मित्र आदम उससे कहता है कि ’कभी कभी मनुष्य के सद्गुण उसके शत्रु बन जाते हैं। आपके सराहनीय सद्गुण ही
आपके साथ विश्वासघात कर रहे हैं।’ इस तरह शेक्सपियर के
नाटकों के ’सिचुएशन’ अपने मार्मिक
संवाद खुद तय कर लेते थे।
‘एज यू लाइक इट’ में रोजालिंड ऑरलेंडों से एक जगह
पूछती है ‘सुनो... इस समय घड़ी मे क्या बजा है?’ (तब आलोचकों ने यह प्रश्न उठाया था कि जिस कालखण्ड की यह कहानी है उस समय
घड़ी का आविष्कार हुआ था क्या?)। आज तो ये दशा है कि हम कितने
ही पौराणिक और ऐतिहासिक धारावाहिकों में रोज रोज कालखण्डों को खण्डित होते देख रहे
हैं और आज के समयानुसार उनके गहनों, वस्त्रों, केश-विन्यासों और सर्व-सुविधायुक्त महलों को दिखा रहे हैं, जिनकी हजारों
साल पहले कोई प्रामाणिक उपस्थिति नहीं थी। अतः किसी ऐतिहासिक नाटक में किसी वस्तु
को लेकर इस तरह से उँगली उठाने का कोई विशेष औचित्य नहीं है।
सोलहवीं
सदी में जब शेक्सपियर थे, तब यह महारानी एलिजाबेथ का शासन काल था। उस समय
हिन्दी साहित्य का भक्ति काल जायसी, सूर और तुलसीदास से जगमगा रहा
था। शेक्सपियर का उपहास करने वाले उनके समकालीन आलोचक सब लुप्तप्राय हो गए, पर
शेक्सपियर आज भी दैदीप्यमान हैं। यह दुनिया की हर भाषा के लिए एक चुनौती रही कि
अगर किसी भाषा में शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद नहीं हुआ ,तो इसका यह आशय है कि
वह भाषा उन्नत भाषा नहीं है। उनके नाटक राजकुमारी रोजालिंड एक संवाद में यह कहती
है, इसे शेक्सपियर के नाटकों के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता
है: ‘यदि यह सत्य है कि एक अच्छी शराब के लिए किसी सिफारिश
की जरुरत नहीं होती, तो यह भी सत्य है कि एक अव्छे नाटक के लिए
किसी उपसंहार की आवश्यकता नहीं रहती।’
रवींद्रनाथ
त्यागी कहते हैं कि ‘रूप, प्रणय और सौन्दर्य के सर्वश्रेष्ठ कवि कालिदास व जयदेव ही हैं ,पर नाटकों
की दुनिया में हमारा कोई भी नाटककार विलियम शेक्सपियर की बराबरी नहीं करता। इसका
कारण हमारे नाट्य-शास्त्र के वे सिद्धांत हैं; जिनके अनुसार यह अनिवार्य था कि
नाटक सुखान्त ही हों; जबकि शेक्सपियर अपने दु:खान्त नाटकों में ही सबसे ज्यादा
प्रभाव छोड़ कर बाजी मार ले जाते हैं।’
लेखक परिचय: 20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्म। समाजशास्त्र विषय
में एम.ए. हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं।
हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई बाद में उपन्यास, कहानियाँ और यात्रा वृतांत लिखकर चर्चा में रहे। उनके दो उपन्यास- चुनाव, भोंगपुर-30 कि.मी., तीन
व्यंग्य संग्रह- मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय, मैदान-ए-व्यंग्य और
हार पहनाने का सुख, संस्मरण- आखिरी पन्ना, यात्रा-वृत्तांत- मेनलैंड का
आदमी व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। सम्पर्क:
मुक्त नगर, दुर्ग मो. 9407984014, Email- vinod.sao1955@gmail.com
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