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Sep 1, 2025

कहानीः कैक्टस के फूल

  -  डॉ. दीक्षा चौबे

रश्मि अपनी बालकनी में खड़ी आसमान के बदलते रंगों को निहार रही थी । सूरज दिन भर का थका हारा शनैः - शनैः क्षितिज की ओर बढ़ रहा था । किरणों की प्रखरता मंद पड़ गई थी और अपनी लालिमा से विविध प्रकार की कलाकृतियाँ सिरजती जा रहीं थीं । उसका लाल-नारंगी रंग आसमानी साड़ी के चौड़े बार्डर की तरह खूबसूरत दिखाई दे रहा था । यह सूरज सिर्फ अनंत ऊर्जा का ही नहीं संसार के लिए प्रेरणा का भी अक्षय-पुंज है । एक सजग कर्मठ कर्मचारी की तरह नित्य अपने समय पर उगना और नित्य ही अपना अवसान देखना , अँधेरों से रोज लड़ना और अपने अस्तित्व को सार्थक सिद्ध करना क्या कोई आसान बात है। हम मनुष्य तो जीवन का एक अवसान सहन नहीं कर पाते, मुश्किल घड़ी आई नहीं कि उससे घबरा कर हार मान लेते हैं । रश्मि की नजरें आसमानी रंगोली से हटकर अपनी बालकनी की शोभा बढ़ाने वाली छोटी-सी बगिया पर टिक गईं थीं ।

       रश्मि सोच में डूब गई थी ..राजीव जब भी बालकनी में आते हैं एक बार जरूर मुझे जरूर टोकते हैं - "ये क्या कैक्टस लगा रखे हैं तुमने...सिर्फ काँटे ही काँटे... इन्हें फेंकती क्यों नहीं हो । घर शिफ्ट करते वक्त ही कहा था मैंने,  इन्हें वहीं छोड़ दो; पर नहीं, तुम तो किसी की बात मानती नहीं  ..ले ही आई । ऐसे भी इस घर में कितनी कम जगह है, उस पर तुम्हारे ये कैक्टस।"  

   अरे ! कितने अच्छे तो लगते हैं ये, फिर इन्हें पानी खाद या किसी विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती । मरुस्थल में पड़े उपेक्षित रहने वाले ये कैक्टस कितने जीवट होते हैं। मेरे जैसे लापरवाह माली के लिए यही ठीक हैं । जैसे जीवन में सुख तभी महत्त्वपूर्ण होते हैं जब दुःख का एहसास कर लिया जाये वैसे ही फूलों के साथ काँटों को भी रखना चाहिए। "सब दिन होत न एक समान" हमें जीवन के हर पहलू के लिए तैयार रहना चाहिए । जीवन की विषमताओं को सहन कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं ये कैक्टस और जनाब ! जब इन कंटीले कैक्टस के फूल देखोगे न तुम ..तो दाँतों तले उँगलियाँ दबा लोगे। इतने खूबसूरत होते हैं ये ..अपनी हथेलियों को अपने सिर के ऊपर तक फैलाते हुए रश्मि ने कहा तो राजीव हँस पड़ा । "तुम और तुम्हारी ग्रेट फिलॉसफी" ..मैंने तो देखे नहीं कभी तुम्हारे इन कैक्टस को खिलते हुए । मुझसे तो दूर ही रखो इन्हें , डर लगता है मुझे इनके काँटों से  ..राजीव ने मुँह बनाते हुए कहा तो उसकी अदा पर रश्मि भी हँस पड़ी । राजीव और रश्मि की शादी को  लगभग आठ वर्ष होने को आए हैं ।  रश्मि को राजीव ने पहली बार अपने भैया की शादी में देखा था ।  दिखने में आकर्षक तो वह थी ही, बातचीत में भी कुशल थी । भाभी की चचेरी बहन होने के कारण और भी कई कार्यक्रमों में उससे मुलाकात हुई । परिवार भी ठीक था इसलिए राजीव की  चाहत जाहिर करते ही दोनों परिवार के बड़ों को रिश्ता मंजूर हो गया और दोनों का विवाह हो गया ।

