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Jan 20, 2016

बच्चन जी के साथ: विदेश मंत्रालय में छह वर्ष

बच्चन जी के साथ:
विदेश मंत्रालय में छह वर्ष

      - अजित कुमार

मेरे जीवन का अधिकतर हिस्सा- लगभग 75 वर्षों में 45 वर्ष -नौकरी करते बीता है । इनमें से 39 साल मैंने अध्यापन किया और 6 साल भारत सरकार के विदेश मत्रालय में डा0 बच्चन के मातहत अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद-कार्य- जिसके बारे में उस समय भले ही यह ध्यान न किया होपर आज सोचने पर महसूस होता है कि नियमित किन्तु मन्थर गति से बहती हुई मेरी नदी अपने प्रवाह के क्रम में देर-सवेर जाकर जब भी अनन्त-अथाह सागर में विलीन होगीतब होगी… पर यदि उसमें कभी कोई द्वीप था- तो निश्चय ही वह उन्हीं छ्ह वर्षों की अवधि के दौरान रहा होगा। 
सन 1956 से 1962 तक का यह समय केवल इस नाते स्मरणीय नहीं कि एक छात्र ने अपने एक अध्यापक को सरकारी ज़िम्मेवारी निभाने में सहयोग दिया – इसमें विशेष यह है कि वह छात्र था- अजित शंकर चौधरी ,जिसे तब तक थोडी-बहुत लेखकीय ख्याति अजितकुमार के नाम से मिल चुकी थी और वह गुरु थे- प्रसिद्ध हिन्दी कवि डा हरिवंश राय बच्चन जो प्रयाग विश्वविद्यालय में अनेक वर्ष अंग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक रह विदेश जा केम्ब्रिज से आयरिश कवि येटस के तंत्रवाद पर अपना शोध-कार्य पूरा कर हाल में ही स्वदेश लौटे थे और जिन्हें सन 1955 में तत्कालीन प्रधान मन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दी का विशेषाधिकारी बना दिल्ली-स्थित विदेश मन्त्रालय में नियुक्त किया था।
उस अवधि का और अपनी उन दिनों की मानसिक स्थिति का विशद वर्णन बच्चन जी आत्मकथा में कर चुके है जिसे दोहराना यहाँ ज़रूरी नहीं। पर जो बहुत सी बातें अनकही रह गईंउनमें से कुछ का हवाला यहाँ  देना शायद प्रासंगिक होगा।
तब मैं डीएवी कालेजकानपुर में सुखपूर्वक अध्यापन करते हुए लेखन तथा परिवार के परिवेश में पूरी तरह मगन और संतुष्ट थाकिन्तु नियति मुझे खींचकर दिल्ली ले आई जहाँ मैं 1956 से लेकर अब तक न केवल अटका हुआ हूँ; बल्कि जान पड़ता हैयहीं दम भी तोड़ूँगाजबकि मुझे घसीटकर दिल्ली लाने वाले बन्धु ओंकारनाथ श्रीवास्तव और गुरुवर बच्चनजी क्रमश: लंदन और बम्बई में संसार से बिदा ले गए। अब इसका रोना कहाँ  तक रोया जाए कि हम जिनके भरोसे गफ़लत में पड़े सोए रहते हैंवे अकसर बीच में ही उठ कर चले जाते हैं। तो धीरज रखने का उपाय यही है कि उनसे जुडी यादें हमें जब-तब प्रेरित करती रहें। औरजहाँ  तक इन दोनो का सम्बन्ध हैसंक्षेप में यही कहूँगा कि चारो ओर घिर रही रात में उनका स्मरण मुझ ऊँघते को रह-रह कर जगाता है।
