ए टी एम कार्ड
-शशि पाधा
-शशि पाधा
पंजाब नैशनल बैंक में ‘ए टी एम’ कार्ड बनवाने के लिए गई थी मैं उस दिन। उस बैंक में किसी को जानती नहीं थी अत: अन्य लोगों की तरह फ़ार्म भरवाने वाले कलर्क के पास लगी कुर्सियों पर बैठ गई। पहले तो ऐसा नहीं होता था। एक उच्च अधिकारी की पत्नी होने के नाते सदा सीधे मेनेजर के कमरे में बैठने की अभ्यस्त थी मैं और सब काम आनन– फानन हो जाते थे; किन्तु इस बार मैं अपनी भारत यात्रा के दौरान सारे काम स्वयं करना चाहती थी। आठ साल तक अमेरिका में निवास करने के कारण यह सीख लिया था कि अपनी बारी आने पर ही आपको क्लर्क के पास जाना चाहिए। अमेरिका में तो लोग चुपचाप लाइन में खड़े रहते हैं, चाहे आपके आगे वाला व्यक्ति ,जितनी देर भी करे, अपने काम को निपटाने में। यहाँ कभी कहीं कोई धक्का –मुक्की नहीं होती। कोई आपके काँधे के ऊपर से बाँह निकल कर अपने कागज-पत्र किसी खिड़की तक पहुँचाने की जुर्रत नहीं करता । अमेरिका के लोगों की इस आदत ने बहुत प्रभावित भी किया था मुझे । शायद इसीलिए आज ‘मैं मेनेजर को जानता हूँ , फोन कर दूँगा’ आदि सम्बल लेकर मैं बैंक नहीं गई थी। आज मैं एक आम भारतीय नागरिक की भाँति अपना काम करवाने गई थी ।
खैर! अपना फार्म भर कर मैंने क्लर्क को दे दिया। अब क्लर्क महोदय फोन पर किसी से बात करते रहे और आस पास की कुर्सियाँ भरती रहीं। उन्हें शायद घर में मित्र लोगों से बात करने का समय नहीं मिलता होगा , इसी लिए बच्चों के हाल चाल से लेकर घर बनवाने के लिए सीमेंट- बजरी का भाव -तोल सभी उसी ऑफिस की डेस्क पर बैठे चल रहा था । साथ में चाय की चुस्की भी । मुझे भी कोई और विशेष काम नहीं था और मैं भी भारत के किसी बैंक की शाखा के दृश्यों का आनंद ले रही थी । वैसे और करती भी तो क्या ?
तभी मेरा ध्यान पास बैठे एक नवविवाहित जोड़े की ओर चला गया। उनके कपड़े, बैग आदि सामान से लगा कि यह कोई मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं । लड़की थोड़ी शर्मीली- सी, सकुचाई सी बैठी थी और लड़का स्वाभिमान के साथ बैठा था । मुझे वैसे ही लोगों के चेहरे पढ़ कर कुछ लिखने का शौक- सा है सो मैं वहाँ बैठी बस यही कर रही थी । यूँ भी बोर होने से कुछ तो करना बेहतर ही है न ?
क्लर्क महोदय फोन,चाय और किसी फ़ाइल में मग्न थे। अब उन्होंने शायद सोचा कि कुछ काम भी कर लिया जाए। उन्होंने एक फार्म उस लड़के के सामने रख दिया और कहा “यह फार्म भर दीजिए।’’ लड़का चुपचाप फार्म भरने लगा। अभी मेरी बारी नहीं थी। क्लर्क महोदय फिर किसी फ़ाइल में उलझ गए । लड़के ने फार्म भर के उन्हें दे दिया। उन्होंने एक सरसरी सी नज़र कागजों पे डाली और पूछा,” ज्वाइंट अकाउण्ट करना है”? लड़के ने हामी भरी। क्लर्क ने टेबल पर फ़ार्म रख कर लड़की की ओर सरका दिया और कहा,” यहाँ पर साइन कर दीजिए”। अब लड़की ने बड़ी झिझक के साथ अपने पति की ओर देखा। लड़के ने बड़े सहज भाव से क्लर्क से कहा,” जनाब! यह पढ़ी लिखी नहीं है”। क्लर्क ने बड़े विस्मय से उन दोनों की ओर देखा और कहा,” ठीक है फिर अँगूठा लगा दीजिए।” यह सब देख सुन कर मैं तो सातवें आसामान से गिर पड़ी । मुझे लगा कि मैं शायद पचास वर्ष पहले की दुनिया में चली गई हूँ, क्योंकि मेरी दिवंगत माँ भी प्रभाकर पास थीं और अंग्रेज़ी भी पढ़ लेतीं थीं। उनके आस पास की सभी महिलाएँ थोड़ा -बहुत तो पढ़ ही लेतीं थी। हे प्रभु! यह कौन सा युग है और मैं क्या देख रही हूँ। लड़की ने दो बार अँगूठा लगाया और फ़ार्म क्लर्क को दे दिया।
मैं अपने को रोक नहीं पाई। मैंने बड़े स्नेह से उसे पूछा,” क्या तुम बिलकुल ही लिखना नहीं जानती हो”? उसने “ना” में बस सर हिला दिया।
