भगवान भोले नाथ का गुस्सा, प्रतीक रूप में मौत के तांडव नृत्य में फूटता है। देवभूमि उत्तराखंड में शिव के इस तांडव नृत्य का सिलसिला केदारनाथ में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के बाद अभी भी जारी है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की खीर गंगा नदी और धराली में बादल फटने और हर्शिल के तेल गाड़ नाले में बाढ़ आने से बड़ी तबाही हुई है। इन प्राकृतिक आपदाओं को हमें इसी गुस्से के प्रतीक रूप में देखने की जरूरत है। धराली में तो 50 से ज्यादा घर, 30 होटल और 30 होमस्टे मलबे में बदल गए। जो खीर नदी 10 मी. चौड़ी थी, वह जल प्रवाह से 39 मी. चौड़ी हो गई। अतएव जो भी सामने पड़ा उसे लीलती चली गई। प्रशासन चार लोगों की मौत और 100 से अधिक लोगों के लापता होना बता रहा है। लेकिन हिमालय के बीचों- बीच बसा खूबसूरत धराली गाँव में सैलाब नीचे उतरते हुए दिखा, उससे लगता है, मौतें कहीं अधिक हुई हैं। प्रलय इतनी तीव्रता से आया की उसकी कान के पर्दे फाड़ देने वाली गर्जना सुनने के बाद लोगों को बचने का समय ही नहीं मिल पाया। अब धराली मलबे में दफन हैं।
इस भूक्षेत्र के गर्भ में समाई प्राकृतिक संपदा के दोहन से उत्तराखंड विकास की अग्रिम पांत में आ खड़ा हुआ था, वह विकास भीतर से कितना खोखला था, यह इस क्षेत्र में निरंतर आ रही इस आपदाओं से पता चलता है। बारिश, बाढ़, भूस्खलन, बर्फ की चट्टानों का टूटना और बादलों का फटना, अनायास या संयोग नहीं है; बल्कि विकास के बहाने पर्यावरण विनाश की जो पृष्ठभूमि रची गई, उसका परिणाम है। तबाही के इस कहर से यह भी साफ हो गया है कि आजादी के 78 साल बाद भी हमारा न तो प्राकृतिक आपदा प्रबंधन प्राधिकरण आपदा से निपटने में सक्षम है और न ही मौसम विभाग आपदा की सटीक भविष्यवाणी करने में समर्थ हो पाया है। यह विभाग केरल और बंगाल की खाड़ी के मौसम का अनुमान लगाने का दावा तो करता है; किंतु भारत के सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र हिमालय में बादल फटने की भी सटीक जानकारी नहीं दे पाता है। धराली क्षेत्र में एक साथ दो जगह बादल फटे और कुछ मिनटों में हुई तेज बारिश ने श्रीखंड पर्वत से निकली खीरगंगा नदी को प्रलय में बदलकर 90 प्रतिशत गांव को हिमालय के गर्भ में समा दिया।
बादल फटना अनायास जरूर है; लेकिन ये करीब 10 किमी व्यास की परिधि में फटने के बाद अतिवृष्टि का कारण बनते हैं। 10 सेंटीमीटर या उससे अधिक बारिश को बादल फटने की घटना के रूप में परिभाषित किया जाता है। बादल फटने की घटना के दौरान किसी एक स्थान पर एक घंटे के भीतर, उस क्षेत्र में होने वाली औसत, वार्षिक वर्षा की 10 प्रतिशत से अधिक बारिश हो जाती है। मौसम विभाग वर्षा का पूर्वानुमान कई दिन या माह पहले लगा लेते हैं; लेकिन मौसम विज्ञानी बादल फटने जैसी बारिश का अनुमान नहीं लगा पाते। इस कारण बादल फटने की घटनाओं की भविष्यवाणी भी नहीं करते हैं।समृद्धि, उन्नति और वैज्ञानिक उपलब्धियों का चरम छू लेने के बावजूद प्रकृति का प्रकोप धरा के किस हिस्से के गर्भ से फूट पड़ेगा या आसमान से टूट पड़ेगा, यह जानने में हम बौने ही हैं। भूकंप की तो भनक भी नहीं लगती। जाहिर है, इसे रोकने का एक ही उपाय है कि विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी न करें; लेकिन विडंबना है कि घरेलू विकास दर को बढ़ावा देने के मद्देनजर अधोसंरचना विकास के बहाने देशी-विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया जा रहा है। पर्यावरण संबंधी स्वीकृतियों को राज्य सरकारें अब अनदेखा करने लगी हैं। इससे साबित होता है कि अंततः हमारी वर्तमान अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार अटूट प्राकृतिक संपदा और खेती ही हैं; लेकिन उत्तराखंड हो या प्राकृतिक संपदा से भरपूर अन्य प्रदेश, उद्योगपतियों की लॉबी जीडीपी और विकास दर के नाम पर पर्यावरण संबंधी कठोर नीतियों को लचीला बनाकर अपने हित साधने में लगी हैं। विकास का लॉलीपॉप प्रकृति से खिलवाड़ का करण बना हुआ है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आई इन तबाहियों का आकलन इसी परिप्रेक्ष्य में करने की जरूरत है।