ओंकार सन 1948 से 1953 तक प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्रावास केपीयूसी में मेरे प्रिय साथी रहे। बच्चनजी उनके क्लासटीचर और मेरे सेमिनार टीचर थे। सबसे पहले उन्हींके साथ मैं बच्चनजी के घर गया था। कालान्तर में जब ओंकार को आकाशवाणीदिल्ली में काम मिला और पता चला- विदेश मन्त्रालय में बच्चनजी को एक सहायक चाहिएमुझे कानपुर से बुलाया गया और इस तरह हम तीनो फिर एक ही नगर में इकट्ठे हो गये। यह सम्मिलन धीरे-धीरे किस तरह बढ़ता गया और अपने छात्रों के पारिवारिक जीवन में गुरुवर ने कैसी सार्थक भूमिका निभाईइसका रोचक वर्णन ओंकार ने अपने लेख कोई न कभी मिलकर बिछुडे में किया है जिसका शीर्षक बच्चनजी के उस गीत पर आधारित था जिसमें ये पंक्तियाँ आती हैं- सब सुख पावेंसुख सरसावें। भलेही समय ने हमारे अनेक सुख हमसे छीन लिये हों,- यह तथ्य कि गुरु-दम्पती के सान्निध्य में हम अनेक छात्रों ने भरा-पूरा जीवन जिया- अपनेआप में उल्लेखनीय है।
मेरा अतिरिक्त सौभाग्य यह था कि मैंने विदेश विभाग में हिन्दी अनुवाद करते हुए लगभग छह साल उनके साथ बिताए और जाना कि मैं कलम और बन्दूक चलाता हूँ दोनों’ गानेवाला कवि दफ़्तर का उबाऊ काम भी कैसी निष्ठा और लगन से करता था । इसमें सन्देह नहीं कि वे प्रथमत: और प्रमुखत: कवि थे पर यह कभी नहीं हुआ कि इसे उन्होंने दफ़्तरी अनुशासन या दायित्व पर हावी होने दिया हो।
डा बच्चन ने आत्मकथा के दूसरे खंड नीड का निर्माण फिर ‘ में तनिक विस्तार से विदेश मन्त्रालय में विशेषाधिकारी- हिन्दी बनकर आने की स्थितियाँ बयान की हैंजहाँ वे 1955 से लेकर 1965 तक रहे। उन्होंने तो इसका ज़िक्र कहीं नहीं कियापर जब 1956 में हिन्दी अनुवादक बनकर मैं विदेश मन्त्रालय में आयातब मुझसे और बच्चनजी के पहले से वहाँ  हिन्दी एकांश में कार्यरत श्री राधेश्याम शर्मा ने मुझे वह कथा सुनाई थी ,जो समय से कुछ पूर्व ही बच्चनजी के विदेश मन्त्रालय में नियुक्त हो जाने का निमित्त बनी थी।
उक्त आत्मकथा के पाठक जानते ही हैं कि विदेश से उच्च उपाधि लेकर लौटने पर अपने विभाग और विश्वविद्यालय में बच्चनजी को जो उदासीनता और दुर्भावना झेलनी पडीउससे वे आहत थे और जिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस पढाई में उनकी सहायता की थीउनके मन में यह विचार आया था कि भारत सरकार में वे उनके लिए यथावसर कोई उपयुक्त पद बनाएँगे।
श्री राधेश्याम शर्मा के अनुसार यह अवसर संयोगवश सन 1955 में निकल आयाजब श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत होकर पहुंचीं और उन्होंने अपने पद का सत्यांकन पत्र सम्बद्ध अधिकारी को सौंपने की पेशकश करनी चाही ताकि वे अपना राजनयिक दायित्व विधिवत् आरम्भ कर सकें। लेकिन इसमें बाधा यह आ पड़ी कि रूसियों ने सत्यांकन पत्र की भाषा- अंग्रेज़ी- को लेकर ऐसी आपत्ति खड़ी कर दी जिसका तत्काल समाधान किये बिना श्रीमती पंडित की नियुक्ति सत्यापित नहीं हो सकती थी। वह शीतयुद्ध के चरमोत्कर्ष का काल था और दोनो गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने के मौक़े खोजते ही रहते थे। रूसियों ने चाहा कि सत्यांकनपत्र या तो भारत की राषट्रभाषा हिन्दी में होया सोवियत सघ की राष्ट्रभाषा रूसी मेंजो एक ऐसी माँग थीजिसका तर्कसंगत उत्तर यही हो सकता था कि सरकारी प्रलेखों के लिए अंग्रेज़ी के सर्वमान्य उपयोग वाली प्रचलित पद्धति अपनाए रखने की जगह वह कागज़ हिन्दी में तैयार किया जाए और जब तक यह नहीं हो जाताहमारी राजदूत बीच में अटकी रहें।
राधेश्यामजी ने बताया था कि उन दिनों का दफ़्तरी तनाव तब और बढ़ गया था- जब उक्त आलेख का हिन्दी अनुवाद शिक्षा मन्त्रालय के सहयोग से हिन्दीभाषी अधिकारियों द्वारा तैयार कराकैलिग्राफ़िस्ट अर्थात क़ातिब से सुन्दर अक्षरों मेंउम्दामोटे कागज़ पर लिखवामास्को भेजा गया – जो सत्यांकन पत्र की मानक विधि थी- किन्तु अधिकारी चकित रह गए;जब रूसी विद्वानों ने उस पाठ में भाषा तथा वर्तनी की अनेक गलतियों पर निशान लगाउसे वापस कर दियाजिसका सीधा असर यह तो हुआ ही कि हमारी राजदूत अपना काम-काज शुरू न कर पाईऊपर से यह खिसियाहट भी झेलनी पड़ी कि हमारी अपनी भाषा को हमारी अपेक्षा विदेशी विद्वान सीनियर बरान्निकोव- चेलिशेव आदि ज़्यादा अच्छी तरह जानते हैं।
सम्भवत: यही वह स्थिति रही होगीजब पंडित नेहरू ने हस्तक्षेप किया और डा0 बच्चन के पास संदेश गया कि वे दिल्ली आकर सरकार को इस भारी धर्मसंकट से उबारें। बच्चन जी ने बडी कुशलता से उस कार्य को सम्पन्न किया और इस सिलसिले में जो लम्बी-चौड़ी दफ़्तरी कारगुज़ारी हुईउसका नतीजा यह निकला कि भारत सरकार के विदेश मंत्रालय म्रें यह नीतिगत निर्णय लिया गया कि भविष्य में भारतीय राजदूतों के सत्यांकन पत्र हिन्दी में ही जारी किए जाएँगे। अत: तत्कालीन हिन्दी एकांश को कुछ बढाबाबूटाइपिस्टआशुलिपिक आदि अमला जोड हिन्दी सेक्शन’ गढ़ा गया और चिट्ठी-पत्री सम्बन्धी उसकी भाषायी ज़िम्मेवारियों में एक और काम- सत्यांकन पत्र की तैयारी ‘- भी शामिल हुआ। मुझे यह भी पता चला कि इकाई’ या एकांशजैसी निर्वैयिक्तकता से उसको मुक्त कर बच्चनजी ने उसे विभाग’ का स्वरूप देने पर बल दिया और सरकारी कागज़ों में वह कुछ भी रहा होउनके लिए वह इसी भाँति बनाभले ही सरकारी तौर पर उसे फुलाने-फैलानी की कला न उन्हें आती थी और न उन्हें वैसा करने में कोई दिलचस्पी थीजिसको विदेशियों ने पीटर’ और पार्किन्सन नियमों-सिद्धान्तों जैसे नामो से जोड़कर प्रतिष्ठा भले दी होपर जिसके मूल में हमेशा की तरह भावना सीधी -सी यह रही कि अफ़सर वही बड़ा माना जाएगा जिसकी गर्दन में मातहतों की छोटी-बड़ी भरपूर मालाएँ पड़ी हुई हों। आज यह कहते हुए मुझे विशेष गर्व होता है कि विदेश मन्त्रालय में काम करने के पूरे छ: वर्षों के दौरान एक बार भी मैंने बच्चनजी को इस आकांक्षा से ग्रस्त नहीं पाया और सौभाग्यवश मुझे भी ऐसा कोई दंश नहीं हुआ कि सरकारी सीढ़ियों के एक निचले