      रश्मि राजीव के बीच बहुत अच्छा सामंजस्य है । बहुत ही सुघड़ता से रश्मि ने अपनी गृहस्थी को सजा रखा है; पर कहते हैं न कि हर किसी के जीवन में कोई न कोई कमी जरूर होती है । उनके आँगन में किसी फूल का न खिलना उन्हें कभी - कभी बहुत दुखी कर देता है । पर वे दोनों इस कारण को अपने बीच की दीवार नहीं बनाते बल्कि यह उन्हें एक- दूसरे के अधिक करीब लाता है । वे दोनों अन्य बातों में खुशी ढूँढने का प्रयास करते हैं और खुश व व्यस्त रहते हैं । शादी के तीन- चार वर्ष घर पर रहने के बाद इसी वजह से राजीव ने जिद करके उसे पास के ही  एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका के रूप में  ज्वाइन करवा दिया, ताकि वह हमेशा व्यस्त रहे और अपनी उच्च शिक्षा का सदुपयोग भी कर सके ।

    सास - ससुर व अन्य रिश्तेदारों के साथ भी उसके मधुर सम्बन्ध हैं । हर त्योहार वे परिवार के साथ ही गाँव जाकर मनाते हैं और फिर अपनी नौकरी में वापस आ जाते हैं । गाँव में भी वह कोई न कोई सृजनात्मक कार्य करती रहती है, तो बोर नहीं होती पर कुछ दिन वहाँ रहकर आने के बाद उसे बहुत  सूनापन महसूस होता है; क्योंकि वहाँ शायद सबके पूछने पर कि कुछ खुशखबरी है तो नहीं , तुम लोग बच्चे का मुख कब दिखाओगे, कोई कमी है क्या, कुछ इलाज क्यों नहीं कराते तुम लोग, ध्यान दो अब समय निकलने लगा है... जैसे कई सुझाव और सवाल उसके मन को छलनी कर देते हैं । जीवन की जिस कमी के बारे में वे सोचते भी नहीं, घर जाने पर नाते - रिश्तेदार  सभी उसके बारे में ही बात करते हैं ।  इस मामले में  उसके शहर  के लोग अच्छे हैं, जिन्हें किसी के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं है । भले  ही यह आदत उन्हें असामाजिक बना देती है, लोग अपने  पड़ोसी  को भी नहीं पहचानते । जितना बड़ा शहर उनके दायरे भी उतने ही सीमित, गाँवों में तो लोगों को हर घर के एक - एक सदस्य की जानकारी रहती है; इसलिए हर छोटी बात पर फुसफुसाहट शुरू हो जाती है ।

   रश्मि शाम को स्कूल  से आकर थोड़ा आराम कर बालकनी में आ जाती है । उसने जो छोटी सी बगिया लगाई है , उसकी साज - सँवार करती है । उसके घर के पास ही एक बड़ा- सा मैदान है जिसमें बच्चे खेलते रहते हैं, वह अपना काम करके उन्हें देखती रहती है । उत्साह से भरे मासूम चेहरे ...कभी लड़ते झगड़ते तो कभी हँसते-  मुस्कुराते । क्रिकेट खेलते हुए कई बार उनकी गेंद उसकी बालकनी में आ जाती है तो उनकी प्यार भरी मनुहार रश्मि को स्नेहसिक्त कर देती है । "आंटी बॉल दीजिए न  " जब तक दो - चार मनुहारें नहीं आ जाती  वह चुपचाप अपने काम में लगी रहती है फिर मुस्कुरा कर धीरे से बॉल फेंक देती है । जब वे खुश होकर "थैंक्यू आंटी" कहते हैं, वह पुलकित हो उठती है किसी बच्चे की तरह मानो वह भी उनके खेल का हिस्सा हो । 