उत्तराखंड, उ. प्र. से विभाजित होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया था। 13 जिलों में बँटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 11 लाख है। 80 फीसदी साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किलोमीटर में फैला है। उत्तराखंड में भागीरथी, अलकनंदा, गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नदियों का उद्गम स्थल है। इन नदियों के उद्गम स्थलों और किनारों पर पुराणों में दर्ज अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक स्थल हैं। इसलिए इसे धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। यहाँ के वनाच्छादित पहाड़ अनूठी जैव- विविधता के पर्याय हैं। तय है, उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं का खजाना है। इसी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई है, जिसकी वजह से प्रलय जैसे प्रकोप बार-बार इस देवभूमि में बर्बादी की आपदा बरसा रहे हैं।
उत्तराखंड की तबाही की इबारत टिहरी में गंगा नदी पर बने बड़े बांध के निर्माण के साथ ही लिख दी गई थी। नतीजतन बड़ी संख्या में लोगों का पुश्तैनी ग्राम-कस्बों से विस्थापन तो हुआ ही, लाखों हेक्टेयर जंगल भी तबाह हो गए। बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थितिक तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सड़कों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। अब यही काम रेल पथ के लिए सुरंगें बनाने में सामने आ रहा है। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नदियों और हिमालयी झीलों में ढहा दिया जाता है। नतीजतन नदियों के तल मलबे से भर गए हैं। दुष्परिणाम स्वरूप इनकी जल ग्रहण क्षमता नष्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। अतएव जब भी तेज बारिश आती है, तो तुरंत बाढ़ में बदलकर विनाश लीला में तब्दील हो जाती है। बादल फटने के तो केदारनाथ और अब धराली जैसे परिणाम निकलते है। उत्तरकाशी, जोशीमठ में तो निरंतर बाढ़ और भू-स्खलन देखने में आ रहे हैं, इस क्षेत्र के सैकड़ों मकानों में भूमि धसकने से बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं। भू-स्खलन के अलावा इन दरारों की वजह कालिंदी और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन जल विद्युत और रेल परियोजनाएँ भी रही हैं।उत्तराखंड जब स्वतंत्र राज्य नहीं बना था, तब इस देवभूमि क्षेत्र में पेड़ काटने पर प्रतिबंध था। नदियों के तटों पर होटल नहीं बनाए जा सकते थे। यहाँ तक कि निजी आवास बनाने पर भी रोक थी; लेकिन उत्तर प्रदेश से अलग होने के साथ ही, केंद्र से बेहिसाब धनराशि मिलना शुरू हो गई। इसे ठिकाने लगाने के नजरिए स्वयं- भू ठेकेदार आगे आ गए। उन्होंने नेताओं और नौकरशाहों का एक मजबूत गठजोड़ गढ़ लिया और नए राज्य के रहनुमाओं ने देवभूमि के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की खुली छूट दे दी। दवा (फार्मा) कंपनियाँ औषधीय पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों के दोहन में लग गई हैं। भागीरथी, खीरगंगा और अलकनंदा के तटों पर बहुमंजिला होटल और आवासीय इमारतों की कतार लग गई। पिछले 25 साल में राज्य सरकार का विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं है। जबकि इस राज्य का निर्माण का मुख्य लक्ष्य था कि पहाड़ से पलायन रुके। रोजगार की तलाश में युवाओं को महानगरों की और ताकना न पड़े; लेकिन 2011 में हुई जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके अनुसार पौढ़ी- गढ़वाल और अल्मोड़ा जिलों की तो आबादी ही घट गई है। तय है, क्षेत्र में पलायन और पिछड़ापन बढ़ा है। विकास की पहुँच धार्मिक स्थलों पर ही सीमित रही है; क्योंकि इस विकास का मकसद महज श्रद्धालुओं की आस्था का आर्थिक दोहन रहा था। यही वजह रही कि उत्तराखंड के 5 हजार गाँवों तक पहुँचने के लिए सड़कें नहीं हैं। खेती आज भी वर्षा पर निर्भर है। उत्पादन बाजार तक पहुँचाने के लिए परिवहन सुविधाएँ नदारद हैं। तिस पर भी छोटी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ कहर ढाती रहती हैं। इस प्रकोप ने तो तथाकथित आधुनिक विकास को मिट्टी में मिलाकर जल के प्रवाह में बहा दिया। ऐसी आपदाओं की असली चुनौती इनके गुजर जाने के बाद खड़ी होती है, जो अब जिस भयावह रूप में देखने में आ रही है, उसे संवेदनशील आँखों से देखा जाना भी मुश्किल है।