पायदान पर मैं इतने सालों अटका पड़ा रहा। ज़रूर हीइसके पीछे गुरु और शिष्य की मानसिकता का एक स्तर पर तालमेल काम कर रहा होगा गोकि यहाँ  ठहरकर मैं जोड़ना चाहूँगा कि मुझमें और उनमें जो बहुत से फ़र्क थे- मसलन उनकी सुचारुता-व्यवस्थाप्रियता और मेरा ढीलाढालापन- उसे भी निकट से जानने का मुझे अवसर मिला जिसे बहुत शुरू से ही भांपकर वे मुझे दीर्घसूत्री‘ अर्थात विलम्ब से काम पूरा करने वाला कहने लगे थे। पर उस सबकी चर्चा फिर कभी करूंगाअभी वह सूत्र जोड़ता हूं जिसके बीच में छूट जाने का भय है।
विदेश मन्त्रालय में हिन्दी के विशेषाधिकारी की भांति बच्चन जी की नियुक्ति का तात्कालिक संदर्भ- शर्मा जी के अनुसार- यही था। 1956 के आरंभिक महीनों मेजब मैं हिन्दी अनुवादक बनकर दिल्ली पहुँचा और हिन्दी विभाग में सहायक की भाँति कार्यरत शर्मा जी से मित्रता हुई तो एक रोज़ किसी लेटर आफ़ क्रीडेंस’ में स्पेलिंग की गल्तियो पर पेंसिल से निशान लगाते समय मुझे खीझते देख उन्होंने यह कथा सुनाई थी। मेरी शिकायत मुख्यत: यह थी कि पहली बार मार्क की हुई गलतियाँ ठीक करना तो दूरक़ातिब ने कितनी ही नयी गलतियाँ कर दी हैंजिन्हें ठीक करने का मतलब होगा- महँगे- उम्दा- मोटे कागज़ की और भी ज़्यादा बर्बादी। इसपर जहाँ  उन्होंने समझाया था कि सरकारी काम-काज में ऐसे अपव्यय तो होते ही रहते हैं और कि सुलेख के धनी ये लोग आमतौर से होते हैं अनपढ़ हीवहीं लगे हाथों पूरी पृष्ठभूमि भी मुझे बताना उन्होंने ज़रूरी माना था। 
छह वर्षजो मैंने वहाँ  बिताए- तनिक से काम और ढेर से आराम के वर्ष थे । मुख्य दायित्व वहाँ  सत्यांकनपत्रों के अलावा संसद के प्रश्नों का हुआ करता था- यानी उन प्रश्नों का जो हिन्दी में पूछे जाते थे और जिनका उत्तर भी हिन्दी में ही दिये जाने का प्रावधान था। आज की बात तो मैं नहीं जानता पर उन दिनों इससे जुडी समूची प्रक्रिया मुझे हास्यास्पद मालूम होती थी । आज़ादी के उन शुरुआती सालों में संसद मे वैसे तो काफ़ी कारवाई होती थी पर उसका अधिकतर माध्यम अंग्रेज़ी रहती थी। हिन्दी में कोई इक्का-दुक्का ही सवाल पूछा जाता था और विदेश मन्त्रालय से जुडा प्राय: एक ही सवाल गाहे-बगाहे कोई हिन्दीभाषी उठा देता था कि हमारे कितने दूतावासों का काम हिन्दी में होता है।
इसे निबटाने का बहुत रोचक ढंग बनाया गया था। पहले हम हिन्दी विभाग में उस प्रश्न का अनुवाद अंग्रेज़ी में कर प्रशासन के पास भेजतेजो उसका उत्तर अंग्रेज़ी में लिख हमारे पास लौटाता, ताकि हम फिर उसका अनुवाद करअपने प्रशासन के माध्यम से संसद को सुलभ करा सकें। मुझे हैरानी होती थी कि जब सीधा सा जबाब यह हुआ करता था कि सूचना एकत्र की जा रही है और सुलभ होते ही सदन की मेज़ पर रख दी जाएगी’ तो इसके वास्ते हर बार नाक हाथ घुमाकर क्यों पकड़ी जाती है पर यह दफ़्तरी मामला था जिसमें नाक घुसा दखल देने की गुंजाइश नहीं