    वह पल उसे बचपन की स्मृतियों में ले जाता है और याद आता है पीहर का आँगन । कितनी खिलंदड़ी थी वह भी । शाम को स्कूल से आने के बाद खेलने के लिए बाहर निकलती थी तो वापस जाने का नाम ही नहीं लेती । मम्मी ही आकर डाँट- डपटकर घर ले जाती । दीदी का स्वभाव उससे बिल्कुल अलग था, वह तो घर से बाहर निकलना ही पसन्द नहीं करती । दिन भर घर में ही घुसी रहती। दीदी को पढ़ाई, घर के कामों में दिलचस्पी थी। रश्मि को घर का कोई काम करना न आता, उसको बाहर घूमना, खेलना-कूदना, दोस्तों के साथ मस्ती करना ही भाता था। माँ बड़बड़ाते रहती - दो बच्चे दोनों दो विपरीत दिशा में भागती हैं, मैं किसके पीछे भागूँ।

    वक्त कैसा भी हो रुकता नहीं है । साल दर साल बीतते गए । अब तो सभी सलाह देने लगे थे कि एक बच्चा गोद ले लो । कितने ही बच्चे अनाथालय में पलते एक घर की आस पाले रहते हैं, उन्हें घर-परिवार मिल जाएगा ।  उसने राजीव से भी यह बात कही पर वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे । बच्चा गोद लेकर उसका पालन - पोषण  कर वे अपनी जिंदगी सार्थक बना  सकते  हैं पर क्या जीने की सिर्फ यही राह है? 

    राजीव संजीवनी फाउंडेशन से जुड़ा हुआ था । एक बार उनके इवेंट में  रश्मि भी गई थी वृद्धाश्रम । वहाँ वे लगभग तीन घण्टे रहे, बुजुर्गों के साथ बातें की, उनके साथ  कुछ वक्त बिताकर उन्हें अकेलेपन के अँधेरों से बाहर निकालने की कोशिश की। वहाँ से लौटते वक्त उन बुजुर्गों के मुसकुराते चेहरों के साथ ढेर सारा स्नेह व आशीर्वाद भी वे अपने दामन में समेटकर ले आए थे।

     उस दिन की घटना ने विचलित कर दिया था रश्मि को। उसके स्टाफ के किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो गई थी । उनके बेटे अमेरिका में रहते थे, मुखाग्नि देने भी नहीं पहुँच पाए । अड़ोस - पड़ोस के लोगों और दूर के रिश्तेदारों ने अंतिम संस्कार किया । जीवन का अंतिम सत्य यही है, तो बच्चे के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है । बच्चे को जन्म देने और उसका पालन - पोषण करने में ही क्या जीवन की सार्थकता है? जिंदगी को इतनी छोटी परिधि में सीमित क्यों रखना? अपनी ममता को एक बच्चे  के पालन - पोषण तक ही सीमित न रखकर उसे वृहद् आकाश भी तो दे सकते हैं । बहुत  दिनों से दुविधा में फँसा मन आज निर्णय ले सका था । अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अपनी सेवा वह अनाथालय और वृद्धाश्रम को भी दे सकती है, अपनी सुविधानुसार । बिना किसी बंधन , बिना शर्त जीवन जीना चाहिए,  न  कि  किसी रिश्ते में बँधकर  इसे  मजबूरी में निभाना । उसने अपना विचार राजीव को  बताया तो वह भी बहुत खुश हुआ । उसने महसूस किया  उसकी बालकनी  के कैक्टस में ढेर सारे  फूल खिल आये  हैं । ■

सम्पर्कः HIG 1 /33 आदित्यनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़- 491001, फोन 9424132359

1 comment:

  1. Anonymous02 September

    अच्छा संदेश देती सुंदर कहानी।बधाई ।सुदर्शन रत्नाकर

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