प्रकृति से खिलवाड़ की चेतावनी
भारतीय दर्शन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास हिमालय और उसकी नदी-घाटियों से माना जाता है। ऋषि-कश्यप और उनकी दिति-अदिति नाम की पत्नियों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और सभ्यता के क्रम की शुरूआत हुई। एक बड़ी आबादी को शुद्ध और पौष्टिक पानी देने के लिए भागीरथी गंगा को नीचे उतार लाए। यह विकास धीमा था और विकास को आगे बढ़ाने के लिए हिमालय में कोई हलचल नहीं की गई थी; लेकिन आज विकास के बहाने भोग की जल्दबाजी में समूचे हिमालय को दरकाने का सिलसिला अत्यंत तेज गति से चल रहा है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी में धराली समेत तीन स्थानों पर आई प्राकृतिक आपदाओं ने सत्ताधारियों को चेतावनी दी है कि प्रकृति से खिलवाड़ कतई उचित नहीं है। यदि खिलवाड़ जारी रहा, तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। धराली और हर्शिल में फूटे प्रलय के प्रकोप ने जो दृश्य दिखाए हैं, वे भयावह हैं। एक बार फिर सबसे पवित्र चार धाम यात्रा से जुड़े इस मार्ग पर केदारनाथ आपदा की कहानी प्रकृति ने दोहराई है। केदारनाथ की तरह यहाँ भी देशभर से यात्रा में आए अनेक श्रद्धालुओं को इस त्रासदी ने लील लिया है। दरअसल वर्तमान में समूचा हिमालयी क्षेत्र आधुनिक विकास और जलवायु परिवर्तन के खतरों से दो-चार हो रहा है। मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले उपग्रह चाहे जितने आधुनिक तकनीक से जुड़े हों, वे अनियमित हो चुके मौसम के चलते बादलों के फटने, हिम खंडों के टूटने और भारी बारिश होने की क्षेत्रवार जानकारी देने में असमर्थ ही रहे हैं। इसीलिए 2013 में केदारनाथ प्रलय, 2014 में दुनिया का स्वर्ग माने जाने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य की नदियों की बाढ़ से नरक में बदल जाने के संकेत नहीं मिल पाए थे। वर्षा की तीव्रता ऐसी मुसीबत बनी थी कि देखते-देखते स्वर्ग की धरती पर इठलाती- बलखाती नदियाँ- झेलम, चिनाब और तवी ने अपनी प्रकृति बदलकर रौद्र रूप धारण कर लिया था। राज्य का जर्रा- जर्रा विनाश की कुरूपता में तब्दील हो गया था। अलगाववाद का प्रपंच अलापने में लगी राज्य सरकार का तंत्र पंगु हो गया था। तब सेना की मदद से इस भीषण त्रासदी से पार पाना संभव हो पाया था। इसी तरह 2021 में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के निकट हिमखंड के टूटने से तबाही मची थी। इससे धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आई और तपोवन विष्णुगाड पनबिजली परियोजना में काम कर रहे अनेक मजदूर काल के गाल में समा गए थे। हिमाचल प्रदेश में भी भू-स्खलन, बादल फटने और भारी बारिश से तबाही देखने में आ रही है; लेकिन मौसम तकनीक सटीक जानकारी नहीं दे पा रही है।
मौसम विज्ञानी जता रहे हैं कि मानसून में लंबी बाधा के चलते देश के कई हिस्सों में सूखे के हालात निर्मित हो गए हैं और हिमाचल व उत्तराखंड में भीषण बारिश ने तबाही का तांडव रच दिया है। मानसून में रुकावट आ जाने से बादल पहाड़ों पर इकट्ठे हो जाते हैं और यही मूसलाधार बारिश के कारण बनते हैं। यह तबाही इसी का परिणाम है। तबाही के कारण मानसून पर डालकर जवाबदेही से नहीं बच सकते। केदारनाथ में बिना मानसून के रुकावट के ही तबाही आ गई थी। अतएव यह कहना बेमानी है कि मानसून की रुकावट तबाही में बदली ? हकीकत में तबाही के असली कारण समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएँ जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की जो बाढ़ आई हुई है, वह है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखरों पर स्थित पहाड़ दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपनी ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहाँ रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते चले आ रहे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएँ की हैं। इस सूक्त में राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुम्बकं की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने के लिए मनुष्य को नीति और धर्म से बांधने की कोशिश की हैं। लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया।आपदा प्रभावित धराली और हर्षिल क्षेत्र में बहने वाली भागीरथी नदी पर बनी 1300 मीटर लंबी और 80 मी. चौड़ी झील से पानी का रिसाव हो रहा है, इसे पोकलैंड मशीनों से तोड़ने की तैयारी है, जिसे रिसाव की थोड़ा प्रवाह बढ़ जाए और झील का जलस्तर घट जाए। यदि इस झील के बीच कोई बड़ा बोल्डर है, तो इसे नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। पहाड़ों में अतिवृष्टि के चलते इस नदी पर यह झील अस्तित्व में आ गई है। हिमालय में झील, तालाब और हिमनदों का बनना एक आश्चर्यजनक; किंतु स्वाभाविक प्रक्रिया है। चूँकि यह झील हर्षिल और धराली के लिए संकट बन गई है, इसे तोड़ा जाना जरूरी हो गया है। यदि यह प्राकृतिक प्रकोप के चलते टूटती है, तो धराली एवं हर्षिल को ओर खतरा बढ़ जाएगा। देहरादून सिंचाई विभाग के प्रमुख इंजीनियर सुभाष पांडे के नेतृत्व में अभियंताओं का एक 12 सदस्यीय दल हेलिकॉप्टर से झील के निरीक्षण में लगा है। झील के प्रवाह में यदि कोई चट्टान बाधा है, तो उसे रिमोट से नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। इस विधि से वही हिस्सा टूटता है, जितना तोड़ना जरूरी होता है।
हालाँकि अभी तक यह निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका है कि इस जल प्रलय का वास्तविक कारण क्या है ? भू-विज्ञानी असमंजस में हैं। सच्चाई जानने के लिए वे अब रिमोट सेंसिग डाटा एवं सेटेलाइट डाटा की प्रतीक्षा में है। इससे स्थिति स्पष्ट होगी की खीर गंगा नदी में आया सैलाब बादल फटने, हिमनद टूटने, भू-स्खलन से आया या फिर किसी अन्य कारण से आया। इस सिलसिले में सीबीआरआई रुड़की के मुख्य भू-विज्ञानी डॉ. डीपी कानूनगो का कहना है कि नदी में अचानक इतना सैलाब किस कारण से आया, यह कहना फिलहाल संभव नहीं है। भू-विज्ञानी प्राध्यापक एसपी प्रधान इस आपदा को प्राकृतिक और मानव- निर्मित दोनों ही कारण मान रहे हैं। इन विरोधाभासी अनुमानों से साफ है कि आई आपदा के बारे में कारण संबंधी दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है। दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर विकास करना आवश्यक होना चाहिए; लेकिन कथित विकास की चकाचौंध में राज्य सरकारें कोई संतुलित नीति बना भी लेती हैं, तो उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरतती हैं। यही वजह है पूरे हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की परियोजनाएँ हिमालय की आंतरिक सुगठित संरचना को नष्ट कर रही हैं।
इस आपदा ने यह जरूर जता दिया है कि उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों के खतरे बढ़ रहे है। राज्य में करीब 1266 ऐसी झीलें हैं। नेशलन डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 हिमनदों को खतरनाक श्रेणी के रूप में चिह्नित किया है। इनमें से पाँच को उच्च संकट की श्रेणी में रखा है। हालाँकि यह मुद्दा कोई नया नहीं है। 2013 में केदारनाथ जल प्रलय के बाद यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण हो गया था; क्योंकि चौड़ाबाड़ी ग्लेशियर झील के फटने से केदारनाथ में भीषण तबाही आई थी। इसके बाद से ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हिमनदों की निगरानी और इनसे बचाव के लिए अध्ययन करने की दिशा में पहल की गई थी; लेकिन अध्ययन के क्या निष्कर्ष निकलें और उनके अनुरूप समस्या से निपटने के क्या उपाय किए गए इस दिशा में कोई पारदर्शी जानकारी नहीं है। चमौली में वसुधारा ताल और पिथौरागढ़ की झीलों के अध्ययन की भी तैयारी की जा रही है; लेकिन इन अध्ययनों के कोई कारगर परिणाम निकलेंगे यह कहना मुश्किल है।
उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहाँ निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएँ निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुँचाया है। टिहरी पर बँधे बाँध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियाँ और झीलें भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी। ■
सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100
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