थी इसलिए ऐसे मौक़ों पर हमारे विभाग के सभी सदस्य- ओएसडी (आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी) से लेकर एलडीसी(लोयर डिविज़न क्लर्क) और चपरासी तक मिलकर चींटी को मशीनगन से मारने में मशगूल हो जाते थे; क्योंकि दफ़्तरी मामलो में हमारे सलाहकार राधेश्याम जी ने बताया था कि संसदीय प्रश्न को निबटाना प्रथम सरकारी वरीयता है और इस टाप प्रायोरिटी‘ से छुट्टी पाकर ही किसी दूसरे काम में हाथ लगाया जा सकता है।
इस निर्देश का पालन करने का मतलब हमारे लिए आम तौर से यह होता था कि संसद का सत्र होने पर ही हम कभी-कभी थोड़ी देर के लिए तनिक- सा व्यस्त होते थेबाकी समय किसी हिन्दी में आए पत्र /आवेदनपत्र का अनुवाद करना होतो करतेअन्यथा चाय पीतेअखबार पढ़ते और आपस में या फ़ोन पर गपशप करते थे। हमारे एक मात्र अधिकारी बच्चनजी का अपना स्वतंत्र कमरा थाजहाँ  हम चपरासी के जरिए कागज़ हस्ताक्षर के लिए भेज देते या कोई फ़ौरीज़रूरी काम निपटाना होता तो अनुवाद विषयक फाइल लेकर मैं और दफ़्तरी कारवाई संबन्धी फाइल के साथ शर्मा जी बच्चनजी के पास दस्तखत कराने जाते थे। शुरू-शुरू में तो हमारा दफ़्तर सेक्रेटेरियट के साउथ ब्लाक में थाजहाँ  स्वयं नेहरू जी प्रधान मंत्री की हैसियत से और विदेश मंत्रालय के अन्य वरिष्ठ अधिकारी बैठते थे। उस समय का एक रोचक प्रसंग आज तक मुझे गुदगुदाता है।
हुआ यों कि जब मैं डी ए वी कालेजकानपुर से बिदा हो दिल्ली पहुँचा तो पता नहीं कैसे मेरे छोटे से कस्बे उन्नाव में मुझे जाननेवाले कई लोगों को खामखयाली सी हो गयी कि राजधानी में प्रधान मंत्री नेहरू के बाद बच्चनजी का दर्जा है और उनके बाद अजित का। इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब दो-चार महीने काम करने के बाद कुछ रोज की छुट्टी ले मैं घर पहुंचा । एक बालबंधु ने मिलते ही पूछा –‘पंडित जी से तो रोज ही मुलाकात होती होगीजिसका उत्तर सादा सा मुझे यही देना पड़ा कि नहीं भाईएकाधबार संयोगवश उन्हें आते-जाते देखा भर है।‘ फिर मैं उन्हे काफ़ी देर तक सरकारी तंत्र के बारे में बताता रहा कि चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक फैली जंजीर में कितनी ज़्यादा कड़ियाँ होती हैं और कि उनके बीच मुझ नान-गज़ेटेड और गुरुवर जैसे अंडर सेक्रेटरी अधिकारी की भूमिका दाल में जीरे के एक दाने से भी कितनी कम है- जिसे तो वे मित्र पता नहीं कितना समझे… पर जब मैंने भारत सरकार के हाहाहूती कार्यालयों- साउथ- नार्थ ब्लाकोंससद भवन,राष्ट्रपति भवनराजपथकनाटप्लेस आदि के बारे में बताना शुरू किया तो दिखा कि उनकी आँखेंनाक-कान सब खुले के खुले रह गए हैं।