”क्या तुम कभी स्कूल नहीं गई” ? एक और “ना”।
मैंने पूछा,” क्यों “? और उसने सर झुका लिया। शायद यही उसके पास उत्तर था।
कारण कोई भी हो, मुझे इस बात से बहुत दु:ख हो रहा था । मानों उसके अनपढ़ होने की थोड़ी बहुत जिम्मेवारी मेरी भी थी; क्योंकि मैं भी तो इसी शहर, इसी समाज का अभिन्न अंग थी ।
अब मैं एटीएम कार्ड की बात भूल गई । मैंने उस लड़की से कहा,” एक बात कहूँ। अभी भी देर नहीं हुई हैं । तुम किसी से कुछ तो पढ़ना –लिखना सीख लो।”
वो शून्य आँखों से मेरी ओर देखने लगी । उसके पति ने मेरी बात सुन कर कहा,” जी, मैं भी यही चाहता हूँ । किन्तु झिझक और शर्म इसे छोड़ती ही नहीं । बचपन में ही किसी के घर काम –काज के लिए छोड़ दी गई थी। इसे पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला”।
मुझे कुछ सांत्वना हुई कि कम से कम पति तो सहमत है कि ये पढ़े ।
अब बारी मेरी थी । मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा,” मेरी एक मित्र एक संस्था चलाती हैं; जहाँ अनपढ़ और असहाय लड़कियों को पढ़ना –लिखना और अन्य काम धंधे सिखाए जाते हैं ,ताकि वो आत्म निर्भर हो सकें। मैंने सीधे उसकी आँखों में देखकर कहा,” मुझसे वायदा करो कि वहाँ जाओगी”। वो मुस्कुरा दी और उसने हामी भरी ।
मैंने समय गँवाए बिना अपनी मित्र से फोन पर बात की और इस नए जोड़े को साथ लेकर मित्र की संस्था की ओर चल पड़ी। सोचा, आज एटीएम कार्ड नहीं बना, न सही, मुझे और भी आवश्यक काम करने हैं।
एक वर्ष के बाद पुन: मुझे भारत जाने का अवसर मिला। मैं बैंक में घटी इस घटना को लगभग भूल चुकी थी। भारत में सब सगे सम्बन्धियों से मिलने के बाद सोचा कि अपनी मित्र से भी मिल लूँ । उसने मुझे अपने घर बुला लिया।
वहाँ पहुँचते ही मित्र ने कहा,” लो उमा से मिलो”।
“कौन उमा” मैंने कौतूहलवश पूछा ।
“अरे वही तुम्हारी बैंक वाली लड़की । अब यह पढ़ती भी है और हमारे स्कूल के काम काज में हाथ भी बँटाती है”।
इतने में हँसती हुई “उमा” आ गई”। मैंने उसे गले लगा लिया। अब वो अँगूठा लगाने वाली शर्मीली -सी लड़की नहीं थी बल्कि स्वाभिमान से दमकती हुई स्वावलंबी लड़की थी। मेरी मित्र ने हँसकर कहा,” अच्छा बता, फिर तेरे “एटीएम कार्ड का क्या हुआ?
मैंने उमा का हाथ थामकर कहा,” यह हैं न”।
लेखक परिचय: जम्मू नगर में जन्म, जम्मू- कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए हिन्दी ,एम.ए संस्कृत तथा बी एड की शिक्षा। 1967 में सितार वादन प्रतियोगिता में राज्य के प्रथम पुरस्कार से सम्मानित, 1968 में जम्मू विश्वविद्यालय से ऑल राउंड बेस्ट वीमेन ग्रेजुएट का पुरस्कार। 16 वर्ष तक भारत में हिन्दी तथा संस्कृत भाषा में अध्यापन का कार्य किया। 2002 में अमेरिका जाने से पूर्व भारत में एक रेडियो कलाकार के रूप में कई नाटकों और विचार-गोष्ठियों में भी सम्मिलित। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा पुरस्कृत्। समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। यू.एस. से प्रकाशित प्रवासिनी के बोल एवं कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका हिन्दी चेतना में भी रचनाएँ प्रकाशित। सम्प्रति अमेरिका में नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय में हिन्गी अध्यापन। दो काव्य संकलन- पहली किरण और मानस-मन्थन, एक प्रकाशनाधीन है। पिछले पाँच वर्षों से विभिन्न जाल पत्रिकाओं में प्रकाशन। सम्पर्क: 174/3 Trikuta Nagar Jammu, J&K, सम्प्रति- वर्जिनिया, यू एस, Email- shashipadha@gmail.com
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