जैसा मैंने बताया- शुरू में हिन्दी विभाग साउथ ब्लाक में था जहाँ  मेरा साक्षात्कार बच्चनजी के अलावा विदेश मन्त्रालय में तब संयुक्त सचिव श्री टी एन कौल ने लिया था जो एक समय उन्नाव में ज़िलाधीश भी रह चुके थे और उनकी विशेष याद मुझे इस नाते भी थी कि स्कूल में उनके हाथों मुझे जीवन का पहला पुरस्कार मिला था और विश्वयुद्ध के दौरान उनकी पहल पर उन्नाव में आयोजित संगीत सम्मेलन में पहली बार मैंने उस्ताद फ़ैयाज़ खाँनारायणराव व्यासओंकारनाथ ठाकुर जैसे महान गायकों को सुन जीवन की धन्यता महसूस की थी । यह तो खैर बहुत बाद में जाना कि इस तरह के जलसों का असली मक़सद लडाई के लिए धन इकट्ठा करना होता था लेकिन ‘ दूर खेलन मत जावहमारे मन ‘ और पलँगा ना चढौगी ‘ आदि की गूँज आज साठ- पैसठ साल बाद भी मुझे मगन करती रहती है।… साक्षात्कार के दौरान तो इस सबकी चर्चा का अवसर था नहीं और बाद में भी कभी कौल साहब से मुलाकात या बातचीत नहीं हो पाई; लेकिन उनके अनजाने मैं आज भी उनके साथ अपने मन का गहरा जुड़ाव यदि महसूस करता हूं तो शायद इसलिए कि एक तो उनके नाते बचपन में गहरा सुख मिला थादूसरे- सन 1956 से लेकर आज सन 2008 तक मेरी जीवन की जो भी गतिविधिआशानिराशा-हताशा रही हैउसमें अप्रत्यक्ष रूप से सही कुछ न कुछ भूमिका उनकी भी थी। कालान्तर में मैंने यह भी जाना कि जहाँ  मैने जीवन में लगातार पिछड़ते जाने का रास्ता अपने लिए चुनावहाँ अन्य बहुतेरे आईसीएस अधिकारियों की भाँति श्री कौल अपने कैरियर में ऊची-दर-ऊँची सीढ़ी चढ़ते गए थे।
बहरहालहिन्दी विभाग के काम की चर्चा के सिलसिले में यह बताना फिर ज़रूरी है कि दफ़्तरी तत्परता और संलग्नता के बावजूद बच्चनजी की रुचि अपना अमला बढ़ाने में न थी और इसके लिए ज़रूरी दफ़्तरी हथकंडे भी उन्हें मालूम न थे ,इसलिए उनके कार्यकाल में तो उनके समेत कुल सात जने ही वहाँ  रहे लेकिन बाद में अन्य अधिकारी उसे दोगुना दस गुना बढ़ाने में समर्थ हुए। आज के काम काज की स्थिति तो मैं नहीं जानताएक बार वह कार्यालय छोड़ने के बाद दोबारा उसमें जाने का मन नहीं हुआ।


लेखक परिचय: जन्म- 9 जून 1933, लखनऊ (उत्तर प्रदेश), विधाएँ- उपन्यास- छुट्टियाँकहानी- छाता और चारपाईआलोचना- इधर की हिन्दी कविता- कविता का जीवित संसारसंस्मरण- दूर वन मेंसफरी झोले मेंनिकट मन मेंयहाँ से कहीं भीअँधेरे में जुगनूजिनके संग जियासंपादन- अकेले कंठ की पुकारबच्चन निकट सेआचार्य रामचंद्र शुक्ल विचार कोशहिन्दी  की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ (दो खंड)आठवें दशक की श्रेष्ठ प्रतिनिधि कविताएँबच्चन रचनावली (नौ खंड)सुमित्राकुमारी सिन्हा रचनावलीबच्चन की आत्मकथाबच्चन के चुने हुए पत्रकीर्ति चौधरी की कविताएँकीर्ति चौधरी की कहानियाँकीर्ति चौधरी की समग्र कविताएँनागपूजा और ओंकारनाथ श्रीवास्तव की अन्य कहानियाँबच्चन के साथ क्षण भरदुनिया रंग बिरंगीओंकारनाथ के बीबीसी प्रसारण का संचयन। सम्पर्क: 166, वैशालीपीतमपुरादिल्ली- 110034, 011 - 2731 4369, 09811225605,  Email- ajkumar1933@yahoo.